पिछले साल के आखिरी दिन सुबह-सुबह फ़ोन पर बतियाते हुये साल का आखिरी धमाका टाइप करते हुये Alok Puranik ने उनको ’व्यंग्य श्री सम्मान’ से सम्मा...
पिछले साल के आखिरी दिन सुबह-सुबह फ़ोन पर बतियाते हुये साल का आखिरी धमाका टाइप करते हुये Alok Puranik ने उनको ’व्यंग्य श्री सम्मान’ से सम्मानित होने की सूचना दी। सुनकर हमें कोई ताज्जुब नहीं हुआ। इंसान की करनी का फ़ल उसको कभी न कभी तो भोगना ही पड़ता है। किसी को देर में मिलता है किसी को जल्दी। आलोक पुराणिक को जल्दी भुगतना पड़ा। आलोक पुराणिक के व्यंग्य लेखन पर फ़िदा होते हुये पंडित गोपाल प्रसाद व्यास जी की स्मृति में दिया जाने वाला व्यंग्य के क्षेत्र का सम्मानीय पुरस्कार ’व्यंग्य श्री सम्मान’ देने का निर्णय लिया गया। करमगति टारे नाहिं टरी।
खबर मिलते ही हमने फ़ोन रखकर सबसे पहले चाय मंगाई और पीते हुये खबर छाप दी देखिये लिंक [ https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210133472866782 ]
हमने यह भी लिखा था :
" आम तौर पर वरिष्ठ नागरिक की उम्र के आसपास पहुंचने पर दिये जाने वाले इस इनाम को आलोक पुराणिक ने पचास साल की 'बाली उमर' में ही झटक लिया। इतनी कम उमर में यह इनाम आज तक किसी को नहीं मिला।
आलोक पुराणिक द्वारा व्यंग्य के क्षेत्र में नित नये प्रयोग करने की भी इस इनाम के निर्धारण में भूमिका रही होगी। "
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पिछले वर्ष यह सम्मान Subhash Chander जी को मिला था। जब सुभाष जी ने इस इनाम को मिलने की सूचना दी थी तब हम जबलपुर जाने के लिये गोविन्दपुरी स्टेशन पर चित्रकूट एक्सप्रेस पर चढ रहे थे। एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में वीआईपी वाला झोला लटकाये हाल यह था कि जरा सा और चूकते तो हैंडल हाथ से उसी तरह छूट जाता जैसे हर साल तमाम लोगों के हाथ आते-आते व्यंग्यश्री रह जाता है। सुभाष जी की पिछले साल की व्यंग्यश्री की मिठाई अभी तक बकाया है। वो हम लेकर रहेंगे।
सम्मान की तारीख 13 फ़रवरी तय हुई थी। हमने ट्रेन में फ़ौरन रिजर्वेशन कराया और निकल लिये सुबह-सुबह 13 को। निकले ही दो हसीन हादसे हुये जिसमें एक का संबंध दिल्ली पहुंचने से था और दूसरे का वापस लौटने से। लेकिन उसका किस्सा फ़िर कभी तफ़सील से। अभी बात सम्मान समारोह की।
ट्रेन , फ़िर मेट्रो और फ़िर आटो रिक्शे से होते हुये हम ठीक पांच बजे हिन्दी भवन पहुंचे। पहुंचते ही एक तरफ़ से संतोष त्रिवेदी और दूसरी तरफ़ से अर्चना चतुर्वेदी दिखीं। साथ में Alok Saxena Satirist और सुनीता शानू। संतोष त्रिवेदी ने देखते ही हमारा बैग झपटने की कोशिश की। बोले - ’झोला हम उठायेंगे।’ लेकिन हमने उनकी कोशिश को सफ़ल नहीं होने दिया। संतोष ने लगभग छीनने की कोशिश की। सच्चा व्यंग्य लेखक जैसे अपने सरोकार नहीं छोड़ता वैसे ही अपना बैग छोड़ा नहीं। संतोष तो खैर अपने दोस्त हैं लेकिन हमारे जीवन का अनुभव है कि झोला उठवाने वाले का मुंह अंतत: खाली झोले जैसा ही लटक जाता है। इसीलिये अपन अपना झोला खुद ही उठाते रहे हैं हमेशा।
इस मामले में संतोष का रिकार्ड और भी शानदार है। जिसको उन्होंने उठाया है या जिसका भी झोला उठाया उससे बाद में बोलचाल के सम्बन्ध भी न रहे। हम उनके प्रेम से वंचित नहीं होना चाहते इसलिये हम अपना झोला अपनी इज्जत की तरह खुद थामे रहे।
ऊपर सभा स्थल के बाहर बरामदे में आलोक पुराणिक के प्रसंशकों का जमावड़ा दिखा। दिल्ली के लगभग सभी परिचित व्यंग्यकार साथी वहां मौजूद थे। जितने परिचित थे उससे कहीं ज्यादा अपरिचित लोग दिखे मुझे वहां। सभी के भाव से लगा आलोक उनके खास हैं। आलोक पुराणिक की लोकप्रियता का नमूना दिखा ।
ऊपर पहुंचते ही आलोक पुराणिक की बिटिया और श्रीमती जी दिखीं। वे इनाम में मिलने वाले चेक को सुरक्षित घर लेकर जाने के लिये आयीं थीं। आर्थिक विषयों पर व्यंग्य लिखने वाले की आर्थिक हरकतों पर घरवालों की इतनी पैनी नजर देखकर सुकून हुआ।
वहां चाय और एक पैकेट में कुछ नमकीन टाइप बंट रहा था। हमने चाय का कप कब्जे में किया और चाय पीते हुये इधर-उधर आलोक पुराणिक को ताकने लगे। पूछा - दूल्हा किधर है। पता लगा आ रहा है दूल्हा। जरा सजने गया है।
आलोक पुराणिक आये और आते ही सबसे मिलने लगे। उनको सबसे इतनी विनम्रता से मिलते देखकर लगा कि अगले को डर लगा है कोई भी एक नाराज हुआ तो गया इनाम हाथ से।
हमने चाय आधी ही पी थी कि याद आया कि हम कैमरा भी लाये हैं। हमने आधी चाय कुर्बान करते हुये थर्मोकोल का ग्लास फ़ेंका और कैमरा चकमाने लगे। फ़िर तो हम एकदम पक्के फ़ोटोग्राफ़र में बन गये। जैसे शादी व्याह में फ़ोटू खैंचने वाले दूल्हा-दुल्हन के तमाम जरूरी-गैरजरूरी फ़ोटो खैंचने के लिये जोड़े को इधर-उधर खैंचते रहते हैं वैसे हमने तमाम लोगों को इधर-उधर करते हुये फ़ोटोबाजी की।
फ़ोटो ग्राफ़ी के उस जुलूस में कई लोग हर फ़ोटो में अपने आप आकर खड़े होते गये। हमने भी मना नहीं किया काहे से कि हम पता था कि कैमरा वाले फ़ोटो में ’क्राप’ का विकल्प मौजूद है।
संतोष अपने आईपैड के साथ इधर-उधर फ़ोटो खैंचते जा रहे थे। जो भी आये उसके साथ सेल्फ़ी खींचते हुये या फ़िर बगल में खड़े होकर हमसे खिंचवाते हुये।
इस बीच हमने आलोक पुराणिक के घर वालों बिना मांगे वाली सलाह दे डाली कि मिलने वाले -111111/- रुपये में कुछ पैसे आलोक पुराणिक से लेकर रकम कम से कम 112000/- करके अपने कब्जे में कर लें। इसको सभी लोगों ने फ़ौरन स्वीकार कर लिया।
जैसे-जैसे समय होता गया लोग आते गये। हाल के बाहर की जगह भरती गयी। लोग चाय-नाश्ता करते हुये सम्मान समारोह शुरु होने का इंतजार करते रहे। आलोक पुराणिक लोगों से मिलकर उनके आने का शुक्रिया और इनाम मिलने में उनकी शुभकामनाओं का शुक्रिया अदा करते रहे। जो लोग आते रहे उनसे और लोगों को भी मिलवाते रहे। कुछ इस लिये कि लोग जान लें एक दूसरे को लेकिन बहुत कुछ यह दिखाने के लिये कि -- ’देख लो तुम्हीं एक अकेले नहीं हो। इत्ते बड़े-बड़े लोग आये हैं बधाई देने के लिये।’
पता चला सन्नी लियोनी, राखी सावंत और मल्लिकाजी का भी आने का था लेकिन वे सब सूटिंग में व्यस्त होने के चलते नहीं आ पाईं। उन्होंने यह भी कहा-’आलोक जी आप तो एक बार में ही लेख फ़ाइनल कर लेते हो लेकिन यहां ये डायरेक्टर लोग बार-बार रिटेक करवाते हैं। भले ही फ़ाइनल पहली वाली शूटिंग ही करें। बहुत बदमाश हैं सब। लेकिन क्या करें, करना पड़ता है। पेट के लिये सब करना पड़ता है।’
वहीं समान्तर कोश के रचायिता Arvind Kumar जी से भी मिलने का सुयोग हुआ। समान्तर कोश हिन्दी का पहला थिसारस है। थिसारस भी एक तरह का शब्दकोश होता है क्योंकि इसमें शब्दों का संकलन होता है। वास्तव में थिसारस या समांतर कोश और शब्दकोश एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत होते हैं। किसी शब्द का अर्थ जानने के लिये हम शब्दकोश का सहारा लेते हैं। लेकिन जब बात कहने के लिये हमें किसी शब्द की तलाश होती है, तो लाख शब्दों के समाए होने के बावजूद शब्दकोश हमें वह शब्द नहीं दे सकता, जब कि थिसारस यह काम बड़ी आसानी से कर सकता है।
हिन्दी में पहला थिसारस अरविन्द कुमार जी और उनकी पत्नी कुसुम कुमार जी ने मिलकर बनाया। इस काम के लिये माधुरी के सम्पादक की नौकरी छोड़ी। 20 साल काम किया। अपने साधनों से काम करने लेखकद्वय के पास न तो कम्प्यूटर खरीदने के पैसे थे, न उस पर काम के लिये पेशेवर प्रोग्रामरों से प्रोग्राम लिखवा पाने के। इनके बेटे सुमीत ने पेशे से शल्यचिकित्स्क होते हुये भी अपने माता-पिता के उद्देश्य के प्रति निष्ठा से प्रभावित होकर इस कार्य में सहयोग के लिये कम्प्यूट्रर प्रोग्रामिंग सीखी, कंप्यूट्रर खरीदवाया, काम की कार्यविधि ( प्रोग्राम) लिखी, उसे चलाने के लिये आर्थिक संसाधन जुटाये और अंत में डाटा को पाठ में परिवर्तित करने की पेचीदा प्रक्रिया का विशिष्ट समाधान भी निकाला। बिना कंप्यूटरीकरण के समांतर कोश का बनना शायद संभव नहीं हो पाता।
20 वर्षों के अनथक प्रयासों और समर्पण से अंतत: समांतर कोश का निर्माण संभव हुआ और स्वतंत्रता दिवस की स्वर्णजयंती के अवसर पर प्रकाशित हुआ।
समान्तर कोश के बारे में और जानने के लिये मेरा 11 साल पहले लिखा गया लेख बांचिये इस कड़ी पर पहुंचकर http://www.nirantar.org/1006-nidhi-samantar-kosh
समान्तर कोश के रचयिता से मिलने का यह पहला मौका था। उनसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। आलोक पुराणिक के लाख टके के इनाम मिलने के मौके पर मुझे भी लाख टके का सुख अरविन्द जी से मिलने का मिल गया। पता चला कि आलोक पुराणिक के घर के पास ही रहते हैं अरविन्द जी। 87 साल की उमर में उनकी चुस्ती-फ़ुर्ती और सक्रियता देखकर ताज्जुब होता है। फ़ेसबुक पर भी नित नयी जानकरी भरी पोस्ट लिखते रहते हैं। उनसे मिलने का भी तय हुआ।
वहीं कार्टूनिस्ट इरफ़ान (Cartoonist Irfan) से भी मिलना हुआ। इरफ़ान जी से पहली मुलाकात जबलपुर में हुई थी। दिल्ली मेले में मिले थे लेकिन दौड़ते-भागते। उनकी पत्रिका ’तीखी-मिर्च’ की सदस्यता लेने से रह गये थे दिल्ली में। यहां मिलते ही सबसे पहला काम हमने सदस्यता शुल्क देने का किया। पहले दो साल का और फ़िर ताव आ गया तो चार साल का सदस्यता शुल्क थमा दिया। लेकिन बाद में सोचा कि यार कहीं ये ’तीखी मिर्च’ पहले ही बन्द हो गयी तो गये काम से। व्यक्तिगत प्रयासों से निकलने वाली पत्रिकायें आर्थिक अभाव के चलते कब बन्द हों जाये पता नहीं लगता। जबलपुर में Rajesh Kumar Dubey ने कार्टून लीला निकाली थी। कुछ महीने निकली भी। फ़िर बन्द हो गयी। कारणों में एक कारण यह भी रहा शायद कि उसमें से कुछ के सम्पादकीय हमने भी लिखे थे। लेकिन फ़िर सोचा कि अब जो हुआ सो हुआ। मुझे इरफ़ान भाई की मेहनत और हुनर पर पूरा भरोसा है कि वे किताब निकालते रहेंगे( अब भरोसा रखने के अलावा और किया भी क्या जा सकता है)
जैसा हमको पता है कि तीखी मिर्च में कार्टून और व्यंग्य लेख निकलते हैं। अभी इन्तजार है। लेकिन पत्रिका तो तब आयेगी जब हम पता भेजेंगे इरफ़ान को। भेजते हैं आज ही।
मिलते-जुलते, लोगों के फ़ोटो लेते हुये हमारी निगाह आलोक पुराणिक पर भी बनी रही। जैसे ही हम किसी को आलोक जी से जरा सा भी ज्यादा मोहब्बत से मिलते देखते फ़ौरन घटनास्थल और मिलनस्थल पर पहुंचकर सीधा-टेढा करके फ़ोटो खैंचने लगते। इसी बहाने जो फ़ोटो जमा हुये कैमरे में वो यहां देखिये तब तक हम अगला किस्सा लिखते हैं:
इस बीच और लोग आते रहे। आलोक पुराणिक सबसे लपककर मिलते रहे। पता चला ज्ञान जी भी आ गये। आकर ज्ञान जी चाय के कंटेनर के पास खड़े होकर लोगों से बतियाने लगे। सब लोग उनके साथ फ़ोटो खिंचवाने के लिये और हो सके तो बतियाने के लिये लपके।
आलोक पुराणिक मिले ज्ञानजी से तो जुड़े हुये हाथ ज्ञानजी की तरफ़ करके कई बार हिलाये। जैसे बड़े-बड़े लोग हाथ मिलाते हुये काफ़ी देरतक हिलाते रहते हैं ताकि फ़ोटो ग्राफ़र लोग फ़ोटो खैंच लें। लेकिन हम इस बीच उधर से लपककर आते सुभाष चंदर जी को आते हुये और सीधे अन्दर हाल में गोली की तरह (बेहतर होगा लिखना -व्यंग्य में पंच की तरह) घुसते हुये देखने में व्यस्त हो गये। सुभाष जी घुसते हुये सर पर हाथ फ़ेरते जा रहे थे। शायद सर के बचे बालों को प्यार से सहलाते हुये कह रहे हों -अबे जरा आराम से रहना। फ़ोटो का मामला है।
अन्दर जिस मंशा से गये होंगे शायद वह पूरी न हो पायी इसलिये जितनी तेजी से गये थे अन्दर उससे दोगुनी तेजी से आलोक जी बाहर आये। चाय और नाश्ते के पैकेट पर कब्जा किया और हम लोगों के साथ जुड़ गये।
इस बीच हरीश नवल जी भी धीर-गम्भीर चाल से चलते हुये वहीं आ गये। सबके साथ फ़ोटो खिंचवाते हुये वे ज्ञानजी के गले मिले। हमें लगा कि कुछ देर में शायद प्रेमजी भी आयेंगे। लेकिन बाद में पता चला कि अपने एक मित्र के गम्भीर रूप से बीमार होने और अस्पताल में भर्ती होने के चलते वे आ न पाये।
हरीश नवल जी ने फ़ुल मोहब्बत से हमारे द्वारा लिये आलोक पुराणिक के इंटरव्यू की बड़ी सी तारीफ़ करते हुये हम लोगों से कहा - ’जो तारीफ़ की हमने टिप्पणी में वो आपस में बराबर-बराबर बांट लेना।’ :)
व्यंग्य जगत के सिद्ध लेखकों से बतियाते हुये फ़ोटोग्राफ़ी भी होती रही। हमने संतोष त्रिवेदी के कुछ फ़ोटो खैंचे तो उन्होंने मेरे से कैमरा खींचकर मेरे भी फ़ोटो खैंचकर बदला चुकाया। मेरे फ़ोटो अच्छे नहीं आये। इस तरह संतोष त्रिवेदी ने फ़ोटोग्राफ़ी के मामले में भी मेरे विश्वास की रक्षा की। एक तरह से उन्होंने साबित भी कर दिया कि फ़ोटोग्राफ़ी और लेखन में उनका समान अधिकार है।
इस बीच ज्ञान जी ने बातचीत करते हुये हमारे अट्टहास में छपे लेख की तारीफ़ की। मोबाइल पर आधारित उस लेख की तारीफ़ सुनकर बहुत अच्छा लगा। ज्ञानजी की तारीफ़ किया हुआ लेख समझ सकते हैं कितना अच्छा होगा। :)
उनकी तारीफ़ सुनकर मन किया कैमरा छोड़कर सबसे पहले यही स्टेटस लगायें फ़ेसबुक पर कि ज्ञानजी ने हमारे लेख की तारीफ़ करी है। लेकिन फ़िर लगा फ़ोटोग्राफ़ी रह जायेगी। आलोक पुराणिक बुरा मान जायेंगे। इसलिये दिल पर पत्थर रख लिया।
हमने ज्ञान जी से उनके नये उपन्यास ’पागलखाना’ के बारे में पूछा -’आपका उपन्यास पागलखाना कब तक आयेगा?’
इस पर ज्ञानजी ने,- ’( हिन्दी वर्णमाला के मासूम अक्षरों च, त, य और प के साथ समुचित मात्राओं के गठबंधन से बनने वाले शब्द को उच्चरित करते हुये जिसका शरीफ़ मतलब चकल्लस होता है) कहा अगर इसी तरह के चकल्लस में पड़े रहे तो कभी नहीं आयेगा।’
यह कहते हुये ज्ञानजी अपनी जीभ हल्के से दांत से दबा ली। हमारा मन हुआ कि कहें कि हम व्यंग्य यात्रा में अभी तक लिखते नहीं और आपके बारे में संस्मरण तो सुशील जी लिख रहे हैं। इसलिये आप समझिये हमने कुछ सुना नहीं। लेकिन हमें यह लगा कि कहीं बेचारे आयोजन के दूल्हा आलोक ने यह न सुना/देखा हो। बेचारे सदमें मे आ जाते। लेकिन आलोक पुराणिक को हम लोगों से एक फ़ुट की दूरी पर लोगों को मुस्कराते हुये नमस्ते करते देखकर आश्वस्त हो गये।
पता नहीं कहां से बात चली शायद संतोष त्रिवेदी ने छेड़ी या मैंने पर ज्ञानजी ने कहा- ’हम जल्दी ही एक लेख लिखेंगे जिसका शीर्षक होगा -देवता होने के खतरे।’
ज्ञानजी को हमारे कुछ साथी व्यंग्य का देवता मानते हैं और प्रचारित भी करते हैं। ज्ञानजी अक्सर ही चुप रहते हैं। अपने प्रति लोगों का प्रेमप्रदर्शन मानकर। लेकिन अपन इस अभियान के सख्त खिलाफ़ हैं क्योंकि जबसे हमने परसाईजी को पढा है तब से देवताओं के बारे में बड़ी खराब धारणा बन गयी है। बकौल परसाई जी - ’देवताओं का काम निठल्ले पड़े रहना और मौके-बेमौके पुष्पवर्षा करना है। जय-जयकार करना हैं।’ लेकिन अपने ज्ञानजी तो ऐसे कत्तई नहीं हैं। ज्ञानजी तो हमारे समय के सबसे कर्मठ और सर्वेश्रेष्ठ व्यंग्यकार हैं। आलोक पुराणिक तो 1990 के बाद के व्यंग्य को ’ज्ञान चतुर्वेदी युग’ बताते हैं। यह काम देवताओं का नहीं है। इसलिये हम हमेशा इस मुहिम के खिलाफ़ आवाज भी उठाते हैं क्योंकि हमें लगता ज्ञान जी देवता के रूप में पूजे जाने की वस्तु नहीं हैं। सबके प्यार और सम्मान के हकदार हैं।
देवताओं के हाल क्या होते हैं यह नंदन जी एक कविता के अंश में देखिये:
"दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
अगर कुबूल हो आदमी को
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!"
बहरहाल यह सब बस ऐसे ही लिखा। ज्ञान जी ने अपने वक्तव्य में कहा था -"अगर आप व्यंग्यकार हैं तो आप में सच बोलने की कुटेव तो होगी। आप ठकुर सुहाती नहीं कर सकते।"
तो हम भले ही व्यंग्यकार न माने जाते हों लेकिन कुछ सच बोलने की कुटेव तो अपन में है।
सुभाष जी ने भी इस बतकही के मजे लिये। बतियाते हुये कार्यक्रम का समय हो गया तो सभी हाल की तरफ़ गम्यमान हुये।
आगे के किस्से अगली पोस्ट में
संबंधित कड़ियां:
1. ज्ञान जी का वक्तव्य https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210583105987329
2. आलोक पुराणिक का इंटरव्यूhttps://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210543919247685
कार्यक्रम की शुरुआत हुई। गोविन्द व्यास जी ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। रोचक अंदाज में सबके बारे में जानकारी देते हुये फ़ूल-माला पहनवाये। पुष्पगुच्छ दिये। सबसे अंत में नीरज बधवार को गुलदस्ता देते हुये मंच के संचालन की जिम्मेदारी सौंप दी।
Neeraj Badhwar ने कार्यक्रम का शानदार संचालन किया। मजे भी लिये सबसे। सबसे अच्छा पुण्य का काम किया कि श्रीमती आलोक पुराणिक ( Aparna Puranik ) और श्रीमती ज्ञान चतुर्वेदी जी को मंच के पास बुलाकर पुष्पगुच्छ दिलाये ( मंच पर बुलाकर देते तो और अच्छा रहता)। इसके बाद नीरज ने आलोक पुराणिक की माता जी श्रीमती रजनी पुराणिक के सम्मान में श्रोताओं से तालियां बजवाईं। आलोक पुराणिक की माता जी आ नहीं पाईं थीं। आलोक जी के व्यक्तित्व निर्माण में उनका बहुत बड़ा योगदान है। अपना पहला व्यंग्य संकलन ’नेकी कर अखबार में डाल’ आलोक जी ने अपनी माताजी को ही समर्पित किया है।
नीरज बधवार ने बताया कि जब आलोक पुराणिक मात्र आठ वर्ष के थे तब उनके पिताजी विदा हो गये थे। मुझे आलोक पुराणिक के पिता जी के कम उमर में निधन की बात पता थी। इसके अलावा जानकारी नहीं थी। लिखत-पढत की दुनिया में वर्षों तक जुड़े रहने के बाद भी हम लोग एक-दूसरे के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कितना कम जानकारी रखते हैं।
आलोक पुराणिक के इस बारे में बात करते हुये पता चला कि उनके पिता श्री शंकर पुराणिक बहुत मस्त तबियत के इंसान थे। सेना में शार्ट सर्विस कमीशन वाली नौकरी से रिटायर होने के बाद सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया में नौकरी करते थे। वायलिन और बांसुरी बजाने का शौक था। (शायद सेना में नौकरी के चलते) सिगरेट पीने का शौक था। चेन स्मोकर थे। मात्र 36 साल की उमर में दिल के दौरे से आगरा में निधन हो गया।
पिता के निधन के बाद माता जी को उनकी जगह बैंक में नौकरी मिल गई। उन्होंने आलोक पुराणिक और उनकी दीदी को पाल-पोसकर बड़ा किया। मात्र आठ साल की उमर में पिता को खो देने वाले आलोक पुराणिक का शुरुआती जीवन कैसा संघर्षमय रहा होगा इसका अंदाज लगाया जा सकता है।
पिता के कम उमर में दिल के दौरे के निधन की याद आलोक जी के मन में इतनी गहरी है कि वे स्वास्थ्य के प्रति बेहद सजग हैं। पिछले साल अपना वजन 20-25 किलो कम किया। अब भी जब कभी बात होती है तो अक्सर पार्क में टहलते हुये पाये जाते हैं।
मुझे याद है जब करीब छह-सात साल पहले पहली मुलाकात हुई थी हमारी कानपुर में आलोक पुराणिक से। वे अपना शायद जागरण संस्थान में व्यंग्य पाठ करने आये थे। कार्यक्रम के बाद हम उनको उठाकर घर ले आये। घर आते हुये कुछ समस्या लगी तो हम लोग घर आने के पहले अपने अस्पताल पहुंचे। ईसीजी-फ़ीसीजी हुआ। हार्ट-टेस्टिंग-ओके के बाद घर आये। उस समय अम्मा थीं। बाद में जब भी बात हुई तो आलोक पुराणिक ने माताजी के बनाये लड्डू के स्वाद का जिक्र अवश्य किया।
आलोक पुराणिक के लेखन पर फ़िदा होने वाले साथियों को उनकी स्वास्थ्य के प्रति सजगता से भी सीख लेनी चाहिये।
आलोक पुराणिक को सम्मानित किये जाने के पहले उनकी तारीफ़ का इंतजाम भी किया गया था। वैसे तो काम भर की तारीफ़ नीरज बधवार ने कर ही दी थी। लेकिन फ़िर भी यह बताने के लिये आलोक पुराणिक वाकई इनाम के काबिल हैं किसी ऐसे व्यक्ति से तारीफ़ करवाने का सोचा गया जिससे कि आलोक पुराणिक को भी लगे कि वे वाकई इनाम के काबिल हैं। राजधानी में ऐसे काम के लिये सुभाष चन्दर से बेहतर और कौन हो सकता है? नहीं हो सकता न !
तो नीरज बधवार ने आलोक पुराणिक का परिचय कराने के लिये सुभाष जी को बुलाया।
सुभाष जी को बुलाने का कारण एक यह भी था कि नीरज को अच्छी तरह पता था कि पिछले साल सुभाष जी को जब व्यंग्य श्री सम्मान मिला था तो आलोक पुराणिक ने उनकी जमकर और जमाकर तारीफ़ की थी। आप भी देख लीजिये कि आलोक पुराणिक ने सुभाष चन्दर के बारे में गये साल क्या कहा था:
" प्रख्यात व्यंग्यकार और हिंदी व्यंग्य के एकमात्र व्यवस्थित इतिहासकार सुभाष चंदरजी 13 फरवरी, 2016 को व्यंग्य-श्री से सम्मानित होंगे। सुभाषजी को बधाई, शुभकामनाएं। व्यंग्य-श्री सम्मान प्रख्यात हास्य-व्यंग्य व्यक्तित्व स्वर्गीय गोपाल प्रसाद व्यासजी से जुड़ा सम्मान है, इसलिए सम्मानों, पुरस्कारों की भीड़ में इस सम्मान की अलग ही चमक है।
सुभाषजी के हमारे जैसे चाहकों के लिए यह बहुत ही खुशी का अवसर है। हिंदी व्यंग्य के एकमात्र व्यवस्थित इतिहासकार, व्यंग्य की बारीक समझ नयी पीढी तक सौहार्द्रपूर्वक पहुंचानेवाले सुभाषजी व्यंग्य के विलक्षण व्यक्तित्वों में से एक हैं। आदरणीय ज्ञान चतुर्वेदीजी ने अभी कुछ दिन पहले अपने एक वक्तव्य में एक बात कही थी कि लोग बूढ़े हो जाते हैं, बड़े नहीं होते।
व्यंग्य में भी बड़े लोगों की सख्त कमी है। सुभाषजी व्यंग्य में बहुत कम बचे बड़ों में से एक हैं, जिन्होने व्यंग्य की नयी पीढ़ी को बहुत सिखाया है। मैंने व्यक्तिगत तौर पर सुभाषजी से बहुत कुछ सीखा है। व्यंग्य की एक पूरी पीढ़ी ही सुभाषजी के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करती है। " बयान खुद देखना चाहें तो इधर पहुंचें। यहां आपको और शुभकामनाओं के फ़ुदने भी दिख जायेंगे: https://www.facebook.com/puranika/posts/10153431183973667
मजे की बात आलोक पुराणिक पिछले साल भी मंच पर मौजूद थे। अलबत्ता कुछ बढे वजन के साथ। उनको लगा होगा इस साल नहीं तो अगले साल नहीं तो अगले साल अपन को भी यह व्यंग्य श्री सम्मान मिलना ही है तो उसके लिये अपने को क्यों न तैयार कर लिया जाये। वजन के चलते मंच पर चढने में होने वाली परेशानी का अंदाज लगाया और बदन का वजन लेखन पर तबादलित करके स्लिम-ट्रिम हीरो टाइप हो गये।
हां तो बात हो रही थी सुभाष जी के वक्तव्य की। सुभाष जी ने माइक संभालते हुये सामने, दायें , बायें और मंच की तरफ़ देखा और आलोक पुराणिक के बारे में बोलने लगे। बोलना क्या शुरु किया एकदम आलोक पुराणिक के लिये धुंआधार तारीफ़ी गोलों की बौछार शुरु कर दी। किसी को संभलने का मौका तक नहीं दिया। ऐसा लगा जैसे मन में बने आलोक पुराणिक की प्रशंसा के बांध के सारे फ़्लड गेट एक साथ खोल दिये हों। तारीफ़ के गेट के साथ मन भी खोल दिया। खुले मन से भरपूर तारीफ़ की।
सुभाष चन्दर ने आलोक पुराणिक के बारे में बोलते हुये कहा : ”आज के समय का समय का व्यंग्य का सबसे लोकप्रिय नाम आलोक पुराणिक है। 150 साल के व्यंग्य के इतिहास में अगर 10 व्यंग्य स्तंभकारों के नाम लिए जाएँ तो आलोक पुराणिक को शामिल किये बिना कोई रह नहीं सकता।
आलोक पुराणिक की खासियत बताते हुये सुभाष जी बोले: “आलोक पुराणिक के सबसे लोकप्रिय व्यंग्यकार होने के तीन कारण हैं:
(1) व्यंग्य में उनका जनोन्मुखी तेवर
(2) भाषा को लेकर बेहद सजगता
(3) और लगातार नए प्रयोग
इन तीन बातों के लिए आलोक को मैं जानता हूँ। ये आलोक की विशेषतायें हैं। यही बातें उनको आज के समय का सबसे लोकप्रिय व्यंग्यकार बनाती हैं।
इसके बाद कल्लू मामा ने सोचा कि अब जब तारीफ़ हो ही रही है तो कायदे से हो जाये। उन्होंने तारीफ़ की पतंग और ऊंची उडाते हुये कहा-“ हममें से अधिकांश लोगों को आलोक पुराणिक की लेखन जलन है।
आलोक पुराणिक कई अखबारों लिखते हैं। आलोक लिखने के पहले खूब सारा पढते हैं। पढे हुये को गुनते हैं। तब लिखते हैं। आलोक में नए प्रयोगों को करने की भरपूर ललक है। आजकल फोटो व्यंग्य लेखन का काम शुरु किया है। नये-नये प्रयोग करना आलोक की खासियत हैं।“
सुभाष चन्दर को आमने-सामने बोलते हुये शायद पहली बार सुना। जिस अवगुंठित और उदार मन से उन्होंने आलोक पुराणिक की तारीफ़ की उसको सुनकर मन खुश हो गया। कोई अगर-मगर नहीं, कोई किन्तु-परन्तु नहीं। जब तारीफ़ हो रही है तो सिर्फ़ तारीफ़ होगी। मानो उन्होंने मन के साफ़ निर्देश दे रखा हो- “प्रसंशा के अलावा और कोई भाव सामने दिख गया तो बोलेंगे तो बाद में पहले खाल खैंच लेंगे वहीं मंच पर खड़े-खड़े।“ मन को जैसा निर्देश दिया था कल्लू मामा ने वैसे ही उदार भाव सप्लाई करता दिमाग को बोलने के लिये।
आलोक पुराणिक के व्यंग्य लेखन की खासियत का जिक्र करते हुये सुभाष जी ने कहा -“व्यंग्य में बाजार की घुसपैठ को सबसे पहले आलोक पुराणिक ने पहचाना। बाजारवाद का ऊंट सबसे बेहतर तरीके से जिस व्यक्ति ने सबसे पहले पकड़ा उसका नाम आलोक पुराणिक है। “
आलोक पुराणिक की भाषा के चुनाव की तारीफ़ करते हुये कहा- “आलोक ने वो भाषा चुनी जिसमें आलोक की विदत्ता हो तो लेकिन उसकी चकाचौंध न हो। आम आदमी की भाषा में लिखा। युवा उनके पाठको में युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है।“
आलोक पुराणिक के बारे में फ़िनिशिंग टिप्पणी करते हुये सुभाष चन्दर ने बोले: “बालमुंकद गुप्त, गोपालप्रसाद व्यास, शरद जोशी की तरह का व्यंग्य लेखन स्तम्भ कार हैं आलोक पुराणिक।“
हम सामने दर्शकों के बीच सर उठाये हुये और आलोक पुराणिक बेचारे विनम्रता से सर झुकाये हुये सुभाष चन्दर को बोलते हुये सुनते रहे। सुभाष जी का आलोक पुराणिक के बारे में बयान एक ईमानदार बयान लगा। लग रहा था दिल से कोई शुभचिंतक बोल रहा है। मन खुश हुआ शुरुआती तारीफ़ सुनकर। अगर रुकना होता तो सुभाष जी के इस वक्तव्य के लिये उनको चाय पिलाते। भले ही पैसे हमारे ही ठुकते।
सुभाष जी के वक्तव्य के बाद आलोक पुराणिक का सम्मान हुआ। तिलक, माला, शाल, वाग्देवी की प्रतिमा और लखटकिया चेक थमाया गया। इसके बाद हरीश नवल जी को आशीर्वाद देने के लिये बुलाया गया।
अगले वक्ता Harish Naval जी थे। हरीश जी के व्यंग्य हमने बहुत कम पढे हैं। खुदा झूठ न बुलवाये हमने उनका सबसे प्रसिद्ध लेख ’बागपत के खरबूजे’ तक अभी नहीं पढा है। हम इसे अपने अकेले की जाहिलियत मानते हुये अफ़सोस प्रकट कर सकते हैं लेकिन फ़लक बड़ा करने की नीयत से हिन्दी साहित्य की कमजोरी के मत्थे का मढने का निर्णय किया है। हिन्दी व्यंग्य के सबसे प्रसिद्ध लेखकों में से एक की सबसे पहली किताब का जिक्र नेट पर नहीं है। न ही उसकी सबसे प्रसिद्ध रचना मौजूद है नेट पर। बताइये आज का पाठक कैसे पहुंचेगे लेखक तक। भले ही उसको ’व्यंग्यश्री’ नहीं ज्ञानपीठ मिल जाये।
हिन्दी साहित्य में लेखक की लोकप्रियता और कद और कालान्तर में उसको मिलने वाले इनामों और प्रसिद्ध की मात्रा उसके उचित प्रकाशक होने की मात्रा के समानुपाती है। (शर्तें लागू)
यह लिखने के पहले हरीश जी की किताब ’माफ़िया जिन्दाबाद’ भी पलट ली यह सोचते हुये कि शायद उसमें यह लेख हो। लेकिन बच गये पढने से। लेख था नहीं उसमें। लेकिन अब जल्दी ही, संभव हुआ तो इसी महीने ही , कम से कम यह लेख जुगाड़कर तो बांच ही लेंगे।
हरीश जी का नाम तो मैंने सुन रखा था। यदा-कदा कुछ लेख भी पढे थे। लेकिन नये सिरे से हमने आलोक पुराणिक के मार्फ़त उनका नाम तब सुना और उनके बारे में जाना जब हरीश जी अपने कैंसर की बीमारी से स्वस्थ होकर वापस आये।
हरीश जी व्यंग्य के त्रिदेवों में से एक माने जाते हैं। ज्ञानजी , प्रेम जन्मेजय जी और हरीश जी को व्यंग्य के त्रिदेव के नाम से ख्यात-कुख्यात करके कई लोगों की टिप्पणियां चलती रहती हैं। हिन्दी साहित्य में शायद रचनाकारों के नाम की तिकड़ी बनाने की परम्परा चली आई है। ’पन्त, निराला, बच्चन’, ’रामविलाश शर्मा, अमृतलाल नागर, केदार नाथ अग्रवाल’, ’कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव , मोहन राकेश’, ’परसाई, शरदजोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी’ की तिकड़ी की तर्ज पर ही शायद लोगों ने ’ज्ञान,प्रेम,हरीश’ जी की तिकड़ी का अविष्कार किया। मजे की बात इस काल्पनिक तिकड़ी से नाराज रहने वाले लोग भी हरीश जी को सबसे शरीफ़ व्यक्ति और व्यंग्यकार भी मानते हैं।
मुझे लगता है कि हरीश जी इस मामले में संगदोष के हादसे के शिकार हुये। प्रेम जी के साथ अध्यापन करते हुये, उसी समय में लिखते हुये, उनके साथ एक ही कालोनी में रहते हुये उनको जबरियन इन त्रिदेवों में शामिल कर लिया गया। साहित्य सेवा के लिये इतनी जबरदस्ती तो चलती है।
अपने स्तर पर हरीश जी इस काल्पनिक गठबंधन को तोड़ने की हर संभव कोशिश करते रहते हैं। उन्होंने ’परसाई, जोशी, त्यागी ’ का जिक्र करते हुये उसमें श्रीलाल शुक्ल जी को शामिल कर दिया। ’ज्ञान, प्रेम , हरीश के जिक्र में सुरेशकांत आदि को जोड़ा ( कुछ व्यंग्य की/ कुछ व्यंग्यकारों की -हरीश नवल पेज 16-17)|
बहरहाल हिन्दी व्यंग्य के इन बुजुर्गों में से हरीश जी ही हैं जिनसे मैं जब मन आता है फ़ोन पर बात कर लेता हूं। वे भी सहजता से मुझसे बात कर लेते हैं। इसलिये मुझे वे अच्छे लगते हैं। प्यारे भी। जब-तब मेरी किसी भी पोस्ट पर आशीर्वाद भी देते रहते हैं। उनके इसी प्यार के चलते हम उनकी इस बात का भी बिल्कुल बुरा नहीं मान रहे हैं कि उन्होंने इधर के उभरे व्यंग्यकारों में मेरा उल्लेख नहीं किया। मुझे अच्छे से पता है कि जब भी मैं ऐसा कभी लिखूंगा तब ही वे मुझे बता देंगे-’ अरे अनूप भाई, तुम्हारा लेखन तो उन सबसे एकदम अलग तरह का है। तुम्हारे बारे में आदि-इत्यादि में क्या लिखना। अलग से लिखेंगे कभी।’ :)
हरीश जी के मन में आलोक पुराणिक के लिये बेहद स्नेह है। आलोक पुराणिक के कई मामलों में सीनियर हैं हरीश जी। पांच साल पहले 2012 में हरीश जी को भी व्यंग्य श्री सम्मान से सम्मानित किया गया। आज उनके संस्मरण पढते हुये पता चला कि हरीश जी पिता जी को खोने के मामले में भी सीनियर हैं। आलोक जी के पिताजी का जब निधन हुआ था तब वे 8 साल के थे। हरीश जी ने यह हादसा 5 साल की उमर में झेला जब उनके पिताजी 32 साल की उमर में नहीं रहे। समान दुख भी शायद दोनों के बीच स्नेह का एक कारक हो।
बहरहाल यह सब तो ऐसे ही। हरीश जी जब आलोक के बारे में बोलने के लिये खड़े हुये तो उन्होंने व्यंग्य के बारे में अपनी राय से बात शुरु की।
हरीश जी ने कहा: "व्यंग्य लिखना बहुत कठिन काम है। व्यंग्यकार का काम कठिन होता है। हास्य निर्मल होना चहिये। व्यंग्य को ठीक ढर्रे पर चलाने के लिए बहुत सामर्थ्य चाहिए होती है।"
आलोक पुराणिक के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुये हरीश जी ने कहा:
" आलोक पुराणिक आर्थिक विषयों पर समर्थ व्यंग्य लिखते थे। उनके अलग तरह के व्यंग्य जब हमने देखे तब चकित हुए। मिले तो तबसे साथ है। लेखन के लिए निरन्तरता बहुत आवश्यक है। आलोक व्यंग्य निरन्तर लिखते हैं।"
हास्य और व्यंग्य का अंतर रेखांकित करते हुये हरीश जी बोले: "हास्य और व्यंग्य में उतना ही अंतर है जितना लाभ और हानि में, जीवन और मृत्यु में होता है। जिन व्यंग्यकारों के लेखन में हास्य कम होता है वह बोझिल हो जाता है। जिस व्यंग्य में हास्य की अधिक होता है वह व्यंग्य कमजोर हो जाता है। आलोक पुराणिक तकनीकी विषयों पर लिखते हैं। आर्थिक विषयों पर गंगाधर गाडगिल लिखते थे। अब आलोक लिखते हैं। उनका कोई सानी नहीं है।"
रवीन्द्रनाथ त्यागी की यादों को साझा करते हुए हरीश जी ने रोचक किस्से सुनाये। एक बार त्यागी जी का भाषण हरीश जी ने अपने विद्यालय में आयोजित कराया। कालेज गोष्ठी में उन्होंने मुझे (हरीश नवल), प्रेम जन्मेजय, सुभाष चन्दर आलोक पुराणिक सबको कंडम कर दिया। इसका किस्सा सुनाते हुये हरीश जी ने बताया:
" हिन्दी व्यंग्य लेखन पर जब त्यागी जी वक्तव्य देते हुये जब वे हमारी पीढी , जो 1975 से प्रकाश में आई थी , पर बोलने लगे, मैं जो उनके साथ मंच पर बैठा था, पुलकित हो रहा था कि वे मेरे विद्यार्थियों और सहकर्मियों के समक्ष मेरे व्यंग्य-लेखन का प्रशस्ति पत्र पढेंगे, मेरे विगत के पच्चीस वर्षों के अनवरत अवदान की चर्चा करेंगे... परन्तु वे तो हमारी पीढी के विषय पर मात्र एक वाक्य बोलकर हमसे अगली पीढी में पहुंच गये, जहां उन्होंने आलोक (पुराणिक) और सुभाष (चन्दर) के नाम नहीं लिये। वाक्य था-’आपके हरीश नवल की पीढी में केवल ज्ञान चतुर्वेदी लिख रहा है और अच्छा लिख रहा है। इस पीढी में हां थोड़ा बहुत प्रेम जनमेजय और हरीश नवल ने भी लिखा है।
इस वक्तव्य के बाद में एक शोधकत्री को बातचीत में त्यागी ने व्यंग्य की सत्ता स्थापित करने में मेरा (हरीश नवल) , प्रेम जनमेजय, सुभाष चन्दर और आलोक पुराणिक का नाम लिया।
बाद में इसका कारण बताते हुये त्यागी जी ने बताया -’मैं तुमसे और प्रेम से नाराज हूं और ज्ञान से खुश क्योंकि वो निरंतर लिख रहा है। तुम लोग लिख सकते हो लेकिन लिख नहीं रहे इसलिये मैंने ऐसा कहा।"
हरीश जी ने त्यागी जी का जो संस्मरण सुनाया उससे मुझे बुजुर्ग व्यंग्यकारों के सार्वजनिक वक्तव्य में और व्यक्तिगत बातचीत में अन्तर का कारण पता चला। परम्परा चली आ रही है। उसका पालन हो रहा है। तारीफ़ की डबल एकाउंटिंग का मामला है।
हरीश जी ने एक जगह लिखा भी है -" व्यंग्यकार वहां होता है जहां पाखंड है, झूठ है , फ़रेब है।"
इसलिये तारीफ़ के बारे में हमको व्यंग्य बाबा आलोक पुराणिक की बात सही जान पडती है (https://www.facebook.com/shashikantsinghshashi/posts/1491667200852787 ): "शशिजी चर्चाओं (तारीफ़/बुराई) पर कभी मत जाइये, कभी भी नहीं। अपने काम को अपने हिसाब से बेहतरीन तरीके से अंजाम देते जाइये।"
हरीश जी ने सुभाष चन्दर जी से आह्वान किया कि सुभाष जी जब अगली बार लिखें तो आलोक पुराणिक पर अलग से लिखें। आलोक पुराणिक को आर्थिक लेखक के रूप में जाना जाता है।
अख़बारों में जो लिखा जा रहा है। वह सब साहित्य नहीं हैं। ऐसे ही जो पत्रिकाओं में लिखा जा रहा है वह सब भी साहित्य नहीं है।
हरीश नवल जी ने व्यंग्य श्री सम्मान के कर्ता-धर्ता गोविन्द व्यास जी के बारे में कहा -"गोविन्द व्यास जी गोपाल प्रसाद व्यास की यादों को अच्छे से संजो रहे हैं। "
हरीश जी के बाद बोलने का नम्बर आया आलोक पुराणिक का। आलोक पुराणिक ने गोपाल प्रसाद व्यास जी को याद करते हुए बात शुरू की। बताया कि उन्होंने तीस साल पहले गोपाल प्रसाद जी के स्तम्भ 'चकाचक' के साथ एक ही अख़बार में लिखा।
व्यंग्य के बारे में आलोक पुराणिक ने अपनी राय जाहिर करते हुये कहा: "आर्थिक स्थितियों को समझे बगैर आज व्यंग्य लिखना सम्भव नहीं है।"
आज इस मुल्क का हर सफल आदमी कुछ न कुछ बेंच रहा है।
बोरोप्लस ब्यूटी क्रीम मेरी सफलता का राज है कहकर अमिताभ बाजार की जयकार करते हैं।
आलोक जी ने व्यंग्य की परम्परा कबीरदास से शुरु होने की बात की: "कबीरदास शायद पहले व्यंग्यकार थे। वे कहते हैं - सब पैसे के भाई। कबीर जी की रचना में व्यंग्य भी है, अर्थशास्त्र भी है। एक दिन खाना न मिले घर में तो पत्नी इज्जत नहीं करेगी। व्यंग्य बाजार की शक्ल में हमेशा सामने है। "
आलोक पुराणिक की राय में: "आज व्यंग्य लेखन किसी माध्यम का मोहताज नहीं है। अगर आपके लेखन में कुछ दम है तो माध्यम का महत्व नहीँ रखता। अख़बार, पत्रिका, फेसबुक, ट्विटर और माध्यमों में लोग अपना हुनर दिखा रहे हैं।"
बकौल आलोक पुराणिक :"कौन छोटा, कौन बड़ा लेखक इस पचड़े में फ़ंसे बिना अपना काम करते रहते चाहिये। पाठक और समय सबसे बड़ी कसौटी हैं किसी रचनात्मक काम की। मिर्जा ग़ालिब अपने समय में सबसे बढ़िया शायर नहीँ थे। लेकिन आज उनके समय के किसी और शायर को लोग नहीं जानते। काम का महत्व होता है। काम को गम्भीरता से लीजिये। खुद को गंभीरता से मत लीजिये।"
ज्ञान जी का उदाहरण देते हुये आलोक पुराणिक ने कहा: "ज्ञान जी ने कभी व्यंग्य का ज्ञान नहीं बांटा। उन्होंने लिखकर बताया कि अच्छा व्यंग्य क्या होता है। 1991 के बाद के समय के व्यंग्य लेखन का युग इसीलिये मैं ज्ञान युग के रूप में मानता हूँ। उन्होंने काम के बल पर अपनी स्वीकार्यता बताई।"
आखिर में खचाखच भरे सभागार में बैठे श्रोताओं के माध्यम से अपने अनगिनत पाठकों को धमकियाते हुये कहा:"पुरस्कार मिलने के बाद मैं व्यंग्य लिखना कम नहीँ करूँगा।"
आलोक पुराणिक ने 'यक्ष , युधिष्ठर संवाद' और 'आतंकवाद का मोबाईल हल' और 'पापा रिस्टार्ट क्यों न हुए' व्यंग पाठ किया।
आलोक पुराणिक के बाद समारोह के मुख्य अतिथि , शीर्ष व्यंग्यकार Gyan Chaturvedi जी ने आलोक पुराणिक के सम्मान समारोह के मौके पर अपनी बात कही। उनकी पूरी वार्ता आप इस लिंक पर पहुंचकर बांच सकते हैं।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210583105987329
ज्ञानजी की कुछ बातों पर अपनी राय मैं अलग से रखूंगा। फ़िलहाल ज्ञानजी के अलगे वक्ता अशोक चक्रधर जी की बातें।
अशोक जी ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुये आलोक पुराणिक के बारे में स्नेहिल बुजुर्ग की तरह जमकर स्नेह , आशीष और मंगलकामनाओं की बौछार सी कर दी। आलोक पुराणिक की अनगिनत खूबियां गिनवा डालीं। चक्रधर जी अद्भुत वक्ता हैं। गद्य, पद्य, आशु कविता, व्यंग्य, वक्रोक्ति, तुकबंदी मतलब भाषण के हर फ़न में माहिर। उनको सुनते हुये समय भी अपनी घड़ी बन्द करके कहीं बैठ जाता होगा कि इनके बोलने में खलल न डालो।
आलोक पुराणिक के बारे में बताया कि ये मेहनती बहुत हैं। जैसे ही कोई विचार आता है नोट कर लेते हैं। एक बार बताया आलोक ने कि अशोक जी जो नये-नये शबद प्रयोग करते रहते हैं वो उन्होंने नोट किये है रजिस्टर में। कुछ दिन में 150 नये शब्द जो अशोक चक्रधर ने इजाद किये थे उनको लिखकर दे दिय। ऐसी मेहनत और लगनशील युक्त प्रतिभा हैं आलोक पुराणिक।
आलोक पुराणिक के आर्थिक विषयों पर व्यंग्य लेख लिखने की चर्चा करते हुये अशोक चक्रधर जी ने कहा-’ राजनीति में मंडलीकरण की आंधी चली, फ़िर 1990 में कमंडलीकरण हुआ। इसके बाद जो हुआ आलोक उसको भूमंडलीकरण कर रहे हैं।’
और भी अनेक किस्से अशोक जी ने आलोक पुराणिक के बारे में सुनाये। पूरे पचास मिनट बोले। जरा सा भी बोझिलता नहीं हुई लेकिन बार-बार घड़ी की तरफ़ देखते रहे कि ट्रेन का समय हुआ जा रहा था।
अशोक चक्रधर जी का भाषण समाप्त होते ही सभा बर्खास्त हो गयी।
[अगर आप व्यंग्यकार हैं तो आप में सच बोलने की कुटेव तो होगी। आप ठकुर सुहाती नहीं कर सकते। आप चेहरा देखकर बातें नहीं कर सकते।- ज्ञान चतुर्वेदी]
ज्ञान जी का वक्तव्य आयोजन की उल्लेखनीय उपलब्धि रही। अच्छा यह हुआ कि संतोष त्रिवेदी ने इसको रिकार्ड कर लिया। इससे बाद में सुनकर उसका आनन्द उठा सके। संतोष और मैं वहां कार्यक्रम में अगल-बगल ही बैठे हुये थे। ज्ञानजी के वक्तव्य के बीच-बीच में प्राम्पटिंग टाइप भी करते जा रहे थे। वो भी टेप में आ गई हैं। एक बार तो प्राम्पटिंग इतनी धीमी आवाज में की वो मंच पर बोलते हुये ज्ञानजी के कान तक पहुंच गयी और ज्ञान जी ने उसको भी अपने वक्तव्य में प्रयोग करके यह बताया कि अपने आसपास घट रही घटनाओं का उपयोग लेखन में कैसे किया जा सकता है।
[ज्ञानजी का पूरा वक्तव्य यहां पढिये https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210583105987329 ]
ज्ञान जी का वक्तव्य अपने में एक मुकम्मल व्यंग्य लेख सा ही था। हास्य से शुरु होकर करूणा तक पहुंचते हुये बाजार के हल्ले पर खतम हुआ। मजे लेते हुये उन्होंने शुरु में ही बता दिया कि आलोक पुराणिक को व्यंग्य श्री सम्मान दिलाने के प्रस्तावक और एक निर्णायक वे भी थे। पता नहीं सम्मान की गोपनीयता के कुछ नियम भी होते हैं कि नहीं लेकिन जो बात सभी को पता है वह खुले मंच से बताकर बाकी के निर्णायकों का फ़ोन का खर्चा बढा दिया। अब वे सबको फ़ोन करके सबको बता रहा हैं कि निर्णायक तो हम भी थे लेकिन हमने किसी को नहीं बताया।
बात में इनाम प्रक्रिया का और खुलासा करते हुये ज्ञान जी ने जानकारी दी - "मेरी नजर में पैर छूने के बहुत सारे और क्राइटेरिया हैं। जिनमें आप जिसका सम्मान करते हैं वह भी और जुगाड़ में पैर तो छुये ही जाते हैं।" यह खुलासा होते लोग पूछने लगे -’ ज्ञान जी दिल्ली में कब तक हैं। भोपाल की गाड़ी में रिजर्वेशन पता करो यार।’
ज्ञानजी ने अपने एक निर्णायक होने की बात कहकर अपने लिये और दूसरे निर्णायकों के लिये भी समस्या का जुगाड़ कर लिया। पता चला कि जिस किसी को इनाम नहीं मिला वो फ़ौरन ज्ञान जी को फ़ोन करके पूछेगा -’ भाईसाहब, आप हमें बस ये बता दीजिये कि किसने-किसने विरोध किया था? बाकी हम निपट लेंगे बस आप अपना आशीर्वाद बनाये रखियेगा।’
वैसे ज्ञानजी ने तमाम इनामों की कमेटी में रहे होंगे। और भी उनके साथ के लोग रहते हैं। वैसे भी लेखक जब बड़ा हो जाता है और उसका लिखना पढ़ना कम हो जाता है उसे इनाम तय करने का काम थमा दिया जाता है। बड़े लोग अपनी-अपनी पसन्द के लोगों को इनाम देने की संस्तुति देते हैं। कभी-कभी इनाम मिल जाता है और कभी नहीं भी मिलता है। इस चक्कर में कभी-कभी इनाम के प्रस्तावक/निर्णायक की भद्द भी पिट जाती है। ज्ञानजी हाल ही में इस तरह के हादसे का शिकार भी हुये हैं। किसी को इनाम दिलाने की कोशिश में किसी दूसरे के लिये भी इनाम की हामी भर लिये। लेकिन हुआ अंतत: यह कि जिसको चाहते थे उसको मिला नहीं और जिसको नहीं चाहते थे उसको मिल गया। डबल अफ़सोस का शिकार हुये।
इस बारे में हरीश नवल जी ज्यादा अनुभवी इनाम के प्रस्तावक और निर्णायक हैं। पिछली बार दिल्ली में उन्होंने बताया - ’इनाम तो जो देने वाला होता है वही तय करता है। प्रस्तावक और निर्णायक तो बहाना होता है।’
बहरहाल ज्ञान जी ने आलोक पुराणिक की भरपूर तारीफ़ की। उनको नयी भाषा गढ़ने वाला, नये प्रयोग करने वाला, व्यंग्य के सौंदर्य की समझ रखने वाला बताया। यह भी कि आलोक उन चंद लोगों में हैं जिनको पढकर उनका दिल जुड़ा जाता है ( जी जुड़ा जाना कहते तो अनुप्रास की छटा भी दिखती )। कुल मिलाकर ज्ञान जी ने आलोक पुराणिक की इतनी तारीफ़ की उनका गला सूख गया।
जब ज्ञान जी ने तारीफ़ करते हुये गला सूखने की बात कही तो मुझे उनके ’तारीफ़ कंजूस’ होने का एक कारण यह भी समझ में आया कि लोग उनके लिये पोडियम पर पानी का इंतजाम नहीं रखते।
आलोक पुराणिक अपनी तारीफ़ में फ़ूलकर अपने साल भर पहले के आयतन में पहुंचने ही वाले थे कि ज्ञान जी ने उनको बड़े लेखक बनने का रास्ते का झलक दिखा दी। न सिर्फ़ दिखा थी बल्कि सजा टाइप सुना दी कि अब तुमको बड़ा लेखक बनना ही है (गनीमत रही कि यह नहीं कहा कि अगर बड़े लेखक बनने के रास्ते पर नहीं बढे आगे तो इनाम के पैसे ब्याज सहित वापस धरा लिये जायेंगे)।
ज्ञान जी ने बड़े लेखक बनने का रास्ता जो बताया उसमें तेज हवाओं, ऊंची चढाई, अकेलेपन, तम्बू का ऐसा हौलनाक सिलसिला दिखा कि मानों सियाचिन का वीडियो चल रहा हो। कमजोर दिल का लेखक होता तो कलम-फ़लम फ़ेंककर कहने लगता - ’हमको नईं बनना बड़ा लेखक। हमसे इतना चढना-उतरना न हो पायेगा।’
यह भी लगा कि बड़ा लेखक बनने का आसान तरीका पर्वतारोहण की ट्रेनिग कर लेना होगा। शायद इसीलिये बड़े लेखक को जो करना होता है वह जवानी में कर लेता है। बढती उमर के चलते बाद में पर्वतारोहण मुश्किल लगता है।
ज्ञानजी ने हिन्दी व्यंग्य की स्थिति पर चिन्तित होने का काम भी किया लेकिन इस बार अलग तरीके से किया। इस बात यह कहकर चिंतित हुये कि अब हिन्दी व्यंग्य पर चिन्ता नहीं करूंगा। अनूप शुक्ल की बात का उल्लेख करते हुये कहा - "मेरे मित्र शुक्ल जी यहां बैठे हैं उन्होंने कहा था कि आप बयानों की कदमताल क्यों करते हो। तो यह बयानों की कदमताल भी मान पर यह महत्वपूर्ण है। कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं। कुछ चिन्तायें जैसे बेटे के बारे में है, घर के बारे में है, आपकी चिन्तायें बार-बार आती हैं। उनको आप कहें कि चिन्ताओं को बार-बार रिपीट करके कुछ कदमताल कर रहे हैं तो यह गलत है।"
ज्ञान जी के वक्तव्य में ’एक ही जगह पर कदमताल’, लिखने की मुमुक्षा’, नये लेखकों में छपास, सोशल मीडिया में लाइक/टिप्पणी से संतुष्ट हो जाने’ जैसे वाक्यांश नहीं आते तो लगता है कि ज्ञान जी नहीं कोई और बोल रहा है। हमको अपने वहां रहने का थोड़ा अफ़सोस हुआ और उससे ज्यादा अपनी उस टिप्पणी का अफ़सोस जिसको ध्यान में आते ही ज्ञान जी सहज होकर कायदे से हिन्दी व्यंग्य पर चिन्तित न हो सके।
इस बारे में मुझे परसाई जी का माखनलाल चतुर्वेदी जी पर लिखा संस्मरण याद आया।
"मैंने ‘वसुधा’ में उनके कुछ शब्दों व मुहावरों के ‘रिफ़्लेक्स’ की तरह आ जाने पर टिप्पणी लिखने की गुस्ताखी की। लिखा था कि अगर माखनलाल चतुर्वेदी का गद्य है तो दो पैराग्राफ़ में पीढ़ियां, ईमान, बलिपंथी, मनुहार, तरूणाई, लुनाई आ जाना चाहिए, वरना वह चतुर्वेदी जी का लिखा हुआ नहीं है। मुझे उनके भांजे श्रीकांत जोशी ने बाद में लिखा कि दादा ने बुरा नहीं माना। मुझसे कहा कि यह परसाई ठीक कहता है। तुम इक कार्डबोर्ड पर इन्हें लिखकर यहां टांग दो, ताकि मैं इस पुन: पुन: की आव्रत्ति से बच सकूं।"
बाद में एक और संस्मरण में मैंने पढा थ कि माखनलाल चतुर्वेदी जी का वसुधा में लेख छपने के लिये आया तो उसमें पीढ़ियां, ईमान, बलिपंथी, मनुहार, तरूणाई, लुनाई नहीं थे। परसाई जी ने इस शब्दों को लेख में शामिल कर लिया। माखनलाल जी ने पूछा तो परसाई जी ने कहा -’अगर वे शब्द शामिल न होते लेख में तो लगता है किसी और ने लिखा है लेख।’
कहने का मतलब यह कि अगर ज्ञानजी के वक्तव्य में हिन्दी व्यंग्य पर चिंता नहीं होगी तो यह मानना थोड़ा मुश्किल होगा कि वक्तव्य उनका ही है। वैसे भी ज्ञानजी जब आज के व्यंग्य लेखन (खासकर नये लेखकों की) की बात करते हैं तो वे संयुंक्त परिवार के उस पिता की तरह लगते हैं जो अपने बच्चों को प्यार तो बहुत करता है लेकिन सार्वजनिक इजहार करने के चलन के मुताबिक बच्चों को नालायक ही बताता है। उस कड़क मास्टर की तरह है यह अन्दाज जो अपने जहीन शिष्यों को दस में चार नंबर देता है पर बाद में अकेले में बताता है तुम्हारे छह नंबर हमने सफ़ाई के काट लिये बाकी जबाब तुमने उम्दा दिया था।
हरेक का प्यार करने का अंदाज अलग-अलग होता है। :)
ज्ञान जी जब अपने लेखन की बात करते हुये कहते हैं " ज्ञान चतुर्वेदी के लिये बहुत सारे लोग सुपारी ले सकते हैं " तो मुझे लगता है यह जबरियन गढा गया ’हाइप’ है। ज्ञानजी अब अपने ’हम न मरब’ की कुछ आलोचनाओं से दुखी होकर कहते हैं - ’इस आलोचना से मुझे लगा कि मेरी पीठ पर किसी ने छुरा भोंक दिया ।’ तो मुझे अच्छा नहीं लगा। ऐसा लगा कि उन्होंने खुद अपनी एकांगी आलोचना को सही मान लिया। आज कम से कम व्यंग्य लेखन में उनके आसपास कोई नहीं है। उनके उपन्यासों के जो मानवीय पहलू हैं, जो करूणा है (खासकर स्त्री पात्रों में) वह कहीं भी अन्यत्र दिखती नहीं। ’हम न मरब’ में जब अम्मा के बारे में लिखते हैं ज्ञान जी:
" रोबे की कोई बात नहीं बिन्नू। हमाई बात को समझो।हम एकदम सही बात कह रहे हैं।हमें इस पौर से बाहर निकालो। तब तो हम मर पायेंगे। इतें ही पड़े रहे तब तो हम कभी न मर पायेंगे।’ अम्मा ने कहा।
सावित्रा सिसकती रहीं।
’इतें से निकालो।.. अभी के अभी निकालो हमें। बिन्नू..., हमें इसे से निकालो।’ अम्मा उत्तेजित हो चलीं।
सावित्री क्या जबाब दें?
’बिन्नू, तुम हमें बब्बा वाले कमरा में धरवा दो।.. अब हम बब्बा के कमरे में ही रहेंगे।...अब तो बब्बा का कमरा खाली हो गया न? .... हमें वोई कमरा दिला दो।...उते भौत उजाला है। घर के ऐन सामने पड़ता है।....जमदूत घर में घुसेंगे तो हम उन्हें एकदम सामने ही दिख जायेंगे।...तुम तो हमें बब्बा वाला कमरा दिला दो बिन्नू, नहीं तो हम कभी भी न मर पायेंगे।...’ अम्मा की उत्तेजना बढ रही थी।
सावित्री फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगीं।
’इत्ते अंधेरे में छुपा के न धरो हमें।....तुम्हारे हाथ जोड़ते हैं बिन्नू।...’ अम्मा बोलीं। उनकी श्वास तेज-तेज चल रही है। बेचैन होकर वे खटिया के हाथ-पांव पटकने लगीं।"
मानवीय करुणा का यह दुर्लभ आख्यान है।
लिखते-लिखते मन भारी हो गया। बीच में आंसू भी आये थे। हमने उनको वापस फ़ुटा दिया कहते हुये कि बाद में आना।
कहना हम यही चाहते हैं कि ज्ञानजी हम पूरी मोहब्बत से आपके लिखे को पढते हैं। उतनी ही उत्सुकता से आपके उपन्यास का इंतजार कर रहे हैं। अब आप सारे चकल्लस छोड़ छाड़कर इसई काम में जुट जाइये। बकिया सारा बवाल हम झेल लेंगे बस आप अपने को देवता बनाने वालों से बचने का इंतजाम खुद देख लीजिये। वो आप देख लेंगे इसका हमें पक्का भरोसा है। :)
अब बहुत हुआ। चयास लग आई। इसलिये बात यहीं खतम करते हैं पूरी मोहब्बत, आदर और सम्मान के भावों की निरन्तर कदमताल करते हुये। :)
(अनूप शुक्ल के फ़ेसबुक पेज से साभार)
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