प्राची - जनवरी 2017 : समीक्षा / प्रेम की घनीभूत अनुभूतियाँ हैं नौ मुलाकातें / राजेन्द्र कुमार

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समीक्षा प्रेम की घनीभूत अनुभूतियाँ हैं नौ मुलाकातें राजेन्द्र कुमार क थाकार बृज मोहन यूँ तो कई वर्षों से लिख रहे हैं. उनकी कहानियाँ पत्र...

समीक्षा

प्रेम की घनीभूत अनुभूतियाँ हैं नौ मुलाकातें

राजेन्द्र कुमार

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थाकार बृज मोहन यूँ तो कई वर्षों से लिख रहे हैं. उनकी कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में यदाकदा दिखाई देती थीं, पर अन्तराल इतना लम्बा कि पाठक और सम्पादक उनका नाम ही भूल जायँ. लेकिन इधर पिछले 2-3 सालों में उनकी कहानियाँ कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में एकाएक दिखाई दीं तो आश्चर्य होता है. हाल ही में उनका पहला उपन्यास ‘नौ मुलाकातें’ आया तो और भी आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसका विषय प्रेम है. वह भी 65 वर्ष की उम्र में, जबकि उनकी कहानियों का विषय प्रायः प्रेम नहीं रहा है. उपन्यास में सात्विक प्रेम है. सात्विक इसलिए कि उपन्यास में नायक के मन में दैहिक आकर्षण है, उत्ताल काम भावनाएँ हैं, किन्तु चुम्बन, आलिंगन तो दूर की बात, नायिका को वह अपनी ओर से छू भी नहीं पाता. यही स्थितियाँ, नायक में छटपटाहट भरती हैं, जो उसे प्रगति करने को प्रेरित करती हैं. रचनाकार के भीतर शायद कोई दबी हुई प्रेमानुभूति थी, जो कहानियों में नहीं आ पायी और उपन्यास में उँडेल दी गई है.

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उपन्यास की कथावस्तु नायक-नायिका की अलग-अलग जगहों पर लगभग चालीस वर्षों की अवधि में हुई कुल नौ मुलाकातों के इर्द-गिर्द है, जो उनकी किशोर अवस्था से शुरू होकर उम्र के उत्तरार्द्ध तक अनायास व सायास होती हैं. उनमें नादान प्रेम पनपता है, जो परिस्थितिजन्य सम-विषम घटनाओं, बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच अस्पष्ट और अव्यक्त सा रह जाता है. लेकिन वक्त किसी के लिए रुकता नहीं है. कुछ ऐसा घटता है कि दोनों को मन मारने के लिये बाध्य होना पड़ता है. प्रेम किसी का मरता नहीं है, क्योंकि उनका प्रेम पहला होता है, जो आन्तरिक और निश्छल होता है. अतः इसे एक असफल प्रेमकथा के रूप में देखा जा सकता है.

वरिष्ठ फिल्म आलोचक जय प्रकाष चौकसे लिखते भी हैं- ‘भावना का संसार पृथ्वी से भी बड़ा होता है. प्रेम और भावना से बड़ा दुनिया में कुछ भी नहीं. प्रेम कभी मरता नहीं. हालात चाहे कैसे भी हों, वक्त का कितना भी बड़ा दरिया चाहे बीच से गुजर चुका हो. प्रेम दोनों तरफ रहता है, पर अपने किनारे नहीं तोड़ता.’

ऐसे ही उफनते प्रेम और भावनाओं का लिखित दस्तावेज उपन्यास ‘नौ मुलाकातें’ है. इसके कथानक में भावनाओं का ज्वार ऐसा आता है कि लगता है यही उपन्यास का चर्मोत्कर्ष है, लेकिन ज्वारभाटे की तरह चर्मोत्कर्ष और भी होते हैं, जिसका अनुमान साधारणतः नहीं ही होता और वे आते रहते हैं.

उपन्यास की पृष्ठभूमि में छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश है. उपन्यास का अधिकांश भाग पूर्वदीप्ति में है, जिसकी शुरुआत का कालखण्ड, पिछली सदी के 80 के दशक का मालूम पड़ता है. जब फोन सबको उपलब्ध नहीं होते थे, मेल-मुलाकातों में दूरियाँ बाधक होती थीं. संवाद के माध्यम पत्र हुआ करते थे, पर उपन्यास के नायक-नायिका के बीच पत्र-संवाद भी मुश्किल. नायक जहाँ कस्बाई कुण्ठा व हीनभावनाओं के द्वन्द्वों से ग्रस्त होता है. वहीं नायिका महानगरीय सभ्यता, संस्कृति में पली सुविधा-सम्पन्न और उन्मुक्त है, किन्तु पारिवारिक बेड़ियों से मुक्त नहीं है. उनके बीच की आर्थिक खाई का सवाल ही मुखर नहीं हो पाता. परिणति में जाति-पाँति भी बाधक नहीं, बल्कि रिश्तेदारी को लेकर ही नायक की माँ ही घोर विरोधी है. रिश्ता भी ऐसा नहीं कि उनकी शादी न हो सके, पर माँ है कि समय की धूल पड़े जर्जर हो चुके उन रिश्तों को जोड़े अडिग होकर खड़ी रहती है, जिनसे कभी माँ का उपकृत थी. बचपन व भावुकतापूर्ण जुड़ाव, जिन्हें वह भूल नहीं सकती और नायिका को बहू बनना कतई स्वीकार्य नहीं. अपने परिवार को इस योग्य ही नहीं समझती. नायक का माँ से टकराव है और उनकी मान्यताओं को खण्डित करना चाहता है, पर ऐसा कुछ अकस्मात् घटता है कि वह शान्त हो जाता है. नायिका को उसकी अरुचि का पता नहीं, वह कठिन उतार-चढ़ाव झेलकर, अदम्य साहस से एक दिन अपने परिवार के सारे दवाब दरकिनार कर अपनी जीवन-मृत्यु का हवाला देकर प्रेम प्रकट करती है और प्रेमपरीक्षा के लिए किसी भी कसौटी पर चढ़ने को तैयार होती है तो नायक के पैरों तले की जमीन खिसकने लगती है. नायक किसी तरह उस विसंगति से उबरता है तो लहुलुहान नायिका फिर अचानक उसे ऐसे मोड़ पर मिलती है, जब वह दूसरी लड़की से उसी के शहर में शादी कर रहा होता है. भयभीत नायक की खुशियों में वह ग्रहण नहीं लगाती, बल्कि खून का घूँट पीकर उसकी खुशियों में खुलकर शामिल होती है. आत्मग्लानि में डूबा नायक जिन्दगी भर उसके करीब जाने से कतराता रहता है और कोशिश करने पर भी उसे भूल नहीं पाता.

सबसे खास बात है, उनकी आठ मुलाकातें एकान्त में नहीं होतीं. नौवीं मुलाकात लम्बे अन्तराल पर हो रही है, जब वे बहुत बदल चुके होते हैं. उनकी सन्तानें जवान हो चुकी होती हैं. नायक केन्द्रीय विद्यालय का प्रधानाचार्य हो चुका होता है और नायिका सम्भ्रान्त परिवार की माननीया होती है. मुलाकात चूँकि नायिका द्वारा प्रायोजित है, इसलिए नायक शंकित है कि अब क्या होगा! सिर्फ इस मुलाकात में ही दोनों को मनचाहा एकान्त मिलता है और उनके मन के अन्धेरे-उजाले पक्ष उजागर होते हैं. अजीब सी कसक दोनों को होती है. करीब होने से नायक उसे छूने का मोह करता है, किन्तु एक अदृश्य, मगर पुख्ता मर्यादित रेखा का आभास बीच में पाकर उसे रुकना पड़ता है. नायिका अपनी कसक व्यक्त करते हुये एक हो जाने का ऐसा प्रतिरूपक प्रस्ताव रखती है, जो कि नायक और उसकी पत्नी को स्वीकार करने में एतराज नहीं हो सकता था. अन्त को लेकर कहा जा सकता है कि उपन्यास को सुखान्त बनाने के लिए चल-प्रचलित फार्मूले का सहारा लिया गया, मगर यह जरूरी नहीं कि हर असफल प्रेमकहानी का अन्त दुखद ही हो.

उपन्यास का नायक स्वयं नैरेटर होने से उसकी उपस्थिति हर जगह अनिवार्य है. नायिका परोक्ष में है, उसकी भाव-भंगिमा व देहभाषा ही सम्प्रेषण का माध्यम होती है. लेकिन फिर भी उसका दिव्य चरित्र खड़ा होता है. उपन्यास को नायिका प्रधान मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए. पात्र कम हैं, उनकी भूमिका भी कम है, लेकिन स्पष्ट और महत्वपूर्ण हैं. पात्र ऐसे ट्विस्ट पैदा करते हैं कि कथ्य में हास-परिहास, मिलन, विछोह, आसक्ति-विरक्ति बने रहते हैं और उत्सुकता जगाये रखते हैं. खास याद रह जाने वाले पात्रों में माँगीलाल, जो काया से किसी विदूषक से कम नहीं, लेकिन जबर्दस्त खलल पैदा करता है. वहीं रेवती कान्तिहीन युवती है, जो धाकड़ तो है ही और एक अच्छी सलाहकार भी है. नायक-नायिका की भावनाओं के लिये फूलों से बने एक तैरते हुए पुल का काम करती है.

जिस तरह जिन्दगी सीधी-सपाट नहीं चलती, उसी तरह उपन्यास के घटनाक्रम में भी तमाम उतार-चढ़ाव, घुमाव और पेंच आते हैं, जो कथ्य को रोचक व औत्सुक्य बनाते हैं. गहन संवेदनाओं व भावभीनी अनुभूतियों का घनत्व लिए प्रवाहमयी भाषा में उपन्यास इतना पठनीय है कि अगर बहुत जरूरी काम न हो तो एक बैठक में पढ़ने को बाध्य करता है. उपन्यास के आमुख पर प्रख्यात चित्रकार कुँवर रवीन्द्र का चित्र है, जो उपन्यास के कलेवर को अति आकर्षक बनाता है.

समीक्षक सम्पर्क- 282, राजीवनगर, नगरा, झाँसी- 284003 मोबाइल- 9455420727

समीक्षित कृतिः नौ मुलाकातें (उपन्यास)

प्रकाशकः एपीएन पब्लिकेशन्स,

डब्ल्यू जेड-87 ए, गली नं. 4, हस्तसाल रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059

मूल्य- रु0 180/- पृष्ठ संख्याः 158

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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रचनाकार: प्राची - जनवरी 2017 : समीक्षा / प्रेम की घनीभूत अनुभूतियाँ हैं नौ मुलाकातें / राजेन्द्र कुमार
प्राची - जनवरी 2017 : समीक्षा / प्रेम की घनीभूत अनुभूतियाँ हैं नौ मुलाकातें / राजेन्द्र कुमार
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