विशिष्ट कवि एकान्त श्रीवास्तव जन्म : 08 फरवरी 1964, जिला- रायपुर (छत्तीसगढ़) का एक कस्बा छुरा. शिक्षा : एम.ए.(हिन्दी) एम.एड., पी.एच.ड...
विशिष्ट कवि
एकान्त श्रीवास्तव
जन्म : 08 फरवरी 1964, जिला- रायपुर (छत्तीसगढ़) का एक कस्बा छुरा.
शिक्षा : एम.ए.(हिन्दी) एम.एड., पी.एच.डी.
कृतियां : ‘अन्न हैं मेरे शब्द’ (कविता संग्रह) 1994, ‘मिट्टी से कहूंगा धन्यवाद’ (कविता संग्रह) 2000, ‘बीज से फूल तक (कविता संग्रह) 2003, ‘कविता का आत्मपक्ष’ (निबन्ध) 2006, ‘शेल्टर फ्रामॅ दि रेन’ (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं) 2007, ‘मेरे दिन मेरे वर्ष’ (स्मृति कथा) 2009, ‘नागकेसर का देश यह’ (लम्बी कविता) 2009, ‘बढ़ई, कुम्हार और कवि’ (आलोचना) 2013, ‘पानी भीतर फूल’ (उपन्यास) 2013, ‘धरती अधखिला फूल है’ (कविता संग्रह) 2013, ‘चल हंसा वा देश’ (यात्रा निबंध) 2015, ‘कवि ने कहा (चुनी हुई कविताएं) 2016
पुरस्कार : शरद बिल्लौरे, रामविलास शर्मा, ठाकुर प्रसाद, दुष्यन्त कुमार, केदार, नरेन्द्र देव वर्मा, सूत्र, हेमंत स्मृति, जगत ज्योति स्मृति, वर्तमान साहित्य-मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार, वातायन (साउथ बैंक) कविता सम्मान : लन्दन : 2013, शोभनाथ यादव राष्ट्रीय सम्मान-2014, सृजनगाथा सम्मान-2015, स्पंदन कविता पुरस्कार-2015, बसंत सम्मान-2016.
अनुवाद : कविताएँ अंग्रेजी व कुछ भारतीय भाषाओं में अनूदित. लोर्का, नाजिम हिमत और कुछ दक्षिण अफ्रीकी कवियों की कविताओं का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद.
सम्पादन : नवम्बर 2006 से दिसम्मबर 2008 तक तथा जनवरी 2011 से पुनः ‘वागर्थ’ का सम्पादन.
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यात्रा : उजबेकिस्तान, इंग्लैंड, नीदरलैण्ड, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, इटली, वैटिकन सिटी, आस्ट्रिया, स्विटजरलैण्ड आदि देशों की यात्राएं.
विशेष : 1. देश के अनेक विद्यालयों-विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में कविताएं संकलित.
2. देश के अनेक विश्वविद्यालयों में रचना-कर्म पर लघु शोध और शोध.
3. कवि-कर्म पर आलोचना पुस्तक ‘एकान्त श्रीवास्तव की काव्य-चेतना’ (साईं नाथ उमाठे प्रकाशित)
संपर्क : 48/18/सी, साउथ सिटी रोड, कोलकाता-700 050
दूरभाष : 09831894193
ग्रांड ट्रंक रोड
इसे सोलहवीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने बनवाया था
मगर बींसवीं शताब्दी के सन् सैंतालीस में इसे बीच से
काटकर दो भागों में बांट दिया गया
एक भाग जो रह गया एक देश में धड़ की तरह छटपटाता
मगर जिसका हृदय धड़कता रहा दूसरे भाग के लिए
दूसरा भाग जो चला गया दूसरे देश में
लगातार पुकारता रहा अपनी ही देह को
आप अगर सम्पूर्ण ग्राण्ड ट्रंक रोड पर करना चाहते हैं यात्रा तो बहुत जोखिम है
मुमकिन है कि आधी यात्रा में ही आप गोली खाकर गिर पड़ें
क्योंकि आपको दो देशों की सीमा चौकियों से होकर गुजरना पड़ेगा
इकबाल अहमद की शायद यह अंतिम इच्छा रही होगी
कि बनाई जाए कोई ऐसी ग्राण्ड ट्रंक रोड
जिसके किनारे पड़ते हों दुनिया के सारे देश
जो केवल नगरों से नहीं
लोगों के दिलों से होकर भी गुजरती हो
जो दिन में ऋतुओं की तरह महकती हो
और रात में झिलमिलाती हो आकाश गंगा की तरह
जो समुंदरों के पार भी उड़कर पहुंचती हो.
सोनझर
सोनझरिया है इनकी जाति
और ये सोनझर हैं
रेत और मिट्टी से सोना झराते हुए
सोंदुल है इनकी प्रिय नदी
जाने किन पहाड़ों से निकलकर
जो पार करती आती है सोने की खदान
जिसके जल में
सोने के कण ढुलते आते हैं
जेठ में सूखी हुई सोंदुल की रेत झराते हैं सोनझर
बहुत धीरज और जीवटता के साथ
जहां कहीं भी दिखती है सोने की चमक
सोनझर पहुंचते हैं उस तक
अपने अंधेरों को पार करते हुए
गंदे नाले या संकरी नाली के भीतर
गंदगी और बदबू की परवाह किये बिना
ये बैठे रहते हैं इत्मीनान से अपना झरिया लिये सराफा बाजार में
सुनार की दुकानों के आसपास नाली के कचरे, मिट्टी और रेत को
तसले जैसी लकड़ी की बनी झरिया में ये छानते हैं
और घंटों साफ करके इकट्ठा करते हैं
सोने-चांदी का एक-एक कण
सोने-चांदी का एक-एक कण
ये हिलते तक नहीं एक जगह से
जब तक कुछ पा नहीं लेते
चाहे हो जाए सुबह से शाम
यह इनकी पसंद का नर्क है
जिसे चुना है इन्होंने
रोजी-रोटी का एक मात्र सहारा
ये किसी से कुछ नहीं मांगते
ये किसी से कुछ नहीं बोलते
सिर्फ एक तार वाला ब्रश
तामचीनी का एक पात्र
झाड़ू और झरिया लिये ये आते हैं
अपने पूरे कुटुम्ब के साथ
और जहां कहीं दिखती है सुनार की दुकान
ये डालते हैं वहीं अपना डेरा
इन्हें भीख मांगते किसी ने नहीं देखा
ये भरोसा करते हैं अपनी मेहनत पर
भरोसा करते हैं अपने पारम्परिक पेशे पर
इनकी अंधेरी जिंदगी में
कभी-कभी दिखती है सोने की चमक
सोना इन्हें कंचन-मृग-सा भरमाता है
भटकाता है अपने पीछे
ये सोनझर हैं मगर इनकी बहनें
नकली कर्णफूल पहनकर मुस्कराती हैं
और पीतल के गहने पहनकर रोती हुई
विदा होती हैं इनकी बेटियां.
बाबूलाल और पूरन
वह एक बूढ़ा था और अपाहिज
किसी बाबूलाल का नाम वह बार-बार लेता था
कि हाय, बाबूलाल ने धोखा दिया
वे चार थे
उनको गाड़ी बदलनी थी
रात का अंतिम पहर
एक बड़े नगर का व्यस्त स्टेशन
मगर इस वक्त भीड़ कुछ कम, कुछ शांति
वे चार थे- एक अपाहिज बूढ़ा जो शायद दादा था
एक अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का-शायद उसका नाती
जो बूढ़े को दोनों हाथों से उठाकर
ट्रेन से उतारकर प्लेटफार्म की इस खाली जगह पर
लाया था लगभग ढोकर और हांफ रहा था
बूढ़े की बहू भी थी साथ
कमजोर, सांवली अधेड़-सी स्त्री
बहुत चुप-चुप और उदास-सी
हां-हूं करती हुई हर सवाल के जवाब में
एक और नाती था छोटा लगभग सात-आठ बरस का
बिंदास जो मगन था खेल में और बात में
दीन-दुनिया से बेखबर हो जैसे
बूढ़ा बहुत बोलता था लगातार
उसका बड़ा नाती जिसका नाम शायद पूरन था
इतना ऊब चुका था उसकी नसीहतों से
कि हूं-हां करना भी बंद कर चुका था कभी का
बस छोटा नाती सुर से सुर मिला देता था कभी
वे बहुत गरीब से लगते थे कमाने-खाने वाले
उनके कपड़े मैले हो चुके थे सफर में
नातियों के पांव थे नंगे
बूढ़ा झेल रहा था बुढ़ापे और बीमारी की मार
उसके दोनों पांव बेकार थे
ऐसे में पड़ी थी उसे दुःख और धोखे की एक और मार
किसी बाबूलाल का नाम वह बार-बार लेता था
कि हाय, बाबूलाल ने धोखा दिया
बूढ़े की बड़बड़ाहट भरे एकालाप से एक करुण कथा की
कुछ झलक मिलती थी
वे शहर से आए थे और उन्हें सुबह
गांव के लिए पैसेंजर पकड़नी थी
बूढ़े का बेटा था बाबूलाल
शहर की किसी फैक्टरी में वर्कर
किसी मोहल्ले के छोटे-से किराए के घर में
जो रहता था अपने बीबी बच्चों और पिता के साथ
मगर किसी और स्त्री के लिए उसने धोखा दिया सबको
केवल पिता को ही नहीं छोड़ दिया बीबी-बच्चों को भी
थोड़ी-सी खेती और गांव के टूटे-फूटे मकान के सहारे
बाकी जिंदगी गुजारने की सोचकर बूढ़ा चला आया
शहर छोड़कर अपने नातियों के सहारे बहू को साथ लिये
ऐसी हालत में जब खाट पर पचना भी था मुश्किल
मगर बूढ़े के पास थी अनुभव की तेज आंख
जिससे बताता जाता था वह रास्ता
और पूरन- उसका कम पढ़ा लिखा बड़ा नाती- उस पर
चलता जाता था कि टिकट कहां कटाना है
पूछताछ कहां करनी है
किसी प्लेट फार्म पर आएगी गाड़ी
उनको देखकर अंधे और लंगड़े की कहानी याद आती थी
एक न एक दिन हमारे जीवन में आता है
कोई न कोई बाबूलाल
कभी न कभी धोखा देता हुआ
कितने-कितने बाबूलालों के धोखों से भरी इस दुनिया में
हम जिये चले जाते हैं
कि हमें मिल ही जाता है सहारे के लिए
किसी न किसी पूरन का कंधा.
तूमे की नार
छानी में तूमे की नार चढ़ी, फैल गई
दिन बीते फूलों की जोत जगी
मां ने चेताया उंगली नहीं उठाना
नजर लगेगी तो झड़ जाएंगे फूल
पड़ोसन से करती हुई बतकही
वह मुस्कुराकर कनखियों से देख लेती उधर
जो बीज बोये थे पिता ने, गए नहीं अकारथ
हम सब की आस बंधी
छानी में तूमे की नार चढ़ी, फैल गई.
दो अंधेरे
(ट्रेन में एक अंधे दम्पत्ति को भीख मांगता देखकर)
वे दो अंधेरे थे
लड़खड़ाते और गिरते हुए
गिरकर उठते हुए
उठकर साथ-साथ चलते हुए
वह आगे था और उसके कंधे पर हाथ रखे
पीछे-पीछे चल रही थी उसकी पत्नी
उसके गले में बंधा था ढोलक
जिसे बजा-बजाकर वह गा रहा था
जिसमें साथ दे रही थी उसकी पत्नी
उसकी आवाज में शहद था
वह एक दूसरी भाषा का गीत था
और ठीक-ठाक समझ में नहीं आ रहे थे बोल
उसकी पत्नी ने पहन रखी थी सूती छींट की साड़ी
उसके गले में था एक काला धागा
शायद मंगल सूत्र
कलाइयों में कांच की सस्ती चूड़ियां
उसके हाथ फैले थे जिस पर कुछ सिक्के थे
उनके पांव नंगे थे
वे टोह-टोहकर चलते थे
यह आश्चर्य जनक था कि उनके पास नहीं थी लाठी
उससे भी आश्चर्य जनक था यह देखना
कि गले में बंधे ढोलक पर बैठी थी
उनकी डेढ़ बरस की बच्ची
झालर वाली सस्ती फ्रॉक पहने
टुकुर-टुकुर देखती हुई लोगों को
इस दारुण दृश्य में यह कितना सुखद था
कि उनकी बच्ची थी और उसकी दो अदद आंखें थीं
वह देख सकती थी कि वह अंधी नहीं थी
गांव के एक स्टेशन पर वे उतर गए
मैंने उन्हें देखा
कांस के धवल फूलों से भरी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर जाते हुए
कल बड़ी होगी उनकी बिटिया
थामेगी उंगलियां दोनों की
वह दो अंधेरों के बीच एक सूर्योदय थी.
चटाई
घने जंगल से काटकर
लाई जाती थी घास
और बुनी जाती थी चटाई
शुरू के कुछ दिन जो रहती थी हरी
फिर धीरे-धीरे पीली पड़ जाती थी
वह कांस की चटाई थी
हम काम से लौटते थे थक-हाकर
और उसे बिछाकर सो जाते थे
हमारे सपने फूले कांसों से भर उठते थे
और वहां रंगीन चिड़ियां उड़ती थीं
हम बबूल के एक बड़े कांटे से
निकालते थे उन छोटे-छोटे कांटों को
जो दिनभर पांव में गड़कर टूट जाते थे
लोचनी हमारी बहुत मदद करती थी
पृथ्वी जितनी प्राचीन थी हमारी भूख
परती जमीन पर
जो उगा ही लेती थी अन्न
नदियों जितनी प्राचीन थी हमारी प्यास
सूखी रेत में
जो खोद ही लेती थी कुआं
वृक्ष जितने प्राचीन थे हमारे दुःख
मगर वह चटाई थी
जो गला देती थी नींद की गरम भट्टी में
लोहे जैसी हमारी थकान को
और अगले दिन के लिए
हमें तैयार करती थी
अपने प्राचीन दुःखों को
चटाई की तरह लपेटकर
हम रख देते थे
घर के किसी अंधेरे कोने में
और पुनः काम पर निकल पड़ते थे.
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