काव्य जगत परिचय राजेश कुमार हिंदी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्यिक तथा अकादमिक लेखन करते हैं . इन्होने कई हिंदी उपन्यासों का रूपां...
काव्य जगत
परिचय
राजेश कुमार हिंदी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साहित्यिक तथा अकादमिक लेखन करते हैं. इन्होने कई हिंदी उपन्यासों का रूपांतरण अंग्रेजी में किया है जिनमें से उल्लेखनीय हैं संजीव का ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ का ‘द जंगल विदिन’, महुआ माजी का ‘मैं बोरिशाईल्ला’ का ‘मी बोरिशाईल्ला’ तथा रणेंद्र का ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ का ‘गौड्स ऑफ ग्लोबल विलेज’. इनकी नवीनतम कृति ‘एग्जाइल’, अखिलेश के उपन्यास ‘निर्वासन’ का रूपांतरण है. इनके लेखन अनुबंध रूपा, सिन्गेज, पेंगुइन जैसे कई ख्यातिप्राप्त प्रकाशकों से हैं. इनकी पहली पुस्तक ‘इन्सेस्ट’, अंग्रेजी कविताओं की थी. इनकी अंग्रेजी लघु कथाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.
सम्प्रति : विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग में अंग्रेजी के प्रोफेसर एवं छात्र कल्याण संकायाध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं.
संपर्क : इपससी्रं/तमकप`िउिंपस.बवउए फोनः 91 7992470107
राजेश कुमार की कविताएं
भेद प्रश्न
एक ही दरख्त था
उस पहाड़ पर
दूसरी ओर एक खम्भा, एक दूसरे पहाड़ पर,
बिजली का.
दोनों हिलते थे जब जब
उस शताब्दी में हवाएं चलती थीं
यह बहुत पहले की बात है
तब की जब आदमी ने भगवान नहीं बनाये थे
और मछलियाँ गंदे पानी में बिना हवा के
नहीं फिसलती थीं और हाथों में अंगार लिए
बच्चे नहीं सोचते थे कि मछलियाँ जलपरियाँ हैं.
दरख्त हिलता था, सिर्फ दरख्त
पत्ते, बजरीय कोंपलें, कीलें, जड़ थीं.
खम्भा हिलता था,
सिर्फ खम्भा.
उसकी सफेद चीनी मिट्टी की टोपियाँ
पीली थीं, उनमें तारों की महीन स्मृतियाँ टंगी थीं.
गिद्ध अपनी मोतियाबिंदी आँखों से
धुंधलाये ठूँठ पर, हिलते दरख्त पर
झपटते, टकराते, पंखों की चिन्दियाँ बिखेर कर
पंजे सिकोड़ते और गोल गोल घूमते
पहाड़ की ठुड्डी पर ढह जाते.
दरख्तों में घोंसले न थे, न चूजे,
खम्भे में चिंगारियों के घूमर न थे,
पहाड़ थे, पहाड़ों के बीच भी कुछ नहीं था.
बरसात की बूँदें हहर जातीं थीं आधे रास्ते
और वापस ठनकों की अँकवार में सिकुड़ जाती थीं.
ऐसे समय में, संगिनी, पहाड़ों में जनम लेना
पुण्य है, या निष्कलुष पाप?
बराबरी
औरत, देहरी पर आ.
औरत, बाहर आ जा.
स्कूटर चला, कार चला.
औरत, ऑफिस जा
काम कर, तनखाह ला.
मैं तुझे बराबरी का दर्जा देता हूँ.
बेटी, खूब पढ़.
लड़कों को पीछे छोड़
तकरीर कर, शोहरत पा.
बास्केटबॉल में अव्वल आ.
कंप्यूटर इंजीनियर बन,
विदेश जा,
खूब कमा.
मैं तुझे बेटे के बराबर का हक देता हूँ.
तू, मेहरी,
काम कर, पोंछा लगा,
झुक-झुक कर पोंछा लगा,
झुक-झुक कर झाड़ू लगा,
इस पुरसुकून इमारत में
मैं यहाँ अखबार के पन्नों के बीच
तेरी देह के हर्फ पढ़ता हूँ.
और तुझसे कहता हूँ,
आज के तरक्की पसंद जमाने में
तू अपने मरद से कतई कम नहीं.
आपका शहर
आइये, मैं आपको अपने, जगमगाते,
मुदरें के शहर की सैर कराता हूँ.
वह खिखिलाता मोहल्ला, नीचे, पूरब की ओर,
वास्तव में पांच नन्हें पोखरों का सूतक-श्लोक है.
उनकी सामूहिक हत्या की गयी थी.
उस दूर वाली, दक्षिण-मुखी बीस मंजिला इमारत,
जिसकी छत पर आप धूप में चमकता
स्फटिक तरण-ताल देख सकते हैं
उसकी नींव में
अस्थिपंजर दफन हैं, मछलियों, घोंघों और केकड़ों के.
यह एक सौ अस्सी गाड़ियों का बेसमेंट गैराज
कब्र है, दीमकों की एक विशाल बस्ती का,
कहते हैं, उनके उत्सव माह-दर-माह,
पीढ़ियों तक चला करते थे.
वहाँ, उस मोबाइल टावर के पास
जेनरेटर दिन रात घुरघुराते रहते हैं.
वे मर्सिया पढ़ते हैं गंधराज की श्वेत-वसना टहनियों का
जो कभी गीतकार पंछियों का वाचक-ठौर थीं.
इधर, यहाँ इस चौराहे पर ट्रैफिक त्रिनेत्र
दनुज के तलवे
एक काले, बड़ी-बड़ी आँखों वाले ऊदबिलाव
और उसके संगी,
भूरे बदन वाले नेवले की
चितकबरी हड्डियों पर टिके हैं.
उनकी चमड़ी और उनका मांस
उनके चीखने से पहले
क्षणान्श में एक दैत्याकार उत्खनक के
हिंसक जबड़े ने खींच लिए थे.
आप अचरज से मेरी ओर क्यों देख रहे हैं?
अच्छा, मैंने अपना परिचय नहीं दिया जो!
कहियेगा नहीं किसी से, वचन दीजिये, बंधु!
वैसे यहाँ सभी जानते हैं.
मैं इस व्यतीत वनांतर का प्रकृति-प्रेत हूँ.
सुबोध सिंह शिवगीत
जन्मः 19 जनवरी 1966
पताः ग्राम+पत्रालय- कदमा, हजारीबाग, झारखण्ड-825301
संप्रतिः प्राध्यापक-हिंदी, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग, झारखण्ड
मोः 8986889240
प्रकाशित पुस्तकेंः पूरब की ओर, प्रपंचतंत्रम् (काव्य संग्रह)
सुबोध सिंह की कविता
माटी का घर
भारत
अखण्ड भारत की खोज
और फिर नहीं मिलने
का रोना
हर संवेदनशील भारतीय
की चिंता का विषय है
खोजी राम सारे
तलाशते हैं भारत को
मंत्री, अफसर, मास्टर
कर्मचारी, किरानी
ठेकेदार, नेता,
अभिनेता के जीवन में
दफ्तर-दफ्तर में
कंकरीट के बसे
शहर-शहर में,
पर भारत तो
आज भी बसता है
खपरैल छत
और माटी के घर में
जहाँ आज भी
लस है लगाव है
प्रेम के खटजोर
से जुड़े हैं,
काठ और बाँस
गोबर से पुते फर्श हैं
देहरी पर
चार भाइयों के लिए
जलता अलाव है
मिट्टी का मिट्टी से
जुड़ाव है,
एक दूसरे को
बाँधने का बंधन है
पत्थरों में
कहाँ खोजते हो
शीतलता
आज भी
माटी ही चन्दन है.
सम्पर्कः प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग-825301, झारखण्ड,
मोञ् : 8986889240
म्उंपस रू ेीपअहममज65/हउंपसण्बवउ
नामः अबनीश सिंह चौहान
जन्मः 4 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा (उत्तर प्रदेश).
शिक्षाः अंग्रेजी में एमए, बीएड, एमफिल एवं पीएचडी.
प्रकाशनः ‘शब्दायन’, ‘गीत वसुधा’ में गीत और मेरी शाइन (आयरलैंड) द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह ‘ए स्ट्रिंग ऑफ वर्ड्स‘ (2010) एवं डॉ. चारुशील एवं डॉ. बिनोद द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कवियों का संकलन ‘एक्जाइल्ड अमंग नेटिव्स’ में रचनाएं संकलित. आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों में पढाई जा रही हैं. ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पुस्तक का संपादन. वेब पत्रिका ‘पूर्वाभास‘ के सम्पादक. अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
पताः ग्राम/पो.-चन्दपुरा (निहाल सिंह), जनपद-इटावा-206127 (उ.प्र.)
अबनीश के पांच नवगीत
1
संशय है
लेखक पर
पड़े न कोई छाप
पुरखों की सब धरीं किताबों
को पढ़-पढ़ कर
भाषा को कुछ नमक-मिर्च से
चटक बना कर
विद्या रटे
बने योगी के
भीतर पाप
राह कठिन को सरल बनाये
खेमेबाजी
जल्दी में सब हार न जाएँ
जीती बाजी
क्षण-क्षण आज
समय का
उठता-गिरता ताप
शोधों की गति घूम रही
चक्कर पर चक्कर
अंधा पुरस्कार
मर-मिटता है शोहरत पर
संशय है
ये साधक
सिद्ध करेंगे जाप.
2
नया वर्ष हो
खुशहाली का
सबने है फरमाया
लगे होर्डिंग विश करने को
चैनल चले, भुनाने
आरकाइव से प्रकट हुए फिर
किस्से नए-पुराने
‘अ आ इ ई’ से
‘ज्ञ’ ज्ञानी तक
शब्दों की सब माया
एक बरस में क्या करना था
क्या कुछ हैं कर पाये
बड़ा कठिन है महागणित यह
मौन हुए ‘सरमाये’
पाई का भी
मान वही है
सूत्र कहाँ बन पाया
पोल नृत्य की गहराई में
खोये मन सैलानी
आँखों में कुछ नशा चढ़ा है
खोज रहे हैं पानी
खुश हैं
इतनी-सी दुनिया में-
खाया खूब कमाया.
3
जेठ-दुपहरी
चिड़िया रानी
सुना रही है फाग
कैटवाक
करती सड़कों पर
पढ़ी-पढ़ाई चिड़िया रानी
उघरी हुई देह के जादू-
से इतराई चिड़िया रानी
पॉप धुनों पर
थिरके तन-मन
गाये दीपक राग
पंख लगाकार
उड़ती बदली
देख रहे सब है मुँह बाए
रेगिस्तान खड़े राहों में
कोई उनकी प्यास बुझाए
जब चाहे तब
सींचा करती
उनके मन का बाग
कितनी उलझी
दृश्य-कथा है
सम्मोहक संवादों में
कागज के फूलों-सी-सीरत
छिपी हुई पक्के वादों में
लाख भवन के
आकर्षण में
आखिर लगती आग
4
एक तिनका हम
हमारा क्या वजन
हम पराश्रित वायु के
चंद पल हैं आयु के
एक पल अपना जमीं है
दूसरा पल है गगन
ईंट हम इस नीड़ के
ईंट हम उस नीड़ के
पंछियों से हर दफा
होता गया अपना चयन
गौर से देखो हमें
रँग वही हम पर जमे
वो हमीं थे, जब हरे थे
बीज का हम कवच बन
हम हुए जो बेदखल
घाव से छप्पर विकल
आज भी बरसात में
टपकें हमारे ये नयन
साध थी उठ राह से
हम जुड़ें परिवार से
आज रोटी सेंक श्रम की
जिंदगी कर दी हवन
5
समय की धार ही तो है
किया जिसने विखंडित घर
न भर पाती हमारे
प्यार की गगरी
पिता हैं गाँव
तो हम हो गए शहरी
गरीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर
खुशी थी तब
गली की धूल होने में
उमर खपती यहाँ
अनुकूल होने में
मुखौटों पर हँसी चिपकी
कि सुविधा संग मिलता डर
पिता की जिंदगी थी
कार्यशाला-सी
जहाँ निर्माण में थे-
स्वप्न, श्रम, खाँसी
कि रचनाकार असली वे
कि हम तो बस अजायबघर
बुढ़ाए दिन
लगे साँसें गवाने में
शहर से हम भिड़े
सर्विस बचाने में
कहाँ बदलाव ले आया
शहर है या कि है अजगर.
कवि परिचय
जन्मः 21 अगस्त 1964, शिक्षाः एमए, हिंदी दिल्ली विश्वविद्यालय
पत्रकारिताः सब्जेक्ट मंथन साप्ताहिक ठाणे, नवभारत, धारावी टाइम्स, मुंबई प्रहरी टाइम्स, निष्पक्ष जन संसार मुंबई, दैनिक भास्कर, नागपुर में संपादन कार्य
प्रकाशनः ‘बची रहे हमारी दुनिया’ (काव्य संग्रह), ‘तुम धरती का नमक हो’ (संपादन), ‘डॉ.शोभनाथ यादव की साहित्यिक पत्रकारिता’ एवं देश के दर्जनों साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, समीक्षा एवं साक्षात्कार प्रकाशित.
संप्रतिः दैनिक समचार पत्र प्रभात खबर, ब्यूरो कार्यालय नवाबगंज, हजारीबाग-825301 में कार्यरत.
संपर्कः ग्राम डुमर,पोस्ट जगन्नाथ धाम, हजारीबाग-825317, झारखंड,
मो 9939707851
गजलगणेशचन्द्र राही की दो कविताएँ
कविता की जरूरत
आकाश की तरह खुले मन में
हजारों सभ्यताओं के खंडहर बिखरे हैं
जिन पर घास की तरह उगी हैं अनगिनत उंगलियां
जैसे इन्होंने ही रची है सभी सभ्यताओं का इतिहास
तुम अकेले इन सूने भयावह खंडहरों में
दिन हो या रात कभी नहीं घूम सकते
तुम्हें सुनायी देंगी उनकी बुनियाद में दफन ढेरों कमजोर इंसानों की सिसकियां
उनके कंघों ने न जाने कितने राजतंत्रों को
पालकी की तरह ढोया है/तुम नहीं जानते.
मन को तुम जहां चाहो ले जाओ
लेकिन जब तुम अपने तन की दुनिया में लौटोगे
अपना नकली चेहरा उतार कर टांगोगे निराषा की खूंटी में
और तब तुम्हारी आंखों में एक स्वप्न की किरण
चमकेगी जिसकी रोशनी में जिंदगी के प्रवाह और परिस्थतियों से
घिरता चला आनेवाला मनुष्य की शक्ति, सौंदर्य और
परिवर्तन के विवेक को जानोगे.
तुम्हें कोई नहीं बतायेगा
कि कुछ लोग क्यों दुनिया को अपनी जागीर समझते रहे हैं
और इंसानों को यहां युद्ध की आग में झोंक कर
अपनी सल्तनत की रक्षा करते आ रहे.
मै मन के अंदर टहलना चाहता हूं कुछ देर
कुछ देर माता, पिता पत्नी की तरह
अपने मन से बतियाना चाहता हूं
हृदय की फुलवारी के खिले फूलों
उसकी खुशबू को बाहर
संसार के लोगों के बीच बांटना चाहता हूं
आज इतनी हिंसा, खून और आतंक के बीच
बच्चे औरतें असुरक्षित हो गये हैं
उनकी चिंता मुझे बहुत सता रही है
लेकिन जैसे ही इतना सोचते हुए अपना कदम
मन की देहरी पर रखता हूं
कि इतिहास की काली आंधियां मेरी आंखों पर छा जाती हैं
अशाांति, तनाव और बेचैनी से भर जाता हूं
क्या इस तरह कोई आदमी अपने मन के साथ
संवाद कर सकेगा
प्रेम और शांति की खोज में ऐसी बाधाएं क्यों आती हैं
स्वयं से करता हूं सवाल
क्योंकि समाज में मेरी जीवन दृष्टि की खोज हो रही है
उनको चाहिये खिली हुई हंसती मुस्कराती दुनिया
खिला हुआ चमकता बेदाग चेहरा
और मैं इसी नये की खोज में भटक रहा हूं
कभी अंदर तो कभी बाहर.
आश्चर्य इस बात पर होती है दोस्त
कि ऐसे जीवन संघर्ष पर से मेरा
आत्मविश्वास पता नहीं क्यों कम नहीं होता
जितनी खतरनाक परिस्थतियां होती हैं
चिंतन की आग में और ज्यादा धंसता हूं
हर समय मेरे पांवों के नीचे आग का दरिया होता
मैं इससे दोगुना विश्वास, साहस और शक्ति से भर जाता हूं
मेरी संवेदना मुंझे आसपास की जिंदगी
और चीजों को समझने में
उसके भाव और सौंदर्य में डूबने का मौका देती है
उस वक्त मैं पूरी तरह जीवंत महसूस करता हूं
जानता हूं मेरा मन, बुद्धि और विवेक
एक प्राकृतिक घटना है
इसलिये इनकी ही मदद से जो कुछ ही रचता हूं
उसमें मेरा केवल अस्तित्व बोलता है
समाज, साहित्य और कला की दुनिया
अलौकिक चमत्कारों से दूर
मेहनतकश हाथों की गरिमा एवं उसके स्पर्श से पूरी जीवन-यात्रा सार्थक हो जाती है
मन में दबे अनगिनत खंडहरों को/उसके इतिहास और वैचारिक बुनियाद को
लोग भी समझने लगे हैं.
मैं खोखले शब्दों और भाषायी जादूगरों के बाजार में
दाखिल होना नहीं चाहता
अपने अनुभव, ज्ञान, चिंतन और संवेदना की रचना पृथ्वी को सौंपना चाहता हूं
उस मानवीय सुगंध के लिये अपने अंदर लौटना चाहता हूं
जिससे निराश होती जिंदगी में झरने की तरह उल्लास, रोमांच एवं खुशहाली भर जाय
आज मेरी कविता की जरूरत बन गयी है/
इस हिंसक और संवेदनहीन होती दुनिया की.
आज बहुत चिंतित हूं
अपने अंदर मृत चीजों की खोज कर रहा हूं
जो मशरूम की तरह सड़ रही है/गल रही है
बदबू दे रही है और जिसके कारण
मेरी जिंदगी काफी कमजोर, लिजलिजी
और उदास दिख रही है
हृदय सिकुड़़ गया है चटटान के नीेचे दबे केचुआ सा.
वर्षों से ऐसी ही गलित परंपरा, रूढ़ियों और रिवाजों ने
मेरी खूबसूरत जिंदगी को अजायबघर बना दिया है
विद्रोह करने से डरता है मन
जबकि समाज के करोड़ों लोग चिपके हैं मृत चीजों से बंदरिया के बच्चे की तरह
बदलने की आवाज जब भी कोई उठाता है
उसके के ही खिलाफ हो जाते हैं रूढ़ियों से जर्जर लोग.
मेरी इच्छा है कि मैं अपने अंदर की
मृत चीजों को पूरी तरह
बाहर निकाल कर फेंक दूं और
मन को वर्षा जल से धो डालूं
फिर मन के स्वच्छ निर्मल आकाश में
जिंदगी की चमक देख सकूं
पेड़ पौधे नदी झरने पंछी हों मेरे साथ
विचार भाव कल्पना ताजा हो/
सुंदरता का मानदंड बने मेरा मन
एक नयी परंपरा का सूत्रपात हो मुझसे हो.
मैं बिलकुल नहीं चाहता कि
मेरी प्यारी मधुर कोमल सुंदर जिंदगी
मृत चीजों की कब्रगाह बन कर रह जाय
बल्कि चाहता हूं कि इसमें लहराय हर सागर
खिले कमलों से भरी झील चमके
तितलियों और रंग बिरंगे फुूलों का रिश्ता हो
मेरे अंदर और मजबूत
इतना ही नहीं है -सोच की दिशा लोगों में भी बदले
लोभ और धूर्तता की जकड़बंदियों और
अंधविश्वास की काली छायाओं से स्वयं को मुक्त करे
यह प्रयास समाज, देश और दुनिया को एक नयी राह देगा
एक नये फार्म में ढलेगी जिंदगी
जिसको लेकर आज मैं बहुत चिंतित हूं.
कविता
तिनका बादल धरती
डॉ. कुँवर प्रेमिल
आत्मकथ्य
कविता धरती से निकलती है, आसमान से फिसलती है. कविता दिल से निकलती है. ज्यों-ज्यों रात गलती है, कविता कागज पर ढलती है. कविता किसी की बपौती नहीं है, कविता मुकम्मल शक्ल अख्तियार करती है. कविता किसी की नौकर नहीं है. कविता दलाली भी नहीं करती, राज-राजेश्वरी है कविता. जिसने कविता गढ़ी वह कवि हो गया. तुलसी, कबीर, निराला हो गया. अमर हो गया.
तिनका
तुमसे कौन कहे-
पिछले साल गिरा नहीं पानी
सुनकर सचमुच हुई हैरानी
धू-धू कर गर्मी से जल उठे मकान
फसलें हुईं वीरान
सुलग उठे परिवार तिनके से.
तुमसे कौन कहे-
इस बरस खूब गिरा पानी
सभी को याद आ गई अपनी नानी
सामने से घुसकर-
मकान के पीछे से निकल गया पानी.
गांव बहे, आदमी बहे, ढोर-डंगर बहे
बह गए मकान तिनके से
शायद तिनका ही
बहते पानी की पहचान है.
बादल
घर के ऊपर छत
छत के ऊपर बादल
कहीं बादल सूखे-सूखे
कहीं जमकर बरसे बादल
मुनिया पूछे नाना से-
कैसा उजबक है ये बादल.
पहले बिजली चमकाता है
खूब डराता-धमकाता है
प्राण सुखाता है, गाज गिराता है
नाना मैं बादल बनूंगी
नानी का सूखा खेत सीचूंगी.
सुबहो-शाम नानी बादल निहारती है
बरसा नहीं तो खूब-खूब गरियाती है
यह नासपीटा बादल
करता है खूब प्रपंच छल
अब इसे गाय के खूंटे से बांधूंगी
उसे अन्यत्र जाने ही नहीं दूंगी.
धरती
तिनका-तिनका हुआ आसमान
और रुई-रुई सा हुआ बादल
पोखर में झांकने लगे तारे
और आसमान तकने लगी जमीन
ग्रहों के भी निकल आए पर
किसी को किसी से कहां लगता है डर.
धरती और आसमान देखते रहो
सावधान रहो, जागते रहो.
तिलिस्मी है ये, जादूगरी इनमें
ये किसी को तन्हा नहीं रहने देते
बहुरुपिये भी खूब ठहरे
चाहे कितना चिल्लाओ, बनते हैं बहरे
दोनों के बीच गूंजती है एक आवाज
फिर लौट आती है वापिस उनके पास
आवाज रोंधती है धरती को
सिर पर उठा लेती है आसमान.
कभी आसमान हौले से पुकारता है
कभी धरती हौले से मुस्काती है
मौज में रहती, प्रेयसी है धरती
आसमान से कभी डरती नहीं है धरती
कभी उल्कापात, कभी अंगारे
कभी ओले बरसाता है आसमान
धरती है पूरी सामर्थ्यवान
सारे वार सीने पर झेलती है
आसमान से आंखमिचौली खेलती है
अंगूठा दिखाती है
जीभ चिढ़ाती है
पूरा वादा निभाती है
सधवा बनी रहती है धरती
फूलों से अपना बदन ढके रहती है धरती.
सम्पर्कः एम.आई.जी.-8, विजय नगर,
जबलपुर (म.प्र.)-482002
मोः 0930182282, 08962695740
दो कविताएं
केदारनाथ सविता
पड़ोसी
सोचा था
पुत्र बड़ा होकर
बनेगा सहारा मेरा
पर धीरे-धीरे वह
बन गया अपनी पत्नी का सहारा
मैं बेटे से
करता रहा अपेक्षा
और वह दिन-ब-दिन
करता रहा मेरी उपेक्षा
अब मेरा पुत्र
मेरा नहीं रहा
बनकर रह गया है
मात्र एक पड़ोसी.
उम्मीद
अपना पसीना बहा कर
खाद-पानी खरीदकर
खेत में उगाता रहा अनाज
तैयार फसल कटते ही
आ जाते हैं
व्यर्थ के तीज-त्योहार
और गांव के साहूकार
किसान फिर अपनी उम्मीदें
टिका देता है
अगले वर्ष की फसल पर.
संपर्कः नई कॉलोनी, सिंहगढ़ की गली
(चिकाने टोला), पुलिस चौकी रोड,
लालडिग्गी, मीरजापुर-231001 (उ.प्र.)
मोः 9935685058
कविता
मां तुझे सलाम
एम. पी. मेहता
मां तुझे मेरा आखिरी सलाम,
स्वीकार करो मेरा सत् सत् प्रणाम.
तुम्हारी भावनाओं का मूर्त रूप हूं मैं,
तुम्हारी काया का प्रतिरूप हूं मैं.
तुम्हारी ख्वाहिशों का सजीव चित्र हूं
तेरी जजबातों का निर्भीक चित्रकार हूं.
प्रतिपल हूं मैं तुम्हारी वासना का
खिलता कमल हूं तुम्हारे प्यार का.
मेरे तन की रंगों में बहता है खून तेरा
हर धड़कन में होता है एहसास तेरा
हे जगत जननी! कैसे दूं धन्यवाद तुझे,
गर्भ धारण का जोखिम उठाने का
सहन कर प्रसव की असीम पीड़ा,
मुझे जन्म देने का.
स्तनपान करा मुझे, सुदृढ़ काया बनाया तूने
पकड़कर उंगली मेरा चलना सिखाया तूने
हर कष्ट मेरा तूने खुशी खुशी अपनाया
खुशी के लिए अपनी खुशी दफनाया.
लंबी आयु की ख्वाहिश में मंदिर में दुआ करती रही
सुनाकर लोरी मुझे तुम गहरी नींद में सुलाती रही.
अंग-अंग सिंचित हुआ, तेरे स्तनपान से
पल्लवित-पुष्पित हुआ जीवन उपवन
तेरे लाड़ प्यार के जलधार से.
लुटाती रही अपना सर्वस्व मुझ पर
छिपाती रही हर वेदना अपने अंदर.
हर मुश्किल में तुम हंसती रही
हवनकुण्ड में खुद जलती रही.
लुटा दिया सबकुछ अपना, पास था जो भी तेरा
कुछ भी नहीं रखा तुमने, खाली हो गया हाथ तेरा.
फिर भी हमेशा उपेक्षित रही,
अबला नारी बन सबकुछ सहती रही
उफ नहीं निकला कभी तेरे मुख से
धोती रही मेरा मल-मूत्र अपने हाथों से
मेरी हर मुस्कार पर न्योछावर करती रही
अपने जीवन की खुशियों का बलिदान करती रही
शरीर का रोम रोम कर्जदार है तुम्हारा,
सहस्रों जनम में, उतर न सकेगा कर्ज तुम्हारा.
दया, करुणा और ममता का सागर हो तुम
इस सृष्टि की महानतम कृति हो तुम.
अनंत सागर के मझधार की, मजबूत कश्ती हो
मरुस्थल में कंटीली झाड़ियों की शीतल छाया हो
पतझड़ की वीरानियों में नव कोमल किसलय हो
निराशा की अंधेरी रातों में आशा की नयी किरण हो
हे जगत जननी!
स्वीकार करो मेरा प्रणाम
मां तुझे मेरा आखिरी सलाम!
सम्पर्कः मुख्य वाणिज्य प्रबंधक (पा.से.)
पश्चिम मध्य रेल, जबलपुर-482001 (म.प्र.)
-
खयाल खन्ना की दो गजलें
एक
ले रहा करवटें काल सन्त्रास का.
दिन निकलने ही वाला है उल्लास का.
यूं निराशा के तम में भटकता है क्यों,
दीप मन में जला आस-विश्वास का.
मोह, मद, लोभ की भूख का कर दमन,
कर शमन क्रोध का, काम की प्यास का.
देश हित जो जिये, देश हित जो मरे,
बनके उभरे शिलालेख इतिहास का.
कर दिया मुष्टिभर सिरफिरों ने ‘खयाल’
ध्वस्त वातावरण हास-परिहास का.
दो
तूफाने-तेजतर में भी डूबे नहीं हैं हम.
हालांकि नाखुदा के भरोसे नहीं हैं हम.
इतना तो कम से कम अभी कायम है इत्तिहाद,
टूटे हुए जरूर हैं, बिखरे नहीं हैं हम.
हम आज भी वुजूद का रखते हैं हर खयाल,
गुजरे हुये जमानों के किस्से नहीं हैं हम.
तुमको गुमान ये है कि रहबर बनोगे तुम
हमको यकीन ये कि भटके नहीं हैं हम.
जो राह इख्तिलाफ की बुनियाद हो ‘खयाल’,
ऐसी किसी भी राह से गुजरे नहीं हैं हम.
सम्पर्कः 1090, जनकपुरी,
बरेली-243122 (उ.प्र.)
मोः 8899151666
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राजीव कुमार त्रिगर्ती
चिड़िया का गीत
इधर पढ़े जा रहे हैं धार्मिक ग्रंथ
उदात्त-अनुदात्त स्वरित के साथ
उचारे जा रहे हैं वेदमंत्र
पढ़ रहे पुराणों की श्लोकबद्ध कथाएं
कर रहे कलमा-कुरान
रखकर पूरे नियमों का ध्यान.
उधर एक चिड़िया
एक डाली से दूसरी डाली पर
उड़-उड़कर गा रही है
स्वछन्द भाव में गीत
लय-नियमों को ताक पर रखकर.
कल शायद खदेड़ दिया जाए
जन्नत में खलल डालने के जुर्म में
वैदिकों-पौराणिकों, कलमा-कुरानियों को
जहां गा रही होगी वही चिड़िया
स्वछन्द भाव में गीत
फुदक-फुदककर.
सम्पर्कः गांव लंधू, डाकघर-गांधीग्राम,
वाया-बैजनाथ, जिला-कांगड़ा (हि.प्र.)-176125
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बढ़ती उम्र के साथ
देवेन्द्र कुमार मिश्रा
कितने दोस्त हुआ करते थे
बचपन में/स्कूल में/कॉलेज में
और बढ़ती उम्र के साथ
सबकुछ घटता गया
उम्र भी, दोस्त भी
रह गये कुछ रिश्तेदार!
बढ़ती उम्र के साथ
मन सिकुड़ता जाता है
जरूरतें बढ़ती जाती है
घर-परिवार की/जीविकोपार्जन की
और रह जाती हैं
मात्र जिम्मेदारियां
अब तो ऐसा लगता है कि
कभी कुछ हो गया
तो कौन आयेगा दौड़कर
सभी व्यस्त हैं मेरी तरह
ऐसे में बीता समय
बहुत याद आता है
जब हल्के से बुखार पर भी
दौड़े आते थे दोस्त
रात हो या दिन
बरसात हो या ठंड
अब तो सभी अपने में व्यस्त हैं
सभी के पास तयशुदा बहाने हैं
बढ़ती उम्र के साथ कितना
अकेला हो जाता है आदमी.
सम्पर्कः पाटनी कॉलोनी, भरत नगर, चन्दनगांव,
छिन्दवाड़ा-480001 (म.प्र.)
मोः 9425405022
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