यात्रा-संस्मरण सुपरिचित लेखक -संपादक. बुलंदशहर (उ.प्र.) के मीरपुर-जरारा गांव में जन्म. देसी चिकित्सा लेखन में विशेष दक्षता. ‘जीवनोपयोगी जड़...
यात्रा-संस्मरण
सुपरिचित लेखक-संपादक. बुलंदशहर (उ.प्र.) के मीरपुर-जरारा गांव में जन्म. देसी चिकित्सा लेखन में विशेष दक्षता. ‘जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियां’, ‘स्वास्थ्य के रखवाले’, ‘शाक-सब्जी-मसाले’, ‘सचित्र जीवनोपयोगी पेड़-पौधे’, ‘घर का डॉक्टर’, ‘स्वस्थ कैसे रहें?’ तथा ‘स्वदेशी चिकित्सा सार’ कृतियां चर्चित. पत्र-पत्रिकाओं में विविध लेख प्रकाशित. श्रीनाथद्वारा (राज.) की सुप्रसिद्ध संस्था ‘साहित्य मंडल’ द्वारा ‘संपादक-रत्न’ की मानद उपाधि.
संप्रति ‘सवेरा न्यूज’ (साप्ताहिक) का संपादन एवं आयुर्वेद पर स्वतंत्र लेखन.
साहित्यिक तीर्थ श्रीनाथद्वारा में
दो दिन
प्रेमपाल शर्मा
हिंदी दिवस (14 सितंबर) के अवसर पर पुनः एक साहित्यिक तीर्थ की यात्रा का योग बना. श्रीनाथद्वारा (राजस्थान) की अग्रणी साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक संस्था ‘साहित्य मंडल’ द्वारा वर्षभर अखिल भारतीय स्तर के कार्यक्रम होते रहते हैं. इनमें फाल्गुन में ‘पाटोत्सव ब्रजभाषा समारोह’ तथा हिंदी दिवस पर ‘हिंदी लाओ, देश बचाओ’ कार्यक्रम प्रमुख हैं. यह संस्था भारतवर्ष की कई बड़ी संस्थाओं से संबद्ध है. अतः विभिन्न संस्थाओं एवं सेवाभावी महानुभावों द्वारा प्रदत्त विभिन्न राशियों वाले पुरस्कारों सहित अभिनंदन कार्यक्रम प्रतिवर्ष पूरी गरिमा के साथ संपन्न होते हैं. विगत वर्ष साहित्य मंडल संस्था द्वारा मुझे ‘सवेरा न्यूज’ साप्ताहिक के संपादन के लिए ‘संपादक रत्न’ की मानद उपाधि से विभूषित किया गया था. संस्था के प्रधनमंत्राी श्री श्यामप्रकाश देवपुराजी का प्रबल आग्रह था कि मैं इस बार भी हिंदी दिवस के कार्यक्रम में सहभागी बनूं. भाईजी ने अधिकारपूर्वक मुझे ‘हिंदी उपनिषद्’ कार्यक्रम में आलेख वाचन हेतु ‘वोट की भाषा हिंदी, संसद् की अंग्रेजी’ विषय पर आलेख तैयार करने का दायित्व सौंप दिया. मैंने यथासमय आलेख तैयार कर लिया. विगत वर्ष कार्यक्रम (14, 15, 16 सितंबर) तीन दिवसीय था, सो मैंने इन्हीं तारीख के हिसाब से रेल का आरक्षण करा लिया. परंतु ई-मेल पर निमंत्रण-पत्र मिला तो पता चला कि कार्यम 13 सितंबर को प्रातः प्रारंभ होगा और मेरा आलेख वाचन प्रथम दिन के ‘हिंदी उपनिषद्-1’ में रखा गया है. हालांकि इस दौरान श्याम भाईजी से दूरभाष पर कई बार वार्त्तालाप हुआ, पर कार्यक्रम की तारीख न मैंने पूछी और न उन्होंने बताई.
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कार्यक्रम के चार दिन पूर्व फोन पर मैंने भाईजी को इस गफलत के बारे में बताया तो उनका प्यारा सा जवाब था-‘‘भाईजी, कोई बात नहीं, अगले दिन आ जाओ, कोई दिक्कत नहीं, पहले दिन मैं आपका नाम नहीं पुकारूंगा.’’ इस बार ‘पांचवां स्तंभ’ पत्रिका के सह-संपादक श्री संजय कुमार मिश्राजी का दिल्ली से संपादन हेतु ‘संपादक-रत्न’ की मानद उपाधि के लिए चुना गया है, सो वे मेरे सहयात्री हैं. भाईजी मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मिल गए. हम दोनों भाग-दौड़ कर किसी तरह दिल्ली-सराय रोहिल्ला स्टेशन से उदयपुर सिटी (चेतक एक्सप्रेस) में सवार हो गए. रिक्शा से उतरते हुए संजय भाईजी के घुटने में मोच आ गई. पीड़ा हो रही थी, सो स्टेशन पर से वॉलिनी खरीदकर मालिश की, कुछ आराम मिला. हमारी दोनों बर्थ (शायिका) नीचे की हैं. देखा कि चार-पांच लोग इन पर बैठे खाना खा रहे हैं. खाने के बाद हमने उनसे पूछताछ की तो पता चला कि वे लोग खाटू श्याम जा रहे हैं और बिना रिजर्वेशन हैं. संजय भाई घर से खाना लेकर आए थे, सो हमने भी खाना खाया और रेवाड़ी के बाद काफी विलंब से अपनी बर्थों पर लेट पाए. हालांकि यात्रियों के चढ़ने-उतरने से रातभर शोर होता रहा, संजय भाई ठीक से सो नहीं पाए, पर मैं तो घोड़े बेचकर सोया. अलस्सुबह मेरी आंख खुली तो देखा कि गाड़ी चित्तौड़गढ़ के स्टेशन पर खड़ी है. अहा! यह चित्तौड़ की वही वीरप्रसूता भूमि है, जो अपनी मातृभूमि की आन, बान और शान पर मर-मिटने वाले रणबांकुरों को जन्म देती रही है. राजपूताने की इस पावन भूमि और वीरों के अद्भुत तीर्थ को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं.
बाहर अभी अंधेरा व्याप्त है. गाड़ी चल पड़ी है. इस बार यहां भी वर्षा खूब मेहरबान रही है, सो चारों ओर हरियाली ही हरियाली है. रेलवे लाइन के किनारे-किनारे तथा प्राकृतिक पोखरों में जहां-तहां बरसात का पानी अब भी भरा हुआ है. पानी के किनारे बगले जैसा धवल कास फूल रहा है. मरुस्थलीय पेड़-पौधे मस्ती में झूम रहे हैं. वातावरण में ठंडक है. सूर्योदय हो रहा है और लगभग साढ़े छह बज रहे हैं, हम मावली जं. पर उतर गए. स्टेशन के बाहर चौक में राजस्थान रोडवेज की छोटी बस खड़ी है. कुछ यात्री इसमें बैठे हैं, हम भी बैठ गए. लगभग पौने सात बजे बस चल पड़ी. अब यह कीकर की झाड़ियों के बीच से डाबर सड़क पर अपने गंतव्य की ओर दौड़ रही है, तब तक हम आपको श्रीनाथद्वारा के बारे में बताते हैं.
भगवान श्रीनाथजी के आगमन से पूर्व यह पूरा क्षेत्र ऊंची-नीची अरावली पर्वत-शृंखलाओं से घिरा बीहड़ वन-प्रदेश ही था. आधे कोस की दूरी पर बनास नदी आज भी कल-कल बह रही है. इसी क्षेत्र में एक पीपल वृक्ष के निकट देवी का मंदिर था, जिसे ‘खेड़ा की माता’ पुकारा जाता था. स्थानीय लोगों में इसकी बड़ी मान्यता थी. यहां से थोड़ी ही दूरी पर पंद्रह-बीस घरों वाला ‘सिंहाड़’ गांव बसा हुआ था. विक्रमी संवत् 1715 के आसपास श्री हरिरायजी महाप्रभु यहां पधारे और खेड़ा माता के पिछले भाग में कुटिया बनाकर निवास करते हुए ‘वेणुगीत’ पर प्रवचन करने लगे. मेवाड़ का यह क्षेत्र अपनी शूरवीरता तथा मान-मर्यादा की रक्षा के लिए प्रसिद्ध रहा है.
इसी काल में सनातन धर्म पर भारी संकट आन पड़ा. क्रूर औरंगजेब ने धर्म के नाम पर ‘जजिया’ कर लगा दिया. उसके फरमान से आलमगीर के सैनिक देव-मंदिरों को नष्ट करने लगे. औरंगजेब की कुदृष्टि ब्रजमंडल में गोवर्धन पर्वत पर विराजमान श्रीकृष्ण के विग्रह ‘श्रीनाथजी’ पर भी पड़ी. ऐसी विकट स्थिति में गोवर्धनधारी श्रीनाथजी की आज्ञा से ब्रज को चुपचाप छोड़ देने में ही भलाई समझी गई. बताया जाता है कि विक्रमी संवत् 1726, आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को शयन आरती के बाद सेवकजन श्रीनाथजी को रथ में बिठाकर आगरा की ओर निकल पड़े. सेवकजन ही रथ को खींचते थे, रुकते-चलते लक्ष्यविहीन यात्रा चल रही थी. सर्दी, गरमी और बरसात की मार तथा आंधी-झंझा सहते हुए शनैः-शनैः आगे बढ़ते हुए राजपूताने की ओर निकल आए.
हालांकि मार्ग में हिंदू तथा राजपूत राजाओं ने इनका खूब आदर-सत्कार किया और अपने यहां स्थायी रूप से रहने का आग्रह भी किया. पर कुछ-कुछ दिन वहां ठहरकर आगे बढ़ते रहे और चलते-चलते मेवाड़ की पावन भूमि खेड़ा माता के परिसर में आ पहुंचे. यहां स्थित पीपल वृक्ष के नीचे रथ को रोककर रात्रि को विश्राम किया. अगले दिन प्रातः श्रीनाथजी का रथ जैसे ही आगे बढ़ा कि एक विचित्र घटना घटी, रथ का पहिया जमीन में धंस गया. पहिया निकालने की सारी कोशिशें बेकार रहीं. इस घटना से यही समझा गया कि प्रभु श्रीनाथजी यहीं पर विराजना चाहते हैं. बस फिर क्या था, तुरत-फुरत महाराणा को इसकी सूचना दी गई. उन्होंने इसे ईश्वर की कृपा और हरि-इच्छा जानकर देलवाड़ा नरेश को इनके रहन-सहन की व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंप दी. उन्होंने भी तुरत-फुरत मंदिर का स्थान नियत कर आसपास की सारी जमीन का पट्टा श्रीनाथजी के नाम कर दिया. बाद में श्री हरिरायजी की देखरेख में मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ हुआ और उनकी भावनानुसार श्रीनाथजी का भव्य मंदिर बनकर तैयार हुआ.
योगेश्वर श्रीनाथजी के आगमन से इस पूरे क्षेत्र में हर्षोल्लास छा ही गया था. विक्रमी संवत् 1728, फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को बड़ी ही धूमधाम से श्रीनाथजी का पाटोत्सव हुआ. इस दिन पूरे मेवाड़ में भारी उत्सव मनाया गया. उसी दिन से इस धाम का नाम ‘श्रीनाथद्वार’ पड़ा. ‘श्रीनाथ’ में दो शब्द हैं-‘श्री’ और ‘नाथ’. ‘श्री’ शब्द लक्ष्मीजी का वाचक होने के कारण ‘राधाजी’ का भाव प्रकट करता है. ‘नाथ’ शब्द स्वामी वाचक होने के कारण श्रीकृष्ण का भाव प्रकट करता है. दोनों ही अभिन्न रूप हैं, इसलिए यह ‘नाथद्वार’ दोनों (भगवान) को पा लेने का द्वार है. राजसमंद जिले का यह कस्बा मावली जं. से उनतीस कि.मी. तथा उदयपुर से अड़तालीस कि.मी. की दूरी पर है. भक्ति और शक्ति की यह पावन भूमि अब मेवाड़ की मुकुटमणि है. आज सारे भारतवर्ष में श्रीनाथद्वारा की इतनी प्रसिद्धि है, तो इसका एकमेव कारण प्रभु श्रीनाथजी ही हैं.
सड़क के दोनों ओर ऊंची-नीची पहाड़ियों के बीच से हमारी बस अब श्रीनाथद्वारा की पवित्र भूमि पर आ पहुंची है. बस से उतर हम ऑटो में बैठे और कार्यक्रम स्थल पर आ गए. गुरुगांव की सुनीता शर्मा भी हमारे साथ हैं. बालासिनोर धर्मशाला में बने कार्यालय में श्याम भाईजी से भेंट हुई. कुशल-क्षेम के बाद उन्होंने हम तीनों को द्वितीय तल पर कमरा नं. 36 आवंटित कर दिया. संजय भाईजी को बुखार हो गया है, सो नहा-धेकर चाय-नाश्ता किया और कैमिस्ट से टेबलेट लेने गए. अभी दुकान खुली नहीं थी, सो लौट आए. कुछ देर बाद पुनः गए और टेबलेट लेकर आए. संजय भाईजी दवा खाकर लेट गए.
आज कार्यक्रम का पहला सत्र नौ बजे ‘नगर परिक्रमण’ से शुरू होने वाला है. जब तक नीचे इसकी तैयारियां हो रही हैं, तब तक मैं आपको ‘साहित्य मंडल’ संस्था के बारे में कुछ और बताए देता हूं. देशभर में श्रीनाथद्वारा की प्रसिद्धि का पहला कारण भगवान श्रीनाथजी हैं, तो दूसरा प्रमुख कारण यहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक संस्था ‘साहित्य मंडल’ है. दशकों पूर्व यहां के विचारकों एवं साहित्य-साधकों के गहन विचार-विमर्श के बाद यह निश्चिय हुआ कि ब्रज संस्कृति के इस आध्यात्मिक केंद्र पर एक साहित्यिक संस्था होनी चाहिए. सो सन् 1937 में प्रताप जयंती के अवसर पर एक विशाल सार्वजनिक सभा में ‘साहित्य मंडल’ नाम से इस संस्था का जन्म हुआ. लोगों में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक रुचि जगाने के लिए साहित्य-गोष्ठियों एवं कवि-सम्मेलनों का आयोजन किया जाता रहा. इसके बाद वाचनालय, पुस्तकालय भी प्रारंभ किए गए. लेकिन साहित्य मंडल की प्रसिद्धि के पीछे महान कर्मयोगी और मनीषी स्व. श्री भगवती प्रसाद देवपुराजी की सतत साधना एवं जुझारू संघर्ष ही कारण रहा है. इस महान आत्मा ने अष्टछाप कवियों के संपूर्ण साहित्य के संचयन, संपादन तथा प्रकाशन का अद्भुत कार्य किया. ‘पुष्टिमार्ग के जहाज कवि सूरदास’, ‘सूरसागर’ की विशाल टीका के अलावा अज्ञान का अंधकार मिटाने के लिए विभिन्न रूपों में विपुल साहित्य रचकर ज्ञान का आलोक प्रकाशित किया. साहित्य मंडल माध्यमिक विद्यालय, प्राचीन दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रहालय, ज्ञान का आगार विशाल पुस्तकालय सब इसी के अंग हैं.
इतना ही नहीं साहित्य-पुरोधा देवपुराजी ने अपने प्रधनमंत्री-काल में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए ‘हिंदी लाओ, देश बचाओ’ समारोह की शुरुआत की, जो प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर भव्य और विशाल रूप में आयोजित किया जाता है और देशभर से हिंदी की एकनिष्ठ सेवा कर रहे शताधिक हिंदी-मनीषी विद्वानों को सम्मानित किया जाता है. स्व. देवपुराजी ने स्वयं देश की चारों दिशाओं में हिंदी-कार्यक्रमों में शामिल होकर देशभर के साहित्यकार-कवि एवं हिंदी-हितैषियों को संस्था के साथ जोड़ा. वर्तमान में उनके सुपुत्र श्री श्याम प्रकाश देवपुरा इस कार्य को पूरी निष्ठा के साथ आगे बढ़ा रहे हैं.
नीचे ‘नगर परिक्रमण’ की तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी हैं. वाद्य और बैंड की स्वर लहरी सुनाई पड़ रही है. संजय भाई तब तक कुछ आराम कर लें, अतः मैं इसमें शामिल हो जाता हूं. यह नगर-परिव्रफमा संस्था के परिसर से प्रारंभ होकर नगर के अनेक गली-मुहल्लों से होती हुई आगे बढ़ रही है. कमाल है, श्याम भाई हर मोड़ पर सबसे पहले खड़े दिखाई देते हैं, किसी छलावे की तरह. इस परिभ्रमण में विद्यालय के छात्रा-छात्रााएं, शिक्षक-शिक्षिकाएं तथा इस समारोह में पधारे साहित्यकार, पत्राकार, कवि एवं हिंदी-प्रेमी जन साथ-साथ चल रहे हैं. इस बार महिला प्रतिनिधियों की संख्या काफी है. मैं इस रैली का अंग बनकर हर्षविभोर हूं और यह देखकर अभिभूत हूं कि यहां मंडल के कायरें के प्रति कितना सम्मान है कि स्थानीय स्त्राी-पुरुष अपने घरों की खिड़कियों, दरवाजों, छज्जों पर खड़े हो हाथ जोड़कर अपना सम्मान प्रकट कर रहे हैं. इतना ही नहीं, रास्तों के किनारे खड़े स्त्री-पुरुष एवं दुकानदार भाई भी हाथ जोड़कर अपना आभार प्रकट कर रहे हैं. वास्तव में हिंदी के प्रति ऐसा सम्मान कहीं और देखने में नहीं आता है. ‘होगी कोई भाषा रानी, हिंदी तो पटरानी है’, ‘हिंदी बने विश्व की भाषा, हिंदी जन की है अभिलाषा’, ‘हिंदी भारतमाता के माथे की बिंदी’ आदि और भी अनेक नारे लिखी पट्टिकाएं और बैनर बालक-बालिकाएं उठाए हुए हैं. माइक पर उठते ये नारे आकाश में गुंजायमान हो रहे हैं. कितने जोश-उत्साह, परंतु अनुशासित ढंग से हिंदी की अलख जगाकर यह नगर-परिव्रफमा संस्था परिसर में संपन्न हुई.
इसके तुरंत बाद साहित्य मंडल के प्रेक्षागार में सत्र प्रारंभ हुआ. बुखार के बावजूद संजयजी हमारे साथ कार्यक्रम में बैठे. सत्र की अध्यक्षता के लिए मेरे सहित छह साहित्यकारों को बुलाकर मंचासीन कर दिया गया. हम सब का तिलक लगाकर तथा उत्तरीय पहनाकर स्वागत किया गया. सर्वप्रथम साहित्य मंडल माध्यमिक विद्यालय की दो बालिकाओं ने गुरुमंत्र उच्चारण, गायत्री मंत्र का पाठ और सरस्वती वंदना ‘हे शारदे माँ, हे शारदे मां, अज्ञानता से हमें तार दे मां’ बड़े ही लय-ताल और स्वरों के आरोह-अवरोह के साथ प्रस्तुत किए. पांच बालिकाओं ने वंदे मातरम् गीत गाया. बालिका खुशबू, नंदिनी सनाढ्य तथा डिंपल पालीवाल ने हिंदी पर कविता प्रस्तुत की. मंचासीन अतिथियों ने सब बच्चों को अलग-अलग नकद राशि देकर पुरस्कृत-सम्मानित किया और फिर धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह सत्र समाप्त हुआ. इसके बाद भोजनावकाश हो गया. आज कार्यक्रम का दूसरा दिन है.
भोजन के बाद दोपहर दो बजे पुनः सत्र प्रारंभ हुआ. आज हिंदी दिवस है, सो विद्यालय के बच्चों के एक समूह ने राष्ट्रभाषा गान ‘जय हिंदी, जय हिंदुस्तान’ प्रस्तुत किया. प्रादेशिक भाषाओं और हिंदी को केंद्र में रखकर बालक-बालिकाओं ने एक हिंदी नाटिका प्रस्तुत की. सब लड़कियां एक-एक भाषा बनीं और बड़ी सहजता से यह संदेश दिया कि हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाओं में कोई संघर्ष नहीं है, बल्कि वे एक-दूसरी की पूरक हैं. बालक-बालिकाओं के एक अन्य दल ने ‘हिंदी दिवस’ का औचित्य बताने वाली एक बड़ी ही भावपूर्ण हिंदी नाटिका प्रस्तुत की. मैं अचंभित हूं कि इतने छोटे बच्चे बड़े-बड़े संवाद बिना हिचक पूरे हाव-भाव के साथ बोल रहे हैं. निश्चित ही यह विद्यालय के संचालक, प्रधानाचार्य एवं अध्यापक-अध्यापिकाओं की कड़ी मेहनत और सतत अभ्यास का ही परिणाम है, वे सब साधुवाद के पात्र हैं. इसके बाद अन्य तीन बालिकाओं ने बड़ी ओजस्वी वाणी में ‘जय हिंदी प्यारी’ गीत प्रस्तुत किया. एक छोटे बालक ने प्यारी-प्यारी भाषा में ‘हम सब अपनी बोली बोलें’ कविता सुनाई.
सबसे अंत में दो बालिकाओं ने पारंपरिक वेशभूषा में गोपी-नृत्य प्रस्तुत किया. इस प्रस्तुति को देखकर प्रेक्षागार में बैठा पूरा हिंदी समुदाय अभिभूत हो गया. जोरदार करतल-ध्वनि कर इन बच्चियों को आशीर्वाद दिया. अलग-अलग सुंदर प्रस्तुतियों के लिए संस्था द्वारा सब बच्चों को पुरस्कृत किया गया. प्रस्तुति के बाद प्रत्येक बालक-बालिका ने मंच पर आकर अपना परिचय दिया कि वह कौन सी कक्षा में पढ़ता या पढ़ती है और उसने किस चरित्र का अभिनय किया. देर तक हॉल में इन बच्चों की सराहना होती रही. अगले सत्र में ‘हिंदी उपनिषद्-2’ में दर्जन भर लेखकों ने हिंदी पर अपने आलेख पढ़े. इसके बाद लगातार कई सत्रों में सम्मान-पुरस्कार कार्यक्रम संपन्न हुए. सायं के भोजन के बाद साढ़े नौ बजे से जो कवि-सम्मेलन शुरू हुआ तो रात्रि एक बजे तक चला.
रात्रि में देर से सोए, सो तुरत नींद आ गई. प्रातः छह बजे नहा-धोकर श्रीनाथजी के दर्शन करने गए. सवेरे-सवेरे श्रीनाथजी को शंखनाद करके जगाया जाता है. सर्दी में प्रातः चार बजे मंगला आरती के समय उनके मंगला दर्शन होते हैं. सर्दियों में बालरूप प्रभु श्रीनाथजी जल्दी उठते हैं तो मंदिर जल्दी खुलकर मंगला दर्शन जल्दी होते हैं और गर्मियों में प्रभु देर से उठते हैं तो मंगला दर्शन देर से होते हैं. इसके पीछे भाव यह है कि जिस प्रकार गरमी में प्रातःकाल में शीतल-मंद पवन बहती है तो बालक को मीठी सुखद नींद आती है, परंतु सर्दी में बालक जल्दी उठकर कुछ खाना चाहता है. इसी भाव से नंदलाल को बार-बार भोग लगाया जाता है. गरमी में प्रभु को गरमी न सताए, इसलिए पंखे की सेवा निरंतर चलती रहती है तथा सर्दी में प्रभु को ठंड से बचाने के लिए अंगीठी उनके आगे हमेशा रखी रहती है. प्रातः से रात्रि तक भक्तजनों का प्रवाह जारी रहता है. इसीलिए तो श्रीनाथद्वारा को ‘राजस्थान का वृंदावन’ कहा जाता है.
मैंने घूम-फिरकर संजयजी को पूरा मंदिर दिखाया और यह भी बताया कि इसे यहां नंदालय कहते हैं. दर्शन कर हम लौट आए. आज कार्यक्रम का अंतिम दिन है. संजय भाईजी को तेज बुखार है, दवा खाकर जब तक वे आराम करें, मैं और डॉ. राहुलजी पांडुलिपि कक्ष आदि का अवलोकन कर आए. नाश्ते आदि के बाद प्रातः नौ बजे सत्र आरंभ हुआ. पहले विगत वर्ष के शेष बचे साहित्यकारों को सम्मानित किया जा रहा है. इस बीच हम प्रेक्षागार से निकलकर संजय भाईजी को लेकर डॉक्टर से दवा ले आए. बड़े कष्ट के साथ संजयजी कार्यक्रम में बैठे. इस सत्र के बाद बिजली गुल हो गई. जनरेटर माइक का लोड नहीं उठा पा रहा है, सो इस बीच साहित्य मंडल के ग्रंथालय के लिए पुस्तक भेंट का दौर चला. प्रभात प्रकाशन, दिल्ली की ओर से मैंने भी पुस्तकें भेंट कीं. इसके बाद ‘उपनिषद्-3’ कार्यक्रम में सबसे पहले मैंने आलेख पढ़ा. मेरे बाद दूसरे प्रस्तोताओं ने अपने-अपने आलेख पढ़े. इसके तुरंत देशभर से आमंत्रित संपादकों को मंच पर पहले तिलक लगाकर उत्तरीय पहनाया गया, शॉल ओढ़ाकर श्रीनाथजी का प्रसाद तथा श्रीनाथजी की सुंदर छवि के साथ सभी को ‘संपादक-रत्न’ की मानद उपाधि से विभूषित किया गया. संजयभाई बड़ी मुश्किल से मंच पर बैठ पाए.
आज कार्यवक्रम सायं तक चलने वाले थे, परंतु गणेश मूर्ति विसर्जन के कारण कार्यक्रम को सीमित कर लगभग तीन बजे राष्ट्रगान के साथ समारोह के समापन की घोषणा कर दी गई. तीन दिनों तक चले इस भव्य कार्यक्रम का संचालन उद्भट विद्वान श्री विट्ठल पारीक, युवा कवि-लेखक श्री अंजीव अंजुम ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन श्री श्याम प्रकाश देवपुराजी ने किया. श्याम भाईजी को लोगों ने घेर लिया, सब उन्हें एक शानदार कार्यक्रम की सफलता के लिए बधाई देने लगे. कहे बिना रहा नहीं जाता है, हिंदी के उत्थान के लिए देशभर में सैकड़ों-हजारों संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन उनमें ऐसी बहुत कम हैं, जिनके कार्य पर गर्व किया जा सके. किंतु सीमित साधनों वाले साहित्य मंडल की सभी गतिविधियां गर्व करने लायक हैं. हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ बालक-बालिकाओं के चरित्र-निर्माण आदि के कार्य गौरवान्वित करने वाले हैं. हर कार्यक्रम में शताधिक साहित्य-सेवियों का सम्मान करने के पीछे भी यही भाव है कि ‘हिंदी लाओ, देश बचाओ’ कार्यक्रम एक जनांदोलन बने. यहां से सम्मानित हर हिंदी-सेवी अपनी जिम्मेदारी को और गहराई से समझे और अपने-अपने स्तर एवं स्थान पर हिंदी का परचम लहराए.
भोजन कर सब हिंदीप्रेमी अपनी-अपनी तैयारी में लग गए. जल्दी-जल्दी सामान व्यवस्थित कर हम ऑटो लेने मंदिर चौक आ गए. लगभग पौने चार बजे हैं. बस अड्डा जाने तक के लिए भी ऑटो नहीं मिल रहे हैं. सारे रास्ते जाम हैं. खूब धूम-धड़ाके के साथ गणेश विसर्जन का जुलूस निकल रहा है. ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हम राजस्थान में नहीं, महाराष्ट्र के किसी शहर में हों. गणेश उत्सव के प्रति ऐसा जुनून है यहां. सड़क के दोनों ओर जुलूस देखने वालों की भीड़ जुटी है. वाहनों पर तथा नीचे सड़क पर युवा भड़कीले गीतों पर भोंड़ा नृत्य कर कागारौल मचा रहे हैं. यह युवा पीढ़ी किस दिशा में जा रही है. तेज बुखार और सिरदर्द के बावजूद संजयजी घिसटते हुए मेरे पीछे चलते रहे, किसी तरह पैदल ही हम बस अड्डा आ गए. हालांकि श्याम भाईजी ने बस की व्यवस्था कर रखी थी. आखिर हमें मावली जाने वाली बस मिल गई. हम इसमें बैठ आराम से मावली जं. आ गए. संजयजी को डॉक्टर की दवा से कुछ आराम मिला है. हमारी गाड़ी ठीक समय पर प्लेटफार्म पर आ लगी और हम इसमें सवार हो गए. बैठते-ऊँघते भीलवाड़ा के आसपास हम लोगों ने साहित्य मंडल से मिले खाने के पैकेट निकाले और थोड़ा-बहुत खाया. भाईजी ने दवा खाई और फिर हम दोनों ही सो गए. आंख तो तब खुली, जब साढ़े पांच बजे गाड़ी सराय रोहिल्ला स्टेशन पर बिल्कुल खाली हो गई. साहित्यिकों के इस कुंभ में सभी ने ज्ञान की गंगा में खूब स्नान किया और हिंदी के विकास का प्रण लेकर अपने-अपने घर लौटे. कुछ भी हो, यह यात्रा दिलोदिमाग में अभी भी ताजा है.
सम्पर्कः प्रभात प्रकाशन,
4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110002
मोः 09868525741
Shri Shyam Prakash Devpura
Sahitya Mandal
Sabji Mandi, Nathdwara-313301
Diss. Rajsamand, (Rajasthan)
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