प्राची - जनवरी 2017 : कहानी / रक्तपात / दूधनाथ सिंह

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कहानी रक्तपात दूधनाथ सिंह रक्तपात कहानी पर महेश दर्पण की टिप्पणी दूधनाथ सिंह उन बहुत कम कवि -कथाकारों में से हैं जिन्होंने आधुनिकता को ई...

कहानी

रक्तपात

दूधनाथ सिंह

रक्तपात कहानी पर महेश दर्पण की टिप्पणी

दूधनाथ सिंह उन बहुत कम कवि-कथाकारों में से हैं जिन्होंने आधुनिकता को ईमानदारी से आत्मसात् करते हएु रचनाकर्म जारी रखा. अंतराल भी आए, लेकिन जब भी वह रचनारत हुए, परिणाम अच्छा ही निकला. ‘रीछ’, ‘रक्तपात’, ‘मम्मी तुम उदास क्यों हो’, ‘बिस्तर’, ‘इंतजार’, ‘आइसबर्ग’ उनके प्रारंभिक दौर की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. ‘सुखांत’ और ‘नमो अंधकारम्’ जैसी कहानियों से दूधनाथ सिंह के रचना-वैविध्य की झलक मिलती है.

सातवें दशक के प्रारंभिक चरण की महत्वपूर्ण कहानी है ‘रक्तपात’. जीवन प्रसंगों में छिपी ट्रेजेडी को अपनी ही तरह से चीन्हती है यह कहानी. कोई भूमिका नहीं, सीधे शुरू हो जाती है. पहली आहट के साथ पत्नी और फिर विक्षिप्तप्राय बुढ़िया मां से मिलवाते हुए क्रमशः एक संवाद आता है पत्नी का : ‘‘सो न जाइएगा, हां.’’

एक ओर मां की दुखद स्थिति है, दूसरी ओर, पत्नी का आवेगमय व्यवहार और तीसरी ओर, खुद में बंधा-सिमटा-सा कथानायक. वर्तमान में होते हुए भी अतीत में लौट-लौट जाता यह नायक आत्मालोचना से भी गुरेज नहीं करता. उसे याद आता है कि दादा द्वारा पिता की मृत्यु की सूचना भेजे जाने पर उसने कैसे छल किया था. सांकेतिक भाषा में कहानी बताती है कि पिता-पुत्र के बीच तनाव भी अकारण नहीं था. लेकिन मां इस सबके बीच पिसती आज इस हालत में आ पहुंची है कि ‘बुढ़िया’ हो गई है. बहुत चुपके से दूधनाथ सिंह उस डिटैचमेंट को खेल डालते हैं जो संबंधों की चूलें हिला रहा है. उसे पत्नी के साथ संवाद याद हो आते हैं.

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यह नायक एक मनःस्थिति-विशेष में जीता रहा है. उसे लगता है, सभी ने उसे छोड़ दिया है. कहानी बताती है कि आत्मीयता का तार अगर एक झटके में टूटने को हो आता है तो फिर उसे जुड़ने में भी बहुत वक्त नहीं लगता, बशर्ते स्थितियां साथ दे जाएं.

अरसे बाद घर लौटा नायक एक-एक चीज याद करता है- आत्मीय परिवेश में खुद को मिसफिट-सा पाता हुआ. इसी सबके बीच पत्नी कभी झमककर निकल जाती है तो कभी सिर्फ अपने व्यवहार से उसका ध्यान खींचना चाहती है. मां से उसका एक अर्थहीन-सा संवाद होता है क्योंकि अपने होने को भूल चुकी है बूढ़ी मां.

लेकिन कहानी यही नहीं है. इस सबके बीच, लंबे समय से प्रतीक्षारत स्त्री के शरीर की जागी हुई भूख कहानी में प्रवेश करती है तो दूधनाथ सिंह का कथाकार सजग हो उठता है. वह एक-एक मुद्रा को बारीकी से पकड़ता है : ‘‘जैसे कोई झाड़ी में छिपे खरगोश को पकड़ने के लिए धीमे-धीमे कदम बढ़ाता है, उसी तरह उन्होंने कान के पास मुंह ले जाकर एक-एक शब्द नापते हुए कहा : ‘‘मैं...कहती...हूं- प्यार कर लूं?’’

लेकिन बीच में बुढ़िया मां द्वारा पैदा किया अवरोध कहानी को एक अलग ही तनाव में डाल देता है. शरीर की भूख कितनी अंधी होती है, यह कहानी का अंत बताता है जहां यौन पिपासु पत्नी द्वारा बूढ़ी मां को धकेल दिए जाने के बाद का दृश्य खुलता है. यहां नायक पत्नी के सामने खुद को कमजोर पाता है तो इसके तर्क भी हैं.

भीतर और बाहर के रक्तपात को एक साथ देख लेने की यह अद्भुत सामर्थ्य तब दूधनाथ सिंह के जरिये पहले-पहल देखने को मिली थी. उन्होंने मनुष्य के गहरे आत्मद्वंद्व और परिस्थितियों की भयावहता को एक साथ समेटने की रचनात्मक कोशिश लगातार की है. विवेकशील मुनष्य किस तरह एक निरीह प्राणी में तब्दील हो जाता है, यह वह बार-बार देखने की कोशिश करते नजर आते हैं स्थितियों, दृश्यों और घटनाओं का जो भयावह कोलाज दूधनाथ सिंह की कहानियों में मिलता है, वह बेहद संतुलित और अकृत्रिम है. छोटी-सी घटना के भीतर वह ऐसी ट्रेजेडी की तलाश कर दिखाते हैं कि वह हमारे भीतर खुबकर रह जाती है आधुनिक हिंदी कहानी को उन्होंने न सिर्फ एक सजग भाषा दी है, बल्कि एक तराशा हुआ शिल्प भी.

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महेश दर्पण का जीवन परिचय

सुपरिचित कथाकार, हिन्दी कहानी के अध्येता और पत्रकार. अब तक सात कहानी संग्रह, दो लघुकथा संग्रह, एक यात्रा वृत्तांत, एक आलोचना, एक जीवनी, पांच बाल और नव साक्षर पुस्तकें प्रकाशित. ‘बीसवीं शताब्दी की हिन्दी कहानियां’ के अतिरिक्त दस पुस्तकों का संपादन और दो विदेशी पुस्तकों का अनुवाद. केंद्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान, पुश्किन सम्मान, हिन्दी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान एवं कृति पुरस्कार, पीपुल्स विक्ट्री अवार्ड, नेपाली सम्मान, नेताजी सुभाष चंद्र बोस सम्मान, राजेंद्र यादव सम्मान सहित अनेक सम्मान पुरस्कार. रूसी, अंग्रेजी, नेपाली, कन्नड़ और पंजाबी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद. सारिका, नवभारत टाइम्स, सान्ध्य टाइम्स के संपादकीय विभाग में चार दशक काम करने के बाद संप्रति स्वतंत्र लेखन.

संपर्कः संपर्कः सी-3/51,

सादत पुर, दिल्ली-110090

 

मो. 9013266057

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कहानी

रक्तपात

दूधनाथ सिंह

हट-सी लगी. हां, पत्नी ही थीं. पलंग से कुछ दूर पर अंगीठी रख रही थीं. एक हाथ में परोसी हुई थाली थी. अंगीठी रखकर वे पलंग की ओर गईं. पत्नी ने थाली बुढ़िया के आगे रख दी. बुढ़िया एकटक उनका मुंह ताकती मुस्कराती रही. उन्होंने हाथ से थाली की ओर इशारा किया. बुढ़िया ने एक बार थाली की ओर देखा और फिर उनकी ओर, फिर मुसकराई. पत्नी ने फिर थाली की ओर इशारा किया तो बुढ़िया ने थाली उठाकर अपनी गोद में रख ली और बड़े-बड़े ग्रास तोड़कर निगलने लगी. वे चुपचाप बिना कुछ कहे नीचे उतर गईं. दुबारा लौटीं तो उनके एक हाथ में एक छोटी-सी पतीली थी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा. पतीली को अंगीठी पर रखकर वे फिर बुढ़िया की खाट के पास गईं और पानी का लोटा नीचे रखते हुए बुढ़िया को उंगली के इशारे से दिखा दिया. बुढ़िया ने एक बार लोटे की ओर देखा और उनकी ओर देखकर फिर मुसकराने लगी. ऐसा लगता था, जैसे केवल मुसकराना-भर उसे आता हो और कुछ भी नहीं. फिर वह खाने में मशगूल हो गई. रोटी के खूब बड़े-बड़े कौर तोड़ती और मुंह में डालकर चपर-चपर मुंह चलाती. कौर अभी खत्म भी न हुआ होता कि फिर रोटी का एक बड़ा-सा टुकड़ा सब्जी और दाल में लपेटकर वह मुंह में ठूंस लेती.

‘‘इन्हें इसी तरह खाने की आदत पड़ गई है.’’ पत्नी ने कहा. वे चुपचाप पलंग के पास खड़ी थीं.

वह बिना कुछ कहे बुढ़िया को देखता रहा.

‘‘और जब से ऐसी हो गई हैं. खुराक काफी बढ़ गई है...’’

‘‘.......’’

‘‘बड़ी फूहड़ हो गई हैं. कुछ नहीं समझतीं. जहां खाती हैं वहीं...’’

फिर भी वह कुछ नहीं बोला तो पत्नी बैठ गईं. बालों में हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘क्या किया जाए, कोई बस नहीं चलता...अच्छा, मैं नीचे का काम निपटाकर अभी आई. आप जरा अंगीठी की ओर ख्याल रखना- दूध उफनकर गिर न जाए.’’

वे उठकर जाने लगीं.

सीढ़ियों के पास से मुड़कर उन्होंने कहा, ‘‘सो न जाइएगा, हां!’’ वे मुसकराईं और नीचे उतर गईं.

करवट बदलकर वह दूसरी ओर देखने लगा. सामने बरगद का वही विशालकाय वृक्ष-जन्म-जन्मांतर से इस कुल के सुख-दुःख का साक्षी. कितना घना अंधकार...कितने दिनों बाद उसने देखा था, इतना ठोस, गाझिन, शीतल और मन को सुकून देने वाला अंधकार. शायद दस वर्षों बाद. यह बरगद का पेड़ वैसा ही था. ऊपर की एक-दो डालें आंधियों में टूट गई थीं और उसकी गोल-गोल छाया में बीच, ऊपर से गहरा, काला खंदक-सा बन गया था. जहां-तहां जुगनू नन्हे-नन्हे पत्तों के बीच दमककर हलका-सा प्रकाश फेंक जाते. पत्ते छिपकर, अंधेरे में फिर एकाकार हो जाते. एक, दो, तीन, चार, पांच...दस और फिर असंख्य जुगनू- जैसे पूरा पेड़ उनका सुनहरा घोंसला हो. पीछे की ओर घनी बंसवारियां थीं. बांसों का एक झुरमुट छत के एक कोने तक आकर फैला हुआ था. हवा की हल्की थाप पर पत्तियों का झुनझुना रह-रहके बजता और फिर खामोश हो जाता. एक ओर कटहल के दो पेड़ अंधकार को और भी घना करते हुए चुप थे. दरवाजे के बाहर, नीचे दादा सोए हुए थे. नाक बज रही थी. उसने घड़ी देखी...दस. कान के पास ले जाकर वह घड़ी के चलने की आवाज सुनता रहा- चिड़ चिड़, चिड़-चिड़, चिड़ चिड़...जैसे विश्वास नहीं हो रहा था कि दस ही बजे इतना खामोश अंधेरा चारों ओर हो सकता है...

इससे पहले जब वह घर आया था...उस बार भी दादा ने ही लिखा था, पिता की मृत्यु के बारे में. फिर तार भी दिया था. वह चुपचाप पड़ा रहा. जिनके यहां रहता था, उन्हीं के लड़के से चिट्ठी लिखवा दी कि ‘प्रभुजी यहां नहीं हैं. बाहर गए हैं. कब तक लौटेंगे, किसी को पता नहीं. कहां गए हैं, यह भी किसी को नहीं मालूम...’ फिर दिन-भर वह घर में ही पड़ा रहता- नंग-धड़ंग बिना खाए-पीए, अपनी नसों की आहट सुनता. बीच-बीच में कभी-कभी वह सोचता कि यह खबर गलत है. दादा ने झूठ-मूठ ही लिख दिया है, उसे घर बुलाने के लिए. लेकिन नहीं, इतना बड़ा झूठ दादाजी नहीं लिख सकते. उसने लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया. एकदम नंगी, वीरान सड़कों पर वह चलता चला जाता...चला जाता...तब तक, जब तक थककर चूर-चूर न हो जाए. कहीं नदी के किनारे पानी में पैर डाले बैठा रहता... इसी तरह कई महीने गुजर गए थे. दादा की चिट्ठी आई- ‘मां बहुत उदास हैं. दिन-रात रोती रहती हैं. उसे बुलाती हैं...’

चुपके-से बिना सूचित किए वह घर चला आया था. मां-दिन-भर रोती रहीं. वह चुपचाप उनके पास एक अपराधी की भांति बैठा रहा. मां अन्यमनस्क भी लग रही थीं. धीमे से एक बार कह भी डाला- ‘‘ऐसे पूत का क्या भरोसा! जो अपने बाप का न हुआ वह और किसका होगा...’’ रात हुई तो वह बाहर ही सोया. मां आईं और चुपके-से चादर उढ़ा गईं. माथा छूकर देखा. बालों में हाथ फेरकर ललाट पर बिखरी लटें हटा दीं. तलुवे सहलाए. फिर चुपचाप चली गईं. बचपन से ही मां की यह आदत थी. जब-जब वह चादर फेंक देता, मां उठ-उठकर ठीक से उढ़ा दिया करती थीं. नींद आने के लिए तलुवे सहलातीं, सिर उठाकर तकिये पर रख देतीं...

लेकिन दूसरे दिन मां आईं और चुपचाप पायताने बैठकर पैर दबाने लगीं. उसे लगा कि मां सिसक रही हैं. वह उठकर बैठ गया. कितना असह्य था, मां का यह रोना...यह सब कुछ! मां को वह क्या कह सकता था? मां क्या सब जानती नहीं थीं? शायद पिता भी जानते थे और सारा घर जानता था. लेकिन कोई भी क्या कर सकता था! ठीक है, जो हो रहा है वही होने दो- उसने सोचा. उसे लगा कि कहीं कुछ घट नहीं रहा है. सब कुछ अपनी जगह पर एकदम अचल है. वह जड़ हो गया है- अपने से भी पराया...मां तलुवे सहलाती हुई सिसक रही थीं. उसके मुंह से कुछ नहीं निकला. आखिर मां ने उठते हुए कहा था, ‘‘बेटा! इतना हठ किस काम का! पिता तेरे क्या कम दुखी थे? लेकिन बेटा! बड़ों से कोई अपराध हो जाए तो उन्हें इस तरह कहीं सजा दी जाती है. पिता तो परमात्मा हैं. और फिर वे भी क्या जानते थे? बेटा! बड़ा वह है जो अपनी तरफ से सभी को क्षमा करते चले. और वह तो फिर भी नाते में तेरी बहू है...कहीं कुछ और हो जाए तो इस हवेली की नाक कट जाएगी.’’ मां फुसफुसाईं...‘‘अभी कुछ नहीं बिगड़ा है...चल, उठ.’’ मां ने बांह पकड़के उठा लिया.

यही पलंग था. ऊपर आकर वह चुपके से लेट गया था. पत्नी आईं और खड़ी रहीं, फिर मुसकराती रहीं.

‘‘बैठ जाइए.’’ उसने कहा.

‘‘शहर तो बहुत बड़ा होगा.’’ वे बैठती हुई बोलीं.

‘‘जी,’’ उसने स्वीकार भाव से कहा.

‘‘हमने भी शहर देखे हैं.’’

‘‘जी!’’

‘‘कह रही हूं- हमने भी शहर देखे, लेकिन हम कोई रंडी थोड़े हैं.’’

‘‘जी?’’ वह घूमकर पत्नी को देखता रहा.

वे मुसकराईं, ‘‘सारे इल्जाम उलटे हमीं पर...अपने बड़े भोले बनते हैं. कितने घाटों का पानी पिया?’’

‘‘जी!’’ वह उठकर बैठ गया, ‘‘क्या यही सब सुनाने के लिए...’’ वह उठकर खड़ा हो गया.

‘‘बहुत खराब लगता है. और नहीं तो क्या? वहां तप करते रहे! मर्द तो कुत्ते होते ही हैं. इधर पत्तल चाटी, उधर जीभ चटखारी, उधर हंड़िया में मुंह डाला....सभी लाज-लिहाज तो बस हमारे ही लिए है.’’

रात के दो बज रहे थे, जब वह स्टेशन पहुंचा था. सुबह होने के पहले ही वह गाड़ी पर सवार हो चुका था और दिन निकलते-न-निकलते उसे गहरी नींद आ गई थी. लोगों के पैरों से कुचला जाता हुआ, एक गठरी की तरह, नींद में गर्क वह पड़ा रहा.

दादा की चिट्ठियां आती रहीं. हर मनीआर्डर फार्म पर नीचे मां की अननुय-विनय-भरी चंद सतरें...फिर अलग से पत्र. उसने लिख दिया- ‘अब चिट्ठी तभी लिखूंगा जब बीमार पड़ूंगा. न लिखूं तो समझना मां, कि तुम्हारा लाडला बेटा आराम से है. उसे कोई दुःख नहीं है.’ मां के पत्र धीरे-धीरे बंद हो गए. दादा के टेढ़े-मेढ़े कांपते अक्षर याद दिलाते रहे कि मां अब ज्यादातर चुप रहने लगी हैं. फिर यह कि मां किसी को पहचान नहीं पातीं. इस बात से उसे जाने क्यों संतोष हुआ. दादा लिखते रहे और वह चुपचाप पड़ा रहा. जैसे धीरे-धीरे कहीं सारे संबंध-सूत्र टूटते गए और वह निर्विकार-सा, भूला हुआ-सा चुपचाप पड़ा रहा. किस बात का इंतजार था उसे? शायद किसी बात का नहीं. कभी उसे लगता था कि सभी ने उसे छोड़ दिया है. अब धीरे-धीरे यह लगता था कि उसी ने अपने को छोड़ दिया है...जिस दुःख का कोई प्रतिकार नहीं होता, वह दुःख क्या होता भी है...इसी तरह एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष...चार वर्ष...कि एक दिन उसने देखा- वैसा ही बड़ा-सा साफा बांधे, छः फीट ऊंचे दादा, सत्तर साल की उम्र में भी उसी तरह तनकर दरवाजे पर खड़े हैं.

उसका सारा धैर्य और सारा एकांत जैसे बह गया, उस एक क्षमा में ही. किसी भी बात का प्रतिकार नहीं कर सका. दादाजी को रोते देखकर उसके आंसू बंद हो गए थे....

स्टेशन पर उतरे तो वही पुरानी घोड़ागाड़ी खड़ी थी. शंभू कोचवान दस साल में जैसे बिलकुल नहीं बदला था. घोड़े की पूंछ झर गई थी और उसके बदन पर जगह-जगह घाव के लाल-लाल चप्पे दिखाई दे रहे थे....वही रास्ता...धूल-धूसरित गांव, नदी के लंबे, सूने, दूर-दूर तक खिंचे कगार. अंतहीन, लंबे, मरीचिका-भरे मैदान और लू में तपती पृथ्वी की प्यासी आंखों-सा शुष्क और गेरुआ सोता...बचपन के बारह वर्ष अपने जिन आत्मीय दृश्यों में उसने गुजारे थे, बाद के बारह वर्षों में वह दूसरी मर्तबा देख रहा था. एक बार पिता की मृत्यु के बाद घर आने पर और दोबारा अब, दादा के साथ. जैसे सब-कुछ वही था- उसी तरह. सूने मैदानों में हिरनों के झुंड छलांगें मारते हुए नदी की ओर दौड़े जा रहे थे. कहीं-कहीं बबूल की विरल छांह में नीलगायों के झुंड कान उठाए खड़े थे. सब-कुछ वही था- उस पार बालू का सफेद सैलाब, तेज गरम हवा के झकोरों से क्षितिज तक फैलता हुआ...और सूर्य की अंतहीन करुणा की रेखा- वह नदी...उसने सोचा- कैसे कह सकता है वह? किससे कह सकता है अंतर की इतनी असहृ यंत्रणा!

एकाएक उसे आरती का ख्याल आया. दादा ने बताया था, ‘आरती आई हुई है, बहुत हठ से बुलाया है.’’ फिर वे हरी की प्रशंसा करते रहे, ‘बहुत अच्छा लड़का मिल गया. आरती सुखी है.’ फिर वे बयान करने लगे- ‘उसके एक बच्चा भी है. दिन-रात रबड़ की गेंद की तरह लुढ़कता रहता है, इस गोद से उस गोद में. अपनी नानी को खूब तंग करता है...लेकिन वह बेचारी तो...’ दादा फिर चुप हो गए थे. इन बेतरतीब बातों में ढेर सारे चित्र उसकी आंखों के सामने उभर रहे थे. कभी आरती का नन्हा रूप. फिर उसका बड़ा-सा भव्य नारी शरीर. अजीब-अजीब-सा मन होने लगा उसका.

झिलमिलाती हुई आंखों से उसने दादा की ओर देखा. वे झपकियां ले रहे थे.

गाड़ी रुकते ही उसने दरवाजे की ओर ताका. मां वहां जरूर होंगी. लेकिन तभी आरती निकल आई. एक पल को वह पहचान नहीं पाया. उसकी कल्पना में आतरी का यह नक्शा कभी उभरा ही नहीं था. आरती ने झुककर पैर छुए. वह वैसे ही देखता रहा. फिर दोनों एक-दूसरे को देखकर मुसकरा दिए. फाटक के भीतर घुसते ही वह इधर-उधर झांकने लगा. कहीं भी मां होगी ही. एक विचित्र भाव से संत्रस्त और चुप-चुप वह बहन के साथ-साथ आगे बढ़ता चला जा रहा था. झरती हुई लाहौरी ईंटों की दीवारें उसकी आंखों के सामने थीं. उनके आसपास मां की छाया तक न दीखी. दालान पार करके आंगन में आ गए. आधे आंगन में दीवार की छाया पड़ रही थी. मां वहां भी नहीं थीं. उसने एक बार फिर बहन को देखा. जवाब में वह मुसकरा पड़ी. फिर वे बैठकखाने में आ गए. बहन ने कहा, ‘‘बैठो, मैं नहाने के लिए पानी रखवाती हूं.’’

वह एक पुरानी आरामकुरसी पर बैठ गया. बैठे-ही-बैठे उसने फिर इधर-उधर ताका. फिर भी मां नहीं दिखीं. मुड़कर पीछे की ओर देखा तो उसकी दृष्टि आंगन के पार, अपने कमरे के सामने खड़ी पत्नी पर पड़ गई. वे चुपचाप खड़ी इधर ही देख रही थीं. वह सीधा होकर बैठ गया और आरती का इंतजार करने लगा. उसे लगा कि अपने ही घर में वह एक अतिथि है और अपने परिचित कोनों, घरों की दीवारों, ताकों, सीढ़ियों को नहीं छू सकता. हर कहीं एक बाध्यता है...एक न जाने कैसी विवश खिन्नता. वह उठकर टहलने लगा.

तभी आरती अंदर आई. कांच की तश्तरी में लड्डू और पानी का गिलास. वह बैठ गया.

‘‘नहाओगे न?’’

‘‘मां कहां हैं?’’

‘‘पहले खा-पी लो तब चलना. पीछे वाले कमरे में होंगी.’’ आरती उठकर चली गई.

बिना किसी से पूछे बरामदे से होता हुआ वह पीछे की ओर निकल आया. पत्नी अपने कमरे के दरवाजे पर खड़ी थीं. उसे आते देखकर उन्होंने हल्का-सा घूंघट कर लिया. वह आगे बढ़ गया. कमरे के सामने वह एक पल को ठिठका. किवाड़ उंठगाए हुए थे. उसने हलके-से किवाड़ों को ठेल दिया. खुलते ही एक अजीब-सी सड़ी दुर्गंध से नाक भर-सी गई. उसने नाक पर रूमाल रख लिया और अंदर दाखिल हुआ. इधर-उधर देखकर उसने यह पता लगाने की कोशिश की कि यह दुर्गंध से सनी हुई थी...चारपाई, बिस्तर, खिड़कियां, छत की शहतीरें, फर्श और स्वयं मां भी. वह चुपचाप चारपाई की पाटी पर बैठकर मां को एकटक देखने लगा. बुढ़िया ने कोई उत्सुकता जाहिर नहीं की. वैसे ही छत की ओर देखती रही.

तभी आरती आ गई. सिरहाने बैठकर बुढ़िया के चीकट बालों पर हाथ फिराती हुई बोली, ‘‘मां!’’

बुढ़िया न हिली न डुली, न यही जाहिर किया कि उसे किसी ने पुकारा है. बस, चुपचाप छत की शहतीरें ताकती रही. एकाध मिनट तक दोनों चुप रहे. बुढ़िया ने करवट बदली और उसकी ओर देखने लगी.

‘‘मां! देख, भैया आया है.’’

बुढ़िया ने इस बार सिर उठाकर बेटी को देखा और हंसने लगी. ‘‘देख, भैया आया है.’’ उसने दुहराया.

‘‘हां, मां!’’

बुढ़िया फिर चुप हो गई और एक पल के बाद उसने आंखें मूंद लीं.

वह चुपके से उठ आया.

आरती पीछे से बोली, ‘‘भइया, नहा लो.’’

तीसरा पहर बीत रहा था. वह बैठकखाने में आरामकुरसी पर आंखें मूंदे पड़ा था. पत्नी रसोई में छौंक लगा रही थीं. भूख लग आने के बावजूद भी जैसे इच्छा मर गई थी. कुछ भी टिक नहीं पाता था मन में. हजारों-लाखों प्रतिबिंब जैसे किवाड़ों की ओट से झांकते और आधी पहचान देकर गुम हो जाते. समाप्त होना किसे कहते हैं...खोना किसे कहते हैं...निस्सहाय होना किसे कहते हैं...मूक होना किसे कहते हैं...अर्थहीन होना किसे कहते हैं- यह सब-का-सब कितना स्पष्ट हो गया था अंतर में!

...आंखें खोलने पर क्या दिखेगा-सच या सपना?

फिर भी यह देह है और उसी तरह आरामकुरसी में पड़ी है. बाहर से कहीं कुछ नहीं बदला है. सारा रक्तपात भीतर हो रहा है. और खून नहीं एकत्र होता है...बहता नहीं.

सब कुछ वही है. बल्कि दादा, आरती और सारे परिवार को एक निधि मिली है. सभी आज खुश हैं. कुछ घट रहा है. और इधर? उसे लगा कि अब वह मनुष्य नहीं है. सत्कर्म, सेवा या दुष्कर्म, पाप...सब समान हैं. जिसके लिए होंगे, उसके लिए होंगे. वह मनुष्य होगा. लोगों की दृष्टि में तो सभी कुछ है, लेकिन उसके लिए?...सच है कि सब कुछ ज्यों-का-त्यों है, लेकिन मानवीय इच्छाओं का, उसका अपना संसार कहीं अंधेरे में छिप गया है.

उसने एक झटके से आंखें खोल दीं. आरती उसके पैरों के पास चटाई पर बैठी कुछ सी-पिरो रही थी. उसके देखते ही मुसकरा पड़ी, ‘‘नींद आ रही है न?’’

उसने कोई जवाह नहीं दिया. लगा कि कई जन्मों से वह इसी तरह चुप है. बोलना बहुत चाहता है, लेकिन मुंह से कोई शब्द नहीं निकलता. जैसे दिल की धड़कनों पर अनजाने ही हाथ पड़ गया हो और धड़कनें एक-सी रही हों. जीभ तालू से सट गई हो. बहुत कोशिश कर रहा हो हिलने-डुलने की, लेकिन जरा भी हरकत न होती हो. जड़, निराधार, निरुपाय वह अपने को ही देख रहा हो....

उसने उठकर खिड़की खोल दी. आंगन का प्रकाश छनकर भीतर आ गया और हवा का एक गरम झोंका बदन छीलता हुआ दूसरी खिड़की से सरक गया. वह यों ही टहलता रहा.

‘‘तू किस क्लास में है, आरो?’’

‘‘प्रीवियस में.’’

‘‘हरी कैसा है?’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मुझे कभी याद...’’ तभी पत्नी दरवाजे के सामने से झमककर निकल गईं. वह चुप हो रहा. फिर आरती उठकर चली गई.

वह बाहर बरामदे में निकल आया. आंगन में छाया बढ़ रही थी. आगे बरगद पर धूप अभी बाकी थी. उसने छत की ओर देखा. एकाएक मां को देखकर वह घबरा गया. जल्दी से दौड़कर सीढ़ियां तय कीं और छत पर आ रहा. मां पसीने से तर, नंगे पांव, जलती छत पर खड़ी थीं. उनके आधे बदन पर धूप पड़ रही थी और गरम हवा के हलके झोंके में रह-रहके उनके धूसर बाल उड़ रहे थे. वे चुपचाप, पश्चिम की ओर पीली धूल-भरी आंधी और धूल में डूबे बाग-बगीचों के ऊपर छाये हुए आसमान की ओर देख रही थीं.

‘‘मां!’’ उसने पुकारा.

फिर बिना कुछ कहे उसने बुढ़िया को बांहों में उठा लिया और सीढ़ियां उतरने लगा. नीचे आरती खड़ी थी. बोली, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, नंगे पांव जलती छत पर धूप में खड़ी थीं.’’

बैठकखाने में लाकर उसने बुढ़िया को आरामकुरसी में डाल दिया.

‘‘भइया, खाना खा लो.’’ आरती ने कहा.

एकाएक वह चौंक गया. जले हुए दूध की महक आ रही थी. दौड़कर उसने जलती हुई पतीली अंगीठी से उतार दी. उसका हाथ जल गया और पतीली छूटकर जमीन पर लुढ़की तो सारा दूध फैल गया. धीमे से बुढ़िया की खिलखिल सुनाई दी तो उसने घूमकर देखा- वह वैसी-की-वैसी ही बैठी थी. एकदम शांत, जड़ और निश्चल. जली हुई उंगलियों को मुंह में डाले वह उसकी खाट की ओर बढ़ गया. बुढ़िया एकटक उसे ताकने लगी. उसकी गोद में जूठी थाली वैसे ही पड़ी हुई थी. हाथ जूठे थे और मुंह पर दाल और सब्जी के टुकड़े सूख रहे थे. उसकी नाक बह रही थी जिसे कभी-कभी वह सुड़क लेती.पानी का लोटा वैसे ही नीचे रखा था, तो क्या उसने अभी तक पानी नहीं पिया?...उसने झुककर लोटा उठाया और बिना कुछ कहे बुढ़िया के होंठों से लगा दिया. गटगट करके वह तुरंत आधा लोटा पानी पी गई. फिर मुंह उठाकर उसकी ओर देखा और मुसकरा पड़ी. उसने थाली हटाकर नीचे डाल दी, और बुढ़िया के जूठे हाथ (वह दोनों हाथों से खाए हुए थी) धोने लगा. फिर उसने बुढ़िया का मुंह धोया और अपने कुरते की बांह से पोंछ दिया.

‘‘मां, मुझे पहचानती हो, मैं कौन हूं?’’

‘‘मां, मुझे पहचानती हो, मैं कौन हूं!’’ बुढ़िया ने वाक्य ज्यों-का-त्यों दुहरा दिया. केवल प्रश्नवाचक स्वर नहीं था उसका.

‘‘मैं संजय हूं...मां!’’

‘‘...संजय हूं मां!’’

उसके भीतर जैसे कोई चीज अटकने लगी. वह चुप हो गया. लगा, जैसे अंतड़ियों में बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़े आपस में टकरा रहे हैं. उसने बुढ़िया के पांव उठाकर चारपाई पर रख दिए और पकड़कर धीमे-से लिटा लिया. बुढ़िया लेट रही और टुकुर-टुकुर उसे देखने लगी. वह उसके तलुवे सहलाता रहा. बुढ़िया मुसकराती और फिर हलके से खिल-खिल करके हंस पड़ती. उसके सफेद चमकदार दांत टूट गए थे और मुंह खुलने पर एक काले, गहरे बिल की तरह दिखता. चेहरे की झुर्रियों में चिकनाहट आ गई थी और हाथ-पांव सब चिकने-चिकने लगते थे, जैसे किसी फोड़े के आसपास की चमड़ी सूजन से खिंचकर चिकनी और मुलायम पड़ जाती है.

‘‘मां, मैं हूं...संजय’’ वह बुढ़िया के चेहरे पर झुक गया, ‘‘मां, मैं हूं...मैं...संजय...’’

बुढ़िया उस पर खूब जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी और फिर एकदम चुप हो गई. उसकी आंखों से दो बड़े-बड़े आंसू बुढ़िया के चेहरे पर चू पड़े. इस पर बुढ़िया फिर खिलखिला पड़ी.

सीढ़ियों पर धमस सुन पड़ी. पत्नी धपधपाती हुई ऊपर आ रही थीं. वह उठकर बैठ गया. ऊपर आते ही उनकी नजर पड़ गई. बोलीं, ‘‘वहां क्यों बैठे हो?’’

‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही.’’

वे निकट चली आईं, ‘‘क्या खुसुरफुसुर चल रही थी? बुढ़िया बड़ी चार-सौ-बीस है...’’

‘‘दूध गिर गया.’’ उसने दूसरे ओर देखते हुए कहा.

‘‘गिर गया?’’ वे चौंककर अंगीठी की ओर देखने लगीं.

‘‘जल्दीबाजी में हाथ से पतीली छूट गई.’’

‘‘थोड़ा-सा भी नहीं बचा है?’’

‘‘होगा बचा, मैंने देखा नहीं.’’

वे अंगीठी की ओर चली गईं. पतीली को हिला-डुलाकर देखा. बोलीं, ‘‘हाय राम, अब क्या करूं? उसमें तो पीने लायक दूध बचा ही नहीं.’’

‘‘मुझे रात को दूध पीने की आदत नहीं है.’’ उसने कहा और उठकर टहलने लगा.

पत्नी ने घूरकर देखा, जैसे कह रही हों, ‘‘आदत न होने से क्या होता है?’’

टहलते हुए वह छत के कोने में निकल गया, जहां बांसों की छाया में अंधकार और भी गाढ़ा हो रहा था. हरी-हरी पत्तियों के झुरमुट में इक्के-दुक्के जुगनू दमक रहे थे. नीचे दूर-दूर तक बांसों के भीतर अंधेरा ही अंधेरा और उसी तरह दमकते जुगनू. उसने हाथ बढ़ाकर एक जुगनू को पकड़ना चाहा तो वह झट से अलोप हो गया और कुछ दूर पर फिर दप-से चमक गया. उसे याद आया- किस तरह बचपन में ढेर सारे जुगनू पकड़कर वह अपने घुंघराले बालों में फंसा लेता और मां के पास दौड़ा-दौड़ा जाकर कहता- ‘मां-मां, इधर देखो, जुगनू का खोता...’

‘‘नींद नहीं आती?’’

उसने घूमकर देखा- पत्नी पास ही खड़ी थीं.

‘‘रात बहुत चली गई है. थोड़ी ही देर में गंगा नहाने वालियों के गीत सुनाई पड़ने लगेंगे.’’

‘‘हां, ठीक है.’’ उसने घड़ी देखी, ‘‘बारह बज गए!’’ वह आकर पलंग पर लेट गया.

पत्नी आकर पायताने बैठ गईं. अब उसने देखा. उन्होंने सफेद रेशमी साड़ी पहन रखी थी. बदन पर बस चोली-भर थी. बाल खूब खींचकर बांधे हुए थे और हाथों की चूड़ियां रह-रह के पंखा झलते वक्त खनक जातीं...पूरब की ओर लाल-लाल चांद उग रहा था और बरगद के सघन पत्तों के बीच से चांदनी का आभास लग रहा था. आसमान और भी गहरा नील वर्ण था, और सप्तर्षि काफी ऊपर चढ़ आए थे.

‘‘गरमी नहीं लगती?’’ वे खिसककर पलंग की पाटी पर बीचोंबीच चली आईं. एक हाथ उसकी कमर के पास से दूसरी पाटी पर रखती हुई वे एकदम धनुषाकार झुक गईं और दूसरे हाथ से पंखा झलती रहीं. वह करवट घूमकर उन्हें देखने लगा- भरी-भरी-सी गदबद देह. गरमी का मौसम होने पर पेट और बांहों पर लाल-लाल अम्हौरियां भर आई थीं.

‘लाओ, कुरता निकाल दूं. इतनी गरमी में कैसे पहने रहते हैं ये कपड़े?’’ वे उठकर सिरहाने की ओर चली आईं. तकिया एक ओर खिसका दिया और उसका सिर हाथों से उठाती हुई बोलीं, ‘‘जरा उठो तो.’’

वह उठकर बैठ गया. बांहें ऊपर कर दीं. उन्होंने कुरता निकालकर एक ओर रख दिया. फिर बनियान निकाल दी. हलके प्रकाश में उसका सोनल बदन दिखने लगा. पत्नी पीठ सहलाती रही, थोड़ी देर. फिर बांहें. फिर कंधे पर ठोड़ी रखकर टिक गईं. बोलीं, ‘‘इतने दुबले क्यों हो? क्या शहर में खाने को नहीं मिलता.’’

‘‘जी, ठीक तो हूं. दुबला कहां हूं!’’

‘‘हो क्यों नहीं? क्या मैं अंधी हूं?’’ वे और सट आईं.

‘‘मां!’’ उसने फुसफुसाकर इशारा किया, ‘‘बैठी हैं.’’

जैसे किसी ने चिकोटी काट ली हो, पत्नी झट-से सीधी हो गईं. फिर बोलीं, ‘‘वो! वो कुछ नहीं समझतीं.’’

फिर भी वे उठीं और जाकर बुढ़िया को दूसरी करवट फिराकर लिटा दिया. बुढ़िया चुपचाप लेट गई.

लौटकर वे पलंग की पाटी पर अधबीच में ही बैठ गईं और पंखा झलती रहीं. चांद ऊपर चढ़ आया था और सारा आसमान धूसर रोशनी से भर आया था. छत से दूसरी छतें, पीछे की ओर का बगीचा, तथा बरगद का दरख्त रोशन हो उठे थे. वातावरण कुछ नम पड़ गया था और दूर से मधूक पक्षी की आवाज सन्नाटे को रह-रह के चीर जाती...

‘‘जरा एक ओर खिसको न...’’

‘‘ऊं??...हूं.’’ उसने खिसककर जगह कर दी.

‘‘नींद आ रही है?’’

‘‘हूं.’’

‘‘कितने बज रहे हैं?’’

‘‘एक.’’ उसने अंधेरे में घड़ी देखी और जमुहाइयां लेने लगा.

‘‘तुम्हारी छाती पर एक भी बाल नहीं है.’’ उन्होंने अपना सिर रख दिया. पंखा नीचे डाल दिया.

‘‘....’’

‘‘प्यार कर लूं?’’

‘‘जी!’’

जैसे कोई झाड़ी में छिपे हुए खरगोश को पकड़ने के लिए धीमे-धीमे कदम बढ़ाता हुआ आगे बढ़ता है, उसी तरह उन्होंने कान के पास मुंह ले जाकर एक-एक शब्द नापते हुए कहा- ‘‘मैं...कहती...हूं- प्यार कर लूं?’’ उसने हाथ के इशारे से फिर भी अपनी नासमझी जाहिर की.

‘‘धत्.’’ वे मुसकरा पड़ीं, कुहनी तकिये से टिकाकर हथेलियों पर अपना सिर रखकर ऊंची हो गईं. एकाएम चेहरे का भाव एकदम बदल-सा गया. बोलीं ‘‘इतना अत्याचार क्यों करते हो?’’

वह कुछ कहने ही जा रहा था कि कुकड़ कूं-कुकड़ू-कूं करती हुई ढेर सारी मुर्गियां छत पर इधर-उधर दौड़ने लगीं- डरी और घबराई हुई-सी. दो-तीन मुर्गे एक ही साथ बाहर निकल आए और उनमें से एक ने खूब ऊंची आवाज में बांग दी- कुकड़ूं-कूं...एक झटके-से वे दोनों उठकर बैठ गए. छत के कोने में एक ओर मुर्गियों का दरबा था. देखा, बुढ़िया ने दरबा खोलकर सारी मुर्गियों को बाहर निकाल दिया है और चुपचाप खड़ी मुसकरा रही है. कभी हलके-से खिलखिला पड़ती है. एक अजीब-सी दहशत में उसे पसीना आ गया. तभी बुढ़िया ने एक ईंट का टुकड़ा उठाकर मुर्गियों के झुंड की ओर फेंका. मुर्गियों में फिर खलबली मच गई और वे त्रस्त और निरुपाय इधर-उधर भागने लगीं. एक मुर्गा छत की मुंडेर पर जा बैठा और फिर उसने जोर की बांग लगाई- कुकड़ू कूं...

वह उठने को ही था कि पत्नी झुंझलाती हुई उठ खड़ी हुईं. रेशमी साड़ी कुछ-कुछ खिसक गई थी. जल्दी से उन्होंने पेटीकोट से उसे खींचकर पलंग पर डाल दिया और बुढ़िया के पास चली गईं. बुढ़िया उसी तरह खिलखिलाकर हंस पड़ी. पत्नी ने होंठ काटे, फिर कुछ कहना चाहा, फिर व्यर्थ समझकर चुपचाप बुढ़िया की बांह पकड़ ली और घसीटते हुए खाट पर लाकर पटक दिया.

‘‘लेटो.’’ पत्नी का गुस्सा उबल पड़ा.

बुढ़िया उसी तरह उकड़ूं बैठी रही.

पत्नी ने उसे हाथों से खाट पर पसरा दिया.

बुढ़िया फिर भी उसी तरह ताकती रही.

पत्नी एक पल खड़ी रहीं, फिर घूमकर उसकी तरफ देखा. दोनों दौड़-दौड़कर मुर्गियों को पकड़ने में लग गए. धीरे-धीरे सारी मुर्गियां दरबे के अंदर हो गईं, लेकिन एक मुर्गा छत की मुंडेर के आखिरी सिरे पर बैठा हुआ था. उसने एकाध बार हाथ बढ़ाकर उसने पकड़ना चाहा, तो वह और आगे की ओर खिसक गया. उसने कहा, ‘‘इसको क्या करें?’’

‘‘रांधकर खा जाओ.’’ पत्नी झुंझलाती हुई फर्श पर बैठ गईं.

लेकिन तभी जाने क्या सोचकर मुर्गा नीचे उतर आया. उसने दौड़कर उसकी गरदन पकड़ ली और दरबे में ले जाकर ठूंस दिया. फिर जैसे चैन की सांस लेता हुआ मुंडेर से टिककर खड़ा हो गया. एकाएक उसकी नजर बुढ़िया की ओर चली गई. वह चित लेटी हुई आसमान की ओर ताक रही थी. तभी पत्नी ने उठते हुए आवाज दी, ‘‘अब वहां क्या करने लगे?’’

वह निकट चला आया, बोला, ‘‘सुनो, बरसाती में पलंग ले चलें तो कैसा रहे?’’

छत पर सादे खपरैल से बनी एक बरसाती थी. पत्नी ने कहा, ‘‘मैं नहीं जाती बरसाती में. इतनी गरमी में उस कालकोठरी में मुझसे नहीं सोया जाएगा.’’

‘‘पंखा तो है ही.’’

‘‘पंखा जाए भाड़ में. रात-भर पंखा कौन झलेगा!’’

‘‘मैं झल दूंगा.’’ वह मुसकराया.

‘‘चलिए...’’ पत्नी ने सिर झटकते हुए कहा. वे खुश मालूम दे रही थीं. एकाएक घूमकर उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा, एक काम करती हूं...’’ वे उठ खड़ी हुईं. बोलीं, ‘‘इनकी चारपाई जरा बरसाती में ले चलिए तो!’’

‘‘क्या कह रही हैं आप? मां की तबीयत नहीं देखतीं.’’

‘‘ले तो चलिये. इन्हें गरमी-सरदी कुछ नहीं व्यापती. अब की माघ के महीने में बाहर नदी के किनारे लेटी थीं. लोग गए तो और हंसने लगीं.’’

‘‘अरे भाई...’’

‘‘क्या लगाए हैं अरे भाई, अरे भाई! रात-भर इसी फरफंद में...’’ उन्होंने बुढ़िया को उठाकर खड़ा कर दिया और चारपाई उठा ली.

‘‘अब यहीं आराम से पड़ी रहो महारानी!’’ पत्नी ने नजाकत के साथ बरसाती के दरवाजे पर खड़े-खड़े दोनों हाथ जोड़े और उसकी ओर देखकर मुसकराईं. खाट पर लिटाते वक्त बुढ़िया दो मिनट तक लगातार खांसती रही. फिर जैसे चुप खो-सी गई. चांदनी उजरा चली थी और आसमान से हल्की-हल्की नमी उतरकर चारों ओर वातावरण पर छा रही थी. बरगद की ऊपरी डालों से भी अगर कोई पत्ता टूटकर नीचे गिरने लगता, तो उसकी खड़खड़ साफ सुनाई पड़ जाती.

‘‘मुझे प्यास मालूम दे रही है, ऊपर पानी होगा क्या?’’ उसने कहा.

पत्नी ने झुककर उसकी आंखों में देखा और मुसकराई- ‘‘प्यास लगी है?’’

‘‘हां.’’

‘‘सच?’’ वे उसी तरह आंखों में देखती रहीं.

उसे थोड़ी-सी झुंझलाहट मालूम हुई. फिर उसे थोड़ा सा ख्याल आया. फिर जैसे सिर घूमने लगा और मतली-सी महसूस हुई. फिर ढेर-सारी बातें मन में घूमने लगीं- जैसे दिमाग में कई कदम लड़खड़ाते हुए चल रहे हों. उसने सोचा- ‘नरक.’ फिर उसके दिमाग में आया, ‘क्यों इतना विश्वास हो गया है वह?...फिर जैसे भीतर-ही-भीतर कहीं झनझनाता हुआ-सा दर्द उठने लगा. उसे लगा कि उसकी पीठ में चटक समा गया है और सांस लेने में कठिनाई हो रही है. उसने करवट बदलकर यह जान लेना चाहा कि कहीं सचमुच तो पीठ में चटक नहीं समा गया कि तभी पत्नी ने बांहों में भरकर उसे अपनी तरफ घुमा लिया. कहीं कुछ बात बढ़ न जाए, इसलिए उसने अपनी भावनाओं पर जब्त करना चाहा. इसी प्रयत्न में वह मुसकराया, लेकिन उसकी एक आंख से एक बूंद ढुलककर चुपके से बिस्तर में गुम हो गई.

‘‘पानी दूं?’’

वह परिस्थिति भांप चुका था और उन बातों में रस आने के बजाय उसे इतना थोथापन महसूस होता कि उसकी इच्छा होती कि वह कानों में उंगली डाल ले, या जोर से चीख पड़े. लेकिन यह कुछ भी नहीं हो सका.

बोला, ‘‘जी मेहरबानी करें तो एक गिलास पानी पिला ही दीजिए.’’

पत्नी झुकीं तो उसने अपना चेहरा तकिये में गड़ा लिया....फिर जैसे वह पस्त पड़ गया. अब तक जितना चौकन्ना था अब उतना ही ढीला पड़ गया.

एक हाथ से वे उसकी छाती सहलाती हुई बोलीं, ‘‘कैसे-कैसे कपड़े फिजूल में पहने रहते हो...’’ और उसके बाद क्षण-भर में ही वह सारी परिस्थिति भांपकर एकदम पसीने-पसीने हो गया. आंखें मूंद लीं. उसके माथे की नसें फटने लगीं. खून में आग-सी लग गई. स्वर ओझल हो गए. वे कुछ कह रही थीं. ‘मेरे बालम! कितने जालिम हो तुम! कितने भोले...’

‘‘मां!’’ वह उछलकर एक झटके से खड़ा हो गया. लेकिन तुरंत शर्म के मारे वहीं-का-वहीं सिमटकर फर्श पर बैठ गया. पत्नी भय के मारे एकदम से फक पड़ गई. एक पल बाद, जरा-सा सुस्थिर होकर उन्होंने मुंह ऊपर उठाया तो देखा- बुढ़िया ठीक सिरहाने खड़ी थी, चुपचाप. पत्नी को अपनी ओर देखते पाकर वह फिर मुसकराया. अब उनका गुस्सा उबल पड़ा. तेजी से उठकर उन्होंने बुढ़िया की बांह पकड़ ली. उनके होंठ दांतों-तले दबे हुए थे और वे कांप रही थीं.

‘‘चल...हट यहां से...’’ उनके मुंह से कोई भद्दी गाली निकलते-निकलते रह गई और उन्होंने बुढ़िया को आगे की ओर धकेल दिया.

आगे ईंटों का एक घरौंदा था. बुढ़िया को ठोकर लगी और वह औंधी-सी लुढ़क गई. गुस्से में झनझनाती हुई, उसे उसी तरह छोड़कर, खाट पर आकर बैठ गईं और दोनों हाथों में उन्होंने अपना सिर थाम लिया.

यों ही दो-एक मिनट बीत गए. कोई कुछ नहीं बोला. अचानक उसने बुढ़िया की ओर देखा. वह वैसी ही औंधी, फर्श पर पड़ी थी. वह तेजी से उठकर लपका उस ओर- ‘‘मां!’’

उसने बुढ़िया को उठाकर चित कर दिया. लहू की एक हलकी-सी लकीर होंठ के कोनों में दिखाई दी और फिर एक हूक-सी उठी. उसके होंठ हिल रहे थे...‘‘जल्दी से दौड़कर पानी लाओ.’’ उसने चीखकर पत्नी की ओर देखा. पत्नी उठकर भागी नीचे.

बुढ़िया की आंखें खुली थीं. चेहरे की झुर्रियां और भी चिकनी हो गई थीं. चांदनी में उसका चेहरा एकदम उजली राख की तरह चमक रहा था. उसने पुकारा, ‘‘मां...’’ और बुढ़िया का सिर बाहों में थोड़ा और ऊपर कर लिया. बुढ़िया ने सिर जरा-सा उसकी ओर घुमाया और फिर हलक से खून का एक रेला...उसकी गोदी में कै कर दिया.

(रचनाकाल : सातवें दशक का पूर्वार्द्ध)

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रचनाकार: प्राची - जनवरी 2017 : कहानी / रक्तपात / दूधनाथ सिंह
प्राची - जनवरी 2017 : कहानी / रक्तपात / दूधनाथ सिंह
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