बातचीत अगर लिखना खत्म हो जाए तो मेरा जीवन निरर्थक हो जाएगा (प्रख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह से रणविजय सिंह सत्यकेतु की बातचीत) प्रश्न : आप...
बातचीत
अगर लिखना खत्म हो जाए तो मेरा जीवन निरर्थक हो जाएगा
(प्रख्यात कथाकार दूधनाथ सिंह से रणविजय सिंह सत्यकेतु की बातचीत)
प्रश्न : आप अपनी पीढ़ी के कथाकारों के बारे में क्या कहना चाहेंगे? खासकर अपने दौर की रचनाशीलता को किस रूप में देखते हैं?
उत्तर : अपनी पीढ़ी के कथाकारों के बारे में मैं कई बार कह चुका हूं. मैं ही हूं जो इसके बारे में अक्सर बोलता रहता हूं. हम सबने यानी ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह, गंगा प्रसाद विमल सबने, जो कि हमारी रियल पीढ़ी है, एक साथ 60 के आसपास कहानियां लिखनी शुरू कीं. हम रोमांटिक स्वप्नभंग के कथाकार हैं. इसी अर्थ में हमने ‘नई कहानी आंदोलन’ से अलग अपनी छवि निर्मित की. इसे मैं अक्सर नेहरू युग से मोहभंग के कथावृत्त के रूप में भी पारिभाषित करता हूं. यह यथार्थ के अधिक निकट और अधिक विश्वसनीय था. हमारा इस तरह से सोचना और कहानियों में इसको मूर्त करना, जैसे ज्ञानरंजन की ‘पिता’ कहानी है, मेरी ‘रक्तपात’ है या रवीन्द्र कालिया की ‘बड़े शहर का आदमी’, काशीनाथ सिंह की ‘अपना रास्ता लो बाबा’ -इन सब कहानियों ने हिन्दी कहानी के पिछले अनुभव के ढांचे को ध्वस्त कर दिया.
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मां और पिता से संबंध, इसी तरह और भी सारे संबंधों को उनकी सही रोशनी में जांचना-परखना हमने शुरू किया. तब यह हमारी पिछली पीढ़ी और उससे भी पहले के कहानीकारों को विचित्र लगा. पुरानों में सिर्फ जैनेन्द्र ने और नई कहानी की पीढ़ी में सिर्फ मोहन राकेश और कमलेश्वर ने हमें तरजीह दी. तथाकथित यथार्थवादी कहानीकारों ने इसका बुरा मनाया. आज हमारी पीढ़ी को ऐतिहासिक जगह प्राप्त है. हमारे बिना पीछे और आगे के कथाकारों की समुचित व्याख्या और हिन्दी कहानी के विकास को समझना संभव नहीं है.
ज्ञानरंजन ने लिखना बंद किया और अपनी इस प्रतिज्ञा से आज तक नहीं हिला. हमारे मित्र अशोक सक्सेरिया (गुणेन्द्र सिंह कंपानी) ने कुछ बहुत अच्छी कहानियां लिखीं, लेकिन उन्होंने भी लिखना छोड़ दिया. इसको क्या कहेंगे? लेखन की व्यर्थता का शिद्दत से अहसास. ये अत्यंत संवेदनशील और समझदार लोग थे. उन्होंने जीवन के इस सच को पकड़ लिया कि यह सब व्यर्थ है. इसे ‘अनुभव का चुक जाना’ इस तरह नहीं कहना चाहिए या समझना चाहिए. सबसे प्रतिभाशाली लोग ही जीवन के इस सच को पकड़ते हैं.
प्रश्न : कहा जाता है कि आपकी पीढ़ी के कथाकारों में अपने पूर्ववर्तियों के प्रति, उनकी बनाई लीक के प्रति एक अवहेलना का भाव था. शायद इस तथ्य को मद्देनजर ही भैरव प्रसाद गुप्त जैसे बड़े और स्थापित संपादक ने आपकी पीढ़ी के लिए कटु शब्दों का प्रयोग किया था. क्या यह सच है? यदि ‘हां’ तो उस अवहेलना भाव या गुस्से का निहितार्थ क्या है?
उत्तर : अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के प्रति अवहेलना का भाव नहीं था, बल्कि वैसा न लिखने की प्रतिज्ञा थी; क्योंकि सच के एंगिल्स कुछ दूसरे थे और पूर्ववर्ती पीढ़ी रोमांस में डूबी हुई थी. निर्मल जी क्या हैं? रोमांस के महाआख्यान को लेकर उस क्षेत्र में उनसे बड़ा कोई नहीं है. अतः अवहेलना का भाव नहीं था, अपने को बदलने का भाव था. चूंकि आदरणीय भैरव प्रसाद गुप्त ‘नई कहानी पीढ़ी’ के समग्र रूप से रचयिता थे. ‘नई कहानी’ और ‘नई कहानियां’ के संपादन के जरिए उन्होंने अज्ञेय और जैनेन्द्र के बाद कहानीकारों का एक समूह पैदा किया जिसे ‘नई कहानी आंदोलन’ कहते हैं. यही नहीं, ‘हाशिए पर’ जैसे नियमित ‘स्तम्भ’ के द्वारा उन्होंने इस पीढ़ी के लिए नामवर सिंह जैसा महान व्याख्याकार पैदा किया.
हमारा गुस्सा इस बात पर था कि हमारी पीढ़ी की कहानियां भैरव प्रसाद गुप्त लौटा देते थे. निश्चय ही कहानी
विधा को लेकर जो वह सोचते थे, हमारी कहानियां उनमें अंटती नहीं थीं, बल्कि वे एक धक्के की तरह आईं. उन्होंने भैरव प्रसाद गुप्त जैसे संपादक के मन में क्रोध और क्षोभ पैदा किया. अवहेलना उन्होंने की, न कि हमारी पीढ़ी ने. इसी की प्रतिक्रिया वह दुर्घटना थी जब आधी रात को मैं, ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया उनके घर पहुंच गए थे. आज हिन्दी कहानी में अपनी जगह पाने के लिए इस तरह की छटपटाहट और इस तरह का बचपना भरा गुस्सा किसे आता है? और कहानी पत्रिकाओं का उनसे बड़ा संपादक उसके बाद कहां कोई पैदा हुआ!
बाद में कमलेश्वर ने जब ‘नई कहानियां’ का संपादकत्व संभाला तो हमारी वही कहानियां लगातार छपीं. हमें संभालने और आगे ले जाने का काम तो कमलेश्वर और मोहन राकेश ने किया, जिनके कहानी लेखन से हमारी पीढ़ी का कहानी लेखन बिलकुल उल्टी दिशा में जाता है.
प्रश्न : प्रेमचंद की विरासत की चर्चा के बगैर हिन्दी कथा साहित्य का कोई दौर पूरा नहीं माना जाता. आपकी नजर में प्रेमचंद की परंपरा क्या है? उस परंपरा के कथाकारों में किन-किन को शुमार करेंगे?
उत्तर : प्रेमचंद की परंपरा यूं है-
1) उन्होंने हिन्दी-उर्दू को समेटकर समन्वित ढंग से आख्यान रचे.
2) वो पहले कथाकार हैं जिन्होंने शहर और गांव को समेटकर विविधवर्णी पात्रों का एक ऐतिहासिक और समन्वित चित्र प्रस्तुत किया.
3) प्रेमचंद एक परंपरा इस तरह हैं कि उन्होंने सत्य के प्रति एक अडिग निष्ठा को हिन्दी में जन्म दिया.
4) वे परंपरा इस तरह भी हैं कि वो हिन्दी भाषा के आदि कथाकार हैं.
प्रेमचंद की कथा परंपरा में पूरी हिन्दी कहानी आती है. कोई उनसे बाहर नहीं है. उन्हीं की विविधरंगी छटाएं हैं जिसे हिन्दी कहानी साहित्य आज कहते हैं. निर्मल वर्मा से लेकर उदय प्रकाश तक सब उन्हीं की संतानें हैं. उनके बिना हिन्दी कथा साहित्य क्या होता या न होता, यह कहना कठिन है.
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प्रश्न : नई कहानी और साठोत्तरी कहानी के अधिकांश रचनाकार गांव से जुड़े थे लेकिन उनका ज्यादातर लेखन मध्यवर्ग और नगर संस्कृति पर आधारित है. इसकी मुख्य वजह क्या थी? अनुभव की विरलता या फिर संप्रेषण की दिक्कत या फिर आंचलिकता का ठप्पा लगने का डर? अब प्रेमचंद के दौर का गांव रहा नहीं. गांव की परिस्थितियां और प्राथमिकताएं भी बदल गई हैं. इस दौर के लेखक, ग्रामीण जीवन के ताजा परिदृश्य से लगभग परिचित नहीं हैं. कहा जाए तो नए लेखन की कथावस्तु से मध्यवर्ग भी वाष्पित होता दिखाई दे रहा है. आपकी पीढ़ी मध्यवर्गीय चेतना की झंडाबरदार रही है. ग्रामीण जीवन के चित्रण, मध्यवर्ग के दुख-दर्द के वर्णन को ध्यान में रखते हुए आज की रचनाशीलता से अपने दौर के लेखन की तुलना कैसे करेंगे?
उत्तर : असल में चाहे नई कहानी के कथाकार हों या साठोत्तरी के या बाद के भी कथाकार-सभी ने रोजी-रोटी की खोज में गांवों से शहरों की ओर पलायन किया. उनकी धुंधली ग्रामीण संस्कृति की स्मृति धीरे-धीरे नष्ट हो गई. इसमें रेणु एकमात्र अपवाद हैं जो गांव और शहर से लगातार जुड़े रहे. बाकी कथाकार जब अपने गांवों की ओर लौटते हैं तो वहां से एक मुलम्मा चढ़ा नकली सांस्कृतिक अंधकार लेकर आते हैं. एक विह्वल किस्म की छवि लेकर आते हैं जो वास्तविक ग्रामीण संस्कृति नहीं होती. अतः प्रेमचंद के बाद के सारे लेखक अब जिस मध्यवर्गीय व्यवस्था में रहते हैं, मरते-कटते हैं, संघर्ष करते हैं, उसी को अपने कथावृत्त में रचते हैं. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि प्रेमचंद के बाद के कहानीकार अपनी अनुभूतियों को लेकर गैर ईमानदार हैं या उनमें अनुभव की विरलता है या संप्रेषण की दिक्कत है. ऐसा कुछ भी नहीं है.
यह सच है कि प्रेमचंद के गांव आज नहीं रहे लेकिन यह भी सच है कि प्रेमचंद के गांव अपनी मुमूर्षावस्था में अभी भी बाएं-दाएं, जगह-जगह बिखरे पड़े हैं. ताजा और चमकता हुआ रंगीन और आकर्षक जीवन उन तक नहीं पहुंचा. लेकिन यह सच है कि आज का लेखक बदलते हुए गांवों या मरते हुए गांवों के किसी भी दृश्य से परिचित नहीं है. वह गांवों को रोमांस के एक रंगीन चश्मे से देखने का आदी हो गया है. इसलिए आज ग्रामीण जीवन की रची हुई उसकी छवि नकली है.
विश्वसनीय मध्यवर्ग के दुख-दर्द का वही चित्रण है जिसको कथाकार आज हिन्दी कहानी में परोस रहे हैं. यह कथाकार का एकांतीकरण भी है. उसकी अनुभव चेतना का सिमटना भी, सिकुड़ना भी है. आज हिन्दी कहानी और हिन्दी कथाकार एक ट्रैजिक बिम्ब की तरह है, किसी धौंस की तरह नहीं.
प्रश्न : आज की पीढ़ी के बारे में कहा जाता है कि यह बहुत जल्दी में है. इस कथन के बरक्स नई रचनाशीलता को आप किस रूप में देखते हैं?
उत्तर : आज की पीढ़ी के बारे में मैं बहुत कुछ नहीं जानता. यह मेरी अपनी कमजोरी है. मैं बहुत कम कहानियां पढ़ता हूं. और अगर कोई अच्छी लग गई तो उसके लेखक को फोन जरूर करता हूं. लेकिन आज के लेखक भी जल्दीबाजी में नहीं हैं. जिसने भी कहा, गलत कहा. कोई अपना महत्वाकांक्षी साहित्यिक जीवन जल्दबाजी में बर्बाद नहीं करता. नए लेखक भी नहीं करते. हां, कुछ लोग ज्यादा लिखने के फेर में हैं. मेरी सलाह है कि कम लिखो और जमाकर लिखो, और मायकोवेस्की के उस आंदोलन के सूत्र (स्लैप योर एल्डर्स) के कथन को सही करते हुए, अपने पूर्ववर्ती माता-पिताओं और बाबाओं को पछाड़ दो. उन्हें पीछे छोड़ दो.
प्रश्न : ऐसा नहीं लगता कि आज की कहानियों से जहां किस्सागोई गायब हो रही है, वहीं संवेदनाओं का भी क्षरण हुआ है? सूचनाओं के आधार पर लेखन का आरोप अलग से लगता है आज की कहानियों पर. बाजारवाद और अपसंस्कृति के विरोध के हल्लाबोल में आज के लेखक इन्हीं तत्वों के दांवपेच का शिकार तो नहीं रो रहे?
उत्तर : नहीं, ऐसा नहीं हुआ है कि कहानियों से किस्सागोई गायब हो गई है, बल्कि नए कथाकार तो एक अनियंत्रित किस्सागोई के शिकार हैं. संवेदनाओं का क्षरण भी नहीं हुआ. जो कहानी मुकम्मल तौर पर कतर-ब्योंत के साथ सही उतर आती है, उसमें अत्यंत तीखी संवेदना के कण बिखरे हुए मिलते हैं. हिन्दी कहानी आज भी कई समर्थ कहानीकारों के हाथ में फल-फूल रही है. हिन्दी के महान किस्सागो और उपन्यासकार-कहानीकार सरदार बलवंत सिंह ने एक बार मुझसे कहा था, ‘एक कहानीकार को काट-छांट करना पहले सीखना चाहिए. ठीक से कतर-ब्योंत के बिना बेनाप का कपड़ा सिल देने से या तो वह तंग हो जाएगा या झूल जाएगा.’
सूचनाओं के आधार का मतलब है ठोस बाहरी प्रामाणिकता. इसके फेर में बहुत सारे लेखक पड़े रहते हैं. अगर ‘बाहर’ आपकी कहानी में ‘अंदर’ नहीं आया तो फिर बाहरी प्रामाणिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता. काशीनाथ सिंह ने एक बार कहीं कहा था कि प्रेमचंद के गांव नकली गांव हैं. उसका अर्थ ये नहीं है कि वे नकली हैं, बल्कि मंतव्य कहीं और छिपा हुआ है. जो अनुभूति के अंदर आया, उसमें फेरबदल, घुमाव-फिराव अपने ढंग से लेखक करेगा. इसलिए कि वह कच्चा माल नहीं परोसता. वह रचनात्मकता की मशीन से सज-धज कर, बन-ठनकर बाहर निकला हुआ एक यथार्थ है जो बाहर की इस स्थूल प्रामाणिकता से अधिक प्रामाणिक और अधिक ताजा,
अधिक सुंदर और अधिक असरदार होता है. लेखक द्वारा रची गई एक कहानी ‘संरचना’ है. प्रतिकृति या प्रतिध्वनि या जस का तस सूचनाओं का भंडार नहीं है. प्रेमचंद के गांव उनके रचे हुए गांव हैं इसलिए वे वास्तविक से ज्यादा वास्तव हैं.
बाजारवाद और अपसंस्कृति के विरोध में लेखक इन्हीं तत्वों के शिकार हो रहे हैं या नहीं, यह कहना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन अगर इनका विरोध कर रहे हैं तो यह बतौर एक लेखक के ईमानदार होने का लक्षण है. मैं देखता हूं कि नए लेखकों में क्रोध कम है लेकिन उनका शिल्प और कहने का तरीका ज्यादा कारगर और साफ-सफाई वाला है. इसके लिए नई पीढ़ी के आगे मैं नत-शिर हूं.
आज के लेखकों में कथ्य से भटकाव कम हुआ है. कथ्य से भटककर कहानी लिखना जैनेन्द्र से बेहतर कोई नहीं जानता. इसी रूप में वे नई पीढ़ी के मसीहा जैसे हैं. अगर कथ्य से भटकाव हो तो फिर जैनेन्द्र जैसा, जिससे कहानी चमक जाती है. भटकाव ही वहां ‘शिल्प’ है.
प्रश्न : क्या रचनात्मक लेखन के लिए किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध होना जरूरी है. कोरे अनुभवों के आधार पर रचना संभव नहीं हो सकती?
उत्तर : रचनात्मक लेखन के लिए किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध होना जरूरी नहीं है, लेकिन दक्षिणपंथी किसी भी विचारधारा से अप्रतिबद्ध होना अनिवार्य होना चाहिए. आरएसएस या जमायते इस्लामी में रहकर कोई बड़ा ‘रचनाकार’ कभी नहीं हो सकता. दुनिया में कला के क्षेत्र में हमेशा वामपंथियों ने ही महान रचनाओं का सृजन किया. और वामपंथ का वहां अर्थ है जनता और उसकी वास्तविक चेतना से, उसके दुख-दर्द से उसका जुड़ाव.
कबीर से लेकर आज तक किसी भी हिन्दी लेखक ने, और किसी भी भारतीय महान लेखक ने, चाहे रवीन्द्र नाथ टैगोर हों, निराला, जीवनानंद दास, शंकर कुरूप हों या बरबर राव, चाहे कोई भी हो, उनके लिए जो उनकी चेतना है, वही वामपंथ है. वह कभी भी हंसा और भितरघात और जनता को ठगी का शिकार नहीं बनाता. इसीलिए वामपंथ को एक विस्तृत अर्थ में लेना चाहिए.
जब ‘गुएरनिका’ के बारे में हिटलर के फासिस्ट सैनिकों ने पिकासो से पूछा कि यह किसने बनाया तो पिकासो का जवाब था, ‘यह आपने बनाया.’ ‘गुएरनिका’ पिकासो का वह शहर था जिसे जर्मन फासिस्टों ने बमबारी से तबाह कर दिया था. चित्र में सब कुछ एब्सर्ड है. एक घोड़े का नाल लगा खुर एक औरत के मुंह में है. चित्र में भी सब कुछ तबाह, अनियंत्रित, नष्ट-भ्रष्ट, धुंधला और त्रासद है.
इसलिए एक लेखक को सिर्फ वास्तविक जनचेतना से प्रतिबद्ध होना चाहिए. अनुभव और संरचना का वही आधार है. और वास्तविक जनचेतना क्या है, इसका फैसला वही लेखक कर सकता है जो किसी भी दक्षिणपंथी विचारधारा से विलग हो. आज तक दुनिया में फासीवाद ने कोई बड़ा कलाकार न पैदा किया, न कर सकता है.
प्रश्न : दलित विमर्श और स्त्री विमर्श एक तरह से कोरे अनुभव की सत्ता की प्रतिस्थापना के हक में है. निजता की पैरोकारी का झंडा फहराती इन गलियों में वृहत्तर प्रतिबद्धता का पक्षपोषण क्या संभव रह गया है?
उत्तर : स्त्री विमर्श तो बहुत पुराना विषय है. प्रेमचंद से ज्यादा स्त्रियों के बारे में और किसने लिखा. अगर उनके संपूर्ण कथा साहित्य से छांटें तो स्त्री चरित्रों का एक विशाल समूह आपके सामने खड़ा दिखाई देगा. अपने तरह-तरह के दुख-दर्द समेटे वहां कितने प्रकार के स्त्री चरित्र हैं, इसकी कल्पना करना भी आज हमारे लिए कठिन है. प्रेमचंद ने अगर ‘बूढ़ी काकी’ का सृजन किया तो ‘पंच परमेश्वर’ की औरत का भी. घर में प्रसव पीड़ा से कराहती और अंत में मृत्यु को प्राप्त होती
‘बुधिया’ का भी चित्र रखा. ‘निर्मला’ जैसा चरित्र बाद के सारे हिन्दी कथा लेखन में दुर्लभ है. अनमेल विवाह और पति के बड़े पुत्र के साथ एक तनाव भरा आतंककारी आकर्षण जिसमें अंततः निर्मला की मौत लिखी है, प्रेमचंद के अलावा किसने लिखा? अगर ध्यान से देखें तो यहां तक कहने का साहस किया जा सकता है कि हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद स्त्रियों के अद्भुत चितेरे हैं. उनसे बड़ा कोई नहीं.
‘झुनिया’ और ‘धनिया’ जैसे चरित्र अब दुर्लभ हैं. इस तरह की प्रगतिशील चेतना भी, जिसका दिग्दर्शन होरी और
धनिया के माध्यम से प्रेमचंद विवाह पूर्व गर्भवती लड़की को घर में बहू बनाकर लाने का जो साहस दिखाते हैं, उससे अधिक अग्रगामी चेतना किस दूसरे लेखक में आज मिलती है. वहीं गोदान में मालती भी है. यह बिना विवाह किए ‘सहवास’ (लिव इन रिलेशन) की आधुनिकतम कल्पना है जो आज छिटपुट रूप में हमारे समाज में दिखाई पड़ रही है. इसीलिए मैं कहता हूं कि प्रेमचंद से बड़ा आज भी कोई नहीं.
पिछले दो दशकों से जो स्त्री विमर्श का शोरगुल उठा, वह ज्यादातर स्त्री की यौनमुक्ति का एक ऐसा आंदोलन है जो संभव नहीं. क्योंकि स्वयं स्त्रियां ही बाद में इसके विरुद्ध खड़ी हो जाएंगी. इस तरह की मांग ‘पीछे देखू’ मांग है. दरअसल स्त्री का अपने शरीर पर अधिकार होना चाहिए, स्त्री विमर्श की
धुरी यही है. पितृसत्ता के आगे उसको झुकाना नाजायज है. वह अपने पुरुष (पति या प्रेमी) की दासी नहीं है. ‘पहल उसकी ओर से होनी चाहिए’, जैसा कि अनामिका कहती हैं, क्योंकि किसी भी तरह की पहल शारीरिक या मानसिक अगर पुरुष की तरफ से होती है तो वह स्त्री की सत्ता पर हमला है. स्त्री स्वतंत्रता इसी रूप में स्त्री विमर्श का पर्याय होना चाहिए. राजेन्द्र यादव ने भी जब स्त्रियों की मुक्ति का नारा दिया तो वे भी सिर्फ यौनिक मुक्ति तक सिमट कर रह गए. आर्थिक मुक्ति स्त्री स्वतंत्रता का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए. युग्म विवाह से आगे सिर्फ सहवास तक पहुंचा जा सकता है. कौन हितकर है, इसके बारे में निश्चयपूर्वक मैं कुछ नहीं कह सकता. इधर तो सहवास के लिए भी न्यायालयों से निर्देश और निर्णय आने लगे हैं. कुल मिलाकर युग्म विवाह की विश्वसंस्था में कुछ भी उलट-पुलट एक खतरनाक खेल जैसा है और वह स्त्री को असुरक्षित करता है.
जहां तक दलित विमर्श का प्रश्न है, वह हिन्दी साहित्य या मराठी साहित्य में अस्मिता के प्रश्न से संबद्ध है. हमारे मित्र ओम प्रकाश वाल्मीकि कहा करते थे कि सवाल यह नहीं है कि हम अच्छा या श्रेष्ठ लेखन कर रहे हैं या नहीं, सवाल यह है कि हम अपने लेखन में एक एक्टिविस्ट की भूमिका निभाते हैं या नहीं. दया पवार से लेकर नामदेव ढसाल या ओम प्रकाश वाल्मीकि हमें इसी भूमिका में दीख पड़ते हैं. इससे भारतीय साहित्य विशेषकर मराठी और हिन्दी साहित्य बहुत समृद्ध हुआ है. पर हिन्दी में दलितों ने अपने को स्थापित करने के लिए प्रेमचंद से लेकर निराला (‘तोड़ती पत्थर’ कविता) सब पर हमले झोंके, लेकिन अब दलित लेखन और दलित विमर्श हिन्दी के वृहत्तर साहित्य में अपनी खामियों और खूबियों के साथ स्वीकृत हो चुका है.
दरअसल, ये सारे विमर्श एक स्प्लिट हिस्ट्री का नतीजा है. भारतीय इतिहास को, सामाजिक और राजनैतिक जीवन को अगर समग्रता में देखेंगे तो यह अस्मिता की पहचान के लिए एक भोले-भाले बच्चे का अपनी जिद में पैर पटक-पटक कर अपनी मां से कुछ मांगने जैसा है.
प्रश्न : भैरव प्रसाद गुप्त के बाद राजेन्द्र यादव, ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया के बारे में कहा जाता है कि ये लोग कथा की नई पीढ़ी के शिल्पकार हैं. इनके अवदान को आप किस तरह देखते हैं?
उत्तर : सचमुच ये लोग नई पीढ़ी के निर्माता हैं. अपने द्वारा संपादित पत्रिकाओं के माध्यम से इन्होंने इस महत्वपूर्ण काम को सरअंजाम दिया.
प्रश्न : इनके अलावा कोई नाम आपको ध्यान आ रहा हो जिन्होंने नए लोगों को उभारने में उल्लेखनीय काम किया हो लेकिन आम चर्चा से बाहर हों?
उत्तर : इसमें कमलेश्वर का नाम भी जोड़ देना चाहिए.
प्रश्न : इन दिनों कहानियां खूब लिखी जा रही हैं, कविताएं और उपन्यास भी खूब रचे जा रहे हैं. लेकिन इसी के समानांतर आम आदमी की रुचि साहित्य के प्रति कम होती जा रही है. घरेलू चर्चाओं में अब साहित्य शायद ही विषय बनता है. यों कहें कि पहले की तुलना में अब लेखक जनसाधारण के बीच सुपरिचित चेहरा नहीं होते. इसलिए उनके लिखे-कहे का असर भी नहीं दिखाई देता. इसके पीछे के कारणों पर प्रकाश डालें.
उत्तर : साहित्य और जनता (पाठक) के अंतर्संबंध के बारे में हिन्दी में हमेशा से बातें होती रही हैं. हिन्दी भाषा और हिन्दी भाषी क्षेत्र को ध्यान में रखकर देखें तो यह भाषा अनेक प्रकार की बोलियों के समूह से बनी है. हिन्दी भाषी क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में लोग अलग-अलग बोलियों में बातचीत और दैनिक कार्यव्यवहार निभाते हैं. इस तरह बोलियों की बहुलता एक ओर हिन्दी भाषा को समृद्ध तो करती है, लेकिन उसमें लिखे साहित्य से अलग-अलग बोलियों के क्षेत्रों में रहने वाले लोग एक तरह की उदासीनता बरतते हैं. यद्यपि कि उनकी बोलियों में साहित्य सृजन नहीं हो रहा है फिर भी वे हिन्दी भाषा में लिखे साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की तरफ ललक से उत्सुक नहीं होते. इसी बात को ध्यान में रखते हुए कभी आज से 40 वर्ष पहले मैंने एक ‘पांचवें पाठक’ की तलाश की थी, वह जो भी हिन्दी साहित्य पढ़ेगा या पढ़ता है, एक तो यह समस्या है. दूसरी समस्या है, आज जीवन एक हड़बोंग में फंसा है. रोजी-रोटी और अपने अस्तित्व को बनाए रखने की समस्याएं इतनी कठोर और कुटिल हैं कि उनके आगे सामान्य जनता का वश नहीं चलता. इसलिए साहित्य से उसका जुड़ाव उस तरह का नहीं रहा जैसा कि बांग्ला, गुजराती, उड़िया, असमी इत्यादि भाषा-भाषियों का अपने लेखकों से है. हिन्दी की यह ट्रेजेडी है. उसकी समृद्धि के स्रोत असीम हैं लेकिन पाठक विरल. पहले भी साहित्य से एक विशिष्ट और तथाकथित ‘पांचवें पाठक’ का ही संबंध बनता था. आज भी वही पढ़ता है और वही बहस करता है. इसके अलावा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगी सभी बड़ी संस्थाएं इस वक्त दक्षिणपंथियों के कब्जे में हैं, जो हिन्दी को एक धंधे की तरह इस्तेमाल करते हैं. फिर भी हमारे लेखकों-कवियों-कथाकारों का कोई जवाब नहीं. इस सहरा में भी उन्होंने साहित्य रचना के प्रति अपनी दृष्टि और अपनी प्रतिबद्धता को छोड़ा नहीं है.
प्रश्न : कथाकार दूधनाथ सिंह का उदय कैसे हुआ? जीवन की किसी घटना विशेष की वजह से या वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से. जीवनानुभवों को वृहत्तर समाज की संवेदनाओं से एकाकार कर पाने की वजह से या फिर विचार, अनुभव और नवीनता को समायोजित करने की कला की वजह से?
उत्तर : मैं जब एमए में पढ़ता था तो मेरे एक गुरु थे धर्मवीर भारती. विभाग से ‘कौमुदी’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी. मुझसे जब उन्होंने कुछ लिखने के लिए कहा तो मैंने घबराहट में उनको हां कह दिया और उसी घबराहट में मैंने एक कहानी लिखी ‘चौकोर छायाचित्र’, जिसे कौमुदी पत्रिका में भारती जी ने छाप दी. यह मेरे लिए एक नया अनुभव था. यह एक तरह से विस्फोटक अनुभव भी था. आश्चर्य की तरह मैंने अपनी उस छपी हुई कहानी को देखा और मैंने अपने भीतर एक नए आदमी की खोज की जो शायद एक लेखक था और है. मैंने अपने चाचा को जब उस पत्रिका की प्रति दिखाई तो उन्होंने मुझसे सीधा सवाल किया, ‘क्या तुमने कभी लड़की भगाई है?’ मैंने कहा, ‘नहीं, वह कल्पना की उपज है.’ तब उन्होंने कहा कि वही लिखो जिसे तुम जानते हो या जैसा होता है.
आज की तरह उन दिनों लड़की भगाने का विचार भी विरल था. इस तरह की दुर्घटनाएं शायद कभी होती हों. प्रेम विवाह के बारे में सामान्य गंवई कृषक समाज में कोई सोचता भी नहीं था. ऐसे में एक कल्पित घटना को चित्रित करना जैसे मेरी दबी-ढकी इच्छा का इजहार था. आखिर ऐसा क्यों हुआ, यह मैं एक लम्बे समय तक सोचता रहा. लेकिन अपने चचा की बात मैं आज भी भूला नहीं हूं. अपने को सत्य और यथार्थ के निकटतम रखो, इतिहास से बाहर जाने की कोशिश न करो, निजी और कल्पित संसार में कभी भी बड़ा लेखन नहीं हो सकता. तो उस कहानी ने एक विरोधी प्रतिरूप के रूप में मुझे जीवन और सच्चाई की ओर ढकेल दिया. वह कहानी अब मेरे पास नहीं है लेकिन उसमें जीवन के जिस सत्य से, जिस वृहत्तर यथार्थ से परिचित होने के लिए मेरा चेहरा दूसरी ओर घुमा दिया, वह उस कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि है. वह प्राप्त हो जाए तो मैं उसे प्यार करूंगा.
लेकिन उसके कारण कुछ और भी हैं. वे और बातें मेरे जीवन के कटु अनुभवों से निकलकर आती हैं. मेरा व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन बहुत सुखी और संपन्न नहीं रहा. अनेक स्मृतियां मुझे बराबर सालती रहीं. अचानक ही ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’ कहानी लिखकर मैंने अपने दुखों, संशयों, अपनी आत्मगत तकलीफों के लिए जैसे एक रास्ता पा लिया. उस कहानी ने प्रकारांतर से मेरे ऊपर यह दबाव बनाए रखा कि सामाजिक जीवन में अपने निजी जीवन की छौंक लगाकर ही मैं अच्छी कहानियां लिख सकता हूं. ‘रक्तपात’ मां के स्मृतिलोप पर लिखी गई कहानी है जो कि दरअसल मेरे व्यक्तिगत परिवार की कथा है. इस शिल्प को आज भी मैं उतना ही कारगर मानता हूं और उसी ढंग से प्रयोग करता हूं. ‘माई का शोकगीत’ या ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ जैसी लंबी कहानियां मैंने मां अथवा एक दूसरी खरीद फरोख्त की शिकार औरत को केन्द्र में रखकर लिखी. धीरे-धीरे मैंने कथा लेखन में इस बात की खोज की कि मुझे वह लिखना चाहिए जो कोई दूसरा नहीं लिख सकता. और मेरे पास इस तरह के अनंत अनुभव थे और आज भी हैं. इसके अलावा मैंने अपने लिए एक नए किस्म का शिल्प भी इजाद किया.
प्रश्न : आपकी रचनाओं में, चाहे वह कथा लेखन हो या संस्मरण, असरदार व्यंग्य सुवासित होता है. व्यंग्य गुस्से का ही प्रतिरूप होता है. अपने लेखन की शुरुआत से ‘आखिरी कलाम’ तक गुस्से के आधार और विस्तार के व्यापक आयामों को स्पष्ट कीजिए.
उत्तर : व्यंग्य मेरे लेखन में उस तरह से नहीं आया जैसे कि तुमने पूछा है. यह सही है कि वह गुस्से का प्रतिरूप होता है. मेरी रचनाओं में आया हुआ व्यंग्यपूर्ण गुस्सा बहुत सीधा और सपाट नहीं होता है, बल्कि उसे बूझने की जरूरत है. वह अक्सर पाठकों के सिर के ऊपर से निकल जाता है. वह परसाई जी के व्यंग्य की तरह सीधा और सपाट और त्वरित रूप से मारक नहीं है. ‘आखिरी कलाम’ की पूरी यात्रा ही एक व्यंग्यपूर्ण गुस्से के आधार पर रची गई है जिसका अंत दुर्घटना और मृत्यु में होता है. मैं दरअसल अवसाद (डिप्रेशन) को अपने लेखन में चित्रित करता हूं. वही मेरा विषय है. कभी कटखौना और अपार अंधेरे में एक किरण की खोज करता डूबा हुआ. शायद जीवन ऐसा ही है, अगर इसको बहुत गहराई से देखा जाए.
प्रश्न : आप आलोचना में भी सक्रिय हैं. जिस तरह का कथा लेखन हमारे यहां हो रहा है, उसके लिए कथालोचना की पारंपरिक कसौटी कितना कारगर है या कि इस दिशा में कुछ नया गढ़ने की जरूरत है?
उत्तर : आलोचना में मेरी सक्रियता उस तरह से नहीं है जैसे सामान्य आलोचकों की होती है. अपनी पहली आलोचना पुस्तक ‘निराला : आत्महंता आस्था’ में मैंने आस्वादपरक ढंग से निराला की कविताओं का जायजा लेने की कोशिश की. वह निराला की कविता के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है. वे दारागंज में मेरी एक दूर की फूफी के पास रहते थे. इलाहाबाद आने पर हर शनिवार या रविवार को मैं उनके दर्शन करने और हॉस्टल का कचरा खाने से छुट्टी पाने के लिए फूफी के यहां जाता था, लेकिन मेरा मुख्य उद्देश्य धीरे-धीरे निराला जी का दर्शन करना और परिचय हो जाने पर एक पूरा दिन उनके साथ बिताना और उनके पास बैठे रहना या ऊपर उनके कविता संग्रह पढ़ते रहना होता था. इसी में धीरे-धीरे मैंने उनकी कविताओं के बारे में जो नोट्स बनाए, उसका क्रमबद्ध रूपांतरण वह किताब है. यह दूसरी बात है कि वह किताब निराला पर लिखी किताबों में सबसे लोकप्रिय है.
आलोचना की दूसरी किताब मैंने महादेवी पर लिखी. वह भी एक प्रयोग है. उनके संपूर्ण जीवन और उनके साहित्य, उनके रखरखाव, उनके एकांतवास, बुद्ध के प्रति उनकी
अगाध निष्ठा के बीच उनकी कविताओं और उनके गद्य लेखन को समझने का एक रचनात्मक प्रयास है. वह किताब भी लीक से हटकर है. जो आलोचना की आम-फहम पद्धति है उससे उसका लेना-देना नहीं. वह दरअसल महादेवी की खोज है. मुझे वह किताब लिखकर गर्व महूसस होता है. कोई महादेवी पर उससे बड़ा काम अब नहीं कर सकता. उस किताब में मैंने चार साल लगा दिए. मेरे प्रकाशक राजकमल मुझसे कभी नहीं पूछते कि मैं छपने के लिए क्या भेज रहा हूं, बल्कि जो मैं भेजता हूं उसे आदरपूर्वक प्रकाशित कर देते हैं. उस किताब को मैं आलोचना नहीं, एक नया प्रयोग कहता हूं.
इसके अलावा मैंने बहुत सारे फुटकर आलोचनात्मक लेख लिखे हैं. मैं अपने लिखे के प्रति बहुत खबरदार कभी नहीं रहा. इकट्ठा करके रखना मैंने कभी नहीं सीखा. कोई खोजी अगर लगेगा, जिसकी उम्मीद नहीं है, तो मेरे लेखन के हजारों पृष्ठ इधर-उधर बिखरे मिलेंगे. जीवन इतना कठिन रहा कि यह सोचने का मौका ही नहीं मिला कि मुझे अपने लिखे को संभाल कर रखना चाहिए. एक तरह की उदासीनता और व्यर्थता का आभास हमेशा रहा. हर सृजन के बाद रहा. हर किताब छपने के बाद मैं अक्सर बीमार पड़ा और अपनी खुशियों को तबाह किया. ‘कुछ भी करके क्या होगा’ यह घनीभूत अवसाद मुझे हमेशा मारता है. ऐसे में मैं सड़क पर निकल जाता हूं लोगों के बीच, हा-हा, हू-हू के बीच निरर्थक वार्तालाप में जिससे किताब के बाद का जीवन बचा सकूं.
पंत, महादेवी और निराला पर मैंने आलोचनाएं इसलिए लिखीं कि मेरे निर्माण में निराला का प्रकारांतर से और पंत जी और महादेवी जी का सीधे-सीधे हाथ था. अगर मैं इलाहाबाद न आया होता और इन महान लोगों से मेरी मुलाकात न हुई होती तो मैं शायद लेखक नहीं बन पाता. महादेवी और पंत ने तो मुझे आर्थिक दृष्टि से भी मदद दी. पंत जी ने तो मुझे यूनिवर्सिटी में बैठा कर ही दम लिया. वे न होते तो अपनी डिग्रियों के साथ भी मैं कुछ न कर पाता. अतः उनका ऋण था जिसे मैंने चुकाने की कोशिश की, चुका नहीं सकता. एक किताब लिख देने से इन लोगों का जो अवदान है मेरे लिए, वह चुकता नहीं होगा.
कथा आलोचना में कहानियों या समग्र रूप से किसी कहानीकार को लेकर व्याख्यापरक आलोचना की जरूरत हमेशा बनी रहेगी. एक जमाने में नामवर सिंह ने ‘कहानी नई कहानी’ और मार्कण्डेय ने ‘कहानी की बात’ शीर्षक से जो किताबें लिखीं या उनके लिखे हुए लेखों का जो संकलन प्रकाशित हुआ, वे कथालोचना की नई बुनियाद रखती हैं. उसके पहले आलोचना सिर्फ कविता के क्षेत्र में ही प्रचलित थी. और साहित्यिक विधाओं के बारे में आलोचक बहुत उत्सुक या सक्रिय नहीं थे. यह काम बुनियादी तौर पर नामवर सिंह ने शुरू की और अभी तक का वह सर्वोत्तम काम है. लेकिन कथा आलोचना की गुंजाइश अभी बची हुई है. सुरेन्द्र चौधरी ने इस सिलसिले में कुछ काम किया और मधुरेश ने भी. मैंने एक आलेख जो मेरी किताब ‘कहा सुनी’ में संकलित है, उसमें ‘कहानी का झूठा सच’ शीर्षक से लिखा, वह कहानी की व्याख्या के ऐतिहासिक क्रम में है. यानी प्रेमचंद से लेकर उदय प्रकाश और अखिलेश तक सभी प्रमुख कहानीकारों पर उसमें चर्चा की गई है. लेकिन काव्यालोचना की तुलना में कथालोचना अभी भी क्षीण है.
प्रश्न : मौजूदा परिस्थितियों में आप इलाहाबाद की रचनाशीलता के वरिष्ठतम और समर्थ प्रतिनिधि हैं. बाहर से लग रहे ‘सन्नाटे’ के आरोपों के परिप्रेक्ष्य में आप स्वयं इलाहाबाद की वर्तमान रचनाशीलता का आकलन किस रूप करते हैं?
उत्तर : यह मेरा दुर्भाग्य है कि बड़े लोग धीरे-धीरे चले गए. अब अकेलापन और बढ़ गया है. वह गहमागहमी नहीं जिसके बीच आप सुरक्षित महसूस करते थे. शाही का चुरुट और आंख के सामने धुआं उड़ाती वह गहरी अर्थपूर्ण मुस्कान अब नहीं है. लड़ने-झगड़ने के लिए भी कोई नहीं है. जाता हूं और अकेले एक कप काफी लेकर काफी हाउस में बैठा रहता हूं. बाहर किसके लिए झांकता रहता हूं जबकि सब लोग एक-एक करके निकल गए. किसी लेखक की इससे त्रासद स्थिति और क्या हो सकती है कि उसका बहस-मुबाहिसे का समाज कोई उससे छीन ले. यही हाल है. सन्नाटा ही है जो पसरा हुआ है. जो लिख-पढ़ रहे हैं लोग, वे भी बैठकबाजी नहीं करते. उनमें से भूलकर भी कोई काफी हाउस नहीं आता. ये लोग कहीं नहीं दिखते तो कैसे लिखते-पढ़ते हैं. अपनी जमीन से नीचे उतर कर भी मैं लोगों से बात करना चाहता हूं. वह भी नसीब नहीं है. किसी लेखक के लिए इस तरह का सन्नाटा अभिशाप है.
प्रश्न : कई लोगों ने इलाहाबाद पर अपने अनुभव लिखे हैं. आपकी नजर में वो कौन सी खूबियां हैं इस मिट्टी की जो किसी लेखक को इलाहाबाद पर संस्मरण लिखने को बाध्य करती हैं? इस पर भी विचार करें कि इलाहाबाद के रग-रग से वाकिफ होने के लिए कम-से-कम कितना वक्त चाहिए ताकि संस्मरण में दर्ज लेखक की स्मृति और अनुभव उथले या तथ्यात्मक विचलन का शिकार न हों.
उत्तर : इलाहाबाद पर लिखना इतना आसान नहीं. कम से कम मेरे लिए. लेकिन अगर जीवन बचा रहा तो इलाहाबाद को ‘डिफाइन’ करना और उसकी स्मृतियां बटोरने का काम जरूर करूंगा. इलाहाबाद आज भी एक हरा-भरा और खूबसूरत शहर है. लोग बहुत अच्छे हैं. ठगी और चापलूसी न के बराबर है. खरी बातें बिना लाग-लपेट के यहां कही जा सकती हैं. इलाहाबाद को जानने में मुझे 50 वर्ष लगे. यहां की प्रकृति, यहां के लोग, यहां की खलबलाहट शहर के रेशे-रेशे में घुसी है. यहां का आनंद तत्व इस सबने मुझे जिलाए रखा. और मुझे अपने अवसाद से बार-बार बाहर आकर लिखने के लिए उकसाता रहा. मैंने कहीं अपनी डायरी में लिखा है कि इलाहाबाद मेरी मां है जिसके बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता. इस सब कुछ को समेटने के लिए समय की दरकार है और समय कम है.
प्रश्न : इलाहाबाद के अलावा और कौन से शहर आपको आत्मीय लगते हैं या रचनात्मक ऊर्जा देते हैं?
उत्तर : इलाहाबाद के अलावा मुझे दो और शहर बहुत आत्मीय लगते हैं- 1) कोलकाता और 2) भोपाल. कोलकाता के अनुभवों को मैंने अपनी कई कहानियों में बार-बार लिखा. मेरी दूसरी या तीसरी कहानी ‘बिस्तर’ कोलकाता में घटी एक प्रेम-दुर्घटना पर लिखी गई जिसे ‘सारिका’ ने पुरस्कृत और प्रकाशित किया. उसमें कृष्ण चंदर मुख्य निर्णायक थे. अभी हाल में प्रकाशित ‘नरसिंह का प्रेम पत्र’ कोलकाता और इलाहाबाद को मिलाकर लिखी गई है. भोपाल पर मैंने कोई कहानी नहीं लिखी लेकिन शिमला प्रवास पर एक चपरासी जिसने नौकरी में रहते इसलिए आत्महत्या की जिससे उसके आवारा बेटे को अनुकंपा में नौकरी मिल जाए, पर एक कहानी लिखी. इस कहानी का शीर्षक है- ‘क्या करूं शाब जी’, यह मेरी इधर की लिखी कहानियों में सर्वश्रेष्ठ है.
कहानी लिखना, अलग-अलग एंगिल्स से लिखना मेरी हाबी है. और वह मेरा जिंदा रहना संभव बनाती है. अगर लिखना खत्म हो जाए तो मेरा जीवन निरर्थक हो जाएगा. और शायद बचेगा भी नहीं. अगर कुछ नहीं होता तो मैं डायरी जरूर लिखता हूं और मुझे ऐसा लगता है कि मेरी डायरियां एक साहित्यिक उपलब्धि होंगी.
प्रश्न : पहले की तुलना में आज का समाज ज्यादा बंटा हुआ दिखाई दे रहा है. राजनैतिक विद्वेष और अधिक गहरा और कटु हो गया है. अविश्वास, अराजकता और अतिवाद गहरे पैठ रहा है. इसका प्रतिबिम्ब लेखकों के बीच भी देखा जा रहा है. ऐसे में प्रतिरोध और जन आंदोलन की निरंतरता और उसकी सार्थकता कैसे संभव है? आज जबकि प्रतिबद्धता और सरोकार को लेकर सांगठनिक स्तर पर भी विचलन के आरोप लगाए जा रहे हैं तो बाजार की मार से खुद को बचाए रखने के लिए कौन सी धुरी लेखकों के काम आ सकती है?
उत्तर : कोई भी समाज तब बंटता है जब उसमें कोई वैचारिक एकरूपता नहीं होती. समय इसलिए भी बंटा हुआ है कि रोजी-रोजी, किसानी, नौकरी, मजदूर वर्ग के हालात सब
धीरे-धीरे खराबी की ओर जा रहे हैं. राजनैतिक आशावाद समाज को छल रहा है. बहुत सारी समस्याओं का हल ऊपर से नहीं लादा जा सकता. जनता की भोली-भाली मनःस्थिति (चेतना नहीं) को लगातार ठगा जा रहा है. कबीर की वह पंक्ति ‘कवनो ठगवा नगरिया लूटल हो’ आज शिद्दत से याद आ रही है. ठगी का व्यापक प्रभाव चारों ओर दिख रहा है. जन आंदोलनों का अभाव, ट्रेड यूनियनों की दलाली एक तरह से राजनीति को क्षरणीय कर रहे हैं. प्रतिबद्धता और सरोकार को लेकर लेखकों में चाहे सांगठनिक स्तर पर हो या गैर सांगठनिक स्तर पर, विचलन की स्थिति संभव है. यह एक त्रासद स्थिति है, जहां लेखकीय कर्म को बाजार सुनिश्चित करे. हमने इससे बचने की लगातार कोशिश की है. लाभ-लोभ के लिए हर समझौते से इनकार किया. किसी की मुंहदेखी नहीं की. इसका फल भुगत रहा हूं. बावजूद इसके लेखक संगठन (जलेस) को बचाने की हमने हरसंभव कोशिश की. सामाजिक और आर्थिक जन आंदोलनों के अभाव में लेखकीय एकजुटता एक एकांतीकृत चीज है. फिर भी हमें लगता है कि हम लेखकों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश में सफल होंगे कि उनका लेखन बाजार
निर्धारित न करे. यह देश बहुत बड़ा है और यह कभी भी अपने राजनैतिक और आर्थिक शोषकों के खिलाफ उठ खड़ा हो सकता है. हमें अंतिम रूप से दबा देना और परवश कर देना संभव नहीं है. हमारी दीक्षा मार्क्सवाद के अंतर्गत हुई है. अतः सारे व्यक्तिगत घटाटोपों, निराशाजनक स्थितियों, अंदर और बाहर की मार से मैं कभी त्रस्त नहीं होता. अवसाद मुझे मारता है तो एक संजीवनी दृष्टि भी देता है. वह यह है कि जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं. वह यह भी कि एक ही जीवन मिलता है और हर समझदार व्यक्ति को उसे समाज को अर्पित कर देना चाहिए. इसमें जो हो, उसका स्वागत है. मैंने अपना जीवन संयोगवश हाथ लगे एक लेखक के रूप में समाज को अर्पित किया. मैं जब अपने दुखों के बारे में लिखता हूं तो वे सार्वजनिक दुख होते हैं. मैं अपने बारे में कुछ नहीं लिखता. सार्वजनिकता के बारे में जीवन की इस पटकथा को बार-बार दर्शकों के सामने अभिनीत करता हूं. कितना सार्थक या निरर्थक...ये वो जानें.
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पता : दूधनाथ सिंह, बी-7, एडीए कालोनी, प्रतिष्ठान पुरी, (नई झूंसी), इलाहाबाद-211019
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