कहानी नया साल मुबारक हो अनंत कुमार सिंह नाम : अनन्त कुमार सिंह जन्म : 07.01.1953 (ग्राम- बहेरा, पो. झरी, प्रखंड- आमस, जिला- गया, बिह...
कहानी
नया साल मुबारक हो
अनंत कुमार सिंह
नाम : अनन्त कुमार सिंह
जन्म : 07.01.1953 (ग्राम- बहेरा, पो. झरी, प्रखंड- आमस, जिला- गया, बिहार)
शिक्षा : एम. ए. (अर्थशास्त्र)
प्रकाशन : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी कहानियां, आलेख, समीक्षाएं, टिप्पणियां साक्षात्कार तथा कुछ मगही कहानियां प्रकाशित.
प्रकाशित पुस्तकें
कहानी संग्रह
चौराहे पर - प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली - 1992
और लातूर गुम हो गया - प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली - 1997
राग भैरवी - प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली - 2002
कठफोड़वा तथा अन्य कहानियां - आलेख प्रकाशन, दिल्ली - 2007
तुम्हारी तस्वीर नहीं है यह - साहित्य संसद, नई दिल्ली - 2010
प्रतिनिधि कहानियां - जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना - 2010
ब्रेकिंग न्यूज - भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली - 2012
बालकथा संग्रह
आजादी की कहानी, नई दिल्ली
इतिहास पुस्तक
कुंअर सिंह और 1857 की क्रांति -नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 2007
उपन्यास
ताकि बची रहे हरियाली, यश पब्लिकेशंस, दिल्ली - 2015
प्रकाशनधीन
नया साल मुबारक हो (कहानी-संग्रह), प्रभाव प्रकाशन
बाल कथा एवं बाल नाटक संग्रह, नाग फांस लिए घर भीतर (उपन्यास) ग्रंथ लोक
प्रसारण
दूरदर्शन से टेलीफिल्म, वार्ता प्रसारित.
आकाशवाणी से कहानियां, नाटक, रूपक आदि प्रसारित. कुछ मगही, भोजपुरी कहानियां आकाशवाणी से प्रसारित.
अनुवाद
तेलुगू, मलयालय, बांग्ला, उर्दू, पंजाबी आदि में कई कहानियां अनूदित.
पुरस्कार/सम्मान
‘और लातूर गुम हो गया’ पुस्तक पर ‘परिमल’ द्वारा ‘राजेश्वर प्रसाद सिंह कथा-सम्मान’ तथा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा सम्मानित. विभिन्न गैर सरकारी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से सम्मानित.
संपादन
1990 से साहित्यिक पत्रिका ‘जनपथ’ का संपादन एवं प्रकाशन.
संप्रति
सेंट्रल कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड, आरा से सेवानिवृत. स्वतंत्र लेखन एवं साहित्यिक पत्रिका जनपथ का संपादन-प्रकाशन.
संपर्क
अनन्त कुमार सिंह द्वारा सेंट्र को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड,आरा, मंगल पाण्डेय पथ, जिला-भोजपुर-802301 (बिहार)
मो. : 0981847568
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ऐसा नहीं कि एक मशहूर शायर के बुलावे पर जाने की बाध्यता थी मुझे, दरअसल मेरी जानकारी के अनुसार उन्होंने- अरे भाई शौकत हयात ने, इस कस्बे के केवल दो रचनाकारों को आमंत्रित किया था. इसलिए न जाना बेमानी जैसा था. वैसे न जाने के पीछे तर्क यही था कि ठंड अपनी पराकाष्ठा पर (लगभग तीन डिग्री तापक्रम) पहुंच चुकी है. शीत लहर जैसी स्थिति है और उस पर तुर्रा यह कि आज पहली जनवरी है. पहली जनवरी यानी उत्सव, उत्साह, समारोह का मौसम, खुशी मनाने के अपने-अपने तरीके. ढोलक, झाल के साथ हरिकीर्तन, लोकगीत गाने का पुराना तरीका नहीं, झूमने-नाचने-गाने और खुशी-आनंद-उत्साह के साथ आधुनिकता के पार जाने की होड़. कोई किसी से कम नहीं. नए अत्याधुनिक पर्व वेलेंटाइन-डे की तरह फटाफट, धड़ाधड़ अपने को केंद्र में लाता यह यादगार, अविस्मरणीय अवसर. उसमें रात का समय. रात मतलब
अंधेरे का साम्राज्य.
लेकिन जाना तो है. शौकत भाई मेरे अजीज, बेहद आत्मीय शौकत की बहन की शादी है. आग्रह है आने का और मैंने हामी भर दी है. कहकर न जाना तो मेरे वश का नहीं.
मैं सौरभ के साथ चल दिया. चल तो दिया, लेकिन सुनिए, प्रथम ग्रासे मच्छिका पाते. जी हां, सड़क पर एक भी रिक्शा नहीं. सड़क सूनी-सूनी, बिजली आज भी नहीं, पूरी तरह अंधेरा. गली की सारी दुकानें बंद. खैर! एक से भले दो, और हम दोनों खरामा-खरामा पहुंच ही गए मंजिल के पास.
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वह प्यारा सा शौकत बहुत-बहुत खुश हुआ. तंदुरुस्त नाश्ता, काफी व्यस्तता के बावजूद ढेर सारी बातें की शौकत ने. मैंने गौर किया. साज-सज्जा अव्वल दर्जे की है. अच्छी-खासी भीड़ है. शहर के सम्मानित व्यक्ति, विभिन्न जाति-धर्म के लोग वहां मौजूद हैं. मुसलमान भाइयों की संख्या अधिक है, जो कि स्वाभाविक है.
‘‘अब इजाजत चाहता हूं. कवि महोदय सौरभजी को गांव जाना है. मेरे लिए भी समस्या है, आज रिक्शा संभव नहीं. ठंड भी है. और फिर दो-तीन जगह जाना भी है मुझे.’’ काफी देर तक ठहरने के बाद मैंने कहा. मेरे कहते ही चौंक से गए शौकत.
‘‘बिना खाए कैसे जाएंगे? खाना तो तैयार है, आधा घंटा में शुरू हो जाएगा.’’
‘‘अरे भाईजान! अभी-अभी तो भरपूर नाश्ता हुआ है पेट की औकात से ज्यादा और लजीज भी...अब क्या खाना? भाई बहुत-अच्छा लगा.’’
‘‘आप लोगों का आना मुझे भी अच्छा लगा, लेकिन बिना खाए लौटना बुरा लग रहा है.’’ शौकत की बात सुनकर कुछ पल के लिए मैं असमंजस में रहा, लेकिन परिस्थितियां मुंह बाए नजर आने लगीं.
‘‘ऐसा है भाईजान कि सौरभ का गांव यहां से दस किलोमीटर दूर है. जाना साइकिल से होता है. और फिर आप जानते हैं, मुझे भी दो-तीन जगह जाना है अभी...’’
राजी हो गए शौकत और हम लोग लौट गए. गोपाली चौक के बाद हम दो दिशा के राही हो गए. सौरभ उत्तर की तरफ साइकिल से बढ़ा और मैं पश्चित की तरह पैदल.
आगे बढ़ते ही चौराहे पर, बाटा की दुकान के पास, कुछ लड़के नशे में बेसुध बतकुचन कर रहे हैं. बातों से जाहिर है कि वे कोठे पर जाने की योजना बना रहे हैं. लेकिन शहर की सबसे खूबसूरत तवायफ के कोठे पर किसी दूसरे रईस की महफिल जमी है, मुजरा सुनाई पड़ रहा है, नर्तकी की आवाज और साज-बाज साथ ही कुछ बहकते हुए बेसुरे स्वर. ये लड़के वहां जाकर उस रईस को भगाकर खुद मुजरा सुनने और मस्ती लूटने की फिराक में हैं. उनकी बातों से ऐसा लग रहा है कि वे इस बात से अपमानित महसूस कर रहे हैं कि आज पहली जनवरी यानी साल के पहले दिन लाल बाई के पास उनके सिवा दूसरा कौन चला गया है.
मैं तेजी से आगे बढ़ने लगा हूं. दाईं तरफ के होटल से शोर सुनाई पड़ रहा है. यहां परमाणु कार्यक्रम बहस का विषय है शायद. उसके पक्ष में कोई तर्क देता तो विपक्ष वाले उलझ पड़ते और अपना तर्क देने लगते. कोई उसे देश की ऊर्जा और विकास के लिए अपरिहार्य कह रहा है तो कोई अमेरिकी गुलामी का प्रतीक मान रहा है. बीस-पच्चीस कदम आगे ही, चौराहे पर, अमेरिका की मंदी और विश्वमंदी पर बहस छिड़ी हुई है.
आगे तिराहा चौक पर आतंकवाद की चर्चा है. आतंकवाद के कारण में मुसलमानों को ठूंसने, साबित करने की कोशिश की जा रही है. और उसके कारण मुसलमानों को अपने स्तर से, आज ही मजा चखाने की योजना बन रही है. मिल्की मोहल्ला, जहां से मैं अभी आ रहा हूं, वहीं जाने की बात कुछ लोग कर रहे हैं...वहीं कुछ लोग उड़ीसा वगैरह की वारदात को सामने रखकर उनकी बातों को काटने की कोशिश कर रहे हैं और उनके विरोध में सीधे बोल भी रहे हैं.
वैसे सभी जगहों पर लोगों की जुबान से शराब सिर चढ़कर शोर कर रही है. चलते हुए कई बार तेज रफ्तार में जाती बाइक से बचकर, कटकर निकलना हो रहा है. एहतियात के तौर पर मैं फुटपाथ पर तो चल ही रहा हूं, लेकिन आंधी-बरसात की तरह आती बाइक से बचने के लिए नालों से सटकर चलना पड़ रहा है. ऐसे में एक बांस दूरी तय करता तो लगता इतना हो चुका, अब उतना और बढ़ना है. पल-पल भयावहता के दर्शन और संकटग्रस्त होने का आभास. जीवन का ऐसा पहला अनुभव, वह भी पहली जनवरी को.
इसी बीच सौरभ का फोन आया. घबराहट से भरी कांपती आवाज- ‘‘बड़े संकट में हूं. उज्जवलपुर गांव के बगीचे में जुआ खेलने वाली कई टोली बैठी हैं. लोग नशे में चूर हैं और हमसे आगे जाने वाले एक व्यक्ति को पकड़कर उससे पैसे छीन रहे हैं.’’
‘‘इतनी रात को गांव बधार में जुआ? छीनतई? यार तुम किसी दूसरे रास्ते से निकल जाओ!’’ मैंने कहा.
‘‘उनसे बच निकलना मुश्किल लग रहा है. पिछले साल पहली जनवरी को उसी बगीचे से उन्हें तकलीफ पहुंचती और मेरे तर्क बेमानी लगते. लेकिन यहां तो अकल्पनीय स्थितियों से दो-चार होना पड़ रहा है.’’
अब पहुंच रहा हूं नगरपालिका में काम करनेवाले सफाईकर्मियों के मोहल्ले में, जिसे आमतौर पर डोमटोली कहा जाता है. वैसे वहां डोम जाति के ही नहीं, मेस्तर जाति के भी लोग हैं. अभी वहां पहुंच भी नहीं सका हूं और शोर-शराबा, हंगामा मेरा इंतजार कर रहा हो जैसे. स्थिति मारपीट जैसी बन गई है. एक कह रहा है, ‘‘का हमरा के डोम समझ रहल बाड़े, हम मेस्तर बानी- मेस्तर. खानदानी बानी हमनी सब. हमार इजत पर जे हाथ फेरी, ओकरा के छोड़ब ना.’’ दरअसल कुछ लफंगे एक लड़की को जबरन अंधेरे में ले जा रहे थे. लड़की ने शोर मचाया. मोहल्ले के लोगों ने झट दबोच लिया लफंगों को, मारपीट भी की. अभी भी घेरे हुए हैं. वैसे दारू ये लोग भी लिये हैं और लफंगे भी.
आगे कुछ दूसरा नजारा है, ‘‘हमार मेहरारू के का देखत बाड़, तोहार बेटी त इयार के साथे गइल बाड़ी चकल्लस काटे.’’ एक कह रहा था.
‘‘आउर तोहार भतीजिया? ऊ कहवां बाड़ीं हो..ऊ भी त सांझे से फरार बाड़ीं.’’ भयंकर बतकुचन और दारू का कमाल यहां भी.
किसी तरह नागरी प्रचारिणी सभा के सामने मैं पहुंचा और उसी दिशा में कचहरी वाले रास्ते से बढ़ने लगा. महावीर मंदिर और पार्क व्यू होटल वाले रास्ते से जाने पर तेज बाइक चलाते और जश्न मनाते लोगों की संभावना थी. इस सुनसान रास्ते से बढ़ना मुझे अपेक्षाकृत सुरक्षित लग रहा है.
लेकिन, अरे बाप रे! यह क्या? सड़क के किनारे रमना मैदान परिसर के टूटे हुए अहाते के अगल-बगल कई जगह लड़कियों के साथ आपत्तिजनक स्थिति में पड़े हैं लोग. अंबेडकर चौक पर मूर्ति के नीचे प्रशासन को मुंह चिढ़ाते लोग मोमबत्ती जलाकर जुआ खेल रहे हैं और उससे सटे मंदिर परिसर में भी. दोनों जगह हंगामा मचा है.
मैं काफी तेजी से वहां से निकलने की कोशिश कर रहा हूं...लेकिन, यह क्या? ओफ्फ! अब क्या होगा? चार-पांच लड़के ठीक मेरे सामने बढ़ रहे हैं, मैं उनसे किनारे कट रहा हूं, लेकिन उनका निशाना शायद मैं ही हूं. मैं उनसे दूर होता जा रहा हूं और वे मेरे करीब होते जा रहे हैं और अंततः उन लोगों ने मुझे घेर लिया है. मैं बुरी तरह अकबका गया हूं.
‘‘घड़ी निकालो,’’ लड़खड़ाती हुई आवाज में एक ने कहा.
‘‘घड़ी नहीं है.’’
‘‘नहीं है? अरे वाह सूट-बूट चकाचक बनारसी और घड़ी नहीं...’’
‘‘पैसा दो, पैसा,’’ दूसरे ने आदेश दिया.
‘‘पैसा भी नहीं है.’’
‘‘शराफत से नहीं मानोगे तो इस रिवॉल्वर से दोगे न!’’ तीसरे ने रिवॉल्वर सामने करते हुए कहा.
‘‘अरे, पहले मोबाइल दो मोबाइल और फटाफट माल निकालो,’’ चौथे ने कड़ककर कहा.
‘‘मैं कुछ नहीं दूंगा, हटो मेरे सामने से,’’ मैंने हिम्मत जुटाकर कहा. और चारों ही उलझ गए मुझसे. अब तो जो होना होगा, वह तो होगा ही, हार क्यों मानूं? ऐसा सोचकर मैं भी उनसे निबटने लगा. वे लोग डांटकर बोल रहे थे, दुस्साहस कर रहे थे, लेकिन हल्का सा धक्का देने से लड़खड़ाकर गिरे जा रहे थे. सबसे पहले मैंने रिवॉल्वर वाले को दबोचा और उससे रिवॉल्वर छीन लिया. वे हाथ चला रहे हैं लगातार, लेकिन उसमें अधिकांश हाथ हवा में ही लहरा रहे हैं.
किसी तरह उन्हें ठेल-ढकेलकर आगे बढ़ा और मौका मिलते ही मैं अपनी शक्ति-भर दौड़ने लगा. उनका रिवॉल्वर अभी मेरे हाथ में है. अंधेरे और ऊबड़-खाबड़ रास्ते के बावजूद जान बचाने की गरज से मेरे अंदर पता नहीं कहां से इतना दम-खम आ गया है. वैसे मैं हांफ रहा हूं. सांसों पर काबू नहीं है. मैं भाग रहा हूं और वे मेरा पीछा कर रहे हैं. लग रहा है, अब मैं गिर पड़ूंगा. गिरने के बाद तो जान बचनी नहीं है. वे लोग मेरे पीछे हैं.
संयोग से एक गाड़ी की रोशनी दिखाई दी. मैंने कुछ राहत महसूस की. शायद पुलिस की गश्ती गाड़ी हो...हां! पुलिस की ही गाड़ी है, जो ठीक मेरे सामने रुक गई है. बलबलाकर पुलिस के जवान जीप से बाहर निकल आए हैं.
‘‘क्या हो रहा है?’’ एक सिपाही ने डपटकर कहा, मानो मैं मुजरिम होऊं.
‘‘ये लोग मुझसे पैसे, मोबाइल छीन रहे थे!’’ मैंने अकबकाकर कहा.
‘‘और आप, अभी यहां क्या करने आए थे?’’ दूसरे सिपाही ने सवाल दागा.
‘‘मैं एक शादी से होकर आ रहा हूं.’’ मैंने बताया.
‘‘शादी? अब सुनिए इनकी बिन मौसम बरसात? अभी शादी का लगन कहां? क्यों सरासर झूठ बोल रहे हैं आप.’’ तीसरे ने व्यंग्य किया.
‘‘मैं सच कह रहा हूं. मैं शादी से ही आ रहा हूं. और ये शोहदे मेरे पीछे पड़ गए.’’
‘‘चुप रहिए झूठ नहीं बोलिए...’’ एक सिपाही ने झिड़की दी.
‘‘सुनिए! जबान संभालकर बोलिए. मैं पीड़ित हूं, मुजरिम नहीं, मैं मिल्की मोहल्ला से शादी से लौट रहा हूं.’’
‘‘वह तो मुसलमानों का मोहल्ला है.’’
‘‘हां, मैं मुसलमान भाई के यहां से ही आ रहा हूं. शौकत हयात की बहन की शादी है आज.’’
‘‘आप मुसलमान हैं?’’
‘‘नहीं.’’ मैंने कहा.
‘‘तब नेता हैं? आम हिंदू तो नहीं जाता मुसलमान के घर!’’ सिपाही ने तर्क दिया.
‘‘यह आपकी समझ हो सकती है,’’ मैंने चिढ़कर कहा.
‘‘अरे, तुम लोग जाओ, भागो यहां से,’’ एक सिपाही ने उन शोहदों से कहा.
‘‘हवलदार साहब! यह क्या कह रहे हैं आप? ये लोग ही तो अपराधी हैं. इन्हें क्यों भागने को कह रहे हैं आप?’’ मैंने प्रतिरोध किया.
‘‘अपराधी? अपराधी कौन है, इसका फैसला तो कोर्ट करेगा. कोर्ट से पहले हम करेंगे, हमारे बड़े साहब करेंगे. अभी चलिए बड़े साहब के पास...हां, यह भी सोच लीजिए, आपके हाथ में रिवॉल्वर भी है. आर्म्स एक्ट में अंदर जाने पर पता चलेगा कि अपराधी कौन है...हुंह! अपराधी!’’
‘‘यह रिवॉल्वर तो उन लोगों का है हवलदार साहब. आप मुझमें और उनमें अंतर नहीं देख रहे हैं. मैं तो पढ़ने-लिखने वाला आदमी हूं, लेखक हूं, अपराधी नहीं हूं मैं!’’ किसी तरह हकलाते हुए मैं कह सका.
‘‘सुनिए! गूंगी साधने से या फिर बहस करने से मामला बिगड़ जाएगा. सीधे-सीधे रास्ते की बात कीजिए, उस पर अमल कीजिए...’’ एक दूसरे सिपाही ने राय दी.
‘‘चलिए, चलिए...बहुत हो गया. अब आप मानेंगे नहीं. बड़े साहब के पास पेश किया जाएगा आपको,’’ कहते हुए एक सिपाही मेरे नजदीक आ गया.
‘‘हाथ नहीं पकड़िए...मैं भाग नहीं रहा. चल रहा हूं आपके बड़े साहब के पास,’’ मैंने कहा.
कुछ पल के लिए सभी सिपाही, जिन्हें जान-बूझकर मैं हवलदार भी कह रहा था, एक-दूसरे का मुंह ताकते रहे और फिर चारों सिपाही एकाएक मेरी जेबों पर टूट से पड़े. बिल्कुल अप्रत्याशित, मेरी कल्पना से परे, और ऐसे में मैं किंकर्तव्यविमूढ़! खुदरा तक नहीं छोड़ा सिपाहियों ने, कलाई घड़ी निकाल ली. शुक्र है मोबाइल को अपने हाथ में लेकर फिर मेरी जेब में रख दिया. इसी दरम्यान शोहदों का रिवॉल्वर, जो मेरे पास था, झपट लिया एक ने.
जीवन में इस तरह का मेरा पहला अनुभव. वैसे मैं विरोध कर रहा था, चीख रहा था, लेकिन मेरी चीख को एक सिपाही ने मेरे मुंह पर हथेली से जकड़ लिया था. एक मुझे पकड़े हुए था और दो जेबों के ऑपरेशन में थे.
‘‘तुम...आप...आप लोग ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या मैं अपराधी हूं? तुम लोग अच्छा नहीं कर रहे हो...मैं...मैं...’’
‘‘सुनो, भाषण मत दो. अभी तुम जिस हालत में पुलिस के सामने हो, उसमें तुम दोषी हो, सोलहों आने दोषी. सबूत जुटाने की जरूरत नहीं. तुम्हारे हाथ में रिवॉल्वर, रात का समय, सुनसान इलाका, जाहिर है तुम लूट रहे थे लोगों को. तुम लुटेरे हो, गुंडा हो. तुम्हारे मुंह से दारू की बास भी आ रही है!’’ एक सिपाही ने तर्क प्रस्तुत किया.
‘‘यह सरासर झूठ है,’’ मैंने कहा.
‘‘सुनो! ज्यादा बनो नहीं. बड़े साहब अपराधियों के सामने जालिम हो जाते हैं. उनके पास जाओगे तो मामला बिगड़ जाएगा. कोर्ट का चक्कर और जेल की चक्की और पहले तो आज रात भर थाने में कुटम्मस. तुम्हारा भला इसी में है कि तुम चुप रहो और चुपचाप भाग जाओ यहां से...’’ एक सिपाही ने बताया.
‘‘भागो...भाग जाओ...जितनी जल्दी हो सके भागो यहां से,’’ कहते हुए एक सिपाही ने मुझे बुरी तरह धक्का दिया. मैं गिरते-गिरते बचा. और फिर दो-तीन सिपाही मिलकर मुझे वहां से हटाने लगे.
लुटा-पिटा, अपमानित हुआ मैं काठ सा हो गया, पूरी तरह संज्ञाशून्य. न कुछ सोच पा रहा हूं और न ही शरीर में किसी प्रकार की गति है. शून्य अंधेरे में ताक रहा हूं. कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां काम करना बंद कर चुकी हैं, उन्हें लकवा मार गया हो जैसे.
बिजली गुल हो गई है. कुहासा और भी ज्यादा गाढ़ा हो गया है. हवा थम गई है, लेकिन ठंड बढ़ी हुई है. बावजूद इसके मेरे बदन पर पसीना छलक आया है. मैं खड़़ा हूं, खड़ा रहने को बाध्य हूं जैसे. और रात की नीरवता बढ़ती जा रही है.
समवेत ठहाका और फिर एकाएक सुनाई पड़ती है एक सिपाही की आवाज- ‘‘नया साल मुबारक हो भाई! नया साल मुबारक हो, मुबारक!’’
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