सम्पादकीय नसबंदी बनाम नोटबंदी त त्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने परिवार नियोजन लागू किया और उनके सुपुत्र संजय गांधी ने नसबंदी...
सम्पादकीय
नसबंदी बनाम नोटबंदी
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने परिवार नियोजन लागू किया और उनके सुपुत्र संजय गांधी ने नसबंदी लागू की. नतीजा....? सभी को पता है कि 1977 के चुनावों में कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया और इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गयीं. तब जनता ने उनका साथ नहीं दिया था. जनता कभी भी सरकार के साथ नहीं चलती, क्योंकि उसे न तो सरकार के बनाये नियम-कानून पसंद हैं, न सामाजिक नियम-कानून. वह बेलगाम घोड़ी की तरह अपनी मर्जी से दौड़ना चाहती है. इसीलिए अपने देश में किसी प्रकार का अनुशासन, काम के प्रति निष्ठा और ईमानदारी नहीं है. लोग भ्रष्टाचार और बेईमानी का साथ बहुत निष्ठा और ईमानदारी से देते हैं, परन्तु उन्हें कानून की भाषा समझ में नहीं आती. कानून को तोड़ने में उन्हें मजा आता है.
हमारे देश का नागरिक न तो लाइन में लगना पसंद करता है, न लेन में. ताकतवर, ढीठ और बेईमान आदमी लाइन तोड़कर, सबसे लड़-झगड़कर और आगे जाकर अपना काम करवा लेता है. यही हाल सड़क पर चलनेवालों का है. कोई भी नियम कानून से सड़क की लेन में चलना पसंद नहीं करता है. वह दाएं-बाएं, कहीं से भी आगे निकलने की होड़ में लगा रहता है. इसीलिए अपने देश में सबसे ज्यादा सड़क हादसे होते हैं. जॉम की स्थिति में चालक अपनी गाड़ी आगे ले जाकर फंसा देता है, जिससे और ज्यादा जॉम लग जाता है. फिर जॉम को खुलने में घंटों लग जाते हैं.
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खैर, बात मैं इंदिरा गांधी की कर रहा था.
परिवार नियोजन और नसबंदी में जनता ने इंदिरा गांधी का साथ नहीं दिया, और आज हम सभी देश की जनसंख्या की स्थिति देख ही रहे हैं. जनसंख्या विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुकी है. देश में संसाधनों की कमी होती जा रही है, पुराने उद्योग
धंधे चौपट हो गए हैं, नए उद्योग धंधे लग नहीं रहे हैं, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है; परन्तु जनसंख्या रुकने का नाम नहीं ले रही है. कुछ वर्ग और जाति के लोग इसके प्रति जागरूक भी हैं, परन्तु कुछ लोग धर्म का हवाला देकर जनसंख्या को बढ़ाने में आंख मूंदकर लगे हुए हैं. तब अगर जनता ने सरकार के साथ सहयोग किया होता, तो आज हमारे देश की जनसंख्या नियंत्रण में होती और जिस प्रकार बेरोजगारी और महंगाई की समस्या से हम सभी जूझ रहे हैं, उससे काफी हद तक छुटकारा मिल चुका होता. लेकिन जनता न तब जागरूक थी, न आज है. जब जनता सरकार की योजनाओं के साथ तालमेल नहीं रखती और नियम-कानून का उलंघन करती है, तब देश विकट समस्याओं से घिर जाता है और जनता परेशान रहती है. आज अगर जनता महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से त्रस्त है, तो वह इसके लिए स्वयं जिम्मेदार है.
सरकार योजनाएं बनाती हैं, परन्तु उनको लागू करनेवाले कर्मचारी और अधिकारी उनको ध्वस्त कर देते हैं, क्योंकि योजनाओं से जनता को होनेवाले लाभों की तरफ उनका ध्यान कम, अपनी भ्रस्ष्ट कमाई की तरफ ज्यादा रहता है. इसीलिए कोई भी सरकारी योजना सही ढंग से लागू नहीं हो पाती.कर्मचारी, अधिकारी और नेता सरकारी पैसे को अपनी झोली में भरकर ऐश करते हैं. हमें इन भ्रष्ट लोगों को अलग करके नहीं देखना चाहिए. यह भी जनता का एक अंग हैं.
खैर, अब लौटकर मैं फिर इंदिरा गांधी की बात पर आता हूं. ढाई साल बीतते न बीतते जनता इंदिरा गांधी और संजय गांधी द्वारा आपात्काल के दौरान किए गए अत्याचारों को भूल गयी और 1980 में इंदिरा गांधी फिर से शान-बान और गाजे-बाजे के साथ सत्ता में आ गईं, क्योंकि जनता दल की सरकार आपसी फूट के कारण अपने आप गिर गयी थी. वह जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी.
जनता सरकार से सदा अपेक्षा करती है कि वह जनता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे, परन्तु जनता अपने नागरिक कर्तव्यों का पालन कभी नहीं करती. वह केवल अपने अधिकार चाहती है.
आज नसबंदी लागू करने जैसा ही जोखिम वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी करके उठाया है. अभी तक तो जनता नोटबंदी में उनका साथ दे रही है, परन्तु धीरे-धीरे उसका धैर्य चुकता जा रहा है. जनता के धैर्य को चुकता करने में विपक्ष कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है. विपक्ष की स्थिति सांप-छंछूदर जैसी हो गयी है. सरकार की नीति सही है, परन्तु वह इसे सही नहीं कह सकती, क्योंकि इसका लाभ सरकार को अगले साल होनेवाले प्रादेशिक चुनावों में मिलेगा. अतएव वह इसे गलत करार देकर जनता की भावनाओं को भड़काने का काम कर रही है. जो जनता विपक्ष के साथ है, वह तो सदा उसके साथ रहेगी, परन्तु जो जनता इस बात में विश्वास करती है कि नोटबंदी से देश का भ्रष्टाचार कम होगा और कालेधन पर लगाम कसी जा सकेगी, वह अभी तक सरकार की नीति की प्रशंसा कर रही है, उसका साथ दे रही है; परन्तु सवाल है कि कब तक?
क्योंकि केवल आम आदमी बैंक के सामने नोट बदलवाने और अपना पैसा निकलवाने के लिए खड़ा है. जो नेता गरीब का रोना रोते हैं और उसकी भलाई के लिए संसद में चीख-पुकार मचाते हैं, वह कहीं भी जनता के साथ लाइन में खड़े दिखाई नहीं दे रहे हैं, न कोई व्यापारी और उद्योगपति नोट बदलवाने या बैंक से पैसा निकालने के लिए लाइन में लगा है....नोट बदलवाने और अपना कालाधन सफेद करने के इनके अपने चैनल्स हैं. ये लोग बड़े आराम से अपने सीए और कंपनी के फर्जी डाइरेक्टर्स के माध्यम से अपने पैसे को बदलवा चुके हैं या बदलवा रहे हैं और उन्हें कोई परेशानी नहीं हो रही है. इसीलिए अब जनता कुढ़ रही है कि केवल गरीब और आम आदमी ही परेशान है. अमीर तो किसी भी तरह से परेशान नहीं दिखाई दे रहा है. अतः जनता धीरे-धीरे बगावत की ओर बढ़ रही है.
सरकार की नीति अच्छी होते हुए भी शायद इसे जल्दबाजी में लागू किया गया है. लागू करने के पहले केवल भ्रष्टाचार और कालेधन पर लगाम कसने की तरफ ध्यान दिया गया, परन्तु आम जनता को होनेवाली परेशानियों की तरफ सरकार के नुमाइंदों का ध्यान नहीं गया. इसीलिए एक महीने बाद भी आम नागरिक पैसों के लिए परेशान है और लाइनों में लगा खड़ा दिखाई दे रहा है.
खैर, श्री नरेन्द्र मोदी ने जनता से 50 दिन का समय मांगा था. उसमें अब कुछेक दिन ही बचे हैं. (यह लेख लिखने के समय). हालात में सुधार हुए हैं और आशा है कि आनेवाले दिनों में नोटों की समस्या का समाधान हो जाएगा, उसकी कमी पूरी हो जाएगी; परन्तु ध्यान देनेवाली बात है कि भारत के नागरिक अपनी अधीरता के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं. मैं पहले भी कह चुका हूं कि उन्हें लाइन में लगना और लेन में चलना बिल्कुल पसंद नहीं है. इसीलिए अब वह अधीर हो रही है और सरकार के खिलाफ होती जा रही है.
अमीर लोगों ने भले ही सरकारी तंत्र की कमजोर कड़ियों को तोड़कर, सत्ता और प्रशासन में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों के माध्यम से (धन-बल का दुरुपयोग करके) अपने लाखों करोड़ों काले रुपये सफेद कर लियें हों, परन्तु सरकारी एजेन्सियों की चुस्ती और निगरानी के कारण वह पकड़े भी जा रहे हैं. इससे जनता का उत्साहवर्धन होना चाहिए. दूसरी तरफ सरकार को भी जनता के मन तक यह बात ठीक से पहुंचानी होगी, कि नोटबंदी का कानून उनकी भलाई के लिए है और देश के दुश्मन जो हेराफेरी से अपने काले धन को सफेद करने में लगे हैं, वह बच नहीं पाएंगे. इसके लिए जनता को सरकार का साथ तो देना ही होगा और कुछ दिनों तक नोटों की कमी का कष्ट भी झेलना होगा. उसे धैर्य का दामन पकड़े रहने होगा, वरना जिस प्रकार चालीस वर्ष पहले परिवार नियोजन का सत्यानाश हुआ था और उसका बुरा असर आज भी इतना स्पष्ट और कड़वा है कि अब कोई भी सरकार उसे फिर से लागू करने का नाम नहीं लेती. परिणामस्वरूप देश की जनसंख्या बेलगाम गति से बढ़ती जा रही है.
उसी प्रकार अगर नोटबंदी असफल हो गयी तो एक दिन यह देश भ्रष्टाचार और बेईमानी के दलदल में आकंठ डूब जाएगा, तब जनता खून के आंसू रोएगी. तब चारों तरफ अनाचार, अत्याचार और शोषण के सिवा कुछ नहीं होगा. बेरोजगारी और महंगाई इतनी बढ़ चुकी होगी कि लोग लूट-खसोट, चोरी-चकारी में व्यस्त होंगे. हर तरफ हाहाकार होगा. हत्या, बलात्कार आदि की घटनाएं इस कदर बढ़ चुकी होंगी, कि सरकारी तंत्र भी उन्हें नियंत्रित नहीं कर पायेगा.
यह बात बहुतों को बुरी लग सकती है, परन्तु बिल्कुल सत्य है. इस देश की जनता को आजादी पचती नहीं है. वह स्वतंत्र होते ही निरंकुश हो जाती है. जब तक उसके ऊपर आपात्काल जैसी कानून व्यवस्था नहीं लागू की जाती, वह कायदे और कानून से नहीं चलता. इस देश की जनता अगर नियम-कानून का पालन करती, ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निवर्हन करती, निष्ठा से अपने कार्यों का अनुपालन करती, भ्रष्टाचार और बेईमानी से दूर रहती, तो कोई कारण नहीं कि देश का विकास सही ढंग से नहीं हो पाता. आज दक्षिण एशिया के बहुत छोटे-छोटे और संसाधनों की कमी से जूझ रहे देश विकास में भारत से बहुत आगे हैं, जैसे सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड और बर्मा. इनकी तुलना में भारत कहीं नहीं ठहरता, जबकि हमारे पास सारे प्राकृतिक संसाधन हैं. इसका एकमात्र कारण है, देश के नागरिकों की अकर्मण्यता, कामचोरी, बेईमानी और भ्रष्टाचार.
...‘‘हमें अधिकार नहीं, कर्तव्य चाहिए’’, जबतक प्रत्येक नागरिक इस बात को अच्छी तरह नहीं समझेगा, देश का विकास असंभव है. विकास तो बहुत दूर की बात, देश विखंडन की दिशा में बढ़ता दिखाई दे रहा है. न जाने इतिहास कब अपने को दोहरा दे और हम फिर से गुलाम हो जाएं. आखिर तीन हजार सालों से हम गुलामी का दंश ही तो झेल रहे हैं. फिर से गुलाम हो जाएंगे, तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा.
भारतीय संस्कार बहुत अच्छे हैं, परन्तु हम अच्छे संस्कारों का अनुपालन अपने जीवन में नहीं करते हैं. हम केवल उन्हीं संस्कारों को अपनाते हैं, जो हमें व्यक्तिगत या आर्थिक लाभ पहुंचाते हैं. अपने स्वार्थ के लिए हम कुछ संस्कारों को गठित भी कर लेते हैं, जैसे- आधुनिक समाज में हमने दहेज का संस्कार अपनाया हुआ है. यह संस्कार हमारे समाज को खोखला करता जा रहा है, परन्तु शिक्षित वर्ग भी इसे समाप्त करने में अपना उचित योगदान नहीं कर रहा है. बल्कि देखा यह जा रहा है कि उच्च वर्ग के लोगों इसे और ज्यादा बढ़ावा देने में लगे हैं. खैर, संस्कार अपनी जगह पर हैं, परन्तु नियम-कानून अपनी जगह पर. मेरा यही कहना है कि उचित और सही संस्कारों को अपने व्यक्तिगत जीवन में लागू कीजिए, तो राष्ट्रीय और सामाजिक कानूनों को समाज और देश के हित के लिए अपनाने में हमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए. हमारे शास्त्रों में तो कहा ही गया है कि हवन करते हाथ जलते हैं, अर्थात अच्छा काम में कठिनाई होती है और बुराई भी मिलती है, तो देश में नोटबंदी के कारण अगर जनता को फिलहाल कुछ परेशानियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, तो यह हमारी आनेवाली खुशियों के लिए ही हो रहा है.
नोटबंदी में मैं सरकार के साथ हूं और अपनी तरफ से जनता से अपील करना चाहता हूं कि कुछ दिन और सरकार का साथ दीजिए, जिससे हालात सामान्य हो सकें. जब हालात सामान्य हो जाएंगे तो जनता को स्वयं पता चल जाएगा कि देश से न केवल भ्रष्टाचार कम होगा, बल्कि कालेधन को पनाह देनेवाले देश के दुश्मनों पर नकेल भी कसी जा सकेगी. तभी यह देश विकास की ओर बढ़ पाएगा और जनता सुखी हो सकेगी. इस बार हमें अपना धैर्य नहीं खोना है.
राकेश भ्रमर
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