बचपन की ही अभिलाषा रही थी दबी, कुचली, सहमी, सिकुड़ी। समय के साए में, लगा भूल गई थी, मगर नहीं, मस्तिष्क के किसी कोने में सिमटा सा बैठा था, मौ...
बचपन की ही अभिलाषा रही थी दबी, कुचली, सहमी, सिकुड़ी। समय के साए में, लगा भूल गई थी, मगर नहीं, मस्तिष्क के किसी कोने में सिमटा सा बैठा था, मौका मिलते ही उछल कर गले मिल गया था, शांतिनिकेतन।उन भूली बिसरी यादों की धुलाई करने। बरसों पहले छात्रावास में, एक सहपाठिनी ने कहा था, उसकी माँ यहाँ से पढ़ाई कर आई थीं , किस्से कहानी सुने थे, कुछ पढ़े भी थे। आज, जब हावड़ा से गणदेवता एक्सप्रेस पकड़ कर बोलपुर आई, लगा, जीवन की अद्भुत जिज्ञासा शांत होने जा रही है।
कहा जाता है कि जहां संतों के चरण पड़ते हैं, वह स्थान तीर्थ स्थल सा बन जाता है। वाकई, यह सत्य है। कभी किसी दुर्दांत डकैत के नाम से प्रसिद्ध इस लाल मिट्टी वाले बंजर भूमि को प्रकृति का, विश्व प्रसिद्ध एक नायाब तोहफा बनाने का काम कवीन्द्र रवींद्र नाथ, उनके पूर्वज ने ही किया।
बंगाल में बीरभूम जिले के अंतर्गत बोलपुर के समीप छोटा सा शहर है। यहाँ ब्रह्म समाज वाले, महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर, रवींद्र नाथ के पिता ने सात एकड़ जमीन लेकर अपना एक आश्रम बनाया जिसका नाम रखा शांति निकेतन, अर्थात, शांति का घर। एक बड़ी सी इमारत जिसका नाम शांति निकेतन है, सर्व धर्म सम भाव के सिद्धांत पर बनाया गया है। इस इमारत में एक तरफ चर्च, एक तरफ मस्जिद, एक तरफ मंदिर और एक तरफ बौद्ध का प्रतीक चिह्न बनाया गया है। इस इमारत में बाहर से जो गणमान्य व्यक्ति आते थे उन्हें ठहराया जाता था। यहाँ अंदर में कोई पलंग, कुर्सी नहीं है, बस कार्पेट है, इसी पर लोग विश्राम करते थे। यहाँ पंडित नेहरू, महात्मा गांधी, कस्तूरबा गांधी, राजेंद्र प्रसाद आदि जैसे लोग भी अतिथि के रूप में आए थे।
बाद में, बैरिस्टरी की पढ़ाई अधूरी छोड़कर विलायत से लौटे, कला साहित्य, धर्म और दर्शन के महान विद्यार्थी रवीन्द्रनाथ ने यहाँ अपने स्कूल विश्व भारती की स्थापना की थी। यहाँ एक ओर रवींद्र नाथ का आकर्षक घर है। वे अक्सर अपना निवास बदलते रहते थे। छोटे बच्चों के लिए खोला गया स्कूल भी है, जो उनकी पत्नी मृणालिनी देवी चलाती थीं। उन्होंने अपना सारा आभूषण बेच कर रवींद्रनाथ के इस अमर सपने में लगा दिया था। कवीन्द्र ने गीतांजली से प्राप्त नोबेल पुरस्कार के रकम को भी इसी संस्था के उत्थान में लगाया था। यहाँ प्रायः सब कुछ पढ़ाया जाता है। बालमन के विविध आयाम को विकसित, प्रफुल्लित होने का अवसर दिया जाता है।
यहाँ देश विदेश से, चीन, जापान, श्रीलंका, मद्रास, आदि से विद्यार्थी आते रहते हैं।
श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिवानी, सत्यजित राय, नंदलाल बॉस, इंदिरा गांधी, अमर्त्य सेन आदि इसकी स्वर्णिम गाथा के महत्त्वपूर्ण सबूत हैं। .
“बारिश के मौसम में बच्चे वर्षा की झिलमिलाती बौछारों का स्वागत करने के लिए भी चातक पाखी सा उत्सुक रहते हैं” ‘। {गाइड की ये बातें मेरे अतीत के उस कटु स्मृति को जगा गई, जब एक बार मेरा भी बाल मन, काले बादल के साथ साथ बरसते मेघ को देख कर नाच उठा था, मैं अपने को रोक नहीं पाई थी, और नतीजा,कर्कशा छात्रावास अधीक्षिका ने मुझे बुरी तरह डांटा था।हाँ, वह शांति निकेतन तो नहीं था न इसीलिए मैं भी चित्रकार, कवि या लेखक नहीं हो सकी }।
गाइड ने बताया कि कभी यह भूखी भूमि थी, माने कुछ कुछ बंजर। इस रक्त जैसे लाल मिट्टी में दीमकों का अड्डा था। बहुत परिश्रम करके, सींच सवार कर इसे उपजाऊ बनाया गया। इसमें आम के, सोन झूरी के विशाल विशाल पेड़ों के अलावा और भी अनेक प्रकार के बड़े बड़े पुराने पेड़ हैं।,{कुछ पेड़ सूख गए थे } रास्ते के दोनों ओर लगे भांति भांति के विशाल पेड़ों की अपनी पृथक सुंदरता है। रविंद्रबाबू इस रास्ते पर टहलते हुए सोचते थे, और यही आस पास बैठ कर अपने चिंतन को मूर्त रूप दिया करते थे। कहाँ क्या लिखा गया यह मार्गदर्शक बता रहा था।इसी मार्ग पर चलते हुए रविंद्रबाबू ने नूतन पीढ़ी का स्वागत करते हुए कहा था कि आओ तुम्हारा स्वागत है, हमारा समय तो समाप्त हो गया।, इसी रास्ते से उनकी अंतिम विदाई भी हुई थी। { जब हम वहाँ पहुंचे, हमारे ड्राइवर ने कहा था, ”ऐसे क्या समझ आएगा, गाइड ले लीजिए, वह पूरा इतिहास जीवित कर देगा,।तब मैंने उसे मुड़ कर देखा था। वाह !आम लोग भी यहाँ इतने समझदार, इतने काला मर्मज्ञ है। वाह, बंगाल की मिट्टी ही धन्य है। }बुजुर्ग गाइड रवींद्र के महान प्रेमी। जैसे कोई अपने आराध्य के बारे में बता रहा हो, वैसे भावातिरेक में बहकर महर्षि रवींद्र के बारे में बता रहा था।
प्राचीन गुरु शिष्य परंपरा के अनुकूल यहाँ खुले में धरती और आकाश के मध्य, , अध्ययन अध्यापन का काम होता है। पेड़ों के नीचे सीमेंट के गोलाकार मेज, और कुर्सी जैसे बने हुए हैं जहां विद्यार्थी और शिक्षक बैठ कर पढ़ते हैं। पेड़ के नीचे सूर्य की स्थिति के आधार पर, बिना पंखा, डेस्क के,बिना किसी कृत्रिम आवरण के, बच्चे, प्रकृति की छाँव में, प्रकृति की गोद में बैठ कर अध्ययन करते हैं, प्रकृति का अवलोकन करते हैं, उसे और भी सुंदर बनाने की चेष्टा भी करते हैं। बारिश के समय अध्ययन के लिए कुछ छप्पर जैसे स्थान बने हैं। गुरु शिष्य परंपरा का सुंदर उदाहरण अभी भी यहाँ उपस्थित है । बड़ी कक्षा के विद्यार्थी,छोटे कक्षा वालों को पढ़ने और पाठ समझने में मदद करते हैं , जो ज्यादा संख्या में दिख भी रहे थे।कला पर ज्यादा ज़ोर दिया जाता है, या यहाँ शायद इसी मनोवृति के बच्चे ही आते होंगे। विश्वभारती में पढ़ा इंसान, दुनिया के भीड़ में भी अपनी छाप छोड़ने में सार्थक रहता है। ये जो चौड़ी चौड़ी सड़कें हैं, जिसे विश्वभारती के उत्सवों के समय लाल लाल कार्पेट बिछा कर आगंतुकों के बैठने का इंतजाम किया जाता है। यहाँ कोई कुर्सी नहीं बिछाई जाती। समय कम नहीं था, हमीं देर से पहुंचे थे। शाम जल्दी नहीं, अपने वक्त से ही घिर रही थी, बड़े बड़े विशाल पेड़ों के नीचे सोडियम लाईट्स जलने लगे। गाइड, रवीन्द्रनाथ का महान प्रशंसक, विविध विवरण प्रस्तुत करता हुआ, बेहद दुखी और पराजित स्वर में बोला, “ देखिए आज इसकी क्या स्थिति है, जगह जगह कर्मियों ने जमीन कब्जा कर अवैध रूप से बड़े बड़े मकान बना लिए हैं वह दृश्य, वह परिवेश अब लुप्त होने लगा है। , ये देखिये, कुछ पेड़ सुख गए हैं, जितना ध्यान इस पर देना चाहिए उतना नहीं दिया जा रहा है। आप लोग लिखे राष्ट्रपति महोदय को, उनके मन में थोड़ा प्रेम बचा हुआ है इसके लिए ‘।
हम उस मैदान में बढ़ चले जहां एक बड़ी सी घंटी {प्रार्थना की घंटी }टंगी है।
वहाँ नीचे सीमेंट के दो बेंच बने हैं, जहां कुछ विद्यार्थी बैठे थे।सभी प्रसन्न, प्रमुदित। यहाँ महिला छात्रावासों के साथ छोटे स्कूल के बच्चों का निवास है। बड़े विद्यार्थियों का कैंपस के दूसरे तरफ है। हमारे सामने से सायकिलों पर लड़कियों का एक झुंड आगे होता हुआ, दाहिने की ओर मुड़ गया था, उधर उनका छात्रावास था, वहाँ अब बिजली जलने लगी थी।
यहाँ वसंतोत्सव की तैयारी बड़ी धूम धाम से होती है। पौष उत्सव काफी मोहक होता है। इसे देखने के लिए देश विदेश के लोग, और कलाकार आते हैं, इसके अतिरिक्त वर्षा मंगल, शरदोत्सव, नादां मेला, माघ मेला, रवींद्र जयंती के समय यहाँ के वातावरण में जैसे भंग घोल दिया जाता है, सब कुछ मदमस्त, चारों तरह साहित्य, संगीत और कला की अनुपम छटा बिखर जाती है।
नीम के बड़े बड़े पेड़ों को दिखाकर गाइड ने कहा, कि सप्ताह में एक बार इसकी पत्तियाँ अवश्य खानी चाहिए। यहाँ विद्यार्थियों को भी यह खिलाया जाता है, जिससे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यहाँ म्यूजियम है, लाइब्रेरी है, अनेक खंड-प्रखण्ड हैं, कैंटीन है, मगर शाम इतनी गहरा गई थी, कि सब कुछ पर अंधकार हावी होने लगा था। गाइड महाशय ने हमें कैंपस में बने अपने आवास स्थान पर आकार भोजन के लिए निमंत्रण दिया, जिसे हम बड़ी विनम्रता से भविष्य के लिए स्वीकार कर लिया था। { फिर कभी आने पर }। वक्त ने भी इजाजत नहीं दिया, और हम, अतीत के एक विशाल सुंदर स्वप्न के कुछ अंश को अपने दिल में सँजोए वहाँ से आहिस्ता आहिस्ता लौट आए थे।
डॉ0 कामिनी कामायनी।
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