प्रेम कविताएँ अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ जन्म : 1 मार्च ग्राम- खेमीपुर , अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश दैनिक जागर...
प्रेम कविताएँ
अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’
जन्म : 1 मार्च
ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश
दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी,वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा ,पुरवाई ,हमरंग आदि में रचनाएँ प्रकाशित
2001 में बालकन जी बारी संस्था द्वारा राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार
2003 में बालकन जी बारी -युवा प्रतिभा सम्मान
आकाशवाणी इलाहाबाद से कविता , कहानी प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’ कविता शलभ संस्था इलाहाबाद द्वारा चयनित
मोबाईल न. 8826957462 mail- singh.amarpal101@gmail.com
1 - कुछ पल
जुदा –जुदा ही सही तुम्हारे ,कुछ पल अपने साथ रहे ,
बिखरी –बिखरी हँसी तुम्हारी ,जुड़ते मेरे ख़्वाब रहे ,
तेरी आँखों के वे समंदर , साहिल तेरी आँखों के ,
डुबो - डुबो कर हाथ तुम्हारे , मुझे बुलाते पास रहे,
आँसू पर मेरे मुस्का, तो कभी दर्द पर सहमे तुम ,
जितने अपने लगे पराये उतने ही हमराज़ रहे |
2- तुतले मन की बातें
जलते बुझते चूल्हे जैसी ,लगती तेरी आँखें हैं ,
दूर गगन में उड़ जाने को ,आतुर जैसे पांखे है ,
जिसे भूलकर गए परिंदे ,सूनी सहमी साखें हैं ,
कभी हँसातीं कभी रुलातीं ,ये बिरहन की रातें हैं ,
इन्हें छुओ मत जल जाओगे, दबी आग की राखें हैं ,
जो कहती हैं सच कहती हैं ,तुतले मन की बातें हैं |
3-तेरी आँखें
एक उम्मीद हैं तेरी आँखें,
इनायत इनकी बनाये रखना ,
जिसकी साँसों पे टिकी साँसें हों ,
कितना मुमकिन है भुलाये रखना ?
जब कहीं दूर चले जाओगे ,
यादें अश्कों में छुपाये रखना ,
सबकी नजरों में तमाशा न बनें ,
दर्द इस तरहा दबाये रखना |
4 –ज़िद
मुद्दतों बाद मुस्कुराया है , ज़िद है दिल की उन्ही पे आया है ,
जिसने आँखों को सिखाया रोना ,उनको ही ज़ख्म फिर दिखाया है ,
तिनके -तिनके से आशियाँ जोड़ा ,फिर भी तनहा वजूद पाया है ,
उनकी बातों में शोखियाँ ताज्ज़ुब , जिसने कितनों का दिल जलाया है |
5 –ग़ज़ल
इतना ख़ामोश तुझे देख सकूँ ,मेरी फितरत को कब गँवारा है ,
एक अल्फ़ाज़ निगाहों से सही ,तेरा गुस्सा भी बहुत प्यारा है ,
ढलती शामों से पूछकर देखो ,किस तरह दर्द को संवारा है ,
आप तो रूठ ही गए सच में ,जानकर भी मज़ाक सारा है |
6- तुम्हारी आँखे
तुम्हारी आँखे
मेरे उम्मीद की आकाशगंगा
रेगिस्तानी अहसास पर बहता पानी
जीतने का संकल्प तूफ़ानी
भोली ज़िदों का रुख़ रूमानी
अहसास बिछाती जाती, मन कैनवास
संवारतीं मेरा कल, मेरा आज इन्द्रधनुषी पाँखों से
सच ! सीमाओं में रहकर असीम हो जाना
सीखे कोई तुम्हारी आँखों से .....................................
7 - तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारे जाने के बाद
समेटता रहा मन
पलों के रूमानी अहसास ,कितनी साँसों के सैलाब
मन की खुली किताब ,क़िस्से बेहिसाब
पर ....खोना ही लगता जहाँ ,
पाने जैसा बार-बार
वो है
क्षितिज- सा विस्तारित तुम्हारा प्यार ...............................|
8 –बातें अधूरी ....
ये बात अधूरी ही रहने दो
पूरी कर लूँगा ,फुर्सत में कभी
ना आ सका तो समझ लेना,
बात पूरी हो गयी ,
गर ,आ गया तो फिर छोड़ जाऊंगा
एक अधूरी बात ,आने वाले कल के लिए
क्योंकि ..............................................
अलमस्त जोगी मन मेरा, यूँ ही जिए
मनझोली में सिकंदर –सा
तुम्हारी यादों के कुछ पल लिए |
9 - तुम्हारे जाने के बाद
कुछ सूखी तूलियाँ ,कुछ बेज़ुबान रंग
कुछ मटमैले कैनवास ,कुछ रूठे संग
बेज़ान -सा पड़ा सब कुछ
तुम्हारे जाने के बाद ,
भ्रम ही सही
एक ख़त लिख दो
ना आने की तारीख़ के साथ
शायद फिर से जिन्दा होना चाहें
तूलियाँ ,रंग, कैनवास ,संग
बेज़ान पलों की साँस
और हमारे जज़्बात ...........................
10- गुजरा बादल
गुजरा बादल भिगो गया मन
कब सूखेगा ?
तपी हुई कुंदन आँखे छू लेना आकर
आसमान का सूरज तुमसे जब रूठेगा
जाते –जाते खोल गए सब , मन की सांकल
ये ना सोचा ! चंचल शिशु गम हो बैठेगा |
11- बातें
कुछ बातों को कुछ किस्सों को
कुछ वादों को कुछ रिश्तों को
बाँध के रक्खा है सिरहाने
जब जी करता पढ़ लेता हूँ
कुछ अक्षर जाने पहचाने
कुछ तीख़े कुछ , नीम –नीम हैं
कुछ जैसे गुड़ की चट्टानें |
12 –उलझाव
हमारे संबंध तारों का उलझाव
अच्छा लगता है
नही चाहता सुलझाना
फिर –फिर ढूंढता ,होता हताश
शेष प्यास
ना जाने ऐसा क्यूँ लगता बार-बार
शायद एक जरिया है तुम तक पहुँचने का ....
ये उलझाव !
13 –तुम्हारी हँसी
गीले आंगन में बिछा
धूप का एक कोना
बिलकुल तुम्हारी हँसी -सा
साबित करता
तुम्हारा होना ना होना |
14 –ग़ज़ल
मिलता जब भी हूँ किसी, अजनबी की आँखों से
तेरे हँसी की कनातों को ओढ़ लेता हूँ ,
मुझे बिखरने का, अंदाज़ खूब भाता है
बेवजह यूँ ही कभी, रिश्ते तोड़ लेता हूँ ,
आशना हो ना सके ,कोई मुकद्दर से मेरे
छुपा के हाथ ,सादगी से मोड़ लेता हूँ ,
अपना हमराज़, बनाना नहीं आसां तुझको
ये फ़ैसला मैं तेरी ज़िद पे छोड़ देता हूँ |
15 -जाना तेरा
सागर की खमोशी -सा
भर जाना मेरे मन का ,
अब भी छलक रहा आँखों से
जाना तेरा क्षन - सा
एक सुहानी ,भोली तितली के मंडराने जैसा
काँप अभी जाता पत्तों –सा
गाना मेरे मन का
सागर की खमोशी -सा
भर जाना मेरे मन का |
16 -चुटकी भर हँसी
चुटकी भर हँसी
रख दी तुमने चन्दन -सी
हथेलियों पर मेरे
हो गया मन-वृक्ष अमृतमयी
जो आश्रय था - विषपायी का |
17 - क्या रिश्ता था तुमसे मेरा
क्या रिश्ता था तुमसे मेरा
जान सका ना अबतक मन
पाने की सीमा ना कोई
ना खोने का सूनापन
क्या रिश्ता था तुमसे मेरा
जान सका ना अबतक मन
मिलना –जुलना बातें करना
और ख़ुशी की चादर बुनना
कभी नमी आँखों पर भारी
कभी हँसी के बादर धुनना
विश्वासों की साँस सरकती
हर पग पर लेकर दामन
क्या रिश्ता था तुमसे मेरा
जान सका ना अबतक मन |
18- तुम जब मिली दुबारा
तुम जब मिली दुबारा
बिछड़ने का दुःख नही था , उतना बिचारा
जितना बार –बार कलाई पर नज़रें डाल
आँखें इधर –उधर फेरना
कुछ गुम गया -सा हेरना
मेरे मन ने तुम्हारे मन को , कई बार छुआ
और तुमने कहा ..........................
घड़ी ठीक नही .......समय क्या हुआ ?
19 -उसकी बातों से
छू गया जब भी समय का कोना
उसकी बातों से
ठहरा रहा चाँद
लड़कर अँधेरी रातों -से |
20-लकीरें
तब खुशियाँ कब्र –सी ख़ामोश
और उस पर उगे कैक्टस - सी चुभती हैं
जब नही होतीं तुम्हारे हाथों की लकीरें
मेरे हाथों में |
21 -आवाज़
कल भीड़ में
एक आवाज़ तुम -सी लगी
ढूँढ ना सकीं
आवाज़ की पाँखें
लो फिर मुकर गयीं अपने वादे से
मेरी आँखें !
22-पावन आँखें
पूजा के कलश सी
तुम्हारी आँखें
छलकती हैं जब
पावन हो जाता मेरे मन का आँगन |
23 - इक बहाव हूँ
नही ठहरना ,
इक बहाव हूँ , तेरे अंतर सागर का
भुला सकोगे ,मुश्किल थोड़ा
फिर भी दूर ना जाऊँगा
बार –बार गुलमुहर हवाएँ
मिल जायेंगी सूरज को
कोई चेहरा जब मुस्काए
बिन पहचाने पागल - सा
नही ठहरना ,
इक बहाव हूँ , तेरे अंतर सागर का |
24-एहसास
बेनाम रिश्ते भी
महसूसते हैं भावनावों के पल गर्म-सर्द
कभी जब नामशुदा रिश्ते भी परोस जाते हैं दर्द
रहने दो बेनाम कुछ रिश्तों को
नाम में नही वो बात
पैबंदों से नामों के
कहाँ खूबसूरत दिखेगी रिश्तों की कनात |
25-बेनाम
नही होता ज़रूरी यूँ
सभी रिश्तों को कुछ कहना
जहाँ विश्वास होता है
वहीँ रिश्ते पनपते हैं
समूची सृष्टि के अक्षर ,
भले मिलकर सभी तत्पर
नही वह बात कह पाते
कभी बेनाम रिश्तों से
जो मन के तार जुड़ जाते
बिना शब्दों ही भावों के
अनेकों अर्थ हम पाते |
26- उस दिन
उस दिन पा लिया था ,आत्मा ने मेरी
प्रतिसंसार
रखी थी तुमने अमावस सी हथेलियों पर मेरे जब
अपनी पूरनमासी मुस्कान |
27 -जब तुम मिलोगी दुबारा
जब तुम मिलोगी दुबारा
समय की गुल्लक तोडूंगा
थोड़ी यादें निकाल
बेतरतीब जोडूंगा
तुम्हारी हँसी के फुंदने टांक दूंगा अनंत में
तुम्हारी हथेलियों के आलताई रंग घोल
लहरों का रुख़ मोडूंगा
तुम्हारे पसंदीदा बातें ,भागदौड़ के बीच रोपूँगा
अपने क़दमों को तुम्हारे साथ रोकूंगा
सुकून की पतंगे उड़ा
घुटन के गुब्बारे फोडूंगा
जब तुम मिलोगी दुबारा
समय की गुल्लक तोडूंगा
थोड़ी यादें निकाल
बेतरतीब जोडूंगा |
--
1 - संसार में उसको आने दो ..........
संसार में उसको आने दो
हक़ उसे भी अपना पाने दो
हर दौर गुजरकर देखेगी
खुद फ़ौलादी बन जाएगी
संस्कृति सरिता -सी बन पावन
दो कुल मान बढ़ाएगी
आधी दुनिया की खुशबू भी
अपने आँगन में छाने दो
संसार में उसको आने दो
हक़ उसे भी अपना पाने दो
तुम वसुंधरा दे दो मन की
खुद का आकाश बनाएगी
इतिहास रचा देगी पल –पल
बस थोड़ा प्यार जो पाएगी
हर बोझ को हल्का कर देगी
उसको मल्हार - सा गाने दो
संसार में उसको आने दो
हक़ उसे भी अपना पाने दो
उसका आना उत्सव होगा
जीवन – बगिया मुस्काएगी
मन की घनघोर निराशा को
उसकी हर किलक भगाएगी
चंदामामा की प्याली में
उसे पुए पूर के खाने दो
संसार में उसको आने दो
हक़ उसे भी अपना पाने दो
जाग्रत देवी के मंदिर- सा
हर कोना , घर का कर देगी
श्रध्दा के पावन भाव लिए
कुछ तर्क इड़ा - से गढ़ लेगी
अब तोड़ रूढ़ियों के ताले
बढ़ खोल सभी दरवाजे दो
संसार में उसको आने दो
हक़ उसे भी अपना पाने दो |
2- भैया !
भैया अम्मा से कहना
जिद थोड़ी पापा से करना
मन की बाबा से बाँच
डांट, दादी की खा लेना
मुझको बुला ले ना !
मुझको बुला ले ना !
रक्खे हैं मैंने, ढेरों खिलौने
सपनों के गुल्लक ,तुझको हैं देने
घर मैं आऊँगी ,बन के दिठोने
नेह मन में जगा लेना
मुझको बुला ले ना !
कोख में गुम हुई ,
फिर कहाँ आऊँगी
दूज , राखी के पल
जी नही पाऊँगी
छाँव थोड़ी बिछा देना
मुझको बुला ले ना !
ईश वरदान हैं,बेटियां हैं दुआ
डूबती सांझ का ,दीप जलता हुआ ,
इक नए युग सूरज,
सबके भीतर उगा देना
मुझको बुला ले ना !
मुझको बुला ले ना !
3 - बेटियां मेरे गाँव की .....
बेटियां मेरे गाँव की.....
किताबों से कर लेतीं बतकही
घास के गट्ठरों में खोज लेंतीं
अपनीं शक्ति का विस्तार
मेहँदी के पत्तों को पीस सिल-बट्टे पर
चख लेंतीं जीवन का भाव
सोहर ,कजरी तो कभी बिआहू ,ठुमरी की तानों में
खोज लेतीं आत्मा का उद्गम
भरी दोपहरी में , आहट होतीं छाँव की
बेटियाँ , मेरे गाँव की..........................
द्वार के दीप से ,चूल्हे की आंच तक
रोशनी की आस जगातीं
पकाती रोटियाँ, कपड़े सुखातीं ,
उपले थाप मुस्कुरातीं
जनम ,मरण ,कथा ,ब्याह
हो आतीं सबके द्वार ,
बढ़ा आतीं रंगत मेहँदी, महावर से
विदा होती दुल्हनों के पाँव की
बेटियाँ मेरे गाँव की ...........................
किसके घर हुए ,दो द्वार
इस साल पीले होंगे , कितने हाथ
रोग -दोख ,हाट - बाज़ार
सूंघ आतीं ,क्या उगा चैत ,फागुन , क्वार
थोड़ा दुःख निचोड़ ,मन हलकातीं ,
समेटते हुए घर के सारे काज
रखती हैं खबर, हर ठांव की
बेटियाँ मेरे गाँव की ................................
जानतीं - विदा हो जायेंगी एक दिन
नैहर रह लेगा तब भी , उनके बिन
धीरे –धीरे भूल जातें हैं सारे ,
रीत है इस गाँव के बयार की
फिर भी बार - बार बखानतीं
झूठ – सच बड़ाई जंवार की
चली आती हैं पैदल भी
बाँधने दूर से ,डोरी प्यार की
भीग जातीं ,सावन के दूब –सी
जब मायके से आता बुलावा
भतीजे के मुंडन , भतीजी की शादी ,
गाँव के ज्योनार, तीज ,त्यौहार की
भुला सारी नीम - सी बातें
बिना सोये गुजारतीं ,कितनी रातें
ससुराल के दुखों को निथारतीं
मायके की राह , लम्बे डगों नापतीं
चौरस्ता ,खेत –खलिहान ,ताकतीं
बाबा ,काकी ,अम्मा, बाबू की बटोर आशीष
पनिहायी आँखों , सुख-दुःख बांटतीं
कालीमाई थान पर घूमती हुई फेरे
सारे गाँव की कुसल - खेम मांगतीं
भोली , तुतली दीवारों के बीच नाचतीं
समोती अपलक उन्हें ,बार –बार पुचकारतीं
देखकर चमक जातीं, छलकी आँखे
फलता- फूलता ,बाबुल का संसार
दो मुट्ठी अक्षत ,गुड़ ,हल्दी, कुएं की दूब से
भर आँचल अपना , चारों ओर पसारतीं
बारी –बारी पूरा गाँव अंकवारती
मुड़ - मुड़ छूटती राह निहारतीं
बलैया ले , नज़र उतारतीं
सच कहूं ...................................
दुआएं उनकी ,पतवार हैं नाव की
बेटियाँ मेरे गाँव की .....................\
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बसंती दोहे
सुशील शर्मा
भ्रमर धरा पर झूम कर बैठा फूलों पास। कली खिली कचनार की फूले फूल पलाश। टेसू दहका डाल पर महुआ खुशबू देय। सरसों फूली खेत में पिया बलैयां लेय। बागों में पुलकित कली मंद मंद मुस्काय। ऋतू आई मधुमास की प्रीत खड़ी शरमाय। पुरवाई गाती फिरे देखो राग बसंत। जल्दी आओ बाग़ में भूल गए क्या कंत। पीत वसन पहने धरा सरसों का परिधान। अमवा बौरा कर खिले पिया अधर मुस्कान। न जाने कब आयेगें पिया गए परदेश। ऋतू बसंत आँगन खड़ो आया न सन्देश।
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दोहे रमेश के बसंत पंचमी पर
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सरस्वती से हो गया ,तब से रिश्ता खास !
बुरे वक्त में जब घिरा,लक्ष्मी रही न पास !!
.......................................................
जिसको देखो कर रहा, हरियाली काअंत !
आँखें अपनी मूँद कर, रोये आज बसंत !!
.........................................................
पुरवाई सँग झूमती,.. शाखें कर शृंगार !
लेती है अँगडाइयाँ ,ज्यों अलबेली नार !!
...........................................................
आई है ऋतु प्रेम की,..... आया है ऋतुराज !
बन बैठी है नायिका ,सजधज कुदरत आज !!
..........................................................
सर्दी-गर्मी मिल गए , बदल गया परिवेश !
शीतल मंद सुगंध से, महके सभी "रमेश" !!
........................................................
हुआ नहाना ओस में ,...तेरा जब जब रात !
कोहरे में लिपटी मिली,तब तब सर्द प्रभात !!
.......................................................
कन्याओं का भ्रूण में,..... कर देते हैं अंत !
उस घर में आता नही, जल्दी कभी बसंत !!
रमेश शर्मा
हाइकु -66 बसंत सुशील शर्मा केसरी धूप क्षितिज में सर्वत्र सजा बसंत कस्तूरी गंध ऋतुराज महका साजन संग नव कोंपलें प्यारे से मनमीत अंग उमंग। पीत चूनर ऋतुराज झूमर नाचे मयूर। प्रेम के गीत मदमाती सी प्रीत बसंत रीत। फूली सरसों वसुधा पुलकित झूमा बसंत। रसविलास चंचल चितवन ऋतु हुलास। भ्रमर झूलें धरा बिछी पीतिमा बौराये मन। प्रीत का राग मीठी पीर समाई गोरी मुस्काई। प्रीत के रंग अलसाये से रंग ऋतु अनंग। आम के बौर खिली सी कचनार फूले पलाश।
ग़ज़ल -1 हर एक कतरा समंदर हो गया। दर्द मेरा देखो कलंदर हो गया। आंसुओं का रिसाव मत रोको। दरिया सा दर्द तेरे अंदर हो गया। तितली सी उड़ती हैं हवा में यादें। दिल मेरा वीरान मंदर हो गया। मैंने शोहरत को जब भी ठुकराया। गुमनाम सा मैं देखो सिकंदर हो गया। धूप की धमकी से देखो ओस सहमी है। न जाने क्यों आज सूरज समंदर हो गया। गुरुर जिस पे था वो बेवफा निकला। हवा का झोंका देखो बवंडर हो गया। सुशील शर्मा ग़ज़ल -2 वक्त की परिभाषा क्यों बदलती है। देह वही है भाषा क्यों बदलती जाती है। कागज के फूल कभी महका नहीं करते। तेरे अंदर की निराशा क्यों बदलती जाती है। आँगन में उदास चूल्हा क्यों धुंआ देता है। माँ की रोटी की आशा क्यों बदलती जाती है। दर्द शब्दों में क्या समेटा जा सकता है। तेरे मेरे प्यार की परिभाषा क्यों बदल जाती है। संसद में पड़े बेहोश सच को भी देखो। चुनाव में नेताओं की भाषा क्यों बदल जाती है। रिश्तों के अनुबंध टूट कर क्यों बिखर जाते हैं। स्नेह के स्पर्श की अभिलाषा क्यों बदल जाती है। सुशील शर्मा ग़ज़ल -3 खुशियां दामन में कहाँ समाती हैं। बारिश मौसम में कहाँ समाती हैं। न चाह कर भी तुमसे प्यार करते हैं। ये आशनाई मन में कहाँ समाती है। रिश्तों का सच कुछ सहमा सा लगता है। ये रुसवाईयाँ रिश्तों में कहाँ समाती हैं। कुछ नई कलियां खिली हैं बगीचे में। उड़ती महक कलियों में कहाँ समाती है। तितलियां कान में कुछ कह जाती हैं। ये तितलियां मुट्ठी में कहाँ समाती हैं। सुशील शर्मा ग़ज़ल -4 जब भी देखा हर शै में तुझे देखा हर जर्रे में हर वक्त में तुझे देखा। मुँह मोड़ा जब भी ख़ुशी ने मेरे दर से। हर जख्म के हर जर्रे में तुझे देखा। न जाने कितने चेहरों से मुलाकात हुई। हर पल हर एक चेहरे में तुझे देखा। चाँद को कभी भर नजर नहीं देखा। जब भी आसमाँ देखा चाँद में तुझे देखा। तू मेरे करीब कुछ इस कदर रहता है। जब भी झांका अंदर रूह में तुझे देखा। सुशील शर्मा
बच्चे की जेब से झांकती रोटी
सुशील शर्मा
एक बच्चे की जेब से झांकती रोटी
कहती है कि बचपन प्रताड़ित है।
अपने माँ बाप के अरमानों से।
बचपन प्रताड़ित है शिक्षा के सम्मानों से।
बचपन प्रताड़ित है वर्तमान व्यवस्था से।
बचपन प्रताड़ित है सामाजिक अव्यवस्था से।
बचपन रो रहा है बस्तों के बोझों से।
बचपन रो रहा है शिक्षा के समझौतों से।
बचपन वंचित है माँ बाप के प्यार से।
बचपन वंचित है परिवार के दुलार से।
मासूम बचपन स्कूलों में पिटता है।
मासूम बचपन बसों में घिसटता है।
इस बचपन पर कुछ तो रहम खाओ।
फूलने दो मुस्कुराने दो इसे न अब सताओ।
--
*गुम गया गणतंत्र मेरा*
सुशील शर्मा
गुम गया गणतंत्र मेरा जाओ उसको ढूंढ लाओ।
गण खड़ा कमजोर रोता तंत्र से इसको बचाओ।
आदमी जिन्दा यहाँ है बाकी सब कुछ मर रहा है।
रक्तरंजित सा ये सूरज कोई तो इसको बुझाओ।
घर की दहलीजों के भीतर कौन ये सहमा हुआ है।
गिद्ध की नजरों से सहमी सी बुलबुल को बचाओ।
हर तरफ शातिर शिकारी फिर रहे बंदूक ताने।
गर्दनों पर आज तुम खुंरेज खंजर फिर सजाओ।
बरगदों की बोनसाई बन रहे व्यक्तित्व देखो।
वनमहोत्सव के पीछे कटते जंगल को बचाओ।
सत्य के सिद्धान्त देखो आज सहमे से खड़े हैं।
है रिवायत आम ये सत्य को झूठा बताओ।
सत्ता साहब हो गई है तंत्र तलवे चाटता है।
वेदना का विस्तार जीवन अब तो न इसको सताओ।
शातिरों के शामियाने सज गए है आज फिर।
आज फिर माँ भारती को नीलामी से बचाओ।
विषधरों के इस शहर में सुनो शंकर लौट आओ
मसानों के इस शहर में है कोई जीवित बताओ।
गण है रोता और बिलखता तंत्र विकसित हो रहा है।
आज इस गणतंत्र पर सब मिल चलो खुशियां मनाओ।
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दिनेश कुमार 'डीजे
मेरी बेपनाह खुशियों की यूँ हिफ़ाज़त हो गई,
चाहने वाले हुए तो तन्हाई की आदत हो गई।
सोचा था कभी मेरा कोई मुंतज़िर महबूब हो,
दुनिया को समझा तो ख़ुदा की चाहत हो गई।
चर्च,मंदिर,मस्ज़िद को जकड़े रही सियासत,
फकीर ने सर झुकाया और इबादत हो गई।
रिश्तों में सियासत की जबसे हुई मिलावट,
सियासत और मोहब्बत दोनों बेइज्जत हो गई।
यूँ इश्क करने वालों को हम भला क्या कहें?
मेरा वक्त सुधरा और उनको मोहब्बत हो गई।
©दिनेश कुमार 'डीजे
--
एक शहीद और गुलाब ने,
एक जैसे गुणों को पाया,
चुभन शूलों की सही,
पर गुलज़ार को महकाया।
न धूप में बना कुरूप,
काँटों में कोमल रहा,
ग्रीष्म शीत हर ऋतु में
खिलता वो पल-पल रहा।
आंधी, वर्षा, धूप में भी,
अस्तित्व को बचाया,
चुभन शूलों की सही,
पर गुलज़ार को महकाया।
डाली से टूट कर सजा,
कंठ का श्रृंगार बन,
युवा दिलों के काम आया,
प्रेम का उपहार बन।
स्वयं जुदा हो पौधे से,
दो दिलों को मिलाया,
चुभन शूलों की सही,
पर गुलज़ार को महकाया।
फिर मुरझा गया और खो गया,
वो पंखुडि़यों को लपेटे,
जिन्दा है वो इत्र बन,
महक शीशी में समेटे।
मरकर भी जिन्दा रहा,
और खुशबु को फैलाया,
चुभन शूलों की सही,
पर गुलज़ार को महकाया।
©डीजे
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दिनेश कुमार 'डीजे'/Dinesh Kumar 'DJ'
शोधार्थी, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की/Research Fellow, Indian Institute of Technology Roorkee
संस्थापक एवं संयोजक- मिशन दोस्त-ए-जहान/Founder and Convenor- Mission Dost-e-Jahan
भूतपूर्व गैर-कमिशन अधिकारी, भारतीय वायु सेना/Former Non-Commissioned Officer,Indian Air Force
संयुक्त सचिव, महर्षि दयानंद योग समिति, भारत/Joint Secretary, Mahrishi Dayanand Yog Samiti, India
ब्लॉग/Blog- goo.gl/AuW1E3
वीडियो चैनल/Video Channel- goo.gl/2UplL2
प्रकाशित पुस्तकें/Published Books- दास्तान-ए-ताऊ/Daastan E Taau, कवि की कीर्ति/Kavi Ki Kirti ( goo.gl/GBNciV ) &
प्रेम की पोथी/Prem Ki Pothi ( goo.gl/1jsv1C )
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भाषा वंदना
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी सीखें बोल, लिखें व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
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गीत में ५ पद ६६ (२२+२३+२१) भाषाएँ / बोलियाँ हैं। १,२ तथा ३ अंतरे लघुरूप में पढ़े जा सकते हैं। पहले दो अंतरे पढ़ें तो भी संविधान में मान्य भाषाओँ की वन्दना हो जाएगी।
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
204
विजय अपार्टमेंट,
नेपियर टाउन
जबलपुर
४८२००१
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भरतचन्द्र शर्मा
- कोई घर मिलेगा ? -
कोई रंग मिलेगा ?
रंग बदलने के लिये
कोई सर मिलेगा ?
ठीकरा फोड़ने के लिये
कोई अलाव मिलेगा ?
रोटियाँ सेंकने के लिये
जात जात की रोटियाँ
भाँत भाँत की रोटियां
कोई चना मिलेगा ?
भाड़ फोड़ने के लिये
कोई आदमी मिलेगा
बात कराने के लिये
विचार मिलेगा
जिस पर सहमत हुआ जा सके
कोई आचार न मिलेगा
जिस पर फफूंद न लगी हो
महात्मा बुद्ध ने कहा गौतम से
चावल ले आओ उस घर से
जहाँ आज तक किसी की मृत्यु न हुई हो।
00000000000000000000000000000000000
जन्म तिथि ः 6 अक्टूम्बर 1950
जन्म स्थान ः बाँसवाड़ा (राजस्थान)
शिक्षा ः बी.एस.सी. एम.ए. अर्थशास्त्र, एम.ए. हिन्दी, सी.ए.आई.
आई.बी.
साहित्यिक परिचय
देश की प्रतिष्ठित एवं स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, व्यंग्य, पुस्तक समीक्षा आदि प्रकाषित तथा अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का सतत प्रकाशन अनेक साहित्यिक (स्तरीय) कार्यक्रमों यथा गोष्ठियों का संचालन।
प्रकाषन
काव्य कृति - सुनो पार्थ !
कहानी संग्रह - अपना - अपना आकाष
व्यंग्य संग्रह - तूणीर के तीर
संपादन
शेष यात्राएं (काव्य कृति), वाग्वर-लधु पत्रिका (सह संपादन)
पुरस्कार
‘देश’ नामक कविता पर साप्ताहिक हिन्दुस्तान काव्य पुरस्कार-1984
कर्णधार पुरूस्कार राजस्थान पत्रिका
साहित्य गुंजन पुरस्कार (इन्दौर 2014)
साहित्य कला एवं संस्कृति संस्थान महाराणा प्रताप संग्रहालय, हल्दीघाटी नाथद्वारा द्वारा
साहित्य रत्नाकर सम्मान 2016
प्रसारण
आकाशवाणी, उदयपुर,बांसवाड़ा एवं दूरदर्शन केन्द्र जयुपर से समय-समय पर
पत्रवाचन
राजस्थान साहित्य अकादमी के विभिन्न कार्यक्रमों के अवसर पर
शीघ्र प्रकाष्य कृतियाँ - कागज की नाव (लघु कथा सग्रंह), पीर परबत सी (आंचलिक उपन्यास)
स्थायी संपर्क ः- सूर्य प्रवास, प्ेज । . 39 हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, बांसवाड़ा (राजस्थान) 327001
मो. 09413398037 दूरभाष (02962) 250092
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इंद्रजीतसिंह
मालवी प्रेम कविता
बापू ब्याह करा दे !
उम्मर हुई गी तीस की
छोरी लइ दे बीस की
म्हारा पर भी ध्यान जरा दे
बापू ब्याह करा दे
अरमाना का वाग वगीचा
कोयल को नी कूके
साज सजीली नार देख ने
दिल कुतरा वणे भूंके
धोळा ने काळा करूँ
बाल घणा सफ़ेद
कणी नींद में सुत्तों बापू
अब तो आखिर चेत
अंय की करवट वंय की करवट
करवट सगळी खाली
भरी जवानी वई गई
मानो मानो भद्दी गाळी
हुनो हुनो हुतो रूँ मैं
कोई नी म्हारा जोड़े
आदि रात का खाटली
खावा ने दौड़े
गाय चरऊंगा भैंस चरऊंगा
विणुगा में पोटा
खूब करूँगा काम ओ दादा
पयसा का नी टोटा
छोरो हूँ छोरी होती तो
कद की कीका घर में
भरई जाती
नीचो होतो माथो तमारो
नाक में कटाई जाती
काणी खोड़ी लूली लंगड़ी
काळी व्है या गोरी
माहरा मन ने समझाई लूंगा
छोरी मने छोरी
ब्याव को मीठो लाड़ू
म्हारे तो अभे खाणो
जो वेगा देख्यो जाएगा
भले पड़े पछताणो
कुवारोपंण पाप घणो
लोग केवे हत्या रो
बेघरबारी जीवन बापू
घर बसा दे म्हारो
इंद्रजीतसिंह नाथावत बखतगढ़ धार म प्र मोब 9753493815
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अनुराग कुमार
'सफलता की परिभाषा लिख दे'
जीवन के कोरे कागज पर, कर्मों की गाथा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
शिखर ये सफलता की, कर रही तेरा आह्वाहन ;
विपत्तियों से लड़कर, बन कुशल-दिव्य-ज्योति-नूतन।
अब तोड़ अपनी निद्रा को, मन की अभिलाषा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
तू कायर है तो हार गया, निर्भय है तो रण मार गया ;
इन तूफानों से टकराकर, हिम्मत वाला उस पार गया।
पथ में जो विपदाएँ आएँ, उनके लिए निराशा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
दीनता, दरिद्रता, दुष्टता का जड़ से नाश कर ;
वतन के दुश्मनों का लड़कर सर्वनाश कर।
विकास में जो बाधाएँ आएँ, उनके लिए निपटारा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
प्रेम-विरत जो रह गए, उनको तू अनुराग दे ;
जिनका जीवन तम में बीता, उनको तू चिराग दे।
दीन-दुःखी, निबलों-विकलों के प्रति आशा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
जिसने अपने ममता के आँचल का तुझको छाँव दिया ;
जो तुझे प्यारा लगा, वह घर दिया, वह गाँव दिया।
उस मातृभूमि के चरणों में, तन-मन-धन सारा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
जीवन के कोरे कागज पर, कर्मों की गाथा लिख दे ;
विस्तृत नील गगन पर, सफलता की परिभाषा लिख दे।
अनुराग कुमार
मो०-8004292135
Email-
anuragkumar321@gmail.com
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मनोज कुमार सामरिया “मनु”
जीवन के कोरे पृष्ठों पर ....... मनु की कलम से
जीवन के कोरे पृष्ठों पर जैसे
जैसे बिखरे हुए हैं अल्फ़ाज मेरे ।
धूप है घनेरी कहीं,कहीं छाया का डेरा
ढलता है दिन कहीं ,कहीं होता सवेरा ,
मंजिल तक जाती राहों पर
जैसे ठहरे हुए हैं जज्बात मेरे ।।
जीवन के कोरे पृष्ठों पर जैसे......
अँगना में दिल के होती है छनछन
सरगम के जैसे होती है खनखन ,
तानों पर इनकी सुबह शाम जैसे
बहके हुए हैं खयालात मेरे ।।
जीवन के कोरे पृष्ठों पर जैसे....
ठिठुरती सुबह में नर्म कम्बल हो जैसे,
भटकते इरादों का सम्बल हो जैसे।
माँ की ये मूरत देखूँ इसे तो ,
सुधरने लगे हैं हालात मेरे ।।
जीवन के कोरे पृष्ठों पर जैसे ....
पल पल बदलता दुनिया का मेला ,
लगता है जग में हूँ मैं अकेला ।
जब आएगा कोई हमराज बनकर
संवरने लगेंगे तब जज्बात मेरे ।।
जीवन के कोरे पृष्ठों पर जैसे
बिखरे हुए है ये खयालात मेरे.....
मनोज कुमार सामरिया “मनु”
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रश्मि शुक्ला
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मनीष कुमार सिंह
और तुम्हारा मिलना (कविता)/
जैसे किसी भक्त को मिल गया हो
उसका आराध्य
या किसी गोताखोर ने ख़ोज लिया हो
कोई महंगा रत्न
या किसी उलझे गृहस्थ को मिला हो
कोई वैराग्य सा सकूं
मुझे समझ नहीं आ रहा है
एक तुम्हारे मिलने को मैं क्या कहूँ ?
तुम्हारा मिलना
एस्ट्रोलॉजी के पॉइंट ऑफ़ व्यू से
मेरा सौभाग्य हो सकता है
या एस्ट्रोफिजिक्स में यह कोई
साधारण सी घटना हो सकती है
या मैं कहूँ
तुम्हारा मिलना जीवन में भोर होने सा है
पर डर है
जब सुबह तेज दोपहर बनेगी
फ़िर दोपहर शाम
और शाम भयानक काली रात
तब भी क्या तुम मेरे साथ होगी ?
खैर, जो भी हो
ज़माने ने जिसे आग़ का दरिया बताया है
उसका अहसास तो बहुत प्यारा सा है
पर लोग कह रहे है
प्यार की बात न कर
यह बासी हो जाता है
जब जरुरतों का पहाड़ सिर पर आयेगा
प्यार बहुत पीछे छूट जायेगा
जैसे पैसे की दौड़ में
आदमी से उसका गाँव छूट जाता है
पर सच तो यह है यार
जब तुम साथ होती हो
कोई ज़रूरत लगती ही नहीं
अब तुम भी इन ऊधो से ज्ञानियों की तरह
बात मत करना
और यह मत कहना कि
तुम्हारे तुलसी से ख़ाली इश्क़ से
घर में पांच रूपये की पकौड़ी भी नहीं आ सकती है
मुझे भी पता है
इस ‘अर्थ’-प्रधान दुनिया में
शब्दों के कोई मोल नहीं है
और हरेक चीज यहाँ
बासी मान कर फ़ेंक दी जाती है
पर मेरा इतना दावा है
कि इस यांत्रिक युग में
जब सब पैसे की ही बात करते है
मैं हिम्मत के साथ प्रेम की बात करता हूँ
मैं यह भी जानता हूँ
बासी हो जाएगी यह कविता
शायद आज शाम तक
या फ़िर कल
और कल भी नहीं तो
परसों तक तो पक्का ही
पर तुम देखना और आजमाना
मुझे भी और इस कविता को भी
और तुम पाओगी
ज़िन्दा रहेगा इसका भाव
किसी और शब्दों में सदियों तक !
लेख़क परिचय –
बहराइच, उ.प्र. जन्मस्थली ! कंप्यूटर साइंस में परास्नातक ! शिक्षा ,साहित्य , दर्शन और तकनीक में रूचि ! संपर्क – 8115343011
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लोकनाथ ललकार
टूटते घरौंदों को बचाएं
(सूफी गीत)
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आज अजब-सी आँधी चली है, टूटते घरौंदों को बचाएं
बढ़ रहे नफरत के काँटे, उन्हें काँट-छाँटकर फूल उगाएं
जहाँ न पहुँचा आज़ादी का उजाला, वहाँ मिलकर दीप जलाएं
�
माता-पिता आधार हैं, बंदे ! उन्हीं से घर-संसार हुआ
माता-पिता को जो आश्रम भेजा, उसका वंश बिगाड़ हुआ
माता-पिता सच देवी-देवता, उन्हें सजा घर को मंदिर बनाएं
�
माता-पिता का बनना, बंदे ! मालिक का उपकार है
बेटा-बेटी में अंतर कैसा, एक-से दोनों उपहार हैं
बेटी सजाती आंगन-आकाश को, कोख में बेटी को न मिटाएं
�
संवेदना की गंगा, बंदे ! सूख रही रोज पल-प्रतिपल है
नारी, नीति, निर्बल पर घातें, और विकट-सा लगता कल है
क्या तुझमें शैतान का रंग है, बंदे ! हैवानियत का क्यों रंग दिखाए
�
बिपत का अंबार है, बंदे ! कारण पर होते विचार नहीं
रोगों पर पसीना खूब बहाते, रोगाणुओं पर होते प्रहार नहीं
सकंटों का जड़ बस एक है, बंदे ! अति आबादी पर अंकुश लगाएं
�
एक मालिक की रचना, बंदे ! पुतलों ने है धरम बनाया
जिसको जैसी सोच सूझी, उसने वैसा करम बनाया
रंग-बिरंग ने किया घाव है, बंदे ! मानव धरम का मरहम लगाएं
�
---
�
लोकनाथ ललकार
बालकोनगर, कोरबा, (छ.ग.)
मोबाइल - 09981442332
�
प्रीत दास
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गंगा धर शर्मा 'हिन्दुस्तान'
चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है.
चल समेटें बिस्तरे वक्ते सहर होने को है.
चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं.
इस जमीं पर अब न अपना तो गुजर होने को है.
है रिजर्वेशन अजल, हर सम्त जिसकी चाह है.
ऐसा लगता है कि किस्सा मुख़्तसर होने को है.
गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर.
हाथ में हर एक के तेगो-तबर होने को है.
जो निहायत ही मलाहत से फ़साहत जानता.
ना सराहत की उसे कोई कसर होने को है.
है शिकायत , कीजिये लेकिन हिदायत है सुनो.
जो कबाहत की किसी ने तो खतर होने को है.
पा निजामत की नियामत जो सखावत छोड़ दे.
वो मलामत ओ बगावत की नजर होने को है.
शान 'हिन्दुस्तान' की कोई मिटा सकता नहीं.
सरफ़रोशों की न जब कोई कसर होने को है.
गंगा धर शर्मा 'हिन्दुस्तान'
अजमेर(राजस्थान)
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ganga dhar sharma HINDUSTAN
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शालिनी तिवारी
गीत सुनाने निकली हूँ
भारत माँ की बेटी हूँ और गीत सुनाने निकली हूँ,
वीरों की गाथा को जन जन तक पहुँचाने निकली हूँ,
भारत माँ के शान के खातिर सरहद पर तुम ड़टे रहे,
सर्दी गर्मी बरसातों में भी तुम अड़िग वीर बन खड़े रहे,
कोई माँ कहती है कि मेरा लाल गया है सीमा पर,
दुश्मन को हुँकारों से ललकार रहा है सीमा पर,
उनकी देशभक्ति एक सच्ची मिशाल दिखाई देती है,
हर सरहद पर जय हिन्द की एक गूँज सुनाई देती है,
मेरी कलम सतत् चल करके गौरव गाथा लिखती है,
वीरों की अमर शहादत पर ये आँसू आँसू दिखती है,
अड़तालीस पैसठ इकहत्तर के बरस सुहाने बीत गए,
पाक तुम्हारी गुस्ताखी पर कड़ा प्रहार हर बार किए,
वीर शहीदों की यादों में दीप जलाने निकली हूँ,
भारत माँ की बेटी हूँ और गीत सुनाने निकली हूँ .
पाक कभी तुम न भूलो की हिन्द वतन के बेटे हो,
ठण्ड़ी चिंगारी को क्यों हर बार जला तुम देते हो,
तुम्हे गुरूर है उन सांपों पर जिनको दूध पिलाते हो,
समय समय पर उन सांपों से तुम खुद काटे जाते हो,
एक बात बताऊ पाक तुम्हे तुम कान खोलकर सुन लेना,
यदि जीना है तुमको तो जेहादी मंसूबों को छोड़ ही लेना,
वरना वीरों की टोली इस बार लाहौर तक जाएगी,
इतिहास नहीं इस बार भूगोल बदल दी जाएगी,
इन वीरों के शौर्य गान को गर्व समझकर गाती हूँ,
अदना सी मै कलमकार हूँ दिनकर की परिपाटी हूँ,
सच कहती हूँ ऐ वीरों तुम हिन्द वतन की शान हो,
गौरव और अमिट गाथा की तुम ही एक पहचान हो,
हिन्द वतन के वीरों की ललकार सुनाने निकली हूँ,
भारत माँ की बेटी हूँ और गीत सुनाने निकली हूँ.
भारत माता - अमर रहें
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