''यज्जाग्रतो दूरमुदेति देवं तदु सुप्तस्य तथैवैति दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु।।'' अर्था...
''यज्जाग्रतो दूरमुदेति देवं तदु सुप्तस्य तथैवैति दूरंगमं
ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिव संकल्पमस्तु।।''
अर्थात्-जो जागृत दशा में दूर से दूर चला जाता है अर्थात् जो मनुष्य के शरीर में रहता हुआ भी दैवी शक्ति संपन्न है, जो सोती दशा में लय को प्राप्त होता है अर्थात् न जाने कहाँ-कहाँ चला जाता है, जो जागते ही फिर लौट के आ जाता है अर्थात् पहले के समाने अपना सब काम करने लगता है, जो दूरगामी है अर्थात् जहाँ नेत्र आदि इंद्रियाँ नहीं जा सकतीं वहाँ भी पहुँच जाता है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को जान सकता है, जो प्रकाशात्मक है अर्थात् जिसके प्रकाश से अतिवाहित हो इंद्रियाँ अपने अपने विषयों में जा लगती हैं वह मेरा मन कल्याण की बातों को सोचने वाला हो।
मनोवैज्ञानिकों ने बनावट के अनुसार मन को तीन भागों में वर्गीकृत किया है :
1. सचेतन: यह मन का लगभग दसवां हिस्सा होता है, जिसमें स्वयं तथा वातावरण के बारे में जानकारी (चेतना) रहती है। दैनिक कार्यों में व्यक्ति मन के इसी भाग को व्यवहार में लाता है।
2. अचेतन: यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती।
3. अर्धचेतन या पूर्वचेतन: यह मन के सचेतन तथा अचेतन के बीच का हिस्सा है, जिसे मनुष्य चाहने पर इस्तेमाल कर सकता है, जैसे स्मरण-शक्ति का वह हिस्सा जिसे व्यक्ति प्रयास करके किसी घटना को याद करने में प्रयोग कर सकता है।
फ्रायड ने कार्य के अनुसार भी मन को तीन मुख्य भागों में वर्गीकृत किया है।
1. इड (मूल-प्रवृत्ति): यह मन का वह भाग है, जिसमें मूल-प्रवृत्ति की इच्छाएं (जैसे कि उत्तरजीवित यौनता, आक्रामकता, भोजन आदि संबंधी इच्छाएं) रहती हैं, जो जल्दी ही संतुष्टि चाहती हैं तथा खुशी-गम के सिद्धांत पर आधारित होती हैं। ये इच्छाएं अतार्किक तथा अमौखिक होती हैं और चेतना में प्रवेश नहीं करतीं।
2. ईगो (अहम्): यह मन का सचेतन भाग है जो मूल-प्रवृत्ति की इच्छाओं को वास्तविकता के अनुसार नियंत्रित करता है। इस पर सुपर-ईगो (परम अहम् या विवेक) का प्रभाव पड़ता है। इसका आधा भाग सचेतन तथा अचेतन रहता है। इसका प्रमुख कार्य मनुष्य को तनाव या चिंता से बचाना है। फ्रायड की मनोवैज्ञानिक पुत्री एना फ्रायड के अनुसार यह भाग डेढ़ वर्ष की आयु में उत्पन्न हो जाता है जिसका प्रमाण यह है कि इस आयु के बाद बच्चा अपने अंगों को पहचानने लगता है तथा उसमें अहम् भाव (स्वार्थीपन) उत्पन्न हो जाता है।
3. सुपर-ईगो (विवेक; परम अहम्): सामाजिक, नैतिक जरूरतों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा अनुभव का हिस्सा बन जाता है। इसके अचेतन भाग को अहम्-आदर्श (ईगो-आइडियल) तथा सचेतन भाग को विवेक कहते हैं।
ओशो कहते हैं "मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु के बाद फिर दूसरा जन्म नहीं होता, क्योंकि जन्म के लिए मन जरूरी है। मन ही जन्मता है। मन ही अपूर्ण वासनाओं के कारण, जो वासनाएं पूरी नहीं हो सकीं, उनके लिए पुनः-पुनः जन्म की आकांक्षा करवाता है। जब मन ही नहीं रहता, तो जन्म नहीं रहता। मृत्यु पूर्ण हो जाती है। धीरे-धीरे मन को गलाना, छुड़ाना, हटाना,मिटाना है। ऐसा कर लेना है कि भीतर चेतना तो रहे, मन न रह जाए। चेतना और बात है। चेतना हमारा स्वभाव है। मन हमारा संग्रह है।"हम हमेशा मन की बातों आ जाते हैं अगर शरीर की माने तो हम कभी भी बीमार न पड़े लेकिन हम हमेशा अपने मन को तरजीह देते हैं। पूरा पेट भरा है भूख भी नहीं हैं लेकिन अगर हमारे मन की मिठाई या डिश दिख जाती है तो शरीर कितना ही चीख चीख कर मना करे हम मन की बात मान कर उसे खा ही लेते हैं और फिर शरीर को भुगतान करना पड़ता है।
चेतना नहीं बदलती, चेतना तो वही बनी रहती है। मन की पर्त चारों तरफ घिरजाती है। मांग वही बनी रहती है, वासना वही बनी रहती है। शरीर सूख जाता,वासना हरी ही बनी रहती है। मन में वासनाओं का अंबार लगा है। पैसे ,सम्मान,कामुकता आदि न जाने कितनी वासनाएं हमारे मन को उकसाती रहती हैं और पतन के गर्त में धकेल देतीं हैं। किसी रूपवती सुंदरी नारी को देख कामी, दार्शनिक या विरक्त योगी के मन में जो असर पैदा होता है और जो भावनाएँ चित्त में उठती हैं वे सब अलग-अलग उन लोगों के मन को उद्वेलित करती है कामी मन उसके शरीर को पाने की लालसा करेगा दार्शनिक योगी का मन उसमे माँ पराम्बा का स्वरूप देखेगा हमारे मन में उपस्थित विकार ही अच्छे या बुरे भावों के जनक होते हैं और भावों से ही विचार जन्मते हैं तथा विचार ही आचरण में उतरते हैं।
भगवान् कृष्ण ने गीता में मन के गुणों के बारे में कहा है -
मन: प्रसाद: सौम्ययत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
मन प्रसाद अर्थात आनंद है ,सौम्य हैं मौन अर्थात मुनि भाव युक्त है। मन के और भी गुण सहानुभूति, आश्चर्य, कुतूहल पूर्वक जिज्ञासा, प्रेम, बुद्धि या प्रतिभा, विचार या विवेक आदि हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मन में सत्व, रज और तम, ये तीनों प्राकृतिक गुण होते हुए भी इनमें से किसी एक की सामान्यत: प्रबलता रहती है और उसी के अनुसार व्यक्ति सात्विक, राजस या तामस होता है, किंतु समय-समय पर आहार, आचार एवं परिस्थितियों के प्रभाव से दूसरे गुणों का भी प्राबल्य हो जाता है। इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक,रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है। मन आत्मा के संपर्क के बिना अचेतन होने से निष्क्रिय रहता है।
सद्गुरु जग्गी बासुदेव मन के बारे में कहते हैं "अगर आप शरीर को स्थिर रखेंगे तो मन धीरे धीरे अपने आप शिथिल पडऩे लगेगा। मन जानता है कि अगर उसने ऐसा होने दिया तो वह दास बन जाएगा। अभी आपका मन आपका बॉस है और आप उसके सेवक। जैसे-जैसे आप ध्यान करते हैं, आप बॉस हो जाते हैं और आपका मन आपका सेवक बन जाता है और यह वह स्थिति है, जो हमेशा होनी चाहिए। एक सेवक के रूप में मन बहुत शानदार काम करता है। यह एक ऐसा सेवक है जो चमत्कार कर सकता है, लेकिन अगर आपने इस मन को शासन करने दिया तो यह भयानक शासक होगा। अगर आपको नहीं पता है कि मन को दास के रूप में कैसे रखा जाए तो मन आपको एक के बाद एक कभी न खत्म होने वाली परेशानियों में डालता रहेगा।"
मन एक भूमि मानी जाती है, जिसमें संकल्प और विकल्प निरंतर उठते रहते हैं। विवेक शक्ति का प्रयोग कर के अच्छे और बुरे का अंतर किया जाता है।मन धीरे-धीरे विसर्जित होता है। परमात्मा की प्राप्ति में मन बहुत बड़ी रूकावट है जितना मन संघठित होगा उतनी वासनाएं संगठित होंगी अगर परमात्मा में गतिकरनी हो, तो मन विसर्जित होना चाहिए।
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
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