जीवन एक ऐसा सागर है जिसमें आनंद का अथाह जल भी है और शोर मचाती पीड़ा की लहरें भी। जीवन रूपी पुष्प दुख की धरा पर ही खिलकर सौरभ ...
जीवन एक ऐसा सागर है जिसमें आनंद का अथाह जल भी है और शोर मचाती पीड़ा की लहरें भी। जीवन रूपी पुष्प दुख की धरा पर ही खिलकर सौरभ बिखेरता है । साहित्य विविध रूपों में मानव जीवन को प्रभावित करता आया है और भविष्य में भी करता रहेगा । कहा जा सकता है कि साहित्य और मानव जीवन का संबंध बिंब प्रतिबिंब के रूप में सामने आता है । मानव जीवन की घटनाओं,गतिविधियों ,आशा दुराशा का समग्र ब्यौरा विस्तृत फलक पर प्रस्तुत करने की साहित्यिक विधा का नाम है : उपन्यास । उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में ‘‘मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्रमात्र समझता हूँ । मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है ।’’
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वर्तमान पीढ़ी के युवा व्यंग्यकारों में श्री शशिकांत सिंह ‘शशि’ ने अपने नाम से नहीं अपितु काव्य कर्म से प्रसिद्धि पाई है । लेखन में उनके तेवर काव्य व्यक्तित्व के शोभावर्धक जेवर है । चाहे आम आदमी हो या खास, नेता हो या अभिनेता , योगी हो या भोगी । सभी की तह में जाकर व्याप्त विसंगतियों , बुराइयों आदि को अपनी लेखनी की नोंक पर रखा है । इनकी कलम जीवन की जटिलताओं से , सामाजिक विषमताओं से, प्रशासन और राजनीति की कुटिलताओं से दो दो हाथ करती हुई दिखाई देती है ।
‘प्रजातंत्र का प्रेत’ इनका पहला प्रकाशित उपन्यास है । औपन्यासिक तत्त्वों जैसे - पात्र. विषयवस्तु, संवाद एवं चरित्रचित्रण ,देशकाल एवं वातावरण.शैली एवं उद्देश्य के आधार पर यह एक संपूर्ण कृति है । उपन्यास की कथावस्तु मंत्री हीराबाबू के इर्द गिर्द घूमती है । यही उपन्यास का केंद्रीय पात्र है ।कथोपकथन के माध्यम से विषयवस्तु का विस्तार होता है । उपन्यास को पढ़ते समय सारी घटनाएँ मस्तिष्क पटल पर सजीव हो उठती है ,पाठक मानो पाठक न होकर कोई भोक्ता हो ।
वर्तमान राजनीति की उठापटक ,गुंडागर्दी, बाहुबल से वोट प्राप्ति ,झूठे आश्वासन ,नेताओं की दलबदलू नीति,जाति धर्म के नाम पर चुनाव लड़ना इत्यादि समस्याओं के लिए न केवल राजनेता जिम्मेदार है अपितु वर्तमान समाज का ढांचा इसके लिए पूर्णतया जिम्मेदार है । क्योंकि नेता भी समाज का एक हिस्सा है । व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक है । व्यक्ति के बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए माता पिता, परिवार , पड़ोस ,संगे संबंधी ,समाज और वो समस्त परिवेश भूमिका निभाता है जिसके संपर्क में उसका संवर्धन होता है । परिवार और समाज व्यक्तित्व निर्माण के लिए एक तरह से हवा- पानी, खाद का काम करता है ।
‘प्रजातंत्र का प्रेत’ व्यंग्य उपन्यास में राजनीति की विसंगतियों को केंद्र में रखकर प्रकारांतर से सामाजिक मूल्यों के विघटन और लुप्त होती मानवीय संवेदना के प्रति लेखक चिंतित है । उपन्यास में हीराबाबू भारतीय राजनेता की भूमिका में है । नेताजी के मरने के बाद चित्रगुप्त के द्वारा उनके कर्मों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया जाता है । भूलोक के नेता को देवलोक में देवताओं के समक्ष पेश किया जाता है । धरती पर किए गए कर्मों के आधार पर उनको स्वर्ग या नरक में भेजने पर विचार विमर्श होता है । यहीं से उपन्यास की कथा पूर्वदीप्ति शैली में आगे बढ़ती है ।
नेता जी की पारिवारिक ,शैक्षिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि से लेखक पाठकों को अवगत कराता चलता है ।
पिताजी दौलतदास के पास दौलत की कोई कमी नहीं है । हीराबाबू विद्यार्थी जीवन में धनबल से शिक्षा का बल प्राप्त करते है । दौलतदास के लिए बेटे की शिक्षा उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और गौरव का प्रतीक है । इसलिए पिता द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बेटे के गलत कामों पर पर्दा डाला जाता है । अति संपन्नता और अति विपन्नता दोनों मनुष्य के नैतिक पतन का कारण होती है । हीराबाबू अति संपन्नता के शिकार हुए । शिक्षक मिश्रा जी ने हीराबाबू को सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया । बदले में शिक्षक को नौकरी से निकलवा दिया गया । इस प्रकार हीराबाबू स्कूल से कॉलेज ,जेल से बेल की हवा खाते हुए आधुनिक भारतीय राजनेता की सारी योग्यता प्राप्त कर चुके थे । जो कुछ नहीं कर सकता ,वो देश तो चला ही सकता है । इस ध्येय वाक्य को ध्यान में रखकर हीराबाबू ने कलियुग की कामधेनु समझी जाने वाली राजनीति में प्रवेश किया ।
अपने दो साथियों बंदूक सिंह और बकरीवाला के सहयोग से उन्होंने राजनीति में अपने सितारे बुलंद किए । बलंत्रयम् (धन बल , बाहुबल एवं आत्मबल ) जिसके पास हो भला उसे कौन हरा सकता है,? कोई नहीं । परंतु राजनीति में आत्मबल का उपयोग आत्म सम्मान को दाँव पर लगा कर ही किया जा सकता है । स्वयं लेखक के शब्दों में ‘‘बकरी वाला का धन,हीराबाबु का मन और बंदूक सिंह का गन । धन मन गन जब जुरे तो अधिनायक तो बनना ही था’’ (पृ.सं.३८ )
आज भी धर्म जाति और संप्रदाय के नाम पर चुनाव लड़े और जीते जाते है । धर्म की आड़ में और जाति के कंधों पर सवार होकर किस तरह आम जनता को गुमराह किया जाता है, इसका उदाहरण देखिए ‘‘जाति और धर्म,जनता को बरगलाने के यही दो नुस्खे हैं । इन्हीं के आधार पर राजनीति खड़ी करो ।’’ (पृ.सं ६९)
आज मीडिया भी अपनी विश्वसनीयता और निष्पक्षता खोती जा रही हैं । दबाव और प्रभाव में आकर ही सूचनाएँ प्रसारित की जा रही है । जनहित और आम आदमी की समस्याओं को हाशिये में धकेल दिया गया है । पत्रकार जलज सिंह ‘निर्जल’ के शब्दों में ‘‘दास का कर्तव्य है कि स्वामी की इच्छा को ही आदेश माने .हीरा चालीसा कितना लोकप्रिय हुआ था । जन जन का कंठाहार बन गया था ।’’ (पृ.सं.९७)
चित्रगुप्त के समक्ष नेताजी की सुनवाई होती है । हीराबाबू के द्वारा सभा में अपने माता पिता, गुरु आदि को बुलाया जाता है और अपने कर्मों के लिए इन सभी को दोषी ठहराया जाता है ।
स्वयं हीराबाबू के शब्दों में ‘‘बच्चा कानों से नहीं आंखों से भी सीखता है ।’’ इस पर एक लंबी बहस चलती है । अंत में कोई निर्णय न कर पाने की स्थिति में चित्रगुप्त द्वारा मंत्री हीराबाबू को प्रेत बना दिया दिया जाता है । आज लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मानवीय मूल्यों का जो पतन हो रहा है ,उसके लिए क्या हीराबाबू जैसे लोग ही जिम्मेदार है या फिर पूरी सामाजिक व्यवस्था ? हमारी सामाजिक की बुनियाद कमजोर क्यों होती जा रही है ? एक व्यक्ति क्या समाज पर हावी होता जा रहा है ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर के लिए हमें आत्मावलोकन एवं आत्मविश्लेषण की पुनः आवश्यकता आन पड़ी है ।जरूरत है हमें अपने अंदर झांकने की ,कि कहीं हमारे भीतर भी कोई प्रेत तो नहीं छिपा । अंत में चित्रगुप्त के इन शब्दों से उपन्यास की इतिश्री होती है ‘‘तुम्हें मुक्ति तब ही मिलेगी जब जनता में इतनी जागृति आ जाए कि वह नेताओं का चयन गुण दोष के आधार पर करने लगे । तब तक के लिए भटकते रहो ।’’(पृ.सं. १७४)
बहरहाल ,रचना के प्राणतत्त्वावलोकन एवं हृदयंगम के लिए सुधी पाठक एवं विद्वद्जन इन पंक्तियों को आधारभूत माने तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए -
यस्यास्ति वितं स नरः कुलीन , स पंडितः स श्रुतवान गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीय ,सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते ।।
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आलोच्य कृति : प्रेजातंत्र का प्रेत
लेखक : शशिकांत सिंह ‘शशि’
प्रकाशक : अमन प्रकाशन
मूल्य : १७५ पेपर बैक
कमलेश ‘कमल’
(हिंदी शिक्षक)
मु.पो. भगवतगढ
जिलाःसवाईमाधोपुर राजस्थान
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