कर्ण का प्रण (लघु नाटिका ) / सुशील शर्मा

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कर्ण का प्रण (लघु नाटिका ) सुशील शर्मा प्रस्तावना -यह एकांकी महाभारत के उस प्रसंग को प्रसारित करता है जिसमें कृष्ण कर्ण को उसके जन्म का...

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कर्ण का प्रण

(लघु नाटिका )

सुशील शर्मा

प्रस्तावना -यह एकांकी महाभारत के उस प्रसंग को प्रसारित करता है जिसमें कृष्ण कर्ण को उसके जन्म का रहस्य बता कर उसे पांडवों के पक्ष में युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं किन्तु कर्ण व्यथित होकर दुर्योधन के पक्ष में ही युद्ध करने का प्रण लेते हैं। कर्ण को मनाने का अंतिम प्रयास कुंती द्वारा किया जाता है। किन्तु कर्ण अपने प्रण पर अटल रहते हैं। कर्ण कुंती को उनके बाकी चार पुत्रों के लिए अभयदान देते अर्जुन से युद्ध के लिए कटिबद्ध होते हैं।

पात्र -कर्ण ,कृष्ण ,कुंती ,विदुर एवम दासी

प्रथम दृश्य

(कर्ण का राजप्रासाद ,कर्ण सोच की मुद्रा में अपने उपवन में टहल रहे थे तभी दूत सूचना देता है कि कृष्ण उनसे मिलने आ रहे हैं। कर्ण कृष्ण का नाम सुनते ही चिंता में पड़ जाते हैं किन्तु औपचारिकता के नाते उनके स्वागत हेतु द्वार पर जाकर कृष्ण को ससम्मान आसन देते हैं। )

कर्ण ---माधव आप मेरे द्वारे !अहो भाग्य !

कृष्ण ---(चिरपरिचित मुस्कान के साथ )अंगराज कैसे हो !

कर्ण ---केशव आपकी कृपा है !कुशल हूँ !आपके आगमन का प्रयोजन जानने के लिए मन उत्सुक है।

कृष्ण ---अंगराज मैं चाहता हूँ युद्ध की विभीषिका से बचा जाए इसी में सब का कल्याण हैं।

कर्ण ---इसका निर्णय तो महाराज दुर्योधन ,पितामह ,महाराज धृतराष्ट्र को लेना है माधव मेरी भूमिका इसमें नगण्य है।

कृष्ण ---पाण्डवों के साथ अन्याय को स्वीकार कैसे करोगे अंगराज।

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कर्ण ---माधव मेरे साथ हुए अन्याय के बारे में आप हमेशा चुप रहे आज पाण्डवों के साथ अन्याय आपको क्यों पीड़ा दे रहा है।

कृष्ण --सब प्रारब्ध और भाग्य के खेल हैं अंगराज।

कर्ण --शायद पांडवों का भाग्य यही है माधव !

कृष्ण --पाण्डवों का प्रारब्ध जो भी हो लेकिन आज मैं तुम्हारे उस प्रारब्ध से तुम्हे परिचित कराता हूँ जो तुम्हारे लिए अभी गूढ़ है और गुप्त है।

कर्ण ---कैसी सच्चाई केशव ?

कृष्ण --कर्ण तुम सूतपुत्र नहीं हो !तुम राधेय नहीं कौन्तेय हो !जेष्ठ पाण्डव हो।

(कृष्ण उसके जन्म की पूरी कहानी कर्ण को बताते हैं कृष्ण की बात सुनकर कर्ण स्तब्ध रह जाते हैं )

कर्ण --नहीं माधव आप मिथ्या वादन कर रहे हैं !मैं कुंतीपुत्र हूँ !असंभव ये सत्य नहीं हो सकता।

कृष्ण --यही तुम्हारा सत्य है अंगराज तुम कौन्तेय हो। ऋषि दुर्वासा के वरदान से मन्त्र द्वारा सूर्य देव की प्रार्थना से तुम कुंती के गर्भ में उत्पन्न हुए। तुम कुंती के कानीन(कन्या अवस्था में उत्पन्न पुत्र )हो अंगराज। सूर्य के कवच और कुंडल जन्म से ही तुम्हारे साथ उत्पन्न हुए हैं जो मेरे कथन को सत्य प्रमाणित करते हैं कर्ण। तुम ज्येष्ठ पाण्डव हो।

कर्ण --केशव मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। नहीं मैं नहीं मान सकता मैं

सिर्फ अधिरत और माता राधा का पुत्र हूँ। यही मेरी सच्चाई है।

कृष्ण --अंगराज सत्य को स्वीकार करो। तुम ज्येष्ठ पाण्डव हो।

कर्ण --नहीं अगर ये सत्य है तो भी मुझे स्वीकार नहीं है।

कृष्ण -क्या अपने सहोदरों के साथ युद्ध करोगे अंगराज ?क्या दुर्योधन जैसे अन्यायी का साथ देकर अपने भ्राताओं का हनन करोगे।

कर्ण --दुर्योधन मेरा मित्र है केशव।

कृष्ण --पाण्डव तुम्हारे सहोदर है अंगराज। पाण्डवों के पक्ष में युद्ध तुम्हारा धर्म है। ज्येष्ठ पाण्डव के नाते इस साम्राज्य की गद्दी पर तुम्हारा अधिकार है।

कर्ण --असंभव कृष्ण दुर्योधन ने मुझे अपमान के कंटकों से निकाल कर मित्रता का अमृत दिया है। मेरे अपने जिन्हें आप मेरा भ्राता कह रहे हैं उन्होंने भरी सभा में मुझे सूतपुत्र कह कर अपमानित किया और एक बार नहीं कई बार किया।मेरे सारे अधिकार छीन लिए गए। दुर्योधन ने मुझे सम्मान के शिखर पर बैठाया है। दुर्योधन की मित्रता पर ऐसे हज़ारों साम्राज्य निछावर हैं माधव।

कृष्ण -अंगराज तुम अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल कर रहे हो।

कर्ण --मेरा जीवन ही मेरी सबसे बड़ी भूल है। मुझे क्षमा करें मेरा निश्चय अटल है। मैं ये जीवन सूतपुत्र के रूप में ही जीना चाहता हूँ वही मेरा परिचय है। मुझे कौन्तेय कहलाने की कोई अभिलाषा नहीं है। मैं दुर्योधन की मित्रता नहीं त्याग सकता। मेरा प्रण अटल है।

(कृष्ण कर्ण को बहुत समझाते हैं लेकिन कर्ण अपने निश्चय पर अडिग रहते हैं। कृष्ण निराश होकर कर्ण से विदा लेते हैं। )

 

द्वतीय दृश्य

(कुंती के राजप्रासाद का एक कक्ष ,दासी विदुर के आने की सूचना देती है। )

दासी --महात्मा विदुर आप से मिलना चाहते हैं राजमाता।

कुंती ---उन्हें सम्मान के साथ अंतःपुर ले आओ।

(विदुर आकर कुंती को प्रणाम करते हैं। )

कुंती -विदुरजी आज भाभी श्री की याद कैसे आ गई।

विदुर -भाभी श्री हृदय बहुत व्यथित है। युद्ध रोकने के सारे प्रयास विफल हो रहे हैं।

कुंती -अंतिम समय तक कूटनीतिक प्रयास जारी रहने चाहिए।

विदुर -सबसे ज्यादा डर कर्ण से है बाकी पितामह,द्रोणाचार्य ,कृपाचार्य सभी का मत हमारे पक्ष में है। युद्ध अगर होता भी है तो ये पाण्डवों का अहित नहीं करेंगे परंतु सबसे ज्यादा भय कर्ण से है। अर्जुन से उसका बैर और प्रतिस्पर्धा जगजाहिर है।

(कर्ण का नाम सुनकर कुंती व्यथित हो जाती हैं और कर्ण के जन्म से लेकर पूरी कहानी स्मरण कर उनके आँखों में आंसू आ जाते हैं। )

कुंती --कर्ण से संवाद करना होगा।

विदुर --माधव उसे मनाने गए थे निष्फल हो गए। वह अर्जुन से युद्ध के लिए अडिग है।

कुंती --मैं स्वयं जाउंगी उसे मनाने। मेरे जाने का प्रबंध करो।

(विदुर आश्वस्त होकर प्रस्थान करते हैं। )

 

दृश्य तीन

(गंगा तट पर कर्ण पूर्वाभिमुख होकर वेदमंत्रों का जाप कर रहे हैं ,कुंती उनके पीछे जाकर खड़ी हो जाती हैं और जप समाप्ति की प्रतीक्षा करती हैं। वो कर्ण के तेजस्वी मुख को अलपक वात्सल्य से निहारती हैं। कर्ण जप समाप्त कर जैसे ही मुड़ते हैं राजमाता कुंती को समक्ष पाकर आश्चर्यचकित होते हैं।

कृष्ण के वचन उनके कानों में गूंजने लगते हैं उनका ह्रदय विक्षोभ एवम क्रोध से भर जाता है किन्तु कर्ण संयम से राजमाता कुंती को प्रणाम करते हैं।

कर्ण --देवि ! मैं अधिरत और राधा का पुत्र आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।

कुंती ---जीवेत शरदः शतं पुत्र आयुष्मान भवः !

कर्ण ---राजमाता कुंती आज इस सूतपुत्र के समक्ष !मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। (कर्ण के स्वर में कटाक्ष था )

कुंती -क्या एक माता अपने पुत्र से मिलने नहीं आ सकती कर्ण।

कर्ण --राजमाता मैं समझा नहीं (कर्ण ने अनजान बनने का प्रयास किया,उसके चेहरे से विक्षोभ झलक रहा था ) मैं सूतपुत्र हूँ महारानी कुंती।

कुंती --नहीं कर्ण तुम सूतपुत्र नहीं हो ,तुम कुंतीपुत्र हो ,तुम कौन्तेय हो ,तुम राजपुत्र हो। (कुंती भावविव्हल होकर अश्रुपात करती हैं )तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो कर्ण।

कर्ण -- (कर्ण व्यंग से ) अहो !राजमाता मैं धन्य हुआ इतने वर्षों पश्चात अपने इस पुत्र को आपने याद किया।

कुंती --ऐसा मत कहो पुत्र तुम्हारी माँ प्रत्येक पल तुम्हे याद करती रही है।

कर्ण --अहो !जब भरी सभा में अर्जुन और भीम सूतपुत्र कह कर मेरा अपमान कर रहे थे तब भी शायद मेरी याद में आपके ओंठ बंद थे।

कुंती --मैं असहाय थी पुत्र ,एक कुंआरी कन्या का गर्भवती होना कितना भर्त्सना योग्य और अपमानजनक होता है।

कर्ण --उससे अधिक भर्त्सना योग्य कार्य एक शिशु को,एक अबोध को सरिता में बहा देना होता है राजमाता कुंती।

कुंती --(रोते हुए )बीती स्मृतियों को स्मरण करा कर मुझे आहत मत करो पुत्र।

कर्ण --अहो !आपको स्मृतियों से ही कष्ट हो रहा है। ये कंटक मेरे ह्रदय में वर्षों से बिंधे हैं राजमाता।

कुंती --इस अभागन की स्थिति से अवगत होओ पुत्र।

कर्ण --यहां आपके आगमन का प्रयोजन जान सकता हूँ राजमाता।

कुंती --तुम ज्येष्ठ पाण्डव हो पुत्र। तुम दुर्योधन की ओर से नहीं बल्कि पाण्डवों की ओर से युद्ध करो पुत्र। न्याय के पक्षधर बनो। क्षात्र धर्म और मातृ आदेश का पालन करो।

कर्ण --आपने मुझे शिशु अवस्था में सरिता में बहा दिया। एक शिशु को उसकी माँ के स्नेह से वंचित कर मृत्यु के अंक में सुला दिया। मेरे क्षत्रियकुल को सूतकुल में बदल दिया ,मेरे सारे अधिकारों का हनन किया। इतने अन्यायों के पर्यन्त आप मुझ से न्याय की अपेक्षा रखती हैं।

कुंती ---पुत्र मेरी त्रुटियों की दंड अपने भ्राताओं को देना कहाँ तक उचित है।?

कर्ण --तो आप यहां अपने पुत्रों का जीवन दान मांगने आईं हैं।

कुंती --नहीं पुत्र मैं तुम्हे अपने अनुजों से मिलाने आईं हूँ।

कर्ण --मेरा कोई अनुज नहीं हैं।

कुंती --पुरानी स्मृतियों को विस्मृत कर दे पुत्र ,अपनी माता को क्षमा कर अपने अनुजों के पक्ष में युद्ध कर पुत्र।

कर्ण --असंभव है माते ! अत्यंत कठिन है उन वेदनाओं को विस्मृत करना ,ये सभी स्मृतियां शूल बन कर ह्रदय में चुभी हैं। अर्जुन द्वारा किये गए अपमान असहनीय हैं उन्हें विस्मृत करना मेरे लिए असंभव है राजमाता।

कुंती --मान जाओ पुत्र मेरी हत्या से तेरे ह्रदय की पीड़ा कम होती हो तो मैं प्रस्तुत हूँ।

कर्ण--मेरे बाणों का लक्ष्य अर्जुन का मस्तक है राजमाता आप नहीं। आपके कर्मों का दंड ईश्वर देगा। मैं मातृहंता का अभिशाप नहीं लूंगा।

कुंती ---अर्जुन तुम्हारा अनुज है पुत्र। क्या तुम अपने अनुज का बध करोगे ?उस अन्यायी दुर्योधन का संग दोगे ?

कर्ण --दुर्योधन ने मुझे सम्मान का जीवन दिया है माते। एक सूतपुत्र को अंगदेश का राजा बनाया ,मेरे कष्ट कंटक विदीर्ण ह्रदय पर मित्रता का स्नेह लेप लगाया है। संकट के समय मैं अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ सकता।

कुंती --मान जाओ पुत्र। अपनी माँ की विनती सुन लो।

कर्ण --आपने मुझे अपने वात्सल्य से वंचित किया ,मेरे सारे अधिकार छीन कर पाण्डवों को दे दिए। मुझे हरपल अपमानित किया परंतु ये सत्य है कि आप मेरी जननी हैं।

कुंती ---तो अपनी जननी के आदेश का पालन करो।

कर्ण --ये असंभव है माते।

कुंती --क्या अपनी माँ को अपने द्वार से खाली हाथ लौटाओगे।

कर्ण --कर्ण के द्वार से आज तक कोई रिक्त हस्त नहीं लौटा।

कुंती--तो क्या तुम पाण्डवों के पक्ष से युद्ध करने को तैयार हो। मैं तुम्हें वचन देती हूँ इस साम्राज्य की गद्दी पर तुम्हारा अभिषेक होगा।

कर्ण --ये असंभव है माँ। दुर्योधन की मित्रता पर ऐसे असंख्य साम्राज्य निछावर हैं। परंतु आप मुझ से मांगने आईं हैं इसलिए आपको रिक्त हस्त नहीं लौटाऊंगा।

कुंती --पुत्र अपनी माता को निराश मत करो।

कर्ण --माता में वचन देता हूँ अर्जुन को छोड़ कर आपके शेष चार पुत्रों का मैं हनन नहीं करूँगा।

कुंती --परंतु पुत्र अर्जुन और तुम्हारे युद्ध का परिणाम तुम्हे ज्ञात है ?

कर्ण --ज्ञात है राजमाता या तो मेरे बाण अर्जुन का मस्तक भेदेंगे या अर्जुन के बाणों से मुझे वीरगति प्राप्त होगी।

कुंती --दोनों स्थितियों में मेरे किसी एक पुत्र की मृत्यु अवश्यम्भावी है।

कर्ण --ये कष्ट तो आपको भोगना पड़ेगा राजमाता कुंती।

कुंती --पुत्र अर्जुन तुम्हारा सहोदर है।

कर्ण --अर्जुन महावीर है राजमाता उसके प्राणों की भीख मांग कर उसकी वीरता को कलंकित मत करो। ये मेरा वचन है युद्ध में मुझे मृत्यु प्राप्त हो या अर्जुन को आपके पांच पुत्र जीवित रहेंगे।

(कुंती रोते हुए कर्ण को ह्रदय से लगाती है कर्ण कुंती को साष्टांग प्रणाम करते हैं )

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रचनाकार: कर्ण का प्रण (लघु नाटिका ) / सुशील शर्मा
कर्ण का प्रण (लघु नाटिका ) / सुशील शर्मा
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