1- पृथ्वी की सीमाएं नापी जा सकती हैं, लेकिन कविता की नहीं कोई सुनिश्चित सीमा कोई सुनिश्चित समय भी नहीं है कि कहां तक जाएंगी कविताएं पृ...
1- पृथ्वी की सीमाएं नापी जा सकती हैं, लेकिन कविता की नहीं
कोई सुनिश्चित सीमा
कोई सुनिश्चित समय भी नहीं है
कि कहां तक जाएंगी कविताएं
पृथ्वी की सीमाएं नापी जा सकती हैं
लेकिन, कविता की नहीं
चूंकि कविता मारने के लिए नहीं
मनाने के लिए आती हैं
फिर भले ही रंग हों हज़ार हर्ज़ नहीं
एक रंग कविता, कहीं भी
समेटे रंग हज़ार, कहीं भी
धुन उनकी भी, नहीं धुन जिनकी कोई भी
कोई भी शब्द, कोई भी भाषा, कोई भी कविता
काली रात की कालिख में
शामिल नहीं कभी भी, कहीं भी
फिर ये काला जल क्या बला है?
फिर ये काला सूर्य क्या बला है?
फिर ये काला मन क्या बला है?
सरकारें कैसे तय करेंगी शब्दों की सीमाएं
कि वे कहां तक जाएंगी और कहां तक जाकर ठहर जाएंगी
सरकारें कैसे तय करेंगी जीवन की ज्वालाएं
कि वे कहां तक जाएंगी और कहां तक जाकर ठहर जाएंगी?
कोई सुनिश्चित सीमा
कोई सुनिश्चित सीमा भी नहीं है
कि कहां तक जाएंगी कविताएं
पृथ्वी की सीमाएं नापी जा सकती हैं
लेकिन, कविता की नहीं
2- सिवा सच के क्या होगा?
सच बोलने वालों का
कोई भी आख़िरी निशां नहीं होगा
दो गज़ ज़मीं नहीं होगी
मुट्ठी भर आसमां भी नहीं होगा
फिर भी जो होगा सच होगा
सिवा सच के क्या होगा?
3- जो बोलते हैं सच
जो बोलते हैं सच
उनके ख़िलाफ़ आजकल की राजनीति
यह तर्क नहीं कुतर्क है और बेहद बेजा भी
कि सच सुना नहीं जाता है ज़रा भी
शायद इसीलिए सच बोला नहीं जाता है ज़रा भी
इस एक कुतर्क के विरुद्ध तर्क यह है भाई मियां
कि क्या कुछ इस तरह भी कम नहीं होते जाते हैं
सच बोलने वाले?
इस समूचे प्रकरण की अगली कहानी भी
क्या ख़ूब है
कि सूली पर चढ़ाए जाते हैं आज भी वे ही
जो बोलते हैं सच
इस समूचे प्रकरण की अगली कहानी भी
क्या ख़ूब है
कि ज़हर पर ज़हर पीते जाते हैं आज भी वे ही
जो बोलते हैं सच
इस समूचे प्रकरण की अगली कहानी भी
क्या ख़ूब है
कि धड़-धड़, धड़धड़ाती ट्रेन से फेंके जाते हैं
आज भी वे ही, वे ही, और वे ही फिर-फिर
जो बोलते हैं सच
4- आतंक रहित आवाज़ मेरी
आवाज़ों का जंगल है
आवाज़ों के जंगल में आवाज़ों का आतंक है
आवाज़ों के आतंक में एक आवाज़ है मेरी भी
पहचान सको तो पहचानो
अगर पहचान लोगे तो पाओगे
कि मेरी आवाज़, अपनी-सी आवाज़ है
कुछ-कुछ ही सही, कुछ-कुछ ही सही
किंतु आतंक रहित आवाज़ मेरी
किंतु प्रेम सहित
5- नेताजी का भाषण सुनना है
नेताजी का भाषण सुनना है
ईमानदार आदमी बनने का संकल्प छोड़ना है
नेताजी से भी बहुत बड़ा नेता बनना है
करना कुछ नहीं है
सिर्फ़ दाढ़ी मुंडवाना है, मुंडन करवाना है
नाखून भी कटवाना है
सौंदर्य-बोध का नया ज़माना है
सिर से पैर तक
सिर्फ़ कटवाना ही कटवाना है
नाक बची है जैसे-तैसे
वह भी काट क्यों नहीं लेते?
कंधों पर सपने
और आंखों में अंधेरे
वह भी बांट क्यों नहीं लेते?
भेड़िया बनकर आदमी की खाल ओढ़ना है
नेताजी का भाषण सुनना है
6- वह एक ऐसी ही रात थी
वह एक ऐसी ही रात थी
और उस तरफ़ से इतनी विनम्र भी
कि शक़ होता था उस विनम्रता पर
वह विनम्रता शासकीय थी
हवा में लहराते अंग्रेज़ी हथौड़े की तरह
किंतु कैनवास बड़ा था पृथ्वी का
किंतु कैनवास बड़ा था संवेदनशीलता का
किंतु कैनवास बड़ा था साहस का
मैं उड़ा और मैंने प्रयास किया
कि नाप लूं अपनी उड़ान में यह ब्रह्मांड
मैं उड़ा और मैंने प्रयास किया
कि नाप लूं अपनी उड़ान में तमाम विपत्तियां
मैं उड़ा और मैंने प्रयास किया
कि नाप लूं अपनी उड़ान में तमाम धर्मग्रंथ
तब भी, तब भी, तब भी
वह एक ऐसी ही रात थी
जिसमें मैं करना चाहता था
तमाम-तमाम छिद्र
7- और-और आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी
पता नहीं, पता नहीं
कि कैसा है ये एक वक्त ऐसा और क्यों
कि जिसमें आवाज़ें ही आवाज़ें हैं
और उन आवाज़ों में फिर-फिर
आवाज़ों का आतंक भी
ये वक्त एक ऐसा कि जिसमें
आवाज़ें और आवाज़ें और फिर
और-और आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी
मैं ढूंढता हूं अपने हिस्से का लोकतंत्र,
अपने हिस्से की आवाज़
और अपनी आवाज़
इन आवाज़ों में कहां है मेरे हिस्से का लोकतंत्र
मेरे हिस्से के लोकतंत्र में मेरे हिस्से की आवाज़
गुम, गुम, फिर-फिर
पता नहीं, पता नहीं
कि कैसा है ये एक वक्त ऐसा और क्यों
जिसमें सुनाई नहीं देती है मेरी आवाज़
8- जीवन में रोशनी के लिए
तांबा है
तांबे का ढेर है
तांबे के ढेर पर बैठा हूं मैं
तांबे के ढेर में चमक नहीं है
लेकिन दौड़ रहा है करंट
इस पार से उस पार तक
जीवन में रोशनी के लिए
संपर्क – 331, जवाहरमार्ग, इन्दौर 452002 फ़ोन: 0731-2543380
· राजकुमार कुम्भज
· 12 फ़रवरी 1947 , मध्यप्रदेश
· स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं किसान परिवार / छात्र जीवन में सक्रिय राजनीतिक भूमिका के कारण पुलिस-प्रशासन द्वारा लगातार त्रस्त / बिहार 'प्रेस-विधेयक' 1982 के विरोध में सशक्त और सर्वथा मौलिक-प्रदर्शन / आपात्काल 1975 में भी पुलिस बराबर परेशान करती रही / अपमानित करने की हद तक 'सर्च' ली गई / यहाँ तक कि निजी ज़िन्दगी में भी पुलिस-दखलंदाज़ी भुगती / 'मानहानि विधेयक' 1988 के खिलाफ़ ख़ुद को ज़ंजीरों में बाँधकर एकदम अनूठा सर्वप्रथम सड़क-प्रदर्शन / डेढ़-दो सौ शीर्ष स्थानीय पत्रकारों के साथ जेल / देशभर में प्रथमतः अपनी पोस्टर कविताओं की प्रदर्शनी कनॉट-प्लेस नई दिल्ली 1972 में लगाकर बहुचर्चित / गिरफ़्तार भी हुए / दो-तीन मर्तबा जेल यात्रा / तिहाड़ जेल में पंद्रह दिन सज़ा काटने के बाद नए अनुभवों से भरपूर / फिर भी संवेदनशील, विनोदप्रिय और ज़िंदादिल / स्वतंत्र-पत्रकार
· स्वतंत्र - कविता - पुस्तकें अभी तक :
1. कच्चे घर के लिए 1980
2. जलती हुई मोमबत्तियों के नीचे 1982
3. मुद्दे की बात 1991 (अप्रसारित)
4. बहुत कुछ याद रखते हुए 1998 (सीमित प्रसार)
5. दृश्य एक घर है 2014
6. मैं अकेला खिड़की पर 2014
7. अनवरत 2015
8. उजाला नहीं है उतना 2015
9. जब कुछ छूटता है 2016
10. बुद्ध को बीते बरस बीते 2016
11. मैं चुप था जैसे पहाड़ 2016
12. प्रार्थना से मुक्त 2016
13. अफ़वाह नहीं हूँ मैं 2016
14. जड़ नहीं हूँ मैं 2017
· व्यंग्य -संग्रह : आत्मकथ्य 2006
· अतिरिक्त : विचार कविता की भूमिका 1973 / शिविर 1975 / त्रयी 1976 / काला इतिहास 1977 / वाम कविता 1978 / चौथा सप्तक 1979 / निषेध के बाद 1981 / हिंदी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविता 1982 / सदभावना 1985 / आज की हिंदी कविता 1987 / नवें दशक की कविता-यात्रा 1988 / कितना अँधेरा है 1989 / झरोखा 1991 / मध्यांतर 1992 - 94 , 1995 / Hindi Poetry Today Volume -2 1994 / छंद प्रणाम 1996 / काव्य चयनिका 2015 आदि अनेक महत्वपूर्ण तथा चर्चित कविता-संकलनों में कविताएँ सम्मिलित और अंग्रेज़ी सहित भारतीय भाषाओँ में अनुदित ।
· देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण , प्रतिष्ठित , श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाओं का प्रकाशन ।
· संपर्क : 331 , जवाहरमार्ग , इंदौर , 452002 (म.प्र.) फ़ोन : 0731 – 2543380 ईमेल: rajkumarkumbhaj47@gmail.com
COMMENTS