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दसवाँ अध्याय
[ओशो कृष्ण को विश्व-मनोविज्ञान का पिता कहते हैं. कृष्ण अर्जुन से जब कुछ कह रहे होते हैं तब उसकी मनस्थिति को भी पढ़ रहे होते हैं. उन्हें लगता है अर्जुन को उनकी बातों को समझने में कुछ कठिनाई हो रही है. वह कहते हैं- अर्जुन! फिर भी तू मेरे इस श्रेष्ठ वचन को सुन. मेरे मन में तेरा हित करने की बलवती इच्छा है. तू यह जान ले कि से इस संसार की प्रत्येक वस्तु मेरी ही विभूति है.]
श्री भगवान ने कहा
महाबाहु! फिर भी तू सुन इस मेरे परम बचन को
कहूंगा तेरी हित-इच्छा से तुझ अतिशय प्रेमी से ।1।
नहीं जानते हैं महर्षि सुर लीला से प्रकटन मेरा
क्योंकि आदि कारण मैं ही सब देवों महर्षियों का ।2।
जो जानता अनादि अजन्मा लोक-महेश्वर मुझको
मर्त्यों में वह ज्ञानवान होता प्रमुक्त सब अघ से ।3।
निश्चय-बुद्धि ज्ञान अमूढ़ता सत्य क्षमा मन-निग्रह
सुख दुख उद्भव-नाश भयाभय सर्वेंद्रिय-संयम भी ।4।
यश अपयश संतोष अहिंसा दान तपस्या समता
होते ये उत्पन्न भाव नाना प्रकार के मुझसे ।5।
सात महर्षि चार पहले के सनकादिक मनु चौदह
मुझमें निष्ठ मेरे मन-जन्मे जिनकी लोक-प्रजा यह ।6।
इस विभूति योग को मेरी जो भी तत्व से जाने
होता युक्त अकंप भक्ति से संशय नहीं तनिक भी ।7।
मैं ही कारण जगदोद्भव का जग-चेष्टा मुझसे ही
ऐसा मान बुद्धिमान जन भजें मुझे श्रद्धा से ।8।
लगा प्राण चित्त मुझमें वे मुझे जनाते परस्पर
कहते मेरे गुण प्रभाव को तुष्ट मुझ में रमते ।9।
नित्य लगे मुझमें उनको जो मुझे प्रेम से भजते
तत्वरूप योग देता मैं मुझे प्राप्त हों जिससे ।10।
उनपर कृपा हेतु उनके ही आत्मभाव में स्थित
तत्वज्ञान-दीप से करता नष्ट अज्ञान-तम उनका ।11।
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अर्जुन के प्रश्नों की झड़ी निःशेष नहीं हो रही. वह कहते हैं, हे कृष्ण! तू जो भी कह रहे हो मैं सब सत्य मान रहा हूँ, तेरे अमृत वचन को सुनकर मुझे तृप्ति नहीं मिल रही. किंतु यह समझ में नहीं आता कि तेरा चिंतन कर किस तरह मैं तुझे जानूँ, किन किन भावों में तू मेरे लिए चिंतन योग्य है?
अर्जुन ने कहा
परम ब्रह्म तू परम धाम व तू पवित्र परम हो
दिव्य सनातन पुरुष अजन्मा आदिदेव सर्वव्यापी ।12।
यही सर्वऋषि नारद देवल असित व्यास कहते हैं
और स्वयं तू भी कहते हो मेरे प्रति अपने को ।13।
केशव! जो कहते तू मुझसे सत्य मानता सबको
नहीं जानते प्रकटन तेरा देव न दानव भगवन! ।14।
स्वयं जानते पुरुषोत्तम! तू अपने को अपने से
देवदेव! भूतेश! जगत्पति! भूतों के भावन! तू ।15।
दिव्यविभूतियों के अपनी उन पूर्णकथन में सक्षम
जिनसे व्याप्तकिए स्थित तू इस सम्पूर्ण जगत को ।16।
किस प्रकार जानूँ योगेश्वर! तुझे नित्य चिंतन कर
भगवन! तू किनकिन भावों में चिंतनयोग्य मेरे से ।17।
फिर कह सविस्तार योग व विभूतियॉ तू अपनी
तेरे अमृतबचन को सुन हो तृप्ति नहीं जनार्दन! ।18।
भगवान ने अर्जुन को अपनी विभूतियॉ बताईं.
श्री भगवान ने कहा
अब मैं कहूँगा प्रधानता से दिव्य विभूतियॉ अपनी
मेरी विभूतियों का है कुरुश्रेष्ठ! अंतहीन विस्तार ।19।
गुडाकेश! मैं सभी प्राणि के आदि मध्य अंत में हूँ
और आत्मा अंतः स्थित सभी प्राणियों की मैं ।20।
मैं वामन अदिति-पुत्रों में किरण-सूर्य प्रभ पद में
मैं मरुतों का तेज चंद्रमा अधिपति नक्षत्रों का ।21।
वेदों में मैं सामवेद मैं इंद्र देवतागण में
मन हूं सभी इंद्रियों में चेतना सभी प्राणियों में ।22।
यक्ष राक्षसों में कुबेर मैं शंकर रुद्न एकादश में
वसुओं में पावक मैं ही मैं मेरु शिखर-पर्वतों में ।23।
पुरोहितों में मुख्य वृहस्पति जान पार्थ! तू मुझको
मैं स्कंद सेनापतियों में जलाशयों में सागर ।24।
महर्षियों में भृगु मैं ही मैं अक्षर ॐ वाणियों में
स्थावरों में तुंग हिमालय मैं जपयज्ञ सुयज्ञों में ।25।
मैं पीपल हूँ सब वृक्षों में व देवर्षियों में नारद
सुष्ठु चित्ररथ गंघर्वों में सिद्धों में मैं मुनि कपिल ।26।
अश्वों में उच्चैःश्रवा जो प्रकट सुधा संग निधि से
श्रेष्ठ गजों में ऐरावत नर-नृप को मान विभूति मेरी ।27।
मैं ही वज्र आयुधों में हूँ कामधेनु मैं गौओं में
प्रजनन में कंदर्प और हूँ सर्पों में वासुकि मैं ही ।28।
नागों में मैं शेषनाग मैं नायक वरुण जलचरों का
मैं अर्यमा पितर लोगों में मैं यमराज शासकों में ।29।
दैत्यों में प्रह्लाद और मैं काल गणनकर्ताओं में
पशुओं में मैं ही मृगेंद्र हूं मैं हूँ गरुड़ पक्षियों में ।30।
पवन पवित करनेवालों में शस्त्रधारियों में मैं राम
मगर जलजंतुओं में मैं पूत जाह्नवी नदियों में ।31।
इस सम्पूर्ण सर्ग के अर्जुन! आदि मध्य अंत में मैं
विद्याओं में ब्रह्मविद्या मैं वाद वादकर्तागण का ।32।
मैं अकार अक्षरों में हूँ द्वंद्व समास समासों में
मैं हूँ अक्षय काल सर्वतोमुख धाता भी मैं ही ।33।
मैं हूं मृत्यु सर्वनाशी मैं ही भविष्य का उद्भव
कीर्ति धैर्य स्मृति मेधा श्री वाणी क्षमा स्त्रियों में ।34।
वृहत्साम गेय गीतों में छंद गायत्री छंदों में
मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ ऋतु वसंत मैं ऋतुओं में ।35।
छलियों में मैं जुआ तेज हूं मैं तेजस्वी जन में
जेताओं की जीत व्रती-निश्चय सत्व सात्विकों का ।36।
वृष्णिवंश में वासुदेव मैं धीर पांडवों में अर्जुन
मुनियों में हूं व्यास और मैं शुक्राचार्य सुकवि में ।37।
दमनशील की दण्डनीति मैं नीति जीतकामी की
मैं हूँ मौन गुह्य भावों में मैं ही ज्ञान ज्ञानियों में ।38।
अर्जुन! सर्व प्राणियों का जो बीज बीज मैं ही हूं
ऐसा नहीं भूत कोई चर अचर रहित जो मुझसे ।39।
मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं परंतप!
यह विभूति विस्तार कहा जो जान बहुत थोड़ा है ।40।
जो जो सत्व हैं जुड़े विभूति से शोभा से व बल से
समझो सब उत्पन्न हुए वे तेज-अंश से मेरे ।41।
अथवा बहुत जानने से है तुझे अर्थ क्या अर्जुन!
मैं अपने एक ही अंश से जगत व्याप्त कर स्थित ।42।
विभूतियोग नाम का दसवॉ अध्याय समाप्त
ग्यारहवाँ अध्याय
[ अर्जुन ने कृष्ण से प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश की बातें सुनीं और कृष्ण के अक्षय महात्म्य को भी सुना तो उनके मन में उनके विश्वरूप को देखने की इच्छा जाग उठी. अपनी इच्छा उन्होंने कृष्ण के सामने रखी. कृष्ण ने उन्हें अपना विश्वरूप दिखलाया. संजय ने उस विश्वरूप को दिव्यदृष्टि से और अर्जुन ने अनुभूति में प्रत्यक्ष देखा. अर्जुन इस विश्वरूप को देखकर घबड़ा-से गए. कृष्ण ने उन्हें समझाया-अर्जुन! तू घबड़ा मत. तू तो केवल निमित्तमात्र है. तू युद्ध कर. शत्रुओं को तू ही जीतेगा.
विवेकानन्द के तूफ्फानी प्रश्न, च्क्या ईश्वर है?’’ के प्रत्युत्तर में परमहंस रामकृष्ण ने उनके कंधे पर अपने पैर का अंगूठा रख दिया. वह तत्क्षण ध्यानस्थ हो गए. उनकी वह अतींद्रिय अंतरानुभूति कदाचित अर्जुन के विश्वरूप दर्शन जैसी थी.]
अर्जुन ने कहा
मुझपर करने हेतु अनुग्रह परम गुह्य अध्यात्मपरक
तूने कहे जो वचन हो गया नष्ट मोह यह मेरा ।1।
क्योंकि सुना है कमलनेत्र! उत्पत्ति नाश भूतों का
सविस्तार तुझसे मैंने अक्षय महात्म्य भी तेरा ।2।
पुरुषोत्तम! कहते तू निज को जैसा है ऐसा ही
मैं चाहता देखना तेरा ईश-रूप परमेश्वर! ।3।
प्रभो! रूप ऐश्वर तेरा यदि मानो देख सकॅू मैं
अपने उस अव्यय स्वरूप को मुझे दिखा योगेश्वर! ।4।
श्री भगवान ने कहा
देख पार्थ! सैकड़ों हजारों रूपों को अब मेरे
दिव्य अनेक तरह के नाना आकृतियों वर्णों के ।5।
देख रुद्न वसु आदित्यों को मरुतों अश्विनियों को
और देख आश्चर्य अनेक जो भारत! पूर्व न देखे ।6।
अभी देख एकस्थ देह में मेरी जग सचराचर
और देखना चाहो जो भी देख गुडाकेश! उसको ।7।
पर तू निज प्राकृत ऑखों से मुझे न देख सकेगा
दिव्यचक्षु देता मैं तुझको देख मेरा योगैश्वर ।8।
अर्जुन की प्रार्थना पर भगवान ने उन्हें अपना विश्वरूप दिखाया. वह रूप अद्भुत था.
संजय ने कहा
ऐसा कह हे राजन! फिर उन महायोगेश्वर हरि ने
दिखलाया अर्जुन को अपने दिव्य रुप ऐश्वर को ।9।
उसमें थे अनेक मुख ऑखें अद्भुत बहु दर्शन थे
दिव्य अनेक आभरण कर में दिव्य उठाए आयुध ।10।
दिव्य गंध के लेप लगे थे दिव्य वस्त्र स्रक धारे
और अनंतरूप विस्मयमय देव सर्वतोमुख थे ।11।
सहस सूर्य उग जायॅ साथ यदि युक्त प्रभाऍ सारी
दिव्य महात्मा की प्रकांति से समता रखे कदाचित ।12।
उस क्षण उस देवाधिदेव के एक जगह तन-स्थित
अर्जुन ने नाना भागों में देखा बँटा जगत को ।13।
तब विस्मय से देख धनंजय हुआ हर्ष-रोमांचित
शिर से कर प्रणाम देव को हाथ जोड़ यों बोले ।14।
भगवान के उस अंतहीन विश्वरूप को देख अर्जुन कुछ क्षण अवाक रह गए. फिर हाथ जोड़कर प्रार्थना के स्वर में अपनी धारणा के अनुरूप उस विराट रूप को शब्द देने लगे. पर वर्णन मेंअपने को असमर्थ पा घबडा गए. पूछा- हे भगवन! आप कौन है? बताऍ.
अर्जुन ने कहा
देख रहा मैं देह में तेरी देव! सभी देवों को
और दीख पड़ते विशेष समुदाय प्राणियों के हैं
कमलासन पर विराजमान हैं ब्रह्मा व शिवशंकर
और दिव्य सर्पों को सब ऋषियों को देख रहा हूँ ।15।
नाना उदर बाहु मुख ऑखें विश्वेश्वर! तेरे हैं
सभी ओर से तुझ अनंतरूपी को देख रहा मैं
नहीं दीखता आदि तेरा न अंत तेरा ही दीखे
विश्वरूप हे! कहीं मध्य का पता नहीं है तेरे ।16।
देख रहा हूँ मुकुट चक्र व धारण किए गदा हो
दीप्तिमान सब ओर हो रही तेज राशि है तेरी
सभी ओर से अप्रमेय तू दृष्ट्य कठिनता से हो
अग्निसदृश देदीप्यमान तू सूर्य-कांति वाले हो।17।
तुम्हीं जानने योग्य परम अक्षर हो
और विश्व के परम निधान हो तू ही
तुम्हीं हो रक्षक धर्म सनातन के भी
पुरुष सनातन अव्यय मेरे मत में ।18।
आदि मध्य व अंतरहित अतिप्रभ तू
अनतबाहु शशि - भानुरूप नेत्रोंयुत
ज्वलित अग्निमुख तू प्रतेज से अपने
देख रहा मैं तुझे तपाते जग को ।19।
स्वर् पृथ्वी के बीच व्योम फैला व
सभी दिशाएँ पूरित एक तुझी से
देख तेरे इस उग्र रूप को अद्भुत
व्यथित हो रहे तीनों लोक महात्मन्! ।20।
वे ही सब समुदाय देव के करें प्रवेश तुझी में
कीर्तन करते कई भयातुर हाथ जोड़ कर तेरी
सिद्धों महर्षियों के ये समुदाय‘स्वस्ति’यों कहकर
स्तुति करते उत्तम उत्तम स्तोत्रों से तेरी ।21।
सब आदित्य रुद्न सब वसु व विश्वेदेव मरुद्गण
पितरों का समुदाय उष्मपा यक्ष साध्यगण राक्षस
सिद्धों का समुदाय अश्विनीद्वय गंधर्व सभी ही
देख रहे हैं निर्निमेष तुझको सब चकित हुए से ।22।
महाबाहु! तेरा महान यह रूप अनेक मुखों का
बहुनेत्रों, बहु बाहु, उरू बहु व अनेक चरणों का
बहु उदरों विकराल बहुत दाढ़ोंमय रूप भयंकर
लोक विकल है देख स्वयं ही मैं अत्यंत विकल हूं ।23।
नभ को छूते दीप्तिमान तू विविध वर्ण तेरे हैं
आनन फैला हुआ दीप्तिमय नेत्र बड़े हैं तेरे
रूप देख तेरा यह विष्णो! डरा हुआ अंतः में
छूट गया है धैर्य मेरा व मन की शांति गई है ।24।
दाढ़ों से विकराल हो रहे तेरे भयद मुखों को
प्रलयअग्नि-सा देख भयानक मुझे कौंध से उसकी
सूझ रही हैं नहीं दिशाएँ समाधान नहीं ह्रै
जगन्निवास! देवाधिदेव हे! हो प्रसन्न तू मुझपर ।25।
ये वे ही हैं सब के सब धृतराष्ट्र-पुत्र युद्धार्थी
पृथ्वीपालों के अनेक समुदायों के संग होकर
और कर्ण भीष्म द्नोण भी तीव्र वेग से बढ़ते
मुख्य मुख्य योद्धाओं के संग प्रखर हमारे दल के ।26।
सब प्रवेश कर रहे तीव्रता से अति खिंचे हुए से
तेरे भयद मुखों में जो विकराल दाढ़ वाले हैं
कई एक अति चूर्ण सिरों के साथ चीथड़े से हो
तेरे दाँतों के अंतर में दिखते फंसे हुए हैं ।27।
जैसे जल-प्रवाह बहुतेरे नदियों के बह बह के
जाते चले दौड़ते गति से सागर ओर मचल के
वैसे ही नरलोक-वीर कर रहे प्रवेश तेजी से
सभी ओर से दीप्तिमान तेरे इन खुले मुखों में ।28।
ज्वलित अग्नि में मोहग्रस्त हो जैसे दौड़ पतिंगे
अपना ही विनाश करने को त्वर प्रविष्ट होते हैं
वैसे ही कर रहे प्रवेश ये लोग बड़े वेगों से
निज को ही विनष्ट करने को तेरे बड़े मुखों में ।29।
ग्रसते हुए सर्वलोकों को अपने ज्वलित मुखों से
सभी ओर से चाट रहे हो बार बार रसना से
विष्णो! उग्र प्रभा यह तेरी तप्त तेज के द्वारा
सारे जग को चतुर्व्याप्त कर तपायमान करती है ।30।
बता कृपाकर मुझे कौन तू उग्र रूप वाले हो
देवश्रेष्ठ! नत नमन तुझे है तू प्रसन्न हो जाओ
मैं जानना चाहता तुझको कौन आदि पुरुष तू
नहीं जानता भलीभाँति मैं क्या प्रवृत्ति है तेरी ।31।
भगवान ने अर्जुन से कहा-मैं बढ़ा हुआ महाकाल हूं. मैं इन सब युद्धवीरों को मार चुका हूं
श्री भगवान ने कहा
बढ़ा हुआ मैं महाकाल हूँ नाशक सबलोकों का
आया हूँ संहार हेतु इस समय यहाँ इन सबके
जो विपक्ष में स्थित योद्धा खड़े युद्ध लड़ने को
तू न लड़ो तो भी ये सारे यहाँ न बचने वाले ।32।
अतः उठो तू प्राप्त करो यश जीत शत्रुओं को इन
भोगो वह समृद्ध राज्य संपन्न धान्य व धन से
ये मारे जा चुके सभी हैं मुझ द्वारा पहले ही
बस निमित्त मात्र बन जाओ वीर सव्यसाची तू ।33।
द्नोण जयद्नथ कर्ण भीष्म व अन्य शूरवीरों को
हते हुए मेरे द्वारा ये उन्हें युद्ध में मारो
थोड़ी भी तू व्यथा करो मत युद्ध करो निर्भय हो
निःसंशय तू जीतोगे इस कड़े युद्ध में अरि को ।34।
भगवान के उस महाकाल रूप को देख अर्जुन घबरा गए. उन्होंने उनका फिर वही चतुर्भुज रूप देखना चाहा.
संजय ने कहा
केशव के इस कहे वचन को सुनकर
कर जोड़े कर नमन सकंप किरीटी
भीत हुआ भी नमस्कार कर फिर वह
बोले अति गद्गद वाणी केशव से ।35।
अर्जुन ने कहा
हृषीकेश! तेरे लीला कीर्तन से
जग होता हर्षित पाता रागों को
भाग रहे राक्षस दिक में इससे डर
करते हैं प्रणाम सिद्धगण समुचित ।36।
क्यों न करें वंदना महात्मन! तेरी
गुरुओं के गुरु आदिकर्तृ ब्रह्मा के
जगन्निवास! देवेश! असत! व सत् तू
उनसे पर जो कुछ भी है हो वह भी ।37।
आदि देव तू पुरुष पुरातन तू ही
जग के परम निधान और ज्ञाता भी
तुम्हीं ज्ञेय हो परम धाम भी हो तू
जगत व्याप्त है तुझ अनंतरूपी से ।38।
वरुण चंद्र यम वायु अग्नि तू ही हो
तुम्हीं प्रजापति ब्रह्मा ब्रह्म-पिता भी
नमस्कार है तुझे हजारों बार नमन
बार बार है नमन प्रणाम नमस्ते ।39।
नमन अग्र से पीछे से सर्वात्मन!
सभी ओर से नमस्कार है तुझको
हे अनंत सामर्थ्य पराक्रम वाले
सबको रखा समेट अतः तू सब कुछ ।40।
सखा मान हे यादव! कृष्ण! सखा हे!
जो भी मैंने तुझे कहा हो हठ से
नहीं जानते हुए प्रभाव को तेरे
कभी प्रेम से या प्रमाद में पड़ कर ।41।
हुआ कभी हो तिरस्कार हँसी में
शय्यासन भोजन विहार में मुझसे
अच्युत! सखा समक्ष, अकेले में या
क्षमा करो तू-अप्रमेय उन सबको ।42।
पिता तुम्हीं इस लोक चराचर के हो
पूजनीय हो व गुरुओं के गुरु भी
तुझ समान है नहीं त्रिलोक में कोई
अन्य हो सके अधिक कोई भी कैसे ।43।
स्तुति करने योग्य अतः तुझ-प्रभु को
करता हूँ प्रणिपात प्रमन को तेरे
पिता पुत्र के पति पत्नी मित मित के
सहते ज्यों अपराध सहो तू मेरे ।44।
पूर्व न देखा रूप देख वह हर्षित
व्यथित हो रहा मन भी मेरा भय से
मुझे दिखाओ देवरूप पिछला वह
जगन्निवास! देवेश! प्रमन हो मुझ पर ।45।
वैसे ही मैं तुझे देखना चाहूँ
चक्र हाथ में गदा- मुकुट के धारी
सहसवाहु! हे विश्वमूर्ति! हो जाओ
उसी चतुर्भुज रूप मनोहारी में ।46।
भगवान ने उन्हें अपना पूर्व का चतुर्भुज रूप दिखा उनके भय को दूर किया.
श्री भगवान ने कहा
मैं प्रसन्न हो योगशक्ति से अपनी
सबका आदि अनंत परम तेजोमय
तुझे दिखाया विश्वरूप निज अर्जुन!
तेरे सिवा न देखा पूर्व किसी ने ।47।
कुरुप्रवीर! यह रूप लोक में मेरा
दिख सकता न तेरे सिवा किसी को
न ही वेद के पाठ न यज्ञ दानों से
न ही क्रिया न उग्र तपस्या से ही ।48।
व्यथित न हो न हो विमूढ़ तनिक भी
उग्र रूप यह देख मेरा तू ऐसा
संजय ने कहा
इस प्रकार कह वासुदेव ने फिर तब
अर्जुन को निज रूप दिखाया वैसा
सौम्यरूप हो पुनः महत आत्मा ने
धैर्य बँधाया भीत हुए अर्जुन को ।50।
अर्जुन ने कहा
तेरे सौम्य मनुष्यरूप को देख जनार्दन! इस क्षण
स्थिरचित्त हुआ मैं पाया स्वाभाविक स्थिति को ।51।
श्री भगवान ने कहा
दुर्लभ है दर्शन इसका जो रूप मेरा यह देखा
इसे देखने को रहते हैं देव सदा लालायित ।52।
देखा है जैसा मुझको न देख सकेगा वैसा
वेदों से तप से दानों से और न यज्ञ-पूजा से ।53।
यों अनन्य भक्ति से ही मैं ज्ञेय तत्वतः अर्जुन
और देखने में प्रवेश करने में शक्य परंतप! ।54।
पांडव! मेरे भक्त परायण कर्म करे मेरे हित
अनासक्त निर्वैर प्राणियों से वे प्राप्त मुझे हों ।55।
विश्वरूपदर्शन नाम का ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त
बारहवाँ अध्याय
[कृष्ण ने अपने पूर्व के वचनों में दो तरह की उपासनाओं की चर्चा की है. एक में कर्मयोग की सिद्धि के लिए अक्षर (निर्गुण) की और दूसरे में समबुद्धि से युक्त हो परमेश्वर में बुद्धि अर्पण कर सभी कर्म करने को कहा है अर्थात सगुण की उपासना करने को कहा है. अर्जुन कृष्ण से जानना चाहते हैं कि इन दोनों योगों को जाननेवालों में उत्तम कौन है. उत्तर में कृष्ण उन्हें विस्तार से बताते हैं कि मुझमें मन लगाकर सदा युक्तचित्त हो जो परमश्रद्धा से मेरी उपासना करते हैं वे उत्तम योगी हैं. अक्षर में आसक्तचित्त साधकों को योग साधना में क्लेश अधिक होता हैं. क्योंकि आसक्ति के कारण उनमें देहाभिमान की मात्रा होती है]
अर्जुन ने कहा
यों लग हैं जो नित्य उपासते तुझ-साकार सगुण को
औ निर्गुण अक्षर उपासते कौन योगविद उत्तम ।1।
श्री भगवान ने कहा
मुझमें मन को लगा नित्यरत भक्त परम श्रद्धा से
उपासते हैं मुझे जो उनको सर्वश्रेष्ठ यति मानॅू ।2।
जो अविनाशी निराकार अदृष्ट्य और अचल व
मन से परे सर्वव्यापी ध्रुव निर्विकार को पूजे ।3।
वे इंद्रिय-संयमी पुरुष सब प्राणि-हितों में प्रेमल
सभी जगह सम-बुद्धि वर्तते मुझे प्राप्त होते हैं ।4।
अक्षर में आसक्तचित्त को कष्ट अधिक साधन में
देहमानियों को अव्यक्त-गति कठिनाई से मिलती ।5।
अर्पित कर सब कर्म मुझे जो होकर मेरे परायण
उपासते हैं ध्यान लगाकर एकभक्ति से मुझको ।6।
मुझमें चित्त किए उनका मैं पार्थ! मृत्युजग-निधि से
करता हूं उद्धार पूर्णतः बिना बिलंब किए ही ।7।
स्थापित कर मन मुझमें कर बुद्धि प्रविष्ट मुझमें ही
इसके बाद निवास करेगा तू मुझमें निःसंशय ।8।
कर न सके यदि दृढ़ स्थिर तू मुझमें अपने मन को
इच्छा कर अभ्यासयोग से मुझे धनंजय पाने की ।9।
यदि अभ्यास में भी अशक्त हो मेरे कर्मपरायण
मेरे लिए कर्म करके भी प्राप्त सिद्धि को होगा ।10।
मेरे आश्रित हुआ इसे भी करने में अशक्त पाते
वश करके इंद्रिय-मन को तू कर्मफलेच्छा त्यागो ।11।
श्रेष्ठ अभ्यास शास्त्रज्ञान से ध्यान ज्ञान से उत्तम
श्रेष्ठ फलेच्छा-त्याग ध्यान से त्याग शांति देता है ।12।
अद्वेषी जीवों प्रति करुणा भरा मित्रवत सबसे
क्षमाशील सुख-दुख में सम व ममताहीन अनहमी ।13।
दृढ़निश्चय संतुष्ट सदा वश किए देह को योगी
अर्पित किए बुद्धिमन मुझमें भक्त मेरा मुझे प्यारा ।14।
जो उद्विग्न नहीं प्राणी से प्राणि उद्विग्न न जिससे
भय उद्वेग हर्ष ईर्ष्या से जो अलिप्त प्रिय मुझको ।15।
जो शुचि दक्ष अपेक्षा दुख से मुक्त पक्षपाती न
त्यागी सब कर्मारंभों का भक्त मेरा मुझको प्रिय ।16।
जो न कभी द्वेष करता न हर्ष शोक इच्छा ही
त्यागा जो शुभअशुभ कर्मफल भक्तिमान प्रिय मेरे ।17।
जो सम शत्रु मित्र में व मानापमान सुख-दुख में
अनु-प्रतिकूल द्वंद्व में सम व जो आसक्तिरहित हो ।18।
जो समझे स्तुतिनिंदा सम मननशील तुष्ट कुछ में
स्थिरमति जो अनिकेत वे भक्तिमान प्रिय मुझको ।19।
श्रद्धायुक्त परायण मुझमें जो इस धर्म्य अमृत का
जैसा कहा करें वैसा ही वे हैं प्रिय अत्यंत मुझे ।20।
भक्तियोग नाम का बारहवाँ अध्याय समाप्त
संपर्क - sheshnath250@gmail.com
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