० भक्तों पर शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं महादेव आदि और अंत से परे किसी देव की शक्ति मानी जाये तो वह भगवान शिव के अलावा और कोई नहीं। उन्हें भोल...
० भक्तों पर शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं महादेव
आदि और अंत से परे किसी देव की शक्ति मानी जाये तो वह भगवान शिव के अलावा और कोई नहीं। उन्हें भोलों के लिए भोले की संज्ञा दी जाती है। ब्रम्हा, विष्णु और महेश में त्रिदेवों के त्रिकालदर्शी भोले शंकर इस मृत्यु लोक में अपने भक्तों की भक्ति से जल्द ही प्रसन्न होकर फल देने वाले देव के रूप में पूजे जाते हैं। संहार के देव माने जाने वाले भगवान शिव अपने भक्तों की चिंता करने वाले बड़े ही दयालु देव के रूप में भी पूजे जाते हैं। उन्हें दीनों के दीनानाथ विश्वनाथ कहा जाता है। भगवान शिव ही एक ऐसे देवता है, जिन्होंने संसार के सारे व्यसनों का पान कर अपने भक्तों को यह संदेश दिया कि सारी कडुवाहट और सामाजिक दोष को मुझ पर अर्पण कर उसे कभी ग्रहण न करने की प्रतीज्ञा लें। इन्हीं भावनाओं पर आधारित महाकालेश्वर उज्जैन में उन पर मदिरा चढ़ाने की परंपरा शुरू की गयी, किंतु अवसरवादी मनुष्य ने यहां भी अपना स्वार्थ ढूंढ लिया और चढ़ायी गयी मदिरा को प्रसाद रूप में ग्रहण करने लगा। शास्त्रोक्त मतानुसार भगवान शंकर पर अर्पित कोई भी वस्तु प्रसाद रूप में ग्रहण नहीं की जानी चाहिए।
[ads-post]
शिवरात्रि में छिपे रहस्य को जाने
ऐसी रात्रि जिसका शिवतत्व से घनिष्ठ संबंध है, शिवरात्रि कही जाती है। दूसरे शब्दों में भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को ही शिवरात्रि का नाम दिया गया है। शिव पुराण के ईशान संहिता में इस बात का उल्लेख मिलता है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात आदि देव भगवान शिव करोड़ों सूर्य के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए थे।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्यामादि देवा महानिशि।
शिवलिंगतयोदभूतः कोटिसूर्य समप्रभः।।
ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों की माने तो फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा सूर्य के सबसे समीप होता है। यही कारण है कि जीवन रूपी चंद्रमा का शिव रूपी सूर्य के साथ योग मिलन इसी तिथि को होता है। अतः महाशिवरात्रि की चतुर्दशी तिथि को शिव पूजा करने से प्राणी मात्र को अभिष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का गूढ़ रहस्य है। हिंदी पंचाग में प्रत्येक माह शिवरात्रि होती है, जिसे मास शिवरात्रि कहा जाता है, किंतु फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि महाशिवरात्रि के रूप में भगवान शिव की सबसे बड़ी अराधना के लिए जानी जाती है। भगवान शिव के निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कही जाती है। भगवान शिव ही एक ऐसे देव है तो हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके शांति एवं ऐश्वर्य प्रदान करते है।
शिवलिंग की अराधना ने दी मार्कण्डेय को लंबी उम्र
हमारे शास्त्र बताते है कि भगवान शिव जिस पर प्रसन्न हो जाये या जिन्हें उनका सानिध्य मिल जाये, काल भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ जा सकता। शिव पुराण में ही मार्कण्डेय की कथा इस बात का प्रमाण मानी जा सकती है। कथा बताती है कि भगवान शिव की कृपा ने किस तरह अल्पायु मार्कण्डेय को दीर्घजीवी होने का वरदान दिया। काल की गणना के अनुसार मार्कण्डेय की उम्र महज सोलह वर्ष तय की गयी थी। जिस दिन मार्कण्डेय का सोलह वर्ष पूर्ण होने वाला था, उस दिन युवा मार्कण्डेय शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग से लिपटकर प्रार्थना कर रहा था। यम जिन्हें मृत्यु का देवता माना जाता है, वे मार्कण्डेय की उम्र पूरी होने पर नियत दिन उसके प्राण हरने शिव मंदिर पहुंच गये। यम ने यह देखकर कि मार्कण्डेय भगवान शिव की भक्ति में लीन है, अपने घमंड में चूर होते हुए प्राण हरने के लिए फंदा मार्कण्डेय की ओर फेंक दिया। फंदे में केवल मार्कण्डेय ही नहीं वरन शिवलिंग भी फंस गया, क्योंकि मार्कण्डेय उस वक्त प्रार्थना में रत शिवलिंग से लिपटे हुए थे। यमराज की घृष्टता से कुपित भगवान शिव ने अपना स्वरूप प्रकट किया और अपने त्रिशुल से यम का वध करना डाला। बाद में जब शिवजी का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने यम को जीवनदान दे दिया और मार्कण्डेय को लंबी उम्र का आशीर्वाद दे अंतर्ध्यान हो गये।
ब्रम्हा और विष्णु का अभिमान भी इसी दिन चूर हुआ
कहते है कि महाशिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव का अत्यंत प्रकाशवान निराकार रूप साकार रूप ले प्रकट हुआ था। उनका वह स्वरूप ब्रम्हा और विष्णु के समक्ष प्रकट हुआ माना जाता है। ईशान संहिता में उल्लेख मिलता है कि ब्रम्हाजी एवं विष्णुजी को अपने-अपने कर्मों पर अभिमान होने लगा था। इसी बात को लेकर दोनों देवों में संघर्ष छिड़ गया। दोनों अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हर प्रकार के हठ अपनाने लगे। भगवान शिव ने दोनों के संघर्ष को समाप्त करने हस्तक्षेप करने का मन बनाया और एक अग्नि स्तंभ के रूप में दोनों के समक्ष प्रकट हुए। अग्नि की प्रचंड ज्वाला से स्तंभ का आदि और अंत दिखायी नहीं पड़ रहा था। भगवान विष्णु और ब्रम्हा बराबर इस प्रयास में लग गये कि वे इसे देखने का प्रयास करने लगे कि वे स्तंभ के आदि और अंत को देख सके। भगवान विष्णु पाताल में जाकर इसे देखने का प्रयास करने लगे, और ब्रम्हाजी अपने हंस पर बैठकर ऊपर की ओर चले और अग्नि स्तंभ को देखने लगे। दोनों देवताओं ने वर्षों प्रयास के बाद भी उसे जान पाने में सफलता नहीं पायी। दोनों जब वापस लौटे तो उनका दंभ टूट चुका था। यह देख भगवान शिव प्रकट हुए तथा सभी विषय वस्तुओं को पुनर्स्थापित किया। कहते है कि भगवान शिव का यह प्राकट्य भी फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी की रात्रि को ही हुआ था। इसलिए इस रात्रि को महाशिवरात्रि कहा गया।
महाशिवरात्रि का पर्व अनुष्ठानों के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है। भगवान भोलेनाथ के भक्तों द्वारा इस दिन चार अलग-अलग प्रहरों में रूद्राभिषेक से लेकर शिव चालीसा और शिवपुराण तक का जप और पाठ किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो मनुष्य किसी भी प्रकार के व्रत और पर्व नहीं करता है, यदि वह महाशिवरात्रि का व्रत कर ले तो उसे सभी व्रतों का फल प्राप्त होता है। भगवान शिव की पूजा अर्चना बेल पत्र और धतुरा, भांग, दूध, दही, घी से की जाती है। अभिषेक पूजन के पश्चात रात्रि के प्रहर में शिवभक्तों द्वारा रूद्राभिषेक का पाठ कर सुबह में आरती कर प्रसाद का वितरण किया जाता है।
-
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
dr.skmishra_rjn@rediffmail.com
COMMENTS