अनूप शुक्ल व्यंग्य की जुगलबंदी-19 ---------------------------- व्यंग्य की जुगलबंदी-19 का विषय था - ’बजट देश का बनाम घर का।’ बजट पर तो लोग...
व्यंग्य की जुगलबंदी-19
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व्यंग्य की जुगलबंदी-19 का विषय था - ’बजट देश का बनाम घर का।’ बजट पर तो लोगों के अलग-अलग विचार होंगे लेकिन इस मौके पर अभी तक जिन साथियों ने लेख लिखे उनका संक्षिप्त विवरण सोचते हैं यहां पेश ही कर दें। अभी तक इन साथियों ने लेख लिखे। बजट के बारे में सबने जो लिखा उसमें कई में एक सी बातें थीं लेकिन कहने का अंदाज एकदम अलग। अलग-अलग अंदाज में लिखे इन लेखों के बारे में आइये आपको बताते हैं।
1. Arifa Avis
ने इस बार जुगलबंदी में पहली बार शिरकत की। युवा व्यंग्यकार आरिफ़ा का एक व्यंग्य संग्रह ’शिकारी का अधिकार’ प्रकाशित हो चुका है। समसामयिक मुद्दों पर वे नियमित लिखती रहती हैं। आरिफ़ा ने अपने लेख में पंच ही पंच लिखे हैं। लेख का नाम दिया - ’बजटीय पंचनामा’ । उनके मुताबिक :
"बजट भीख और सीख देने का सबसे बडा उत्सव है !"
आरिफ़ा का लेख आप यहां पहुंचकर बांच सकते हैं: https://www.facebook.com/arifa.avis/posts/998158220285492
आरिफ़ा के लेख के कुछ अंश
(i) "बजट एक ऐसा अकेला बादल है जो आसमान से बरसता ज़रूर है लेकिन ज़मीन तक आते -आते सूख जाता है !"
(ii) "बजट सिर्फ़ सत्ता और शासन के भागीदार लोगों को खुश करने और अधिक से अधिक लोगों को अपने साथ शामिल करने का सबसे अच्छा तरीका है , ताकी सत्ता के खिलाफ़ उठने वाले संगठित विद्रोह की किसी भी संभानवना को समाप्त किया जा सके!"
(iii) "बजट देश का सबसे बडा वह जादू और रहस्य है जो 100% लोगों नाम पर बनता है और 10% लोगों के लिये 90% लोगों को देशहित में कुर्बान करता है "
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(2) Arvind Tiwari
जी ने जैसे ही बजट पर कुछ लिखना शुरु किया उनके पत्रकार मित्र ने आकर उनको हड़का लिया। इसके बाद भी उन्होंने अपना बजट पेश कर ही दिया। उसको आप इधर पहुंचकर देखिये: https://www.facebook.com/permalink.php…
बजट के बहाने अरविन्द जी ने पक्ष और विपक्ष में मारपीट भी करा दी। उसको आप उनके लेख में ही पढिये। फ़िलहाल हम आपको कुछ अरविन्द तिवारी जी के बजट व्यंग्य के कुछ अंश दिखाते हैं:
(i) घर का बजट देश के बजट की तरह ही घाटे वाला रखा जाता है।यह घाटा छद्म होता है ,जिसकी राशि पत्नी बचाकर रख लेती है।घाटे वाली राशि साड़ी सेल में काम आती है।
(ii) संसद में बार बार पानी पीकर वित्तमंत्री यह सन्देश देते हैं कि पानी सेहत के लिए मुफीद होता है ,भले ही जनता को दो जून का खाना मयस्सर न हो पाये।
(iii) स्मार्ट फ़ोन के लिए फ्री डाटा इसलिए भी दिया जा सकता है,ताकि वे मजदूरी कम्पेयर कर सकें और उस जुमले से बच सकें जिसमें कहा गया है'कम्पेयर नहीं करेगा तो बनेगा उल्लू और तुझे मिलेगा बाबा..।
(3) Ravishankar Shrivastava
उर्फ़ रवि रतलामी अभी भी ब्लॉग पर ही सारी पोस्ट्स लिखते हैं। अच्छा करते हैं इसी बहाने पोस्ट्स सहेजते रहते हैं। हमारी आठ महीने की फ़ेसबुक की पोस्ट्स ब्लॉग पर लाना लम्बित है। रविरतलामी ने ’घर,घर देश, देश का बिगड़ा बजट’ पेश किया। बिगड़ा बजट पेश करने के बाद पाठकों से उसको सुधारने में सहायता मांगी। अपना हाल-ए-बजट बताते हुये उन्होंने बताया कि वे ’सुबह के चाय में कटौती कर या दोपहर के रायते में कमी करके’ बजट दुरुस्त करने का प्रयास करते रहे। पैसे वाले बजट की बजाय रवि रतलामी ने ’समय का बजट’ पेश किया। उनका लेख पहुंचकर इधर बांचिये
http://raviratlami.blogspot.in/2017/01/blog-post_29.html हम तो आपको उनके लेख की झलक दिखला देते हैं:
(i) मामला समय का है. समय का बजट संभाले नहीं संभल रहा. मुए सोशल मीडिया ने, केबल-डिजिटल टीवी ने, यू-ट्यूब ने, विंक-गाना-हंगामा म्यूज़िक ने, और हाटस्टार ने समय की जो वाट लगा रखी है, लगता है जिएं कहाँ से और खाएँ-पिएँ-सोएँ कब कहाँ पे! और, बजट में प्रावधान है- दिन भर में केवल 24 घंटे. न एक मिनट कम न एक मिनट ज्यादा.
(ii) बेइज़्ज़ती तब हो जाती है जब सामने वाला कोई जबरदस्त उदाहरण देता है और कहता है कि ये फलां के फेसबुक पेज में है और आप मूर्खों की तरह उसका मुंह ताकते रहते हैं. कोढ़ में खाज तब हो जाता है जब वो पेज आपके पंसद किए हुए फ़ेसबुक पेज में पहले ही शामिल होता है, मगर उसे देखने का, वहाँ झांकने का आपके पास समय ही नहीं होता है.
(iii) आप भागकर जीमेल खोलते हैं, पच्चीस ईमेल को ठिकाने लगाते हैं तो इधर मैसेंजर फड़फड़ाता है, स्नैपचेट हिचकोले मारता है, हैंगआउट हिचकचता है, स्काइप स्क्रीन चमकाता है. कभी कभी तो मामला इतना सीरियस हो जाता है कि प्रकृति की पुकार (अरे, वही नेचर्स कॉल) के लिए समय निकालना तक मुश्किल हो जाता है!
(4) Anshu Mali Rastogii
ने अपना बजट सबसे पहले पेश किया। उनके लेख के साथ लगाई गयी फ़ोटो भी बहुत चकाचक है। उनके लेख का शीर्षक ताल ठोंकू टाइप है- “आने दीजिए, कौन डरता है बजट से”
बजट के बारे में अपनी समझ साफ़ करते हुये अंशुमाली पहले ही बता देते हैं:
“मेरे तईं बजट की सीधी-सी परिभाषा है- जो बढ़ गया, जो घट गया, जो चुनावी झुनझुना बन गया बस यही बजट है। आम जनता का बजट से लेना-देना कित्ता है, कित्ता नहीं; ये सब अर्थशास्त्री टाइप ज्ञानी जानें। मगर हां इसमें ज्यादातर हित कॉरपोरेट घराने वालों के ही निहित होते हैं। “
अंशुमाली रस्तोगी का लेख यहां पहुंचकर बांचियेhttps://www.facebook.com/anshurstg/posts/186846215129074 लेख के कुछ अंश यहां पेश हैं:
(i) एक बेचारा सेंसेक्स है, जो बजट वाले दिन खामखां ही बलि का बकरा बन जाता है। बजट मन-मुताबिक आता है तो झुम पड़ता है। नहीं तो अपने चाहने वालों को ऐसी धोबी पछाड़ देता है कि बेचारों के सालों-साल अपने पिछवाड़ों को सहलाने में ही निकल जाते हैं। मतलब- करे कोई, भरे कोई।
(ii) घर का बजट ‘वित्तमंत्री’ के कहने से नहीं, अपनी ‘होम-मंत्री’ के कहने से बनाना है। कहां कित्ता खरच करना है। किसे कित्ता देना है। अपनी पॉकेट में कित्ता रखना है। बच्चों, नाते-रिश्तेदारों, कपड़ों-लत्तों, किचन आदि-इत्यादि के साथ कैसा फाइनेंशियल व्यवहार रखना है; सारा दरोमदार होम-मंत्री पर ही रहता है। तो प्यारे, बजट चाहे ‘करेला’ टाइप आए या ‘मलाईदार’ अपनी सेहत पर कोई फरक न पड़ना।
(iii) बजट एक ‘तिलिस्मी तहखाना’ है, इसके आजू-बाजू जाने से बचें। अपनी खोपड़ी की ऊर्जा को बचाकर रखें। अगर सब बजट के लाभ-हानि जानने-समझने में खरच कर दी, तो आगे रिचार्ज कराने में घणी मुसीबत आ सकती है। शेष आपकी मर्जी।
(5) Udan Tashtarii
उर्फ़ समीरलाल ने लारीलप्पा बजट पेश किया। बजट की समझ में आने वाली जटिलता की तरफ़ इशारा करते हुये समीरलाल फ़र्माते हैं:
“मगर सब कुछ इतना सीधा सीधा और सरल सरल होता तो हमारी व्यवस्था से यह कब का गायब हो चुका होता. हमारी व्यवस्था में सीधा इन्सान अपनी हैसियत नहीं बचा पाता तो इस बजट की क्या औकात? “
समीरलाल का ’लारीलप्पा बजट ’ आप इधर पहुंचकर बांचिये।
https://www.facebook.com/udantashtari/posts/10154707703066928
हम आपको इसके कुछ अंश पढ़वाते हैं:
(i) बजट का बेजा इस्तेमाल करना कोई हमारी सरकारों से सीख ले और मीडिया भी उसे तरह तरह के फ्लेवर दे कर नये नये नाम दे कर टी आर पी बटोरता रहा है..कभी लॉलीपॉप बजट, कभी लोकलुभावन बजट, कभी रॉबिन हुड बजट और हाल ही सुना कि चुनाव के मद्दे नजर बजट ही जल्दी घोषित करके वोट बटोरने की जुगत जुटाते बजट को लारीलप्पा बजट बताया गया..
(ii) रेडियों से मन की बात बोलने वाली सरकार..ऐसे कैसे कारण बतायेगी.. जब आज तक यह भी नहीं बताया कि हमें चुहिया चाहिये थी तो पहाड़ क्यूं खोदा नोटबंदी करके.
(iii) हम भला बनाये भी तो क्या बनायें घर का बजट..हमारे घर में आम जनता नहीं..सीए की बीबी और बच्चे रहते हैं!!
इनके वोट की चिन्ता न करें..ये भारत के वो संभ्रान्त वर्गीय हैं जो वोटिंग के दिन पिकनिक पर चले जाते हैं.
(6) Nirmal Gupta
ने अपने लेख में बजट का आम आदमी से क्या मतलब है यह बताने के लिये एक आम किरदार फ़ूलमती का किस्सा सुनाया। बाद में यह किस्सा थोड़ा बदलकर नसीबन के नाम से हिन्दुस्तान अखबार में छपा जिस पर Sushil Siddharth जी ने प्रतिक्रिया देते हुये लिखा:
“साथी देखें कि रचना क्या होता है 'रचना'में।एक सामान्य बात में इतने आयाम और इतनी संवेदना तलाश लेना निर्मल की विशेषता है।बधाई”
तो साथी लोग पूरी रचना देखने के लिये निर्मल गुप्त की पोस्ट पर पहुंचे जिसका लिंक यह रहा
https://www.facebook.com/gupt.nirmal/posts/10211132621767057
लेख के कुछ अंश हम आपको पढ़वाये देते हैं:
(i) फूलमति को यह तो पता है कि सरकार हर साल बजट लेकर आती है।उसे यह भी मालूम है कि बजट का मतलब होता है ढेर सारा पैसा।पर उसे यह नहीं पता है कि सरकार यह बजट वाला पैसा किसको देती है ,कैसे देती है और इसको लेकर सारे लोग इतनी बातें क्यों करते हैं ।
(ii) अब तो ग्राहक भी कहने लगे हैं कि फूलमति तेरे फूल तो बहुत जल्द मुरझा जाते हैं ।वह जब अपने फूलों की सुगंध का हवाला देती है तो लोग नाक सिकोड़ कर कह देते हैं कि सुगंध का क्या ,फूल तो वही अच्छे जिनके रंग देर तक टिकें।
(iii) वह सोचती है कि जब बजट हर साल रामखिलावन की मुरादें पूरी कर देता है तो क्या कभी वह उसकी भी एकाध ख्वाईश को पूरा करेगा ।वह भी न जाने कब से चांदी की एक अदद पायल अपने पैरों में पहनने का सपना पाले है ।बजट आएगा तो क्या इस बार भी वह फूलमति के लिए कुछ नहीं लाएगा ?यूंही आकर चला जायेगा हमेशा की तरह ठुन ठुन करता, खाली बर्तनों में भूख को बजाता और सबको ठेंगा दिखाता –चिढाता।
(7) Devendra Kumar Pandey
लिखने का मौका मिलते ही स्कूल चले गये और बच्चों से बजट पूछने लगे -बजट कौन बनाता है?
बच्चों ने क्या जबाब दिया और उस पर मास्टर जी की क्या प्रतिक्रिया रही यह जानने के लिये आप इस लिंक पर पहुंचिये:
https://www.facebook.com/devendra.pandey.188/posts/1182393775222541
बजट के आगे कुछ बतियायें हम इसके पहले पांडेय जी का एक ठो अनुभवी बयान सुन लीजिये:
“गुरूजी का और घर में बाउजी का हँसना माहौल को खुशनुमा बनाता है।”
अब जब आपको लेख का लिंक दे ही दिया तो आप उधर पहुंचकर बांच ही लेंगे लेकिन फ़िर भी हम आपको कुछ अंश तो यहीं पढ़वा देते हैं:
(i) जैसे भ्रष्टाचारी काला धन विदेशों में या पाताल खातों में जमा करते हैं वैसे ही महिलायें हर माह होने वाले आय का पहला हिस्सा गुप्त पोटली में जमा करती हैं और घर में आने वाले किसी बड़े आफत के समय साक्षात लक्ष्मी बन मुस्कुराते हुए प्रकट होती हैं! यह गुण भ्रष्ट नेताओं में नहीं पाया जाता.
(ii) आम आदमी तक आते-आते उनके लिए आवंटित धन चुक जाता है. दुष्यंत कुमार ने इस दर्द को कुछ यूं बयां किया है.."यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा!"
(iii) सरकारी कर्मचारी हर साल चाहते हैं कि उनकी आय अधिक से अधिक बढ़े और आयकर कम से कम लिया जाय. हर साल आय में वृद्धि होती है और हर साल छूट की दर बढ़ती जाती है. सरकारें भी जीत कर आने के शुरू के वर्षों में अंगूठा दिखाने और मुँह चिढ़ाने वाला और चुनाव वर्ष से ठीक पहले आय में अधिक छूट देते हुए लोक लुभावन बजट पेश करती है.
(8) ALok Khare
को ने अपनी लगभग उमर का खुलासा करते हुये बताया “ देश का बजट महज एक मदारी के खेल की याद दिला जाता है और 30-35 साल पहले बचपन की और उड़ा ले जाता है! “ मदारी का इंसानियत वाला बताया है आलोक खरे ने। लेख पूरा बांचने के लिये इधर आइये:
https://www.facebook.com/alok.khare3/posts/10209713058278169
लेख के कुछ अंश हम आपको पढ़वाते हैं:
(i) दुनिया भर की जान कल्याणकारी योजनाएं बनाई जाती है और सरकारी ख़ज़ाने को खाली किया जाता है! योजनाओ-परियोजनाओं की घोषणाएं खूब होती हैं जम कर ढिंढोरा पीटा जाता है, उसके बाद सम्बंधित मंत्रालय और विभागों को पैसा आवंटित कर दिया जाता है! बाद में ये पैसा नेताओं और अफसरों में बाँट लिया जाता है! इस तरह योजनाओं किर्यान्वन किया जाता है!
(ii) सही मायनो में हमने अंतराष्ट्रीय सड़क निर्माण कर डाले जो यूरोप से लेकर अमेरिका तक पहुँच चुकी हैं! इनमे से एक अंतरराष्ट्रीय रिंग रोड भी कहलाती है जो यूरोप में स्विस बैंक तक ले जाकर वापिस इंडिया छोड़ जाती है! लेकिन ये हाई टेक सड़के आम आदमी को नज़र नही आती वो अपने गांव से शहर तक की सड़क हर साल हर बार ढूंढता है!
(iii) जनता तो बेचारी हे, ये उसकी लाचारी है ये नेता और अफसर इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं इस भोली जनता-जनार्दन की नब्ज अच्छी से पहचानते हैं उन्हें पता हैे ये रोयेंगे और चिल्लायेंगे इनके पास दूसरा कोई उपाय नही है लौटकर हमारे ही तो पास आयेंगे और हम फिर से इनका बैंड बजायेंगे!
(9) Vivek Ranjan Shrivastava
ने अपना बजट पेश करने का काम बतंगड़ जी और उनके परिवार को सौंपा। आम चुनाव , जनता और सरकार बनने से लेकर ’वोट मिलवा बजट’ का किस्सा बयान किया विवेक जी ने। पूरा किस्सा आप यहां पहुंचकर बांचिये
https://www.facebook.com/vivek1959/posts/10208717262864075
हम आपको कुछ अंश पढ़वाते हैं इस लेख के:
(i) मंत्री जी प्रदेश के न होकर अपनी पार्टी और अपने विधान सभा क्षेत्र के होकर रह गये ,नेता गण हाई कमान के एक इशारे पर अपना इस्तीफा हाथ में लिये गलत सही मानते मनवाते दिखे .
(ii) जब हर वोट कीमती हो तो दारू वारू , कम्बल धोती जैसी छोटी मोटी चीजें उपहार स्वरूप ली दी गईं होंगी , पत्रकारो को रुपये बांटकर अखबारो में जगह बनाई गई होगी . एवरी थिंग इज फेयर इन लव , वार एण्ड इलेक्शन .
(iii) जीते कोई भी सरकार चलानी है तो बजट बनेगा .तय है कि विपक्ष बजट को पटल पर रखे जाते ही बिना पढ़े ही उसे आम आदमी के लिये बोझ बढ़ाने वाला निरूपित करेगा . वोटर भी जानता है कि चुनावो वाले साल में बजट ऐसा होगा जिससे भले ही देश को लाभ न हो पर बजट बनाने वाली पार्टी को वोट जरूर मिलें
.
(10) Sanjay Jha Mastan
का हर लेख अपने में अलग तरह का और अनूठा होता है। काला हास्य के नाम से अपनी पोस्ट्स लिखते हुये अलग तरह से बातें कहते हैं। बजट से सम्बन्धित इस पोस्ट को उन्होंने बजट पच्चीसी के रूप में पेश किया। बजट के अलग-अलग अंगों, प्रकारों का तसल्ली से विवरण पेश किया। पूरा विवरण आप इधर पहुंचकर देख सकते हैं:
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=10155003093482658&id=640082657
बजट के बारे में संजय झा की राय सुनिये:
“बजट एक बार संसद में पास हो गया तो फिर साल भर तक मेरे पास नहीं आता ! बजट पास होने के बाद बजट को फेल करने की जिम्मेदारी मेरे ही कंधों पर होती है ! “
व्यंग्य पच्चीसी के कुछ अंश हम आपको यहां दिखाते हैं:
(i) मैं बजट हूँ !
समझौता के जादू को बजट कहते हैं ! मैं पत्नी के सहयोग से बनता हूँ ! दिन में घर का बजट ही रात में पति बन जाता है ! समय पर बिल भुगतान करना, कर्जों का सही समय पर निपटारा करना और अपने बचत, निवेश लक्ष्यों को हासिल करना भी मेरे ही अंतर्गत आता है ! घर का बजट बनाने का अर्थ है कि आप मुझे बना रहे हैं !
(ii) इकोनॉमिक्स !
दिन के, रात के, हफ़्ते के, महीने के, साल के, बजट को पहचानता हूँ ! जैसे घर में मैं अपनी पत्नी को सुनता हूँ वैसे ही टेलीविजन पर सचमुच में वित्त मंत्री को सुनता हूँ ! सिर्फ आलोचना नहीं करता ! मेरे बजट के इकोनॉमिक्स में रुपयों को छोड़ कर फिजिक्स, केमिस्ट्री, हिस्ट्री, जॉग्राफी, बायोलॉजी, स्पोर्ट्स, टेक्नोलॉजी, पर्यावरण, व्यापार, आकाश, पाताल, जंगल, पहाड़, सब है !
(iii) बजट का श्रृंगार !
बजट का बहिष्कार ही बजट का श्रृंगार है ! जिनके लिए बजट बनता है वही बजट का बहिष्कार करते हैं ! जो आज बनाते हैं वही कल उसकी चुटकी लेते हैं ! बजट एक ऐसा यूनिवर्सल चुटकुला है जो सबको पूरे साल याद रहता है और जिसे सब समझते हैं ! रहमत की बारिश के कीचड़ में इस साल फिर कमल का फूल खिलेगा !
(11) Yamini Chaturvedi
ने बजट के बारे में कुछ कहने से पहले बजट फ़रवरी में लाने की कहानी सुनाई:
“नया साल अपने साथ अनेक चीजें ले के आता है | उनमे सबसे पहले तो कडाके की सर्दी, उसके बीतते न बीतते गणतंत्र दिवस का नम्बर आता है | उसके बाद फरवरी वैलेंटाइन बाबा और बसंत देव के नाम हो जाता है | तब जा के बजट का नम्बर आता है | तब तक नया साल तीन महीने पुराना हो चुका होता है | मार्च में बजट लाने में सरकार का उद्देश्य हम भारतीयों को फरवरी की खुमारी से निकालने के लिए बजट का चाबुक फटकारना है |”
यामिनी का लेख बांचने के लिये इधर पहुंचिये
https://www.facebook.com/yamini.chaturve…/…/1356846134336899
इसके कुछ रोचक अंश हम आपको पढवाते हैं:
(i) बजट के आने का नाम सुनते ही लोग कयास लगाने लगते हैं कि क्या-क्या महंगा होगा और क्या क्या सस्ता होगा | हर कोई मंजे हुए अर्थविद की तरह उस पर अपनी राय देने लगता है | कोई कोई तो इस अधिकार से अपनी बात कहते हैं कि लगता है वित्त मंत्री रोज रात को अपना रफ ड्राफ्ट इनसे ही अप्रूव कराने आते हों |
(ii) सत्ता पक्ष के अनुसार हर साल की तरह इस बार का बजट भी ऐतिहासिक बजट रहने वाला है | ये देश को बहुत आगे ले के जाएगा | उधर विपक्ष के अनुसार ये सबसे बकवास बजट होगा | देश की अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार के रख देगा | गरीबी और महंगाई बढ़ेगी | इस से देश IMF के चंगुल में फंस जाएगा | जनता की कमर टूट जायेगी (जैसे अब तक साबुत बची हुई थी)|
(iii) देश की अर्थव्यवस्था के इस पर्व के लिए हमारी राय उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि बजट” की स्पेल्लिंग में “डी” |
(12) DrAtul Chaturvedi
ने एक आम आदमी के जीवन में बजट के महत्व बताते हुये लिखा:
“ हमारे मोहल्ले के रामखिलावन बजट को लेकर खासे उत्साहित रहते हैं । उनके लिए बजट एक सपनों का टोकरा लेकर आता है । जिसमें से वो अपने पसंद को कोई छोटा सा सपना चुन लेते हैं । लेकिन साल खत्म होते होते यथार्थ के कंकड़ जीवन की पगतलियों में चुभने लगते हैं और खंडित स्वप्न के साथ फिर से जीने को तैयार होना पड़ता है । गृहस्थी की गाड़ी की सांस फूलने लगती है , घर का बजट शराबी की तरह लड़खड़ाने लगता है । और रामखिलावन फिर अगले बजट के आने तक फिर अपनी औकात के लायक कोई स्वप्न छांटने में मशगूल हो जाते हैं ।”
अतुल चतुर्वेदी जी का पूरा लेख आप इधर बांचिये:
https://www.facebook.com/atul.chaturved…/…/10208748895744000
हम आपको इसके कुछ अंश पढ़वाते हैं:
(i) उनके लिए बजट उनके छोटे बेटे भोलू की तरह का एक झुनझुना है जिसकी अधिकतर बातें उन्हे कभी समझ में नहीं आतीं । सकल घरेलू उत्पाद , मुद्रा स्फीति , जी डी पी , राजकोषीय घाटा आदि । रामखिलावन के लिए ये सब अर्थशास्त्र के कठिन स्तोत्र हैं जिनका शुद्ध पाठ और अर्थ गहन उनके लिए बेहद कठिन है ।
(ii) महंगाई बजट की परवाह किए बगैर षोडशी सी इतराती चली जाती है । वो सरकारी प्रयासों और अर्थशास्त्रियों की टोका टोकी की बिलकुल भी परवाह नहीं करती ।
(iii) रामखिलावन की वित्त मंत्री जी से बस यही गुहार है कि कहीं वो सपनों पर कोई सर्विस टैक्स न लगा दें । बजट के नीले घोड़े पर सवार होने का मौका आम आदमी को भी मिले कभी कभार । वो राजमहलों के अस्तबल की शोभा बनकर ही न हिनहिनाता रहे कहीं ।
(13) Alok Puranik
के बारे में अपनी राय बताते हुये हमने कभी लिखा था:
“आलोक पुराणिक की खूबी यह यह है कि जिस घटना पर बाकी लेखक एकाध लेख ही निकाल पाते हैं उसी घटना से वे अलग-अलग कोण से तीन-चार लेख बड़े आराम से निकाल लेते हैं।”
बजट के मुद्दे पर भी आलोक पुराणिक ने हमारे विश्वास की रक्षा की। यह पोस्ट लिखने तक बजट पर चार लेख तो ठेल ही चुके हैं वे। फ़ुटकर टिप्पणियों का हिसाब ही छोड़ दिया जाये। उनके बारे में एक-एक करके आपको बताते हैं:
(अ) आज के बजट के बनाने के तरीकों को महाभारत काल तक खैंचकर ले गये आलोक पुराणिक इस लेख में https://www.facebook.com/puranika/posts/10154414166258667
एक में पांडवों के किस्से बयान किये दूसरे में कर्ण की समस्या। आप बांचिये आनन्द की गारण्टी। लेख के कुछ अंश :
(i) हर सरकार का सिर्फ एक उद्देश्य होता है कि सरकार कायम रहे। इसलिए घाटा सिर्फ सरकार का चलता है, पब्लिक का नहीं। आमदनी से ज्यादा खर्च सिर्फ सरकार को शोभा देता है।
(ii) जब तक सरकार ना बन जाओ, पेट समेटकर चलो।
(iii) कर्ण ने फिर नाराज होकर कहा-अरे क्या प्रावधान और रसीदों से लड़ूंगा मैं युद्ध के मैदान में।
सारथी बोले-महाराज इस संबंध में कोई जवाब समुचित जांच के बाद ही दिया जा सकता है।
(ब) ’ बाइज्जत बरी टैक्स’ लेख में समसामयिक घटनाओं को लपेटते हुये जो ’बजट-लेख पेश’ हुआ उसको आप इधर पहुंचकर देखिये:
https://www.facebook.com/puranika/posts/10154416903353667
राष्ट्रीय सहारा अखबार में छपे इस लेख में लेखक ने ’बाइज्जत बरी टैक्स’ लगवाने की सिफ़ारिश की है। हम आपको इसके कुछ अंश पढ़वाते हैं:
(i) पीएम रैली में कहते हैं कि उनके साथ जुल्म हो रहा है। रईस शाहरुख खान रेल में अपना माल बेचते दिखायी देते हैं और युवराज राहुल गांधी अपना फटा कुर्ता दिखाते घूम रहे हैं। एक आयोग का गठन होना चाहिए, जो खोज करके यह बताये कि अच्छे दिन आखिर आये किसके हैं।
(ii) एक टैक्स लगाया जा सकता है-सन्नी टैक्स, सन्नी से मतलब चमकीले दिनों का टैक्स इसका एक मतलब वह तो है ही, जो आप समझ रहे हैं। गूगल ने सन्नी के जरिये काफी पैसे कमाये हैं, अब समय आ गया है कि वह देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे। सन्नी की गूगल खोज करनेवाले को यह सन्नी टैक्स देना होगा।
(iii) यह तो कतई अत्याचार है जो सिर्फ इमोशनल नहीं है कि पब्लिक पैसे भी दे और टाइम भी दे और किसलिए कि तुषार कपूर की फिल्म देखनी है। तुषार कपूर आदि फिल्म बनायेंगे, पब्लिक को पैसे देंगे फिल्म देखने के, फिर हमारे कर अधिकारी उन दर्शकों से उस रकम का आधा हिस्सा वसूल लेंगे। इस मद से भी अच्छी-खासी कमाई की संभावनाएं हैं। इस कर को टार्चर टैक्स के नाम से भी चिन्हित किया जायेगा।
(स) बजट गीता पेश करते हुये आलोक पुराणिक एकदम कलयुगी कृष्ण रूप धारण करके जो उपदेश देते हैं उसको पूरा आप यहां पर ग्रहण कर सकते हैं
https://www.facebook.com/puranika/posts/10154419596643667
‘दुकानदार, जेबकतरे और सरकार की नजर ‘ शीर्षक इस लेख कुछ अंश आपको पढवाते हैं :
(i) इंसान की और नोटों की एक ही गति है, जो आया है, वह जायेगा। इंसान का हाल भी नोट जैसा है, कोई धीमे-धीमे खर्च होता है, कोई एक ही झटके में खर्च हो जाता है। खर्च होना ही है एक दिन, चाहे बजट बनाओ, या न बनाओ। इंसान या नोट, निपटना सबको है एक दिन।
(ii) दुकानदार ही कब जेबकतरा निकल जाये, पता नहीं चलता। और सरकार कब जेब काट जाये, कोई बता नहीं सकता। कुल मिलाकर तेरी जेब से नोटों का निकलना तय ही है। सरकार, जेबकतरे, और दुकानदार अगर तेरी जेब से नोटों को ना निकलवा पाये, तो तेरे अपने परिवारवाले इस काम को बखूबी अंजाम देंगे।
(iii) एक जमाने में नोट महीना-भंगुर होते थे, यानी महीना भर चल जाते थे। फिर हफ्ता-भंगुर हुए, हफ्ते में निपटने का दौर आया। फिर क्षण-भंगुर हुए, इधर नोट आये, उधऱ नोट खर्च होने का जुगाड़मेंट हो गया।
अब तो नोट ईएमआई-भंगुर हो लिये हैं, अज्ञानी। रकम आने से पहले तय हो लेता है कि कौन सी ईएमआई द्वारा तेरी आय दबोच ली जायेगी।
(द) ’स्विस खाते में कैश- लेश’ में आलोक पुराणिक फ़िल्म, स्विसबैक, कैश-लेश, स्विटरलैंड , अमिताभ बच्चन, किशोर कुमार और मधुबाला आदि को लेकर जो मल्टीस्टार पिक्चर बनाते हैं उसको देखने के लिये इधर पहुंचिये:
https://www.facebook.com/puranika/posts/10154421863868667
हम आपको इस लेख के कुछ अंश पढ़वाते हैं:
(i) जेबकतरे परेशान हैं, पब्लिक की जेब से कैश गायब हो रहा है, कार्ड आ गये हैं-डेबिट कार्ड,क्रेडिट कार्ड, 10 रुपये तक का आनलाइन ट्रांसफर हो जाता है। पर कार्डों से रकम निकालने के लिए पिन-पासवर्ड की जरुरत होती है, जो सच्चा प्यार करनेवाले तक एक-दूसरे को नहीं बताते। इतिहास बताता है कि अपने कार्ड का पिन-पासवर्ड मजनूं ने लैला को ना बताया, रोमियो ने जूलियट को ना बताया। शाहजहां ने शायद मुमताज को बताया होगा, तब ही शाहजहां की इतनी रकम खर्च हो ली कि बेटे औरंगजेब ने डांटकर बाप को कैद कर दिया कि बहुत फिजूलखर्ची मचा ली तुमने।
(ii) छोटों पर सब चोट करते हैं, मरण छोटे जेबकतरों का ही है, उनकी तो डीलिंग कैश में ही है। बड़ेवालों की डीलिंग कैश से नहीं बैंक-ट्रांजेक्शन से होती है, बैंक से लोन लिया, हौट कैलेंडरों और कूल पार्टियों में उड़ा दिया, वापस नहीं किया। बात सिर्फ विजय मल्लाया की नहीं हो रही है। बहुत हैं, जिन्होने एक जेब नहीं कतरी कभी, पर पूरा मुल्क की कतर लिया है। इनमें से कईयों के स्विस -खातों में कैशलैस इंतजाम हैं।
(iii) बैंकिंग, फाइनेंस के नये मोबाइल एप्लीकेशन विकसित करनेवालों ने रोमांस की कई संभावनाओं को एक झटके में खत्म कर दिया है। जो भी
अमाऊंट चाहिए, ट्रांसफर कीजिये, कैश-लैस।
(14) अनूप शुक्ल
ने भी मौके का फ़ायदा उठाया और लिख मारा एक ठो लेख। लेख बांचने के लिये इधर पहुंचिये
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210430369289007
और लेख के कुछ अंश पढ़ने के लिये मुलाहिजा फ़रमायें नीचे:
(i) अक्सर वित्त मंत्री बजट पेश करते हुये एकाध शेर सुना देते हैं। बजट के दरम्यान शेर सुनाने का मकसद यह जाहिर करना होता है कि बजट को लेकर ज्यादा सीरियस होने की जरूरत नहीं है।
(ii) कुछ चैनल सड़क चलते, बस पकड़ते, सब्जी खरीदते, दाल छौकते, अंडा उबालते , चाय छानते लोगों के मुंह के आगे कैमरा अड़ाकर बजट के बारे में बयान उगलवा लेते हैं। लोग भी अदबदाकर बवाल काटने की गरज से कुछ भी बोल देते हैं। आम तौर पर लोगों का ’बजट बयान’ विशेषज्ञों के मुकाबले बेहतर समझ में आने वाला होता है।
(iii) बजट के दौरान तमाम तरह की योजनायें अपने साथ होने वाले सलूक की कल्पना करती हुई सहमी सी पड़ी रहती हैं। उनके हाल मंदी के समय शुक्रवार को ’पिंक स्लिप’ मिलने की आशंका में दिन बताने वाले कामगार सरीखे हो जाते हैं। गये साल मलाईदार मानी जानी वाली योजना की धुकपुकी इस बजट में खटाईदार बन जाने की आशंका से बढी रहती है। शिक्षा बजट, स्वास्थ्य बजट गरीबों की पेट की तरह सिकुड़ने के लिये अपने को तैयार करने लगते हैं। किसानों के कर्ज माफ़ी वाला बजट पूरी गर्मी बीत जाने पर बादल की उमड़-घुमड़ से थोड़ा उत्साहित दीखता है।
यह रही व्यंग्य की जुगलबंदी की पहली रपट। जिन साथियों के लेख रह गये होंगे उनको ’ भूल-चूक, लेनी -देनी’ के हिसाब से शामिल करके अपडेट कर देंगे। जो साथी बाद में लिखेंगे उनके लेख भी नोटबंदी के समय में पेट्रोल पंपों पर पांच सौ , हजार के नोटों की तरह स्वीकार किये जाएंगे और पोस्ट अपडेट होगी।
कैसी रही जुगलबंदी बताइयेगा।
#व्यंग्यकीजुगलबंदी, #व्यंग्य, #vyangy
Sanjay Jha Mastan यह अंक व्यंग्य की जुगलबंदी की बेहतरीन अदायगी का नमूना है ! मैं इसका हिस्सा हूँ इस बात का मुझे गर्व है ! यह मंच मेरा सुंदर संसार है, मेरी रचनाओं को स्नेह स्थान देने और सराहने के लिए सभी लेखक साथियों का ह्रदय से आभारी हूँ ! बजट पर समकालीन व्यंग्य का ये अनूठा अंक संग्रहनीय है ! सबको बधाई ! <3 :) #व्यंग्यकीजुगलबंदी
Ravishankar Shrivastava सही. और, मजा तो तब और रहेगा जब न्यूनतम सैकड़ा भर व्यंग्यकार एक ही विषय पर जुगलबंदी मारने लगें.
Udan Tashtari मस्त विश्लेषण...
ALok Khare wah dadda sabse baada kam toaap karte hain, sameeksha jai ho
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