झलकी पहली : पहले मास्टर की मास्टर झोला लेकर राशन की लाइन में लगा है। मास्टर के आगे बहुत से लोग लगे हैं, मास्टर के पीछे बहुत से लोग लगे है...
झलकी पहली : पहले मास्टर की
मास्टर झोला लेकर राशन की लाइन में लगा है। मास्टर के आगे बहुत से लोग लगे हैं, मास्टर के पीछे बहुत से लोग लगे हैं। बहुत देर हो गई है, मास्टर अपनी ही जगह खड़ा है। पीछे के लोग उसे ठेल-ठेलकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। मास्टर आगे बढ़ने के लिए हाथ-पांव मारता है, तो एक तगड़ा-सा आदमी हाथ की कुहनी से उसके पेट पर आ मारता है। मास्टर पीड़ा से आकर पेट पकड़कर बैठ जाता है।
-पेट पर क्यों मारा?
-तो उठो, पीठ पर मार देते हैं।
मास्टर डर के मारे बैठा रहता है।
-मैं बुद्धिजीवी हूं मेरे पेट पर मत मारो।
-बुद्धि का इधर कोई काम नहीं। लाठी हो तो भैंस हांक लो, अन्यथा झोला उठाओ और रास्ता नापो।
-पर मुझ पर भावी पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है। मुझे गल्ला नहीं मिला तो मैं खाऊंगा क्या? और खाऊंगा नहीं तो पढ़ाऊंगा क्या?
-अबे, चल दायित्व वाले! दो कौड़ी का मास्टर, पीढ़ी के निर्माण की बात करता है। अब पीढ़ी को तेरी जरूरत नहीं रही। वह अपना निर्माण स्वत: कर रही है। पीढ़ी के निर्माण की बात करके तू अपनी औकात भूल रहा है। तेरी हस्ती ही क्या है-पीढ़ी की फीस पर पलने वाला!
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पीछे से दो धर्मात्मा आगे बढ़कर मास्टर को उठाकर खड़ा कर देते हैं। मास्टर अब भी पेट सहला रहा है।
क्या मास्साब आप मास्टर होकर नाटक करते हैं? -धर्मात्मा नं. 1 ने कहा।
नाटक कौन कर रहा है? मेरे पेट पर मार दिया गया है। एक मास्टर के पेट पर मारते थोड़ी शर्म तो आनी चाहिए थी।
तोकोई लात थोड़े ही मारी है। पेट पर लात मारना पाप है, कुहनी मारना नहीं। -मारने वाले का स्वर।
-अब लात मारने की तमन्ना मन में रह गई हो तो वह भी मार लो।-मास्टर ने गांधीवादी लहजे में कहा।
मारने वाला मारने के लिए लात उठाता है।
-अरे-अरे, क्या कर रहे हो धर्मात्मा नं. 1 ने कहा।
-मार लो, मार लो। गरीब मास्टर को सभी लतियाते हैं। -मास्टर का दयनीय स्वर। -अब खुद ही कह रहा है तो मार भी दो बेचारे को। धर्मात्मा नं. 2 ने दया दिखाते हुए कहा।
मारने वाला लात मार देता है। मास्टर पेट पर लात पड़ते ही गश खाकर गिर पड़ता है। मारने वाला और दोनों धर्मात्मा उसे घसीटकर एक ओर कर देते हैं। तीनों के चेहरे पर लाइन में एक आदमी कम हो जाने की प्रसन्नता का भाव है।
-बुद्धि बेहोश पड़ी है। -मारने वाला।
पीढ़ी के निर्माण का दायित्व बेहोश पड़ा है।-धर्मात्मा नं. 1।
-बेचारा। -धर्मात्मा नं. 2।
-अरे-अरे, बेचारा-वेचारा मत करो। 'सिम्पैथी' दिखाओगे तो फिर आकर लाइन में लग जाएगा।-मारने वाला।
बेहोश मास्टर थोड़ी-सी आखें खोलकर कराह भरता है। मारने वाला, धर्मात्मा नं. 1 और धर्मात्मा नं. 2 तीनों ठहाका मारकर हंसते हैं।
झलक दूसरी : दूसरे मास्टर की
स्थान : मास्टर की खोली। समय : दिन के साढ़े बारह बजे। तापमान : पसीने छूट रहे हैं। वातावरण : खोली के बाहर हवा की लू और खोली के भीतर पसीने की बू। पात्र : मास्टर और एक बीमा एजेंट जमीन पर बोरा बिछाकर बैठे हैं।
-बीमा कराया?
-नहीं।
-कितने बच्चे हैं?
-सात।
-सात! सात क्यों?
-क्या करूं! अब होने बंद हो गए।
.-बीवी तो एक ही है ना?
-हां। वह भी अब पूरी नहीं बची है।
-तो कितने का बीमा कर दूं?
-बीमा नहीं कराना।
-क्यों?
-पैसे ही नहीं बचते। प्रीमियम कहां से भरूंगा?
-फिर भी, सात बच्चों और इकलौती बीवी का आपके बाद?
-मेरे जाब' में कोई 'रिस्क' नहीं।
-कमाल है! पढ़ते-पढ़ते आप पागल हो जाएं, दिमाग की नस फट जाए... -कैसे फटेगी मैंने पढ़ना ही छोड़ दिया है।
-लेकिन मास्टर का काम बिना पड़े नहीं चल सकता।
-चला लेते हैं।
-कैसे?
- 'ट्रेड-सीक्रेट' बताए नहीं जाते।
-अच्छा! तो कितने का बीमा कर दूं?
-कहा न, कि मेरे जाब में कोई रिस्क नहीं।
-रिस्क नहीं! कमाल है। अभी-अभी एक मास्टर को नकल पकड़ने के अपराध में एक लड़के ने परीक्षा-हाल में छुरा भोंक दिया।
-आपका ख्याल गलत है। लड़के ने सिर्फ जूता मारा था।
-जी, आपका ख्याल गलत है। जूता किसी और मास्टर को मारा होगा। मैं जिसकी बात कर रहा हूं उसे छुरा भोंक दिया गया।
-फिर?
-फिर क्या, मास्टर टें बोल गया।
-यानी?
-यानी मर गया।
-बिलकुल मर गया?
-जी हां, तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गया। 'इट वाज एन इंस्टांटेनियस डैथ।' मास्टर क्षणभर के लिए भौंचक्का-सा हो जाता है।
तो फिर कितने का बीमा कर दूं?
-कह दिया न, कि मेरे जाब में कोई रिस्क नहीं।
-कमाल है! खुदा न खास्ता आपको किसी ने छुरा...
कैसे भोंकेगा मैं छुरा झुकवाने का काम ही नहीं करूंगा।
-अपना नैतिक दायित्व भी नहीं निबाहेंगे जमाना आप पर थूकेगा।
-तो छुरा भुंकवाना या जूता खाना नैतिक दायित्व है?
-मैंने यह कब कहा? ये तो नैतिक दायित्व निबाहने के परिणाम मात्र हैं।
-मुझसे यह नहीं होगा।
-पर आप पर भावी पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है आप कैसी गैर-जिम्मेदारी की बात करते हैं?
-अभी आपने फरमाया कि एक नैतिकता के दावेदार को छुरा भोंक दिया गया?
-जी हां।
-उसके नाम पर कोई रोने वाला है?
-जी, उसकी बीवी दहाड़ मार-मारकर रो रही है।
-और?
-और उसके बच्चे बिलख-बिलखकर रो रहे हैं।
-हूं। इनके अलावा कोई और?
-जी, और कोई क्यों रोने चला?
-तो आओ बेचारे के नाम पर हम रो लें।
-लेकिन रोने के बाद बीमा करवाना पड़ेगा
-पहले नैतिकता की मौत पर तो रो लें। फिर बीमे के बारे में सोचेंगे।
सोचेंगे यानी रो लेने के बाद भी केवल सोचेंगे ही! नहीं-नहीं। भावुक हो जाता है।) तुम बीमा करवा ही लो, मास्टर। तुम पर भावी पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है। तुम अपना दायित्व निबाहोगे। नकल पकड़ना तुम्हारा फर्ज है, तुम उसे करोगे। तुम अनैतिक काम नहीं होने दोगे, मास्टर। (स्वर दयनीय हो आता है।) और. -. और उधर लड़के छुरा लेकर घूम रहे हैं, मास्टर। वे.. वे तुम्हें छुरा जरूर भोंकेंगे, मास्टर। तुम टें बोल जाओगे, मास्टर। यस मास्टर, इट विल बी ए केस आफ इंस्टांटेनियस डैथ। और... और तुम्हारे सात-सात अनाथ, अबोध, मासूम बच्चों और तुम्हारी इकलौती, निरीह, बेबस, बेसहारा, अबला पत्नी का तुम्हारे बाद क्या होगा? सोचो मास्टर, जरा तो सोचो.. मेरे भी सात बच्चे हैं, इकलौती बीवी है, कुछ तो सोचो। तुम्हें बीमा करवाना ही होगा, मास्टर।
बीमा एजेंट फूट-फूटकर रो पड़ता है। मुद्रा से लगता है वह अपने ही दुख से दुखी है। मास्टर भी उसके गले लगकर जोर-जोर से रोने लगता है। दोनों काफी देर तक रोते रहते हैं। फिर बीमा एजेंट अपने कागज, फाइल इत्यादि बटोरकर चुपचाप खोली से बाहर निकल जाता है।
झलक तीसरी : तीसरे मास्टर की
मास्टर कमरे में उकडूं बैठा है। चारों ओर परीक्षा-कापियों का अंबार लगा है। मास्टर पन्ने गिन-गिनकर नंबर दे रहा है। पास ही उसकी मैट्रिक-फेल बीवी और नवीं कक्षा का विद्यार्थी उसका बड़ा लड़का बैठे हैं। सब-के-सब कापियां जांच रहे हैं। कापियां इंटर, बीए, से लेकर एमए तक की है।
दरवाजे पर बिना दस्तक की औपचारिकता निबाहे, दो साये उभरते हैं। एक बड़ा आदमी है और दूसरा फिल्मी नायकों की-सी वेशभूषा में बीस-बाईस वर्ष का नवयुवक।
-आ सकते हैं?
-अभ्यागत का स्वागत है । -क्या हो रहा है?
-आलू छील रहा हूं । -मास्टर कहना चाहता था लेकिन बोला-जी, कांपी जांच'' हूं श्रीमान ।
किस क्लास की?
-जी, बीए. की ।
-इन्हें जानते हो? -बड़े आदमी ने लड़के की ओर इंगित किया ।
-हर नखू खैरे को जानना आवश्यक तो नहीं ।-मास्टर कहना चाहता था, लेकिन विनम्रता से बोला- जी, इससे पहले कभी दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ ।
-आप बी.ए. में बैठै हैं ।
-मैं धन्य हुआ आपके दर्शन कर । कहिए, क्या सेवा करूं?
-जरा, इनकी कापी निकालिए ।
-जरा, इनकी कापी निकालिए।
-और ये कापियां भी। -लड़के ने कोई आठ-दस रोल नंबरों की लिस्ट थमा दी।
-ये क्या आपके बापों की कापियां?? -मास्टर कहना चाहता था। लेकिन फिर विनम्रता से बोला-ये शायद आपके मित्रों की कापियां होंगी?
-जी हां, लंगोटियों की हैं।
-अच्छा। मैं समझा था फुलपैंटियों की हैं? -मास्टर बुदबुदाया। फिर बोला-लेकिन
नंबर बढ़ाना अनैतिक कार्य है।
बढ़ा भी दीजिए, क्या जाता है? -साम-नीति।
-यह अनैतिक कार्य है।
-आपको एक कांपी जांचने का कितना मिलता है?
-हमसे सौ रुपए लो। मगर नंबर बढाओ।-दाम-नीति।
-नहीं, यह कार्य अनैतिक है।
-तुम्हें मालूम है कि यदि यह न हुआ तो बीच चौराहे पर तुम्हारी चमड़ी उधड़ सकती है। कालेज का चेयरमैन मेरा मामा है, तुम्हारी नौकरी जा सकती है। तुम दाने-दाने को मोहताज हो सकते हो। तुम्हारे बच्चे टिन का कटोरा लेकर दर-दर की भीख मांगने को फिर सकते हैं। -दंड नीति।
-जान चली जाए लेकिन अनैतिक काम नहीं करूंगा। बोटी-बोटी कट जाए, खून
का कतरा-कतरा बह जाए, लेकिन यह मुझसे नहीं होगा।
बड़े आदमी ने पैंतरा बदला। अब वह भेद-नीति का अनुसरण कर रहा था।
-अच्छा, तुमने चगन के नंबर बढ़ाए थे न?
-कौन कहता है? सबूत?
-सबूत दूंगा। और तुम छात्रा कृष्णाबाई को परीक्षा-हाल में चिट सप्लाई करते थे
न.
-सबूत?
-सबूत दूंगा। अच्छा, छात्रा रामकली और लक्ष्मीबाई से तुम्हारा इश्क काफी दिनों तक चलता रहा था न?
मास्टर की बीवी और लड़का उठकर अंदर चले जाते हैं।
-और रामकलीबाई के गालों को सहलाकर बालों में फूल खोंसते समय छात्र चंगीलाल और मंगीलाल ने तुम्हें रंगे हाथों पकड़ा था न?
मास्टर साष्टांग दंडवत की मुद्रा में बड़े आदमी के समक्ष लेट जाता है।
-बस-बस दयानिधान, अब और मत खोलो।
-तो फिर कांपी खोलो।
मास्टर ने रोल नंबर ले लिए और कापियां खोलने लगा।
-अरे, ये तो हिन्दी की कापियां हैं! ये मेरे पास नहीं हैं।
-क्यों, हिन्दी तो आप ही पढ़ाते हैं न?
-हां, पर कापियां अंग्रेजी की जांच रहा हूं।
-भला क्यों?
-हिन्दी की 'एग्जामिनरशिप' नहीं मिली।
-और अंग्रेजी की मिल गई?
-जी, मैंने अंग्रेजी भी पढ़ी है।-इसके बाद मास्टर 'नरी वा कुंजरो वा' की स्टाइल में धीरे-से बुदबुदाया-दरअसल फूफाजी अंग्रेजी के हेड आफ दि डिपार्टमेंट हैं।-मास्टर जमीन से चार अंगुल ऊपर तकिये पर बैठा था। झूठ बोलकर तकिया एक ओर खिसका दिया और जमीन पर आ टिका।
कमाल है! पढ़ाते कुछ हैं, जांचते कुछ हैं।
-हें हें हें... मास्टर घिघियाया-यही तो एक जरिया है धन-प्राप्ति का। इस जाब में रिश्वत, घुसखोरी नहीं चलती न। बड़ा आनिस्ट आब है। दोनों उठकर चले जाते हैं। मास्टर फिर पन्ने गिन-गिनकर नंबर देने लगता है।
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(साभार - हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन - राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भोपाल)
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