उपन्यास अंश / हम न मरब / ज्ञान चतुर्वेदी

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(हम न मरब - ज्ञान चतुर्वेदी का बेहद लोकप्रिय, साथ ही बेहद विवादित व्यंग्य उपन्यास है. प्रस्तुत है उपन्यास के कुछ अंश) तीसरा दिन है आज। बब्...

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(हम न मरब - ज्ञान चतुर्वेदी का बेहद लोकप्रिय, साथ ही बेहद विवादित व्यंग्य उपन्यास है. प्रस्तुत है उपन्यास के कुछ अंश)

तीसरा दिन है आज। बब्बा की मत्यु के बाद से ही घर में उत्सव सी चहल-पहल है।

ढेर- सारे रिश्तेदार। लोग। लुगाई । अंडी-बच्चे । बूढे। जवान । भर गया है घर, रिश्तेदारों से। बल्कि छलके जा रहा है। खूब हल्ला-गुल्ला। खूब चें-चें, पें-पें। खूब . चिल्ल-पों। विकट हो हल्ला। और रोना गाना ? वह तो बहुत ही कम। ही-ही, ठीठी ही ज्यादातर। फिर भी, बीच-बीच में रुदन के स्वर भी हैं। क्या करें ? मौका ही ऐसा बन जाता है कि बीच-बीच में रोना भी लाजिमी। रोना न भी आए, तो भी रोओ और रोने के मामले में एक बात तो है। एक बार झूठ-मूठ भी रोना शुरू कर दो तो फिर कुछ देर में एकं सही-सा, काम चलाऊ रोना भी आ ही जाता है। अन्यथा तो ऐसा उत्सवी माहौल है कि पहले से पता न हो तो बताना कठिन ही होगा कि घर में शादी की भीड मची है, कि गमी की ? जब-तब रोना गाना हो जाता है तो बात साफ हो जाती है।

जैसे ही कोई नया रिश्तेदार क्षितिज पर प्रकट होता है, बल्कि प्रकट होना शुरू ही करता है वैसे ही इधर अच्छे भले बतियाते, हंसते, खिलखिलाते, मस्त बैठे परिवारजन अचानक ही तडप कर यूं बिलखने लगते हैं मानो किसी ने बरछी घुसेड दी हो। रोने का काम, परिवार की औरतों के जिम्मे है। उन्हें ही इसका विशेषज्ञ तथा प्राकृतिक हकदार माना जाता है। दूर से पथारा हुआ रिश्तेदार, रोते हुओं के बीच मुंह लटकाए-लटकाए प्रवेश करता है। वह जानता है कि उससे, कम-से-कम, मुंह लटकाने की तो उम्मीद - की ही जाती है। वह आता है और रोतों-सिसकतों के बीच मुंह लटकाए बैठ जाता है। यदि वह ज्यादा ही दुनियादारी वाला निकला तो साथ में स्वयं भी थोडा बहुत सिसक लेता है, या कम-से-कम आंखों की तरैंया ही भर लेता है वर्ना प्राय: तो वह कुछ देर तक बस सिर झुकाए, यूं ही बैठा रहता है। वह भी आश्वस्त रहता है कि यह सारा ' तमाशा मात्र कुछ मिनटों का ही मामला है। सभी को जल्दी है। लंबा नहीं खिंचने वाला। अभी थोडी देर तक रो-धोकर सारे लोग अंतत: अपनी वाली पर आ ही जाएंगे। और यही होता भी है। ' .

- वैसे तो परिवार की सभी औरतें बढिया ही रो लेती हैं परंतु नन्ना की पत्नी अर्थात घर की मंझली बहू इसकी उस्ताद मानी जाती हैं। रूदाली करने में उसकी हैसियत लुगासी में ही नहीं, वरनू आसपास के इलाकों में भी एक मिथक जैसी बन चुकी है अत: औरतों को उनसे ईर्ष्या हो जाए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं।... मंझली, मानों रोने वाली ऑटोमेटिक मशीन जैसी है। अच्छी भली, बैठी बतिया रही हैं। हंस बोल रही हैं। तभी दूर से कोई नया रिश्तेदार आता दिखाई दे गया कि बस ! मानो अंदर कोई खटका टाइप चीज दब जाती है। वे अचानक ही पछाडें गवाने लगती हैं। सभी चकित होते हैं कि वे ऐसा, आखिर करती किस तरह है ? सारे इलाकों में उनकी इस प्रतिभा का जिक्र आदर, आएचर्य, ईष्या तथा मजाक की मिलीजुली भावना के साथ होता है। वे एकदम अजनबी की मौत पर भी यदि संयोगवश या किसी के साथ पहुंच जाएं तो वहां भी रोने का सारा उत्तरदायित्व ऐसी तत्परता तथा कुशलता से अपने हाथों में ले लेती हैं कि घर के मूल-वासी तथा मृतक के बाल-बच्चे आदि शर्मिंदा रह जाते हैं कि वैसे बाप तो हमारे मरे हैं, परंतु हमें इत्ता रोना क्यों नहीं आ रहा है जित्ता इनको आ रहा है ?

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...कोई कल ही मंझली की इस बात की प्रशंसा करते हुए इसे ईश्वर के चमत्कार का दर्जा दे रहा था जिसने मंझली में आंसुओं की टंकी फिट करके इस संसार में भेजा है, और टंकी भी ऐसी चमत्कारी कि मंझली जब तब इसके सारे नल एक साथ खोल देती हैं, परंतु टंकी फिर भी भरी-की-भरी ही बनी रहती है।...साथ में उनके गले में भी ईश्वर ने कुछ अनोखा यंत्र फिट किया है। तभी तो वे ऐसे ऊंचे स्वर में रोती हैं कि लोगों ने उनके रुदन पर छत के कबेलू तक खिसकते पाए हैं। किंवदंतियां सुनाई जाती हैं उनके बारे में।... और वे केवल रोती ही नहीं हैं।

_ रोते हुए, वे जिस ताबड्तोड तरीके से दसों दिशाओं में हाथ-पांव फेंकती हुई पछाडें खाती हैं उसे तो केवल देखकर ही समझा जा सकता है। कभी उनकी तरह आप स्वयं अपने हाथ-पांव एक मिनट को भी फेंक कर देखो--दस दिनों तक अपने हाथ-पांव दबवाते फिरोगे । मजाक की बात नहीं कह रहे हैं हम। मंझली जब इतें से उतें, और उतें से इतें गिरती हैं और औचक लातें चलाती हैं तो आसपास के रोने वाले लोग भी उनसे चार फीट हट कर ही रोते हैं। जो ऐन वक्त पर हट न पाए वे फिर उनकी करारी लात खाके रोते फिरते हैं।

वैसे लुगासी की अन्य महिलाएं हमेशा ही मंझली की रूदाली का साथ देने का भरसक प्रयास करती तो हैं परंतु उनके जैसा दिव्य स्तर का प्रदर्शन प्रत्येक नश्वर जीव के बस का ही नहीं। यदि उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब शहनाई पेश कर रहे हों तो फिर हर ऐरा गैरा तो तबले पर उनकी संगत नहीं दे सकता न ? हर शख्स गुदंई महाराज, जाकिर हुसैन या अल्लारख्वा तो हो नहीं सकता न ? औरतें साथ नहीं दे पातीं । हांफ जाती हैं। चक्कर आने लगते हैं। थक जाती हैं। शुरुआत में, कुछ उत्साही नादान औरतें मंझली के साथ उस स्तर पर रो भी लें परंतु कुछ देर में ही वे सिसकने पर आ जाती हैं और उनका रुदन मंझली के मुख्य स्वर के पीछे पार्श्व संगीत की हैसियत का बन कर रह जाता है।

फिर यहां तो मंझली के स्वयं के घर का मामला है। उनके अपने घर में मौत हुई है। सो मंझली रोके नहीं रुक रहीं । तनिक-सा भी मौका मिला कि रह-रहकर भड़भड़ाकर रोने लगती हैं। विगत तीन दिनों में मंझली ने रूदाली के नए आयामों को स्पर्श किया है। वे नए सिरे से घर की औरतों के लिए ईर्ष्या का विषय बन गई हैं। सभी चाहती हैं कि मंझली को कैसे नीचा दिखाया जाए। पर चाहने मात्र से क्या होगा ?...मंझली का रुदन तो मानो सारे परिदृश्य को अपने कब्जे में किए हुए है। उनका आप क्या कर लोगे ?

भीड बहुत है | हमने बताया ही। ढेर सारे रिश्तेदारों की भीड है। बब्बा के चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई । सभी मय पत्नी तथा बाल-गुपालों के आए हैं। बब्बा की चचेरी, ममेरी, फुफेरी बहनें। जीजा लोग। उनके भी बाल-गुपाल । समधी लोग । फिर ऐसे ही सारे रिश्तेदार नन्ना, गोपी, गप्पू आदि की ससुराल तरफ के भी । सबके साले । सबके ससुर । सबकी सालियां, सरहजें, नंदें, भौजाइयां। उन सबके भी बच्चे । उनके पिताजी, दादाजी और अन्य नाना किस्म के वयोवृद्ध भी। मित्रगण भी । यूं समझ लें कि जिसने भी बब्बा की मौत का सुना वही उठकर यहां लुगासी चला आया है और ऐसे उत्साहपूर्वक आया है मानो सदियों से इस घटना की प्रतीक्षा में बैठा रहा हो ।...और अभी भी कोई अंत नजर नहीं आ रहा है। नित्य नए रिश्तेदार आते चले जा रहे हैं। खानदान बहुत बडा है। रोनेवालों की कोई कमी नहीं।

जिसे जहां जगह मिलती गई है, वहीँ जगह पकडकर पडा, बैठा, खडा या लेटा है। बरामदे में बडी-बडी दरियां बिछा दी गई हैं। चबूतरे पर बडा-सा फर्श फैला दिया गया है। बीच अहाते में एक आधी अधूरी सी टेंटनुमा रचना भी खडी की गई है। टेंट में भी दरियां, तकिए पडे हैं। आओ । बैठो । बतियाओ । टाइम काटो । लोग बतिया भी रहे हैं।...और बताओ ? कौन सी गाडी से पथारे ? जीप पकडी कि टेम्पू ? राठ तक तो पहुंचने में परेशानी नहीं हुई पर उतें से इतें पहुंचबे में मैयो हो गई । जे तो है।...सड्क भैंचो बडी खराब है और हरामी लोग जीप की सीटों में से स्पंज नोच के ले गए हैं। सीट में इतें उतें से रिप्रंग के तार निकरे पडे हैं। सच्ची ... आप तनिक से चूके या गाडी ने दचका खाया कि तार स्साला सीधे आपकी चूतड में \...अच्छा, अच्छा, तभी तो आपके मुंह पे इत्ता दर्द दिख रहा है। वोई तो हम कहें ! हमें भी जेई लग रहा था कि बब्बा की मौत का तो इत्ता दर्द होना नहीं चाहिए। अब बात साफ हुई न । पिछवाडे में लोहा गड जाए तो कल्लाएगा ही।... _

लोग, समूहों में यहां-वहां बैठे हैं। हँसी-ठट्ठा चल रहा है। गप्पें चल रही हैं। चाय चल रही है। नाश्ते का जुगाड बनाया जा रहा है। औरतें यह पता करती फिर रही हैं कि उनके आदमी और बच्चों ने खा पी लिया कि भूखे प्यासे ही भटक रहे हैं? शिकायत की जा रही है कि रात वाली सब्जी में बड़ी मिर्ची गेर दी थीं बिन्नू सो

आज तनिक देख लेना।...यार इत्ती मिर्ची तो खैर नहीं थीं।. हमें तो भौत लगीं भैया।...सच्ची कह रहे हैं। इत्ती मिर्ची हतीं कि सुबे-सुबे जब निस्तार को गए तो नीचे तो मानो लंकाकांड मच गया ।...सच्ची यार, हंसबे की बात नहीं है। जो हम पे गुजरी है, वही बता रहे हैं।...बातें, बस बातें \... भैया, हमारी धुतिया देखी किसी ने। नहाबे के बाद हमने इतें ही, तार पे डाली थी, अब दिख नहीं रही ? ठीक से देखों, मामाजी। इतें -उत्तें ही कहीं पडी होगी। पुरानी-धुरानी धुतिया को भला कौन चूतिया ले जाएगा ?...आप तो ऐसे घबराए हो जैसे लाख दो लाख रुपये उठा लिए हों किसी ने ?

हद्द है भाई।...हद्द काहे की ?...धुतिया चाहे कित्ती भी पुरानी रही हो पर नंगेपन को तो ढकती थी कि नहीं ?...फिर ?...जे तो सही बात कही मामाजी ने।...

मामाजी तो सही ही कहते हैं।...तभी तो शायद किसी ने धुतिया उठा ली कि बेटा भौत जादा सही बातें कहते फिरते हो न, अब देखियो \...बातें । फालतू की टिप्पणियां ।...तुम कितें जा रये ? अरे हम पंडित के उतें रज्जन के साथ जा रहे हैं। कल अस्थिसंचय के लिए जाना है न ।..भइया, जा रहे हो तो लौटते में हमारे लाने बीडी का बंडल जरूर लेते आना । भूल न जाना भट्टया जी । बिना बीडी खेंचे अपनी उतरती ही नहीं । एकदम भाप के इंजन वाला मामला मान लो। धूप के टुकडे । छांव के चहबच्चे । लोग यहां-वहां धूप पकड के बैठ गए हैं। कुछ लोग छांव में बैठे सिहर भी रहे हैं। पर कौन तो उठकर धूप तलाशे ? ठंड के दिन । सुबह की हवा। जो जहां बैठा है, इत्मिनान से बैठकर मजे से गप्पें मार रहा है। इधर-उधर की बातें। दुनिया का हर विषय। मौत के उपलक्ष्य में जीवन का मेला लगा हुआ है।

रज्जन दों दिनों में ही अघा गए। हर नया मेहमान पूरे विस्तार में जाकर उनसे जानना चाहता है कि बब्बा मरे

तो आखिर मरे कैसे ? हर नया व्यक्ति इस मसले की गहराई में उतरना चाहता है। चाहता है कि रज्जन अपनी पीठ पर उन्हें बांधकर उस गहराई तक ले चलें। प्रश्न सारे वही के वही हैं। वही प्रश्न बार-बार हैं। प्रश्न चारों तरफ से हैं। जो आता है, वही रज्जन को पकड्ता है। करता है वही वही बातें। वही पूछताछ ।...तो कब मरे बब्बा ? कैसे मरे ? हो क्या गया था ? पहले से ही बीमार रहे क्या ? वोई तो, हमें खुद दो महीने पहले ही झांसी की जज्जी में मिले हते । झांसी की अदालत में हमारे पांच केस लगे हैं। हम गए थे लालाराम मर्डर केस में, गवाही देबे । उतें हम क्या देखते हैं कि जज्जी के भरांडे में, दीवार से टिके बब्बा ठाठ से बीडी पी रहे हैं। तब तो बढिया हते । बल्कि हमने उन्हे तो उन्हें जर्दे का पान बनाकर भी खिलाया। एकदम फस्सकिलास धरे थे। ऐसे बढिया लग रहे थे कि अभी लाठी पकड़ा दो तो अदालत के भरांडे में ही ऐसी कस के घुमाएं कि सारे फैसले दो मिनट में ही निबटा दें। सच्ची।... और कल पता चला कि बे ही बब्बा!... जिंदगी का भैंचो, कोई भरोसा नहीं है, भैया।... ऐसी बातें या इस तरह की बातों को प्रस्तावना के पश्चात् वे असली मुद्दे पर आते हैं कि तुम तो जे बताओ रज्जन कि बब्बा को हुआ क्या था? हर आदमी अलग-अलग तरह से यह पूछना चाहता है, और, पूछते हुए भी पूछता कम, बताता ज्यादा है। वह जीवन और मृत्यु की फिलॉसफी बताता चलता है।' कैसे मरे होंगे '--इसके बारे में अपनी राय भी देता है।यह आश्वासन भी देता है कि बब्बा नहीं रहे तो भी क्या हुआ, हम तो हैं, तुम चिंता न करना \...रज्जन किस किस की सुनें ? अघाना ही था। अघा गए। हां, पूछने वाले अवश्य नहीं अघाये। वे पूछते ही रहे। खामोंखां भी पूछते रहे।

। घर में रज्जन ही एक ऐसे सदस्य हैं जो उम्र, हैसियत, कार्यशैली तथा रिश्तेदारी में मशहूरी के कारण ऐसी पोजीशन में हैं, जहां से सभी को गुजरना है। हर काम में वे ही तो आगे दिख रहे हैं। हर बात उनसे ही पूछकर हो रही है। वे परम सक्रिय हैं।

हर शख्स को वे ही सामने दिखते। सभी को पता है कि खानदान में रज्जन महत्त्वपूर्ण भी हैं और हरामी भी। हरामीपन का इस तरफ बडा सम्मान है। समाज में हर तरफ होता ही है। जो भी नया रिश्तेदार अवतरित हो रहा है वो ही अपना बिस्तर, पेटी खटिया के नीचे सरका के सबसे पहले रज्जन को ही खोजता है। वे वहीँ मिल भी जाते हैं। चबूतरे पर । या टेंट के आसपास डोलते । चाय पीते । काम वालों को फटकारते । रज्जन को पाते ही मेहमान बेहद आत्मीयता से उनका हाथ पकड लेता है। कोई कोई गले भी लगाता है। कोई तो रोने तक की कोशिश करता है परंतु फिर रज्जन को एकदम सामान्य पाकर वह यह निरर्थक कोशिश छोड देता है। वह बस यही पूछता है कि भैया जे हुआ कैसे ?...शुरू-शुरू के दिनों में तो रज्जन भी भरपूर रुचि लेकर विस्तारपूर्वक सारा विवरण देते थे। उत्साहपूर्वक बताते थे कि कैसे पहले तो बब्बा को खांसी-खखार में खून आता रहा, कैसे बब्बा ने कभी दवाई नहीं ली, कैसे बब्बा डॉक्टरों द्वारा मना करने के बाद भी बीडी को परम आवश्यक तथा परम आदरणीय मानकर अंत समय तक खेंच के पीते रहे, कैसे बब्बा ने आखिरी पल तक हमें खबर ही नहीं होने दी कि ऐसे धोखा देकर अचानक हमें छोडकर जाने वाले हैं और फिर कैसे उस सुबह जब बब्बा उठे ही नहीं तब जाकर हम लोगों को पता चला कि... ।

तो पहले दिन तो रज्जन को भी खूब उत्साह रहा। वे बब्बा की मृत्यु का किस्सा कुछ ऐसी नाटकीयता तथा विस्तार से बयान करते कि मुर्दा खड़ा कर देते। वे सूक्ष्म विवरणों में जाते। यह बताते हुए कि बब्बा कैसे ' सुबे-सुबे' एकदम 'मूं बाये' पडे मिले, रज्जन बाकायदा अपना मूं बाकर बताते । बब्बा किस तरह चित्त पडे मिले थे, इसके लिए वे चित्त तो खैर नहीं होते थे पर ही चित्त होने का सटीक पोज बना देते और वाकई चित्त होने टाइप ही सीन खींच देते। ;

फिर अगले दिन से रज्जन इस सबसे थकने लगे, फिर अघाने लगे। फिर उनका मन सामने वाले खड़े प्रश्न पूछने वाले को थपड्याने तक का होने लगा जो संभव नहीं था। पर कब तक, वे वही-वही घटना पचास लोगों को सुनाते ? तो एकरसता तोडने के लिए वे अब कथा में अपने ही बनाए नाटकीय मिर्च मसाले डालने लगे। एक दो को तो यह तक बताया कि बब्बा ने तो हमें दो तीन दिन पहले ही बातों-बातों में इशारा कर दिया था कि रज्जन, भैंचो तुमें हमारी गाली-गलौज पे बडा एतराज होता है न ? तो जान लो कि तुम जल्दी ही इस गाली-गलौज को सुनने को भी तरस जाओगे, अब हमारी चलाचली की बेला आय गई है।...ऐसी बात कह रहे थे, जबकि हते एकदम फस्सकिलास । हमने कही भी कि काहे हमें डराते हैं ? काहे चूतिया बनाते हैं ? तो लगे जोर-जोर से हंसने ...इस तरह रज्जन यह नाटकीय तत्व डालकर कहानी को रोचक बना देते थे कि बब्बा को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका था। क्यों हो गया था ?...पुण्यात्मा थे न ! सभी पुण्यात्माओं को हो जाता है। सुनने वाला गद्गद हो जाता। वह भी इस सिलसिले में अपने अनुभव बताता कि कैसे उनकी माताजी ने उन्हें पहले से बता रखा था कि इस साल की बसंतपंचमी को ठीक दस बजे उनके प्राणांत हो जाएंगे। तो नौ बजे तक तो बे ऐन बढिया मुस्काती_॰ रहीं और देखिए कि दस बजे एकदम मूं बा दिया ! जैसा तुम अभी बब्बा का मूं बता रहे थे न, ठीक वैसा नए रिश्तेदार तो अब भी आ ही रहे थे।

' बब्बा कैसे मरे' वाला किस्सा सुनने की इच्छा भी सभी रखते थे। तो अब अगले पांच रिश्तेदारों को उन्होंने यह बताया कि बब्बा तो मरने के बाद भी मुस्कुराते दिख रहे थे। जरूर ही उन्होंने हंसकर यमदूतों का स्वागत किया होगा। यह भी उनके पुण्यात्मा होबे की निशानी ही कहाई ।...क्यों न फूफाजी 2...फूफाजी क्या कहें ? वे भी हां में हां मिलाते । कहने लगे कि मरे आदमी का मूं देख के ही पता चल जाता है कि मरते टेम उसके मन में क्या खेल चल रहा था ?...रज्जन इस पुण्यात्मा वाले कोण से भी धीरे-धीरे त्रस्त हो गए। अब उन्होंने बब्बा की मौत के किस्से में जासूसी तत्व घुसेड दिया। बताने लगे कि सुबे-सुबे, शुरू-शुरू में तो जब हमने उनका शरीर देखा तो भैया, हमें तो उनके होंठ नीले लगे। हमने जेई कही कि कहीं बब्बा को जहर-फहर तो नहीं खिला दिया किसी ने भैया?

या रात में सांप-आंप ने काट-कूट लिया हो ? पिताजी ने कहा कि बब्बा जैसी पुण्यात्मा - को कौन जहर देबे वाला है ? नन्ना कहने लगे कि बुढापे में तो दुश्मन भी जहर नहीं देता है। बूढा तो वैसेई मरने वाला प्राणी होता है तो फिर काहे को कोई जहर खराब करेगा ?...फिर हमने ही अच्छी तरह लाइट-फाइट जला के देखा तो असलियत पता चली । रात में बब्बा ने जामुन खाए थे सो उसी का रंग होंठो पर था। गुठलियां तखत के नीचे पडी हुई थीं ।...रिश्तेदार जानता है कि विशुद्ध गप्प है यह। सर्दी के मौसम में जामुन की बात कर रहे हैं रज्जन। पर कौन तो बोले ?

_ रज्जन इससे भी ऊब गए। बल्कि वे बब्बा की मृत्यु कैसे हुई, इस प्रसंग से ही ऊब गए। अब यदि कोई नया आदमी अपनी तरफ आता दिखता तो उनके मन में उबाल-सा उठने लगता कि अब यह पूछेगा कि बब्बा आखिर मरे कैसे ? वे अंदर तक चिढ जाते। पर क्या करें ? जवाब तो देना ही पडेगा न। देते परंतु अब उत्तर बेहद संक्षिप्त होते |

दृश्य कुछ यूं बनता।

कोई रिश्तेदार अभी-अभी पहुंचा है। सबसे मिल-मिलाकर वह दरी पर बैठ गया है। उसी दरी पर कुछ दूरी पर रज्जन भी बिराजे हुए हैं। रज्जन ने उन्हें देखकर किसी को फटकारा है कि बे पलेरा वाले चच्चा आकर इतें दरी पर बैठे-बैठे कब से सूख रहे हैं, कोई उन्हें चाय पानी को भी पूछेगा कि नहीं ? फटाफट, उनके लिए चाय आ गई। चमत्कारिक रूप से, साथ में, सेब-मठरी की प्लेट भी। अंत:पुर में जैसी जितनी रिश्तेदार की हैसियत आंकी जा रही है वैसा ही उसकी आवभगत का स्तर भी चल रहा है। चाय पीते हुए रिश्तेदार रज्जन की तरफ अर्थपूर्ण नज्ररों से झांक रहे हैं। मन में कुछ उथल-पुथल है। चाय खत्म करके वे एक निर्णय पर पहुंच गए लगते हैं। निर्णयानुसार ही वे रज्जन की तरफ खिसके जा रहे हैं। रज्जन भी शुरुआत से ही उन पर एक तिरछी नजर रखे हुए हैं। वे खूब जान रहे हैं कि जब तक ये बब्बा का पूछ नहीं लेंगे तब तक इनका पेट पिराता रहेगा। रिश्तेदार खिसकते खिसकते रज्जन के पास पहुंच गए हैं। वे सीधे ही मूल मुद्दे पर आ गए हैं कि बब्बा आखिर मरे कैसे ?..

रज्जन का हृदय तो यही.क्रह रहा है कि कह दें कि चच्चा, क्या तुम्हें नहीं पता कि चौरासी साल का एक बूढा आदमी कैसे तथा क्यों मरता है ? इतने बूढे आदमी को भी मरने के लिए क्या किसी की परमीशन लेनी पडेगी ? बूढा आदमी बुढापे से ही मरता है--और क्या ! बूढे थे, सो मर गए। पुरानी मशीन थी | फेल हो गई । बस्स !

पुराना इंजन एक दिन बैठ जाता है कि नहीं ? वैसे ही परंतु नीतिवश यह सब कहा नहीं जा सकता था। उत्तर तो सामाजिक दायरे में ही देने होंगे । रज्जन देंगे पर बेहद _ संक्षिप्त। लगभग सूत्र वाक्य से । बात कुछ यूं चलती है :

' और भैया रज्जन... ? कैसा क्या ?'

'देख ही रहे हैं आप...

'सब ठीकठाक से निबट गया ?'

* निबटना ही था।' |

'चार की रात को मरे न ?'

'हमने चिट्ठी में लिखा ही था।...

'हओ, हमें पोस्टकारड कल मिला ।.. डाकिये के हाथ में फटे कोने वाला कारड देख के हमारे मन में सबसे पेले जे ही बिचार आया कि देखो, न जाने किसके निबटबे की खबर निकलती है।'

' सच्ची कही आपने ।”वोई तो भैया, इत्ते तो बैठे हैं खानदान में । वयोवृद्ध ही वयोवृद्ध \...कब चल दें,

_ पता थोडे ही चलता है। है कि नहीं ?'

'जे तो खैर है। | '

'वयोवृद्ध की तो जे मान लो कि सामान बांध के बैठा हुआ यात्री है। इधर गाडी आई कि उधर चल दिए तुरंत।'

'सही कह गए।'

'पर बब्बा को क्या हुआ था ?'

- "होना क्या था ?' ;

' मतलब जे कि तुमें कुछ पता चला कि कैसे ?

'कहां से पता चलना था?

फिर भी'...

' आप जानते ही हैं। सी.आई.डी. को तो आदमी इस काम ये लगा नहीं सकता। ऐसा मानिए कि बुढापा था, वस। हम तो लेई मान रहे हैं।। .

' बुढापा तो था ही। हमारा मतलब है कि बुढापे के अलावा कुछ और भी हुआ था क्या ?

“ बुढापा हो तो और क्या होना है ?

“जै भी सही है। बुढापा ही काफी होता है, बुढापे "।

'जेई तो ।...बस, बूढे तो थे ही, मर गए। ऐसेई ।

' ऐसेई ?

' . 'हां, बस, "

'मतलब जे, कि बस, एकदम ऐसेई ? सुबे-सुबे ?

' एकदम सुबे-सुबे।'

'रात में ?

“एकदम ठीक सोए...

' और सुबे मरे मिले ?

' जेई तो ...

'अरे।” और क्या...

“हद है”

“वोई तो...”

'रात में बिलकुल आवाज्र भी नहीं दी ? कुछ बोले भी नहीं ?

“ क्या बोलते ?

“ऐसेई...कुछ तो भी ।...आवाज देता है न आदमी ? है कि नहीं ? कुछ नहीं तो जेई कहता है कि हम मर रये, हमें बचा लो ।...तुम कह रये हो कि आवाज्र ही नहीं दी ?

“ देनी तो चइये थी, पर दी नहीं ।...क्यों नहीं दी, जे अब कहना कठिन है। हमने तो जब देखा तब तक बे मर चुके थे। अब मरे आदमी से कैसे पूछते कि काहे नहीं दी ?

“नहीं नहीं, वो बात नहीं है। हमने तो इसीलिए जे बात पूछी क्योंकि मरते मरते आदमी आवाज तो देता है--ऐसा कहते हैं।' .

'कौन कहता है?' |

‘कहबे वाले कहते हैं।' .

'क्या कहते हैं, कहबे वाले ?...कि मरबे वाला चिल्लाता है कि ' मरे, मरे ?

“ अरे, यार, जे बात नहीं है। कहा जाता है कि मरबे वाला दुनिया को पुकारता है। इसीलिए हमने पूछी कि बब्बा ने आवाज्र दई थी कि नहीं ?' |

'सर्दी की रात रही। बब्बा रजाई दबाके पडे थे, और हम सब भी। कोई रजाई ओढ के आवाज भी दे तो उसका सुनना मुश्किल... . |

'फिर मरबे वाले की आवाज भी तो दबी-दबी निकलती होगी ? क्यों रज्जन?

“ हमें नहीं पता चच्चा। कभी सुनी नहीं हमने । हम तो पहले भी हमेशा तभी पहुंचे हैं जब आदमी मर चुका होता है।...और खुद हमें ऐसी आवाज निकालबे का मौका अभी मिला नहीं है।...

'तुम काहे ऎसी आवाज दोगे भैया ? ऐन बढिया धरे हो ।...अशुभ बात न कहो ।'

'हमने तो ऐसेई कही ।...वैसे सच कह रहे हैं आप। मरता आदमी बोलेगा भी तो आवाज दबी-दबी ही निकलेगी । जे ही लाजमी भी है। अरे इत्ते ही प्राण होते कि प्राणी तेज बोल पाता तो फिर वह मरता ही क्यों ?

' सच्ची कह गए...

इस तरह वार्ता का पहला दौर संपन्न हुआ। पर बात अभी खत्म हुई न मान लें। रज्जन यह बात जानते हैं। रज्जन को पता है कि अभी तो एकदम प्राथमिक बातों का ही खुलासा प्राप्त किया गया है। जिज्ञासाएं अभी शेष हैं। अब चच्चा ने रज्जन का हाथ, जिसे उन्होंने जर्दा मलने के लिए तनिक देर के लिए छोड दिया था, पुन: , पकडकर मामले की अंदर की तहों तक जाने का अभियान शुरू किया। चच्चा को कदाचित् पता नहीं है, और पता है तो शायद परवाह नहीं है कि रज्जन के जरिए अब अंदर की तह तक नहीं जाया जा सकता। गए भी तो तलहटी तक जाने की संतुष्टि तो अवश्य मिल जाएगी कि हम तह तक पहुंचे थे, परंतु अब रज्जन की तलहटी में मात्र कीचड ही बचा है। पहले से पधारे रिश्तेदार लोग कब का सब कुछ उलीच चुके हैं। |

बातें फिर शुरू हुईं। चच्चा ने एक बार पुन: सारे तथ्यों को सिलसिलेवार समझना उचित समझा। आदमी एकदम फालतू बैठा हो तो यही होता है।

'तो वैसे बब्बा एकदम ठीक ही थे ? बुढापे के अलावा और कुछ था नहीं ? है न'.

' एकदम कुछ भी नहीं था... ।'

' अच्छा ?' ;

' और क्या ?...एकदम फसकिलास हते ।' .

' वैसे, बुढापे में क्या तो फसकिलास, क्या सेकंडकिलास ?'

' जे भी सही बात... -

'पर तुम बता ही रहे थे कि कुछ भी नहीं था। है न ? कुछ भी नहीं ? न बुखार, न खांसी-खुर्रा ?'

'बस, जेई, कभी बुढापे वाली खांसी ।...और कुछ नहीं।'

'सही बात । वैसे भी, बुदापे में, बुढापे वाली खांसी तो इवैर रहती ही है। इसे कोई बीमारी थोडरेई मानता है ।...बुदापे में कभी खांसी ले के डॉक्टर के पास पहुंच भी जाओं तो वो भी भगा देता है कि बुढापे में खांसी न आएगी तो फिर कब आएगी ?'

'सही बात'...

'हमारे पलेरा के डॉक्टर साब, जो खुद भी खूब बूढे हो गए थे, हमेशा कहते थे कि खांसी तो बुढापे की पहिचान है भैया। बूढा होगा तो खांसेगा ही, बल्कि जो बूढा हो और खांसता न दिखे तो ध्यान से पडताल करो उसकी । हो सकता है कि वो सही में बूढा न हो और नकली दाढी-मोंछा लगाके बैठा हो ।...सच्ची ।'

'वैसे तो बिना दाढी मोंछा के भी आदमी बूढे होते हैं चच्चा.... /

'हमने तो एक बात कही।...

'वोई तो... | पर बब्बा तो ठीक ही रहे।

“ अच्छा, ऐसा तो नहीं कि इसी बीच बब्बा की खाना खुराक गिर गई हो ?

“ अरे, ऐन डट के खाते रहे।...ऐसा खाते थे कि बनाबे वाला चीं बोल जाए।...

“ भला बताओ...

“ क्या बताओ ?

“ अरे हमने कही कि भला बताओ तो कि ऐसी बढिया खुराक वाला आदमी, और ऐसे एकदम...है कि नहीं ?” “और क्या।“

“ अच्छा, ऐसी कोई कमजोरी फमजोरी भी नहीं रही ?” अरे, ऐन मजबूत रहे। अस्सी साल का आदमी जित्ता मजबूत होना चाहिए उससे ज्यादा ही रहे।...

“ पुरानी बिल्डिंग वाला मामला....

'बिल्डिंग चाहे अस्सी साल पुरानी हो, पर पुताई-मुताई ठीक ठाक चलती रहे तो उसकी मजबूती तो बनी रहती है।”

अस्सी के रहे कि नब्बे के ?”

आदमी चौरासी का हो या नब्बे का, बुढापा तो कहाया ही न ? कहाएगा कि नहीं ?”

बोई तो कह रहे हैं हम कि बुढापा तो आ ही गया था।” बु

ढापा तो खैर भौत सालों से आ के पडा हुआ था।”

' बुढापा आ जाए तो जाता थोडे ही ही है, पडा ही रहता है।”

बुढापा आ के एक बार कहीं पड जाए तो बुढापे के कारण ही वह फिर कहीं जा नहीं पाता। चलबे फिरबे की परेशानी।

' बुढापे में आदमी ढीला हो जाता है।”

...खाट की अदवाइन की तरह।”

"बब्बा भी ढीले हो गए होंगे ?”

न होंगे क्या ?

' बोई तो...पर देखिए कि कैसी शांत मौत मरे।”

हमने बताया ही कि रात में सोए और... .

सुबह शांत... .

'ऐसी शांतिपूर्ण मौत किसे मिलती है भला ? .

' पुण्यात्मा थे ।...मरते टाइम न तो खुद कोई कष्ट भोगा, न ही किसी को कोई कष्ट दिया।...सोए, और बस सोते ही रह गए।....

_ 'वाह...धन्य है परमात्मा कि तेरी माया अपरंपार | जे तो ईश्वर की ही कृपा रही वर्ना तो बुदापे में जो न बिगड जाए, सोई थोडा है। ढीला शरीर जिस तरफ से भी ढील छोड दे ।...अरे, लकवा पड जाए, आदमी अपने ही गू मूत में पडा रहे-कुछ भी हो सकता है। कान काम न करें। कुछ पता ही न चले कि कौन प्रणाम कह रहा है और कौन मां भेन की गाली दे रहा है? मूं हिलता हुआ तो दिखे पर कुछ सुनाई न दे । बात बात में ' ऐं ऐं' करते फिरें। आंखन से टिपे न । इतें टपके कि उतें टपके ।...बुढापे में तो बिना दलिद्दर के आदमी शांति से मर जाए जे चीज बस पुण्य वाले के साथ ही होती है।'

'सही बात चच्चा...'

' बुढापा भौत खराब चीज होती है रज्जन।'

' हमने कहां बोला कि शानदार चीज होती है?'

' हमारे ताऊजी की तो बुढापे में ऐसी सांस फूलती थी मानो सारे ब्रह्मांड की हवा अपने अंदर खेंच लेंगे। सांस फूलती ही रही उनकी बुढापे भर।...आखिरी सांस तक, आराम की एक सांस को तरस गए थे बे।'

' तभी तो कहते हैं कि बब्बा बढिया जिए।

पुण्यात्मा थे, तुमने बताया ही।' _

_ ' अकेले पुण्यात्मा होने से कहीं कुछ भी नहीं उखड्ता चच्चा \...बब्बा, बढिया शुद्ध घी खाते थे और खा के पचाते भी थे, इसीलिए।'

'देसी घी की तो बात ही अलग है रज्जन। और जे स्साले अंग्रेजी डॉक्टर कहते हैं कि अगर देसी घी खाओगे तो हार्ट अटैक हो जाएगा ।...अरे, घंटा हो जाएगा। सब चूतियाटिक बातें \...अभी हम कानपुर के मेडिकल में दिखाबे गए कि चलबे में हमारी _ छाती पिराती है तो उतें के एक बडे डॉक्टर साब अपनो ज्ञान निपोरने लगें कि तुम

घी छोड दो, मक्खन बंद कर दो, मलाई की तरफ देखियो भी मती । बताओ \...हमने भी मन में कहा कि हम. तो न छोडेंगे घंटा। हम तो अभी भी रोज देसी घी चुपडु के और दाल में कटोरी भर घी पेर के खा रहे हैं। अभी तक तो हम मरे नहीं । और जरा तीन चार साल ठीक से निकल जाएं तो एक दिन उतें कानपुर जा के, तब तक अगर वे डॉक्टर साब ही सरऊ खुद हार्ट अटैक से न मर गए. होंगे तो उन्हें बता के आएंगे कि तुम्हारी अंग्रेजी किताबों का ज्ञान हिंदुस्तानी आदमी पे. न चलाया करो चूतियानंदन जी।...

अरे, जे सब अंग्रेजी डॉक्टरी के चोंचले हैं चच्चा । बब्बा तो इनपे भरोसा ही नहीं - करते थे। कहते थे कि अंग्रेजी मौसम की दवाइयां हमारे गरम मौसम में कहां से काम कर सकती हैं ?.. हर देस का अपना खाना-पीना और दवाइयां होती हैं, चच्चा।.

'बब्बा तो वैदक पे भरोसा करते थे न ?”

'बब्बा अपने अलावा किसी पे भरोसा नहीं करते थे। कहते थे कि आजकल के जे वैद लोग भी स्साले सटक चूतिया हैं। अभी इनको एक जडी बूटी पकडा के उनसे पूछो कि जे धनिया है कि मुलैठी तो मूं बा के बैठ जाएं। पर गुसाई वैद तो बब्बा के लंगोटिया यार रहे उनका तो इलाज लिया होगा है न?.

“वे खुद दो साल पहले, अपनी लंगोट इतें लंगोटिया यार के पास छोड़कर परलोक सिधार गए...”

“अरे कैसे?”

' बोई, बुढापा । और क्या ? बुढापे में तो कब आदमी की लंगोटी निबक जाए और वह अपने लंगोटिया यारों को छोड के कब चल दे, इसका कोर्ड पता चलता है क्या ?”

बीमार रहे होंगे... ?”

और मरे तो अपनी खुद की दवाई खा के...

“ बताओ, आदमी किस पर भरोसा करे ?”

खुद पे करे, जैसा कि बब्बा करते थे।'

फिर दोनों जन कुछ देर मौन बैठे रहे। धूप खिसककर दरी से दूसरी तरफ जा रही है। मेहमान ने दरी को तनिक बचाते हुए तंबाखू थूका और यह पाकर कि अभी-अभी खाई तंबाखू का मन और शरीर पर वह यथोचित असर महसूस नहीं हो रहा है जिसकी प्रत्याशा में आदमी तंबाखू खाया करता है, दोबारा तंबाखू मलनी शुरू कर दी। तंबाखू बनाते हुए उन्होंने रज्जन से पूछा : ' तुमारे लिए भी बना दें ?”

इतें तो चच्चा, बाबा छाप के सिवाय और कुछ नहीं चलती ।'

बडे ऑदमीयन की बड्डी बातें।”

जेई समझ लो... ।'

पूरे मनोयोग तथा तन्मयता से तंबाखू मलकर, हथेली से झटककर, चुटकी में उसे एहतियातपूर्वक दबा के और फिर मुंह खोलकर उसे गाल और मसूडे के बीच रखकर, परमतृप्त अवस्था में पहुंचे चच्चा ने बताया :

'पलेरा में तो भैया, जिन्ने भी बब्बा की सुनी तो जेई कहा कि जे तो भौत बुरा हुआ...

' जे तो खैर कहा ही होगा।”

अरे जिन्ने भी सुनी, वोई रोने लगा।' _

'अब ऐसी भी मत कहो चच्चा...'

' सही बता रहे हैं तुम्हें ।...अरे हमारे डुकर तो खुद ऐसे फूटफूट के रोए कि क्या कहें... |

' बैसे, बे तो खुदई होंगे अस्सी के आसपास के ?”

अस्सी के तो कब के हो चुके भैया, न जाने कब के ।”

तभी तो और घबरा गए होंगे कि जैसे बब्बा मरे हैं, हम भी मर मरा न जाएं।”

नहीं, नहीं, हमारे डुकर नहीं डरते, मरबे से |...कहते तो हमेशा जेई हैं कि अब और नहीं जीना ।...बात बात पे, और अकेले बैठे-बैठे भी जोर-जोर से चिल्लाते रहते हैं कि हे प्रभु, अब तो उठा लो ।...नींद में भी बड्बडाते हैं कि हे कृपानिधान, अपनी शरण में बुला लो ।...और इत्ती जोर-जोर से चिल्ला के प्रभु और कृपानिधान को पुकारते हैं कि बात प्रभु तक पहुंचती है कि नहीं, जे हमें नहीं पता पर सारे गांव के लोग सुन के यही सोचते हैं कि बेटा बहू, बुड्ऊ को न जाने कित्ते कष्ट दे रहे हैं।

अरे, तुम्हें तो भगवान को पुकारने का शौक है पर हमें काहे को फालतू में बदनाम करते हो ?' ..

'तो जे बात आपने उनसे कही कि नहीं ?”

खूब कही । रोज कहते हैं । बे मानें तब न ? ऐसा आदमी बूढा हो जाए जो पैदाइशी ही जिद्दी रहा हो तो फिर उसे वह भगवान भी कभी नहीं समझा सकता जिसे वो पुकारता फिरता है'

ऐसा 'है तो एक दिन बता दो न कि दद्दा, मरबे की ऐसेई बलवती तमन्ना उठ रही हो तो तुम भगवान का मूं न ताको | भगवान के पास तो और भी पचासन काम हैं। तुम तो भगवान का ही बनाया जहर उठा लो । पहुंच जाओगे भगवान के पास...

'ऐसे कैसे कह दें, रज्जन... ? मन में चाहे जो भी चलता रहे परंतु घर में वयोवृद्ध बैठा हो तो उसकी इज्जत तो भैंचो करनी पडेगी कि नहीं ? तुम्हीं बताओ... ?”

जे तो खैर है।...हम खुद भुगते बैठे हैं। मजाल है कि हमने कभी बब्बा से ऐसी-वैसी बात करी हो । बे कित्ती भी चूतियापे की बातें करते रहे, फिर भी,...बुजुर्ग तो भैंचो बुजुर्ग ही है न... ?'

' और बुढापे में तो आदमी वैसे भी चुतियापे की बातें करता ही रहता है...

'पर हमें वयोवृद्ध के मूं पे अच्छी-अच्छी बातें ही करनी चाहिए क्यों कि जेई

रिवाज है।”

हमारी संस्कृति में भी जेई कहा गया है कि बूढे का आदर लाजमी है...

'सो हम सब करते ही हैं...

'वरना असलियत सबको पता है...”

सही बात...और करें भी क्या ?'

' समझदार की मौत है...'

दोनों कुछ देर को फिर चुप रह गए। समझदार की मौत पर वे दो मिनट का मौन नहीं रख रहे थे। वो तो तंबाखू की गमक में चच्चा मगन हो गए थे सो वार्तालाप रुक गया। चच्चा पेट पर हाथ फेर रहे हैं। रज्जन ने उनके पेट के अंदर की बात पकड ली।

' टट्टी हो आते ?' रज्जन ने कहा। ¦

' प्रेसर ही तो बनाबे बैठे हैं। बने, तो हम निकलें । दो दो बार तंबाखू दाब चुके, पेट पे इत्ता हाथ फिरा लिया कि स्साला गरम हो चला पर.... _

रिश्तेदार पेट में समुचित प्रेशर न बन पाने की राष्ट्रीय समस्या से जूझ रहे थे। _

रज्जन ने सांत्वना दी, '...बनेगा, बनेगा। तंबाखू खाई है तो प्रेसर तो स्साला बनेगा ही। काहे न बनेगा ?”

राष्ट्र को तंबाखू पर पूरा भरोसा है! सबको विश्वास है कि तंबाखू खाए बिना पाखाना हो नहीं सकता, और तंबाखू खाई हो तो पाखाने को झक मारकर होना ही पडेगा।

चच्चा उसी विश्वास के तहत बोले, ' प्रेसर क्या, प्रेसर का बाप भी बनेगा। मुर्गा छाप तंबाखू है कि मजाक \...

'बने तो खंडेरा के पीछे की छोटी पहाडी पे निकल जइयो । घर की खुड्डी में ऐसो घिनापन मची है कि... अब का करें? इत्ते रिश्तेदार...”

' भैया, हम तो वैसे भी घर में बने पाखाने पे बैठ ही नहीं पाते हैं । जे घिनोंची जैसी खुड्डी पे, मुर्गा घाँई बैठ के हमारी तो उतरती ही नहीं ।...हंसो मती । सच्ची कह रहे हैं। हम तो खेतन तरफ निकल जाएंगे और वहीं ऐन ठाठ से...” ‘

‘अपने घर से खेत भौत दूर हैं चच्चा....

‘ तो ? .

'तो जेई डर रहेगा कि रास्ते में ही ठाठ खडा * हो जाए... ।

”चलो, देखते हैं। अभी से निकल जाते हैं। खेतन तक पहुंचते-पहुंचते प्रेसर भी बन जाएगा... ।'

'जैसी आपकी मर्जी...।” ...और सुनो रज्जन.., हमारे लायक कछु काम हो तो तुरंत बतइयो ।'

'पहले निवृत्त तो हो लो... ।'

' अपने को अकेला मत समझियो...।'

'इत्ती भीड में कैसे समझें ?'

‘फिर भी'

'वैसे आप लोगन का ही तो सहारा है... ।'

' अरे, आदमी ही आदमी के काम आता है... ।

‘ तुम. भी यार रज्जन... ।”

हमने तो एक बात कही....

'तुम कभी-कभी सीधे कलेजे में उतरने वाली बात कह देते हों भैया।'

'कलेजे से और नीचे उतर गई तो प्रेसर बनाने में काम आएगी ।'

' भौत मजाक करते हो यार'... ;

_ 'सच्ची बात कहते हैं। दुनिया स्साली ऐसी ही हो गई है कि सच्ची बात को भी जब तक मजाक बना के न बोलो, लोग सुनते नहीं।'

_ सांसारिक, दैहिक, दैविक, आध्यात्मिक, दार्शनिक तथा ऊल-जुलूल बातों से भरा उक्त वार्तालाप उन भोले लोगों को भारी धक्का पहुंचा सकता है जो उम्मीद करते हैं कि घर में मौत हुई है तो बातों में दुख, गंभीरता और कष्ट भरा होगा।

बूढे की मौत पर तो ऐसा होता ही नहीं । अति बूढे की मौत पर तो बिलकुल भी नहीं। उत्सव-सा माहौल है।' ही ही” ठी ठी' वाली बातें हो रही हैं। गालिब ने कहा ही है कि शादी का मौका बने या गमी का - घर में बस कुछ ऐसा चलता रहे कि चहल-पहल बनी रहे । यह शेर कहते हुए किसी अति बूढे की मौत वाला ऐसा ही घर उनके जेहन में रहा होगा।

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रचनाकार: उपन्यास अंश / हम न मरब / ज्ञान चतुर्वेदी
उपन्यास अंश / हम न मरब / ज्ञान चतुर्वेदी
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