श्रीराम श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग नामी ते नाम बड़ो-‘‘श्रीराम जय राम जय जय राम महामंत्र’’ ‘मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेह...
श्रीराम
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
नामी ते नाम बड़ो-‘‘श्रीराम जय राम जय जय राम महामंत्र’’
‘मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
’’मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति’’
दोहा - समुझत सरिस नाम अरू नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामाुझि साधी॥
चौ.- को बड़ छोट कहत अपराधू । सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम अधीना । रूप ग्यान नहिं नाम विहीन ॥
श्रीराम च मा. बाल 20-1-2
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि समझने में नाम और नामी दोनों ही एक से हैं किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है अर्थात नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है , उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं । प्रभु श्रीराम अपने राम नाम का ही अनुगमन करते हैं, नाम लेते ही वहाँ आ जाते है। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि है, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय है अनादि हैं और सुन्दर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता हैं । इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है ?, कौन छोटा यह कहना तो अपराध है ?इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु-पुरूष स्वयं ही समझ लेंगे । रूप को नाम के अधीन देखे जाते है क्योंकि नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है ।
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एक ऐसी कथा का यहॉ वर्णन है । लंका विजय के उपरांत अयोध्या में भगवान श्रीराम अपने दरबार में विराजमान थे । उनके दरबार में उस समय श्रीराम को कुछ आवश्यक परामर्श देने के लिये देवर्षि नारदजी, विश्वामित्र , वशिष्ठ और अन्य अनेक ऋषिगण उपस्थित थे। उस समय एक धार्मिक विषय पर विचार विनिमय चल रहा था । देवर्षि नारद ने कहा-सभी उपस्थित ऋषियों से एक प्रार्थना है । आप सब मिलकर अपने-अपने सोच विचार से यह बतलायें कि ‘नाम’ (भगवान का नाम) और नामी (स्यंम भगवान) में कौन श्रेष्ठ है ? इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ, किन्तु श्रीराम की राजसभा में उपस्थित ऋषिगण किसी ठोस निर्णय पर नहीं पहुँच सके ।
इसके पश्चात् में देवर्षि नारदजी ने अपना अंतिम निर्णय दे दिया कि निश्चित ही नामी से नाम श्रेष्ठ है और राजसभा विसर्जन होने के पूर्व ही प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करके इसकी सत्यता प्रमाणित कर दी जा सकती है ।
इसके पश्चात नारदजी ने हनुमान्जी को अपने निकट बुलाया और कहा-महावीर ! जब तुम सामान्य रीति से सभी ऋषियों और श्रीराम को प्रणाम करो तब उस समय विश्वामित्र को प्रणाम मत करना । वे राजर्षि है, अतः वे समान व्यवहार और समान सम्मान के पात्र (योग्य) नहीं है। हनुमानजी समहत हो गये । जब प्रणाम करने का समय आया, हनुमान्जी ने सभी ऋषियों के सामने जाकर सबको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया, सिर्फ ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम नहीं किया। इससे ऋषि विश्वामित्र का मन कुछ दुःखी हो उठा तथा वे क्षुब्ध हो गये । उसी समय नारद जी विश्वामित्र ऋषि के पास गये और कहा - महामुने ! हनुमान की धृष्टता तो देखो भरी श्रीराम की राजसभा में आपके अतिरिक्त उसने सभी को प्रणाम किया । उसे आप अवश्य कठोर दण्ड दें । आप ही देखिये , यह हनुमान् कितना उदण्ड और घमण्डी है ।
बस फिर क्या था ? इतना सुनते ही विश्वामित्र अपना क्रोध न रोक सके । वे श्रीराम के पास गये और कहा - राजन ! तुम्हारे सेवक हनुमान ने इन सभी ऋषियों के बीच मेरा घोर अपमान किया है । अतः कल सूर्यास्त के पूर्व ही हनुमान् को तुम्हारे हाथों मृत्युदण्ड अवश्य मिलना चाहिये । विश्वाम़ित्र श्रीराम के गुरू थे । अतः राजा श्रीराम को गुरू की आज्ञा का पालन करना आवश्यक हो गया । उसी समय भगवान् सोच-विचार में पड़ गए कि उन्हें अपने ही हाथों से अपने परम अनन्य स्वामिभक्त सेवक को मृत्यु दण्ड देना होगा । श्रीराम के हाथों हनुमान् को मृत्यूदण्ड मिलेगा - यह समाचार बात ही बात में पूरे अयोध्यानगरी में फैल गया ।
हनुमान्जी को भी इस घटना से अत्यन्त दुःख हुआ । वे शीध्र ही नारदजी के पास गये और कहा - देवर्षि मेरी रक्षा कीजिए । भगवान श्रीराम कल सूर्यास्त के पूर्व ही मेरा वध कर देंगे । मैंने आपके परामर्श के अनुसार ही यह कार्य किया था । अतः मुझे मार्गदर्शन दीजिये कि अब मैं क्या करूं ?
नारदजी ने कहा - हनुमान् ! दुःखी और निराश मत होओ । जैसा अब मैं कहता हूँ वैसा ही करो । ब्रह्म मुहूर्त में बड़े सबेरे उठ जाना । सरयू नदी में स्नान करना । इसके पश्चात् नदी के बालुका तट पर खड़े हो जाना और हाथ जोड़कर-श्रीराम जय राम जय जय राम’’ इस महामंत्र का जप करना। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुमको कुछ भी नहीं होगा ।
दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व ही हनुमान्जी सरयूतट पर गये , स्नान किया और जिस प्रकार से देवर्षि नारद ने कहा था तद्नुसार दोनों हाथ जोड़कर भगवान के बताये उस नाम का जप करने लगे। इधर अयोध्या वासियों की प्रातः होते ही हनुमान्जी की कठिन परीक्षा देखने के लिये भीड़ उमड़ पड़ी । भगवान श्रीराम हनुमान्जी से बहुत दूरी पर खड़े हो गये, अपने परम सेवक भक्त को करूणार्द्रदृष्टि से देखने लगे और अनिच्छापूर्वक हनुमान् पर बांणों की वर्षा करने लगे। आश्चर्य की बात थी कि श्रीराम के एक भी बांण से हनुमान् जी को भेद नहीं सके । सम्पूर्ण दिन श्रीराम द्वारा हनुमानजी पर बाणों की वर्षा की गई किन्तु उसका कोई प्रभाव हनुमान् पर नहीं हुआ । श्रीराम ने लंका के युद्ध में कुम्भकर्ण तथा अन्य राक्षसों के वध करने के समय के शस्त्रों का प्रयोग किया किन्तु उन्हें उसमें कोई सफलता प्राप्त न हो सकी । अंत में श्रीराम ने अमोध ‘‘ब्रह्मास्त्र’’उठाया। हनुमान्जी इससे भयभीत नहीं हुए तथा श्रीराम के प्रति श्रद्धा-भक्ति से आत्मसर्पण किये हुए देवर्षि नारदजी प्रदत्त महामंत्र का जाप कर रहे थे । हनुमान्जी श्रीराम की ओर मुसकराते हुए देखते रहे और वहां से हिले भी नहीं । सब आश्चर्यचकित होकर हनुमान्जी की जय-जय धोष करने लगे ।
यह परिस्थित देखकर देवर्षि नारदजी विश्वामित्र के पास गये और कहा - हे मुनि अब तो आप क्रोध का संवरण कर लीजिए क्योंकि श्रीराम बाण चला चलाकर थक चुके हैं। ये सब बांण हनुमान् का कुछ भी बिगाड़ नहीं सके । यदि हनुमान् ने आपको प्रणाम नहीं किया तो इससे क्या होता है ?अब इस स्थिति में श्रीराम को परावृत्त कीजिये । अब आपने श्रीराम के महत्ता को प्रत्यक्ष देख समझ ही लिया है । इन शब्दों से विश्वामित्र मुनि प्रभावित हो गये तथा ब्रह्मास्त्र से हनुमान् को नहीं मारे ऐसा आदेश श्रीराम को दिया ।
हनुमान्जी आये और श्रीराम के चरणों में गिर पड़े एवं विश्वामित्र को भी उनकी दयालुता के लिये प्रणाम किया । विश्वामित्र मुनि ने भी हनुमान्जी की भक्ति को देखकर आशीर्वाद दिया । जब हनुमान् जी घोर संकट में थे तभी यह महामंत्र देवर्षि नारदजी ने हनुमान्जी को दिया था । हम सब इस मंत्र का जाप कर संकट से मुक्त हो सकते हैं । ‘‘श्रीराम’’ यह सम्बोधन श्रीराम के प्रति हमारी पुकार है । जय राम , यह उनकी स्तुति है ‘ जय जय राम’’ यह हमारा श्रीराम के प्रति उद्बोधन है। हमें इस महामंत्र को जपते समय अपने आप को श्रीराम की शरण चरणों में समझ लेना चाहिये । शिवाजी महाराज के गुरू स्वामी रामदासजीसमर्थ भी 13 अक्षरों के इस महामंत्र का जाप करते थे । अतः श्रीरामचरितमानस में वर्णित इस महामंत्र को सदा स्मरण रखना चाहिये।
यद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रृति कह अधिक एक तें एका ॥
राम सकल नामन्ह ते अधिक। होउ नाथ अध खग गन बधिका ॥
श्रीरामचरितमानस अरण्य -41-4
‘ मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
. मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति’*
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