शुभ दिन शोधकर मुनि वशिष्ठजी आये और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलाकर कैकयी की कुटिल करनी की कथा सुनायी। राजा दशदथ के धर्मव्रत ...
शुभ दिन शोधकर मुनि वशिष्ठजी आये और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलाकर कैकयी की कुटिल करनी की कथा सुनायी। राजा दशदथ के धर्मव्रत और सत्य की प्रशंसा कर भरत को बड़े ही धर्म एवं दार्शनिकता पूर्ण शब्दों में कहा-
दो0- सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ ।
हानि लाभु जीवनुमरनु जसु अपजसु विधि हाथ ॥
श्रीरामचरितमानस अयोध्या दोहा 171
दुखी होकर वशिष्ठ जी (मुनिनाथ) ने कहा हे भरत ! सुनो भावी (होनहार) बड़ी बलवान अथवा प्रबल है। हानि-लाभ ,जीवन-मरण एवं यश-अपयश ये सब विधाता के हाथ में हैं ।
इस प्रकार किसे दोष दिया जाय। तुम्हारे पिता दशरथ राजा जैसा तो न हुआ है अब न होने का है। राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पिता के वचनों को सत्य (प्रमाणित) करों । राजा की आज्ञा में तुम्हारे परिवार प्रजा एवं राज्य की भलाई है। इसका उदाहरण उन्होंने चौपाई में एक अन्तर्कथा द्वारा समझाई -
चौ0 -
परसुराम पितु अग्या राखी । मारी मातु लोक सब साखी ।
तनय जजातिहिं जोबनु दयऊ । पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
श्रीरामचरितमानस अयोध्या दोहा 173-4
परशुरामजी ने पिता की आज्ञा मानकर (रखकर ) और माता को मार डाला। सब लोक इस बात के साक्षी है। राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी । पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और लोक में अपयश नहीं हुआ ।
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सभी वेद, शास्त्रों एवं (स्मृतिपुराण) में भी यह बताया गया है कि पिता जिसको राज्य और राजतिलक दे उसको राजतिलक स्वीकार कर राज्य की शासन व्यवस्था प्राप्त करना चाहिये । ग्लानि का त्याग कर मेरे हितकारी वचन को स्वीकार करो । वशिष्ठ जी ने परशुरामजी एवं राजा ययाति के पुत्र को आज्ञाकारी पुत्र का उदाहरण देकर भरतजी को राजतिलक स्वीकार करने के लिये समझाया। यही श्री परशुरामजी एवं ययाति पुत्र पुरू की पितृभक्ति एवं आज्ञा की अन्तर्कथा जानना आवश्यक है । इस कथा से पाठक श्रोता भरतजी की समस्या एवं निदान पर विचार कर सकते हैं -
श्री परशुराम आज्ञाकारी पुत्र कैसे ?
भगवान विष्णु के छठे आवेश अवतार परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल की तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में ऋषि भृगु के वंश में हुआ। उसकी माता का नाम रेणुका और पिता का नाम जमदग्नि ऋषि थे। उनका जन्म नाम राम था किन्तु भगवान शिव से प्राप्त अमोध शस्त्र परशु प्राप्त होने से एवं परशु धारण करने से परशुराम के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीमद्भागवद में उल्लेख है कि एक दिन परशुराम जी की माता रेणुका गंगातट पर गयी थी । वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है रेणुका गंगातट पर जल लेने गई थी किन्तु राजा चित्ररथ गन्धर्वराज को देखने में मग्न हो गई तथा पतिदेव के हवन के समय को भूल गई। हवन का समय बीत गया । ये जानकर महर्षि जामदग्नि के शाप से भी भयभीत होती हुई आश्रम आ गई । महर्षि के समक्ष जल का कलश रखकर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई ।
जमदग्नि ऋषि ने रेणुका का मानसिक व्यभिचार जानकर क्रोध करके कहा-मेरे पुत्रो ! इस पापिनी को मार डालो। किन्तु उसके किसी पुत्र ने आज्ञा स्वीकार नहीं की। परशुराम जी पिता की आज्ञा के साथ ही साथ अपने सब भाईयों का वध कर डाला। परशुरामजी अपने पिता के तप एवं योग का प्रभाव जानते थे। इस कार्य से सत्यवती नंदन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने कहा-बेटा तुम्हारी जो इच्छा हो वर मांग लो। परशुरामजी ने कहा-पिताजी मेरी माता और सब भाईयों को जीवित कर दीजिये तथा उन्हें यह भी याद न रहे कि मैंने उन्हे मारा था। परशुराम के समक्ष उनकी माता तथा उनके सब भाई जीवित होकर ऐसे उठे मानो निद्रा से जाग कर उठे हो परशुराम को पिता की तपस्या एवं योग शक्ति पर पूर्ण श्रृद्धा-विश्वास था । अतः उन्होंने इन सबका वध करने की आज्ञा का पालन किया ।
ययाति कौन थे ? उन्होंने किसको आज्ञा दी ?
राजा नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्र पद से हटा दिया और उसे शाप से अजगर बना दिया। राजा ययाति को राजा के पद पर प्रतिष्ठित किया। ययाति के चार छोटे भाईयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया । उसमें असुरों के गुरू शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह कर पृथ्वी पर राज्य करने लगे ।
दानवराज वृषपर्वा की एक कन्या थी। उसका नाम शर्मिष्ठा था। एक दिन अपनी गुरूपुत्री देवयानी एवं सखियों के साथ एक सुन्दर सरोवर पर पहुँच कर अपने वस्त्र धाट पर रख कर तालाब में जल क्रीड़ा करने लगी। उस समय भगवान शंकर एवं माता पार्वताजी बैल पर चढ़े हुए आ निकले उनको देखकर सब की सब कन्यायें सकुचाकर झटपट सरोवर से निकल वस्त्र पहन लिये। शीध्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजाने में देवयानी के वस्त्र को अपने वस्त्र समझकर पहन लिये। देवयानी द्वारा शर्मिष्ठा के वस्त्र पहन लेने के कारण उसे बहुत अधिक अपमानित एवं प्रताड़ित किया । इससे शर्मिष्ठा भी क्रोध से तिलमिला उठी। शर्मिष्ठा ने गुरूपुत्र देवयानी का धोर तिरस्कार कर उसके वस्त्र छीनकर उसे कुएँ मे धकेल दिया ।
संयोगवश राजा ययाति उधर प्यास से व्याकुल हो जल की तलाश में निकले । उन्हें जल की आवश्यकता थी, एवं कुँए में पड़ी वस्त्रहीन देवयानी को देखकर उन्होंने अपना दुपट्टा देकर हाथ से उसका हाथ पकड़कर बाहर निकाल लिया। देवयानी की प्रेमभरी वाणी से ययाति को कहा-राजन् आपने आज मेरा हाथ पकड़ा हैं अतः अब कोई इसे न पकड़े । यह सब भगवान की लीला का ही प्रताप-प्रसाद है। वीर श्रेष्ठ ! पहले मैंने देवगुरू बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दे दिया था क्योंकि उसने मुझे गुरूपुत्री होने के कारण विवाह स्वीकार नहीं किया था। मैंने उसे अपने पिता शुक्राचार्यजी से मृतसंजीवनी विद्या निष्फल होने का शाप दे दिया । कच ने भी मुझे शाप दिया कि देवयानी तुम्हें भी कोई ब्राह्मण पत्नी रूप में स्वीकार नहीं करेगा। ययाति शास्त्र प्रतिकूल होने किन्तु प्रारब्ध का उपहार समझकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली ।
वीर राजा ययाति के जाने के पश्चात देवयानी ने रो-रो कर अपने पिता शुक्राचार्य को शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया उसे पूरी तरह सुना दिया । शुक्राचार्य को शर्मिष्ठा के व्यवहार के कारण असुरों की पुरोहिताई से द्यृणा करने लगे । देवयानी को लेकर चल पड़े । जब शर्मिष्ठा के पिता वृषपर्वा को पूरी बात ज्ञात हुई तो इस बात से भयभीत हुए कि कहीं शुक्राचार्य उन्हें शाप न दे तथा शत्रुओं की जीत न करा देवें। वृषपर्वा शुक्राचार्य के पीछे-पीछे गये और उनसे क्षमा याचना की। शुक्राचार्य ने कहा मैं सब कुछ त्याग सकता हूँ पुत्री देवयानी को कभी स्वप्न में भी त्यागने की कल्पना नही कर सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो उसे पूरी कर दो। राजा ने कहा मुझे स्वीकार है ।
देवयानी ने कहा-मुझे किसी को दे दे और मैं जहाँ कहीं जाऊँ ,शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों सहित मेरी सेवा करती रहे। शर्मिष्ठा ने अपने पिता के संकट को देखकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली । वह 1000 सहेलियों सहित दास-दासी बनकर सेवा करने लगी ।
शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया तथा दासी के रूप में शर्मिष्ठा को दे दिया। साथ ही साथ राजा ययाति को कहा कि शर्मिष्ठा को सेज पर नहीं आने देना ।
देवयानी के दो पुत्र हुए यदु और तुर्वसु। यह देखकर शर्मिष्ठा ने राजा से सहवास की प्रार्थना की। धर्मज्ञ न्यायप्रिय राजा ने शुक्राचार्य की बात याद रखने पर भी प्रारब्ध में जो होना है, होगा, हो जावेगा, शुक्राचार्य की बात न मानी। शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए-द्रुहृयु, अनु, और पुरू। तब देवयानी ने पिता को धर जाकर सारी बात बतायी। शुक्राचार्य ने क्रोध में ययाति से कहा कि तू झूठा-मंदबुद्धि और स्त्रीलम्पट है अतः जो तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाए जिससे तू कुरूप हो जा ।
ययाति ने शुका्रचार्य से कहा कि इस शाप से आपकी पुत्री देवयानी का अनिष्ट होगा । इस बात पर शुक्राचार्य ने क्रोध त्यागकर कहा- अच्छा जाओ , जो प्रसन्नता से तुम्हें जवानी दे दे तथा उसके बदले अपना तुम्हारा बुढ़़ापा ले लेवे तो ऐसा कर लेना । ययाति ने अपने पुत्रों यदु , तर्वसु , द्रृहृयु, अनु एवं पुरू से ऐसा करने को कहा किन्तु सब ने अस्वीकार कर दिया । मात्र सबसे छोटे पुत्र पुरू ने यह पिता की आज्ञा स्वीकार कर अपनी जवानी पिता को देकर बुढ़ापा स्वीकार कर लिया । कुछ वर्षों उपरांत ययाति ने पितृ भक्त पुरू को उसकी जवानी देकर वन में चले गये ।
इन दोनों अन्तर्कथाओं को आधार बनाकर महर्षि वशिष्ठ जी ने भरत को पिता के आज्ञा पालन का धर्म और शिक्षा दी। किन्तु भरत भगवान राम की छाया स्वरूप थे। क्या शरीर की छाया को शरीर से अलग कर सकते हैं ? उन्होंने सब कथाएं सुनकर अंत में राजतिलक की बात को अलग कर श्रीराम दर्शन तथा उनकी आशा पालन करने को सबसे बड़ा कर्तव्य समझ अपने गुरू , माताओं एवं चतुरंगिणी सेना सहित चित्रकूट चल पड़े ।
इन कथाओं एवं रामकथा का सार आज यही है कि राम और भरत जैसे भाई कहां चले गये ? पिता की मृत्यु तुरंत बाद सम्पत्ति का बटँवारा करने लगते हैं । विधवा माता के आँसू पोंछने के पहले धन के बटवारे के साथ माता का भी बटँवारा कर देते हैं
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डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता ‘मानस शिरोमणि’
सीनियर एम.आई.जी. 103 व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार,
उज्जैन (म.प्र.) 456010
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