रामायण में कुछ ऐसे प्रसंग हैं जो हमारे समाज में अति अल्पज्ञात हैं क्योंकि वाल्मीकिजी रचित रामायण संस्कृत भाषा में है। संस्कृत के श्ल...
रामायण में कुछ ऐसे प्रसंग हैं जो हमारे समाज में अति अल्पज्ञात हैं क्योंकि वाल्मीकिजी रचित रामायण संस्कृत भाषा में है। संस्कृत के श्लोकों को समझना एक सामान्य व्यक्ति के लिये कठिन होता है। रामायण में ऐसे अनेकों अति अल्पज्ञात प्रसंगों में से ही एक प्रसंग का यहाँ वर्णन है।
रामायण के उत्तरकाण्ड के सोलहवें सर्ग में दशानन-दशग्रीव रावण कैसे बना इसका वर्णन अगस्त्यजी श्रीराम को बताते हैं। दशानन ने अपने ही भाई कुबेर के राज्य को जीत लिया तथा शरवण नाम के प्रसिद्ध सरकंडों के विशाल वन को जो कि कार्तिकेयजी की उत्पत्ति स्थल था को पार करता हुआ पर्वत पर चढ़ने लगा। उस समय ही उसके पुष्पक विमान की गति रूक गई तथा विमान निश्चेष्ट हो गया। दशानन को बड़ा दुःख एवं आश्चर्य हुआ कि स्वामी की इच्छानुसार चलने वाले विमान को क्या हो गया!
उसी समय भगवान शंकर के पार्षद नंदीश्वर दशानन के पास पहुँचे। नन्दीश्वर देखने में विकराल एवं बलवान थे। उन्होंने दशानन से कहा लौट जाओ। इस कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं। यहाँ सम्पूर्ण नाग, यक्ष, देवता, गन्धर्व और राक्षस सभी प्राणियों का आना-जाना बंद कर दिया गया है-
निवर्तस्व दशग्रीव शैले क्रीडति शंकरः।
सुपर्णनागयक्षाणां देवगन्धर्वरक्षसाम्॥
सर्वेषामेव भूतानामगम्यः पर्वतः कृत।
-वा.रा.उत्तरकाण्ड, 16।10)
नंदीश्वर की बात सुनकर दशानन क्रोधित हो गया और पुष्पक से उतरकर बोला कौन है? यह शंकर? इतना कहकर पर्वत के मूल भाग में पहुँच गया। वहाँ पहुँच कर उसने देखा भगवान शंकर से थोड़ी ही दूरी पर चमचमाता हुआ शूल हाथ में लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हैं। उनका मुँह वानर के समान था। उनके वानर मुख को देखकर दशानन ठहाका मारकर हँसने लगा-
सौऽपश्यन्नन्दिनं तत्र देवस्यादूरतः स्थितम्
दीप्तं शूलमवष्टभ्य द्वितीयमिव शंङ्करम्॥
तं दृष्ट्वा वानरमुखमज्ञाय स राक्षसः।
प्रहासं मुमुचे तत्र सतोय इव तोयदः॥
-वा.रा.उत्तरकाण्ड,सर्ग 16।13-14
यह देखकर शिव के दूसरे स्वरूप मे भगवान नंदी क्रोधित होकर बोले-दशानन तुमने मेरे वानर रूप में मुझे देखकर अवहेलना एवं ठहाका लगाकर वज्रपात किया है। अतः तुम्हारे कुल का विनाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी एवं तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। ये वानर एकत्र होकर तुम्हारे मंत्री और तुम्हारे पुत्रों सहित प्रबल अभियान को चूर-चूर कर देंगे। तू अपने ही कर्म से मरा हुआ है अतः मैं मरे हुए को मारता नहीं हूँ।
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दशानन बोला कि मेरे पुष्पक विमान की गति जिस पर्वत के कारण रूक गई है, मैं उस पर्वत को जड़ से ही उखाड़ फेंकता हूँ। ऐसा कहकर दशानन अपनी भुजाओं निचले भाग से पर्वत उठाने का प्रयत्न करने लगा तथा पर्वत हिलने लग गया। पर्वत के हिलने से शंकरजी के सारे गण एवं पार्वतीजी विचलित हो उठी तथा शंकरजी से लिपट गई।
अगस्त्यजी श्रीराम से कहते हैं कि तब महादेवजी ने पर्वत को पैर के अँगूठे से ही दबा दिया। दशानन के हाथ पर्वत से दब गये। दशानन मंत्रीगण व राक्षस आश्चर्य में पड़ गये। दशानन ने रोष तथा अपनी बाहों की पीड़ा के कारण सहसा बड़े ही जोर से विराव-रोदन अथवा आर्तनाद करने लगा, जिससे तीनों लोकों के प्राणी काँप उठे। उसके रूदन से समुद्रों में ज्वार आ गया, पर्वत हिल उठे। यह देख कर दशानन के मंत्रियों ने उससे कहा महाराज दशानन अब आप नीलकंठ, उमावल्लभ महादेवजी को सन्तुष्ट कीजिये। उनके सिवा दूसरे किसी को हम ऐसा नहीं देखते हैं, जो यहाँ आपको शरण दे सके। आप महादेवजी की स्तुतियों द्वारा उन्हें प्रणाम करके उन्हीं की शरण में जाइये। भगवान शंकर बड़े दयालु हैं वे सन्तुष्ट होकर आप पर कृपा करेंगे। मंत्रियों के कहने पर दशानन ने भगवान शंकर को नाना प्रकार के स्तोत्रों तथा सामवेदोक्त मंत्रों द्वारा उनका स्तवन किया। इस प्रकार हाथों की पीड़ा से रोते हुए और स्तुति करते हुए उस राक्षस के एक हजार वर्ष बीत गये।
महादेवजी ने प्रसन्न होकर दशानन की भुजाओं को संकट से मुक्त कर दिया तथा कहा-दशानन, तुम वीर हो, मैं तुम्हारे पराक्रम से प्रसन्न हूँ। तुमने पर्वत से दब जाने के कारण जो अत्यन्त भयानक राव (आर्तनाद) किया था, उससे भयभीत होकर तीनों लोकों के प्राणी रो उठ थे, इसलिये राक्षसराज, अब तुम रावण के नाम से प्रसिद्ध होओगे। देवता, मनुष्य, यक्ष तथा दूसरे जो लोग भूतल पर निवास करते हैं, वे सब इस प्रकार समस्त लोकों को रूलानेवाले तुझ दशग्रीव को रावण कहेंगे।
यस्माल्लोकत्रयं चैतद् रावितं भयभागतम्।
तस्मात् त्वं रावणो नाम नाम्ना राजन् भविष्यसि॥
देवता मानुषा यक्षा ये चान्ये जगतीतले।
एवं त्वामभिधास्यन्ति रावणं लोकरावणम्॥
-वा.रा.उत्तरकाण्ड,सर्ग 16।36,37,38
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डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता
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