बी सवीं सदी के उत्तरार्द्ध की वह सर्द और उदास शाम थी। प्रयोगशाला मं वयोवृद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर कामीन अपने साथ बैठे क्षीणकाय गुंजनकांत से क...
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की वह सर्द और उदास शाम थी। प्रयोगशाला मं वयोवृद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर कामीन अपने साथ बैठे क्षीणकाय गुंजनकांत से किसी गंभीर वार्तालाप में व्यस्त थे।
‘‘आप एक बार फिर से सोच लें गुंजनकांत! क्या मानसिक रूप से भी आप इस प्रयोग के लिए तैयार हैं? अगर नहीं तो.....’’ प्रोफेसर कामीन ने स्पष्ट शब्दों में पूछा।
‘‘मुझे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी है प्रोफेसर! इसके उपचार की खोज करते-करते मानव थक चुका है। अब अकालमृत्यु ही मेरी नियति है, पर फिर भी मैं मनोहर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस पृथ्वी पर लंबे समय तक जीवित रहना चाहता हूँ। यह पक्षियों का कलरव, यह इंद्रधनुषी आकाश और ये हरी-भरी मनोरम वादियाँ मुझसे सदैव के लिए दूर हो जाएँ, यह मैं सोच भी नहीं पाता’’ बोलते-बोलते भावुकतावश गुंजनकांत का स्वर भर्रा उठा।
‘‘सौ साल से सोई राजकुमार की कहानी आपने सुनी है न?’’ हँसककर प्रोफेसर अचकचा-से गए।
‘‘विशेष वैज्ञानिक विधियों द्वारा आपकी मनोशारीरिक प्रक्रियाओं की गति अत्यंत मंद करके हम आपको वैसे सुला देंगे और जब कभी समय का महानायक-विज्ञान-कैंसर का उपचार खोजकर अपनी इलाज की विज्ञान-छड़ी आपके सिर से छुआएगा, तब आप उसी राजकुमार की तरह रोगमुक्त होकर असीम निद्रा से जाग उठेंगे’’ प्रोफेसर कामीन ने कहा।
बरबस ही मुस्करा उठे गुंजनकांत। अच्छी उपमा दी थी प्रोफेसर कामीन ने। उन्होंने अधीर होकर पूछा, ‘‘क्या ऐसा होना सचमुच संभव है?’’ उनकी जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई थी।
‘‘क्यों नहीं? अनेक जीवन-जंतुओं में प्राकृतिक रूप से यह व्यवस्था होती है कि वे वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों से बचने के लिए अपनी शारीरिक प्रक्रियाओं की गति धीमी पर शीतनिद्रा अथवा ग्रीष्मनिद्रा में चले जाते हैं। वातावरण अनुकूल होने पर वे फिर से जाग जाते हैं’’ प्रोफेसर कामीन ने समझाया।
‘‘मैं समझ गया प्रोफेसर! इस खूबसूरत दुनिया में चिरकाल तक रहने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ, और फिर यह प्रयोग तो मेरे लिए ऐसा ही होगा जैसे गहरी नींद में सोने के बाद जागना’’ गुंजनकांत दृढ़प्रतिज्ञ थे।
‘‘ठीक है। तो आप प्रयोगशाला में चलिए’’ प्रोफेसर कामीन उठे तो उसे पीछे गुंजनकांत भी चल दिए।
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भाँति-भाँति के वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशाला में एक बड़ी-सी मेज पर प्रोफेसर कामीन ने गुंजनकांत को लिटा दिया। गुंजनकांत के ठीक सामने किसी विशेष प्रकार की धातु की बनी हुई कैप्सूल के आकार की बॉक्सनुमा आकृति रखी हुई थी।
‘‘ग्रेफ़ाइट, एल्युमिनियम और कुछ अन्य धातुओं को मिलाकर बनाया गया यह विशेष बॉक्स आपके शरीर को तापमान के उतार-चढ़ाव, धक्कों और झटकों से बचाएगा’’ प्रोफेसर कामीन उनकी हर शंका का समाधान करना चाहते थे। गुंजनकांत तो प्रोफेसर कामीन की जैसे हर बात से संतुष्ट थे।
‘‘इन्हें पानी के साथ निगल लीजिए,’’ प्रोफेसर कामीन ने नीले और हरे रंग के मुट्ठी-भर कैप्सूल और गिलास भर पानी उन्हें दिया, ‘‘प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा और विटामिनों से भरपूर ये कैप्सूल कई वर्षों तक आपको ऊर्जा प्रदान करते रहेंगे और जब आप जागेंगे तब तक आप ‘‘ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ दि अर्थ’ बन चुके होंगे।’’ कहते हुए प्रोफेसर कामीन अट्टहास करने लगे, पर गुंजनकांत सिर्फ मुस्कराए। उत्सुकता, रोमांच और भय कदाचित् तीनों का समावेश था उनकी मुस्कान में; फिर भी वे अडिग रहे। वैसे भी, उस क्षण ही तो वे एक नया इतिहास रचने जा रहे थे। वे अतीत और भविष्य का ऐसा हिस्सा बन जाने वाले थे, जो कभी वर्तमान भी बन सकता था।
धीरे-धीरे सम्मोहन और रसायनों के मिले-जुले प्रभाव से उनका शरीर निष्क्रिय होने लगा। अनायास उन्हें अपनी प्रिय पत्नी की याद आ गई। वह उन्हें इस प्रयाग के लिए कभी अनुमति न देती। अतः उन्हें सोता छोड़ वे चुपचाप घर से निकल आए थे। पत्नी का निद्रामग्न शांत, सरल मुख तब उन्होंने अंतिम बार देखा था। काश! वे एक बार और उन्हें देख पाते। मोहवश वे छटपटा उठे, परंतु तभी प्रोफेसर कामीन ने उन्हें मोह से उबार लिया।
‘‘अब आप प्रगाढ़ निद्रामग्न होने जा रहे हैं।’’
यही अंतिम ध्वनि थी, जो उन्होंने सुनी और लुप्त होती जा रही चेतना ने उन्हें मोह के तमाम बंधनों से मुक्त कर दिया। उनके निश्चेष्ट शरीर को सावधानीपूर्वक प्रोफेसर ने बाक्सनुमा कैप्स्यूल में बन्द कर दिया। प्रयोग के पूरा होने पर प्रोफेसर कामीन खुशी से उछल पड़े।
‘‘इस अनूठे प्रयोग ने मेरा नाम विज्ञान के इतिहास में स्वर्णक्षरों में लिख दिया हैं इस सदी का सर्वोच्च विज्ञान पुरस्कार मुझे भी मिलेगा।’’ उनकी प्रसन्नता का पारावार न था। सफलता के मद में चूर वे स्वयं से बातें किए जा रहे थे। परंतु उनका सत्तर वर्षीय दुर्बल हृदय प्रसन्नता के इस तीव्र आवेग को सँभालने में असमर्थ होने लगा था और अंततः उसने प्रोफेसर कामीन का साथ देना अस्वीकार कर दिया। एक भीषण हृदयाघात ने प्रोफेसर की आँखों से सारे स्वप्न छीन लिए और इस प्रकार प्रोफेसर के सारे स्वप्न एवं उनका यह प्रयोग दुनिया अनजाना रह गया।
पता नहीं समय-चक्र कितना धूम चुका था और यह समय का कौन-सा हिस्सा था जब गुंजनकांत के सुप्त मस्तिष्क में चेतना समाने लगी और एक प्रश्न उनके मस्तिष्क में आ समाया।
‘‘क्या आप स्वस्थ अनुभव कर रहे हैं?’’ कोई उनसे यह पूछ रहा था।
‘‘हाँ’’ शब्दों के माध्यम से नहीं वरन् टैलीपैथी से, उन्होंने आँखें खोलकर चारों ओर देखा।
प्लास्टिक जैसे किसी पदार्थ से बनी यह कोई प्रयोगशाला लग रही थी, जहाँ अजीबोगरीब यंत्र रखे हुए थे। चारों ओर देखते हुए उनकी दृष्टि अपने साथ खड़ी आकृति पर गई। बड़ा-सा सिर, दुर्बल हाथ-पैर और झुर्रीदार चितकबरी त्वचा। मानव से मिलता-जुलता सा कोई प्राणी था। सिहरकर गुंजनकांत ने आँखें बंद कर लीं और मस्तिष्क अतीत में गोता लगाने लगा कि वे कहाँ थे, कहाँ सोए थे? एक क्षण सोचते ही उन्हें सब कुछ याद आ गया और वे झटके से उठ बैठे।
‘‘मैं कहाँ हूँ?’’ उनके मन में प्रश्न उठा, जिसे तुरन्त उनके अजनबी परिचायक ने भाँप लिया।
‘‘आप पृथ्वी पर हैं और लगभग एक शताब्दी बाद जागे हैं। कैंसर का उपचार तो बहुत पहले ही खोज लिया गया था, परन्तु भूगर्भिक हलचलों के कारण कैप्सूल में बंद आपका शरीर अज्ञात स्थान पर पहुँच गया, जहाँ कोई इसे देख न सका और आपको इतने लंबे समय बाद चैतन्य किया जा सका’’ उत्तर मिला।
‘‘धन्यवाद प्रोफेसर कामीन!’’ गुंजनकांत हर्षान्वित हो बुदबुदाए, ‘‘मैं बाहर घूमना चाहता हूँ’’ वह उत्सुक थे अपनी प्रिय परिचित पृथ्वी को देखने के लिए।
उनके अनजबी साथी ने आश्चर्य से उन्हें देखा और कहा,
‘‘ठीक है, परंतु आपको यह विशेष पोशाक पहननी होगी।’’ गुंजनकांत समझे कुछ नहीं, पर चुपचाप उन्होंने पूरे शरीर को ढकने वाली वह विचित्र पोशाक पहन ली।
‘‘आपका शरीर ऐस क्यों है?’’ साथ चलते- चलते गुंजनकांत ने पूछा।
एक विद्रूप मुस्कान उस आकृति के होठों पर उभर आई। ‘‘इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही अधिकतर कार्य स्वचालित यंत्रों से होने लगे थे। मानव अपने हाथ पैरों का प्रयोग कम से कम करने लगा और मस्तिष्क का अधिक से अधिक। परिणामस्वरूप हाथ-पैर दुर्बल हो गए और खोपड़ी का आकार बढ़ गया’’ अजनबी मानव ने स्पष्ट किया।
गुंजनकांत ने लैमार्क के सिद्धांत की सत्यता को स्पष्ट अनुभव किया।
‘‘आपकी त्वचा झुर्रीदार और चितकबरी क्यों हो गई?’’ गुंजनकांत ने पूछा। ‘‘हमारे बुद्धिहीन पूर्वजों ने पृथ्वी पर इतना प्रदूषण फैलाया कि सूर्य की पराबैंगनी किरणों को रोकने वाली ओजोन परत विखंडित हो गई। लाख कोशिशों के बावजूद हम उसे दोबारा न बना सके और हानिकारक किरणों के दुष्प्रभाव से हमारी त्वचा ऐसी बदरंग और झुर्रीदार हो गई। त्वचा-कैंसर जैसे रोग मानव में स्थायी रूप से पनप गए।’’ गुंजनकांत गहरी अपराध-भावना से भरे उठे, परंतु वे नहीं जानते थे कि अभी कुछ और भयानक सत्य उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
‘‘सावधान हो जाइए! हम पृथ्वी की सतह पर आ चुके हैं’’ परिचायक ने उन्हें चेतावनी दी और इसके साथ ही गुंजनकांत ने मानव की भूमिगत बस्ती से निकलकर पृथ्वी की सतह पर कदम रखा।
परंतु यह क्या! उन्होंने भयातुर हो देखा। मीलों तक फैली सूनी और सपाट पृथ्वी पर न तो पेड़-पौधे थे और न ही कोई पशु-पक्षी। कुछ था तो बस चारों ओर फैला आणविक कचरा, रेडियोधर्मी धूल के उड़ते बादल, बरोक-टोक आती सूर्य की पराबैंगनी किरणें और एक भयावह सन्नाटा।
बीसवीं सदी के तथाकथित बुद्धिमान मनुष्य के वनों की अंधाधुंध कटाई, परमाणु विस्फोटों और औद्योगिक प्रगति के नाम पर हानिकारक रसायनों का प्रयोग करके पर्यावरण को इतना अधिक प्रदूषित किया था कि जीव-शृंखला छिन्न-भिन्न हो गई और पृथ्वी के तापमान बढ़ता ही चला जा रहा था। प्रकृति का दोहन करते-करते एक स्थिति यह आई थी कि पृथ्वी के पेड़-पौधे और अन्य जीवधारी सदैव के लिए लुप्त हो गए थे। पर्यावरण इतना विषैला हो चुका था कि पृथ्वी पर खुले वातावरण में किसी जीवधारी का जीवित रहना असंभव हो गया था।
आज का मानव प्रयोगशाला में ऑक्सीजन तैयार कर और कृत्रिम ऊर्जा के कैप्सूल खाकर अपनी शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी करता था। पृथ्वी के दूषित वातावरण से बचने के लिए वह विशेष रूप से बनाए गए भूमिगत आवासों में रहकर जीवन बचाए रखने की चेष्टा कर रहा था, परंतु इस प्रकार वह कब तक मानव-जाति का अस्तित्व बनाए रख सकता था। एक न एक दिन उसे भी अन्य जीवधारियों की भाँति समाप्त हो ही जाना था। पृथ्वी को प्राणविहीन करने का उत्तरदायी मानव स्वयं ही तो था। गुंजनकांत भय से थर-थर काँप रहे थे। उनकी पृथ्वी पर तो पशु विचरते थे, पक्षी कलरव करते थे, नदियाँ व झरने कल-कल करते बहते थे, हरी-भरी सुरम्य वादियाँ गुनगुनाती थीं और पर्वत शान से सिर उठाए खड़े रहते थे। ठंडी, ताजी हवा के वे सुगन्धित झोंके कहाँ थे, जिन्होंने उनमें जीवित रहने की अदम्य लालसा जगाई थी?
अपनी भावी पीढ़ियों को यह कैसी विरासत सौंपी थी मानव ने! कभी मनुष्य पर अपना स्नेह लुटाने वाली प्रकृति आज भयानक और निर्मम मृत्यु का रूप धरे चीख रही थी। ऐसी पृथ्वी पर वे जीवित नहीं रहना चाहते थे। संसार में अकेले रह जाने की अनुभूति ने यकायक उनका मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया। उन्होंने अपनी विशेष पोशाक उतार फेंकी और तेजी से बाहर की ओर भाग खड़े हुए, जहाँ चीत्कारें भारती मृत्यु ने तुरंत उन्हें अपने आलिंगन में ले लिया।
(विज्ञान कथा - जनवरी - मार्च 2017 से साभार)
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