संगीत एक कला है। अनादिकाल से ही संगीत मानव के आत्मिक उल्लास एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम रहा है। एक सम्मोहन विधा है संगीत,...
संगीत एक कला है। अनादिकाल से ही संगीत मानव के आत्मिक उल्लास एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम रहा है। एक सम्मोहन विधा है संगीत, दूसरे शब्दों में जीवन का एक छलकता सुहाना छन्द है। एक सहज आनन्द की अनुभूति है । एक खो जाने की प्रक्रिया, तन्मय हो जाने का भाव, अनन्य साधना की स्वर लहरी है - संगीत । जो सर्वसाधारण को आकृष्ट करती है ।
संगीत से जुड़ी है कायनात। संगीत से जुडे हैं मुकाम ॥
जिसने साध लिया संगीत को। उसने ऊँचे किए हैं मुकाम ॥
भारतीय संगीत की आधारशिला आध्यात्मिक है। विद्वानों के मतानुसार भगवान ब्रह्म से भगवान शंकर, भगवान शंकर से माँ सरस्वती और माँ सरस्वती से नारद को इस विधा का ज्ञान प्राप्त हुआ, नारद ने भरत आदि विद्वानों के द्वारा इस विधा का प्रचार-प्रसार स्वर्ग तथा भू-लोक पर किया। संगीत के प्रत्येंक स्वर में ‘ऊँ’ की प्रिय ध्वनि गुंजित होती है। इस कला की साधना से साधक स्वर के अभ्यास से कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करके स्वरों के माध्यम से आत्मा को आत्मसात् करता है।
अध्यात्म एक समस्त पद है। जिसका अर्थ है आत्मा को अधिकृत करना। अध्यात्म के रंग में रंग कर कलाकारों ने विश्व के प्रत्येक रूप में दिव्य सत्ता का साक्षात्कार किया है। आत्म साक्षात्कार तथा ईश्वरोपासना का सरलतम तथा प्रभावकारी माध्यम है - संगीत। अध्यात्मक के द्वारा प्राणी को उस परम सत्ता की प्राप्ति होती है जिसने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है। जब प्राणी अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करके, सभी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करके, सुख-दुख में समान रहने में सक्षम होकर अपना समस्त जीवन परमात्मा को अर्पित करता है तब वह अपने स्वयं के आत्मिक उत्थान की ओर अग्रसर होता है।
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संगीत का मूल नाद में है नाद से वर्ण की, वर्ण से पद की, पद से वाणी की अभिव्यक्ति होती है। अतः सम्पूर्ण जगत नाद के अधीन है। नाद की महिमा बताते हुए भगवान विष्णु नारद से कहते हैं -
नाहं वसामि बैकुंठे योगिनां हृदय न च । मद भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदः ॥
अर्थात् - हे नारद मैं न तो बैकुंठ में रहता हूँ न योगियो के हृदय में अपितु जहाँं मेरे भक्तजन मेरा गायन करते हैं, मेरा निवास वहां होता है।
अतः संगीत कला का स्वरूप नाद बिन्दुओं द्वारा ही उजागर होता है। नाद को ब्रह्म समान कहा गया है। इस आध्यात्मिक शक्ति को हमारे विद्वान प्राचीन काल से ही स्वीकार करते आ रहे हैं। संगीत साधना को मनीषियों ने मानव के जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन बताया है। संगीत विद्या मोक्ष दायिनी है। सरस्वती के प्रसाद के रूप में यह विद्या मानव को प्राप्त होती है। संगीत की साधना समीर के शीतल झोंके और वासनाओं, आसुरी भावनाओं को अमूल उच्छेदन कर पवित्र बना देती है।
संगीत में स्वरों के अभ्यास से सूक्ष्म बुद्धि का विकास तथा ध्यान की एकाग्रता की शक्ति बढती है। यद्यपि आध्यात्मिकता का मूल एकाग्रता में ही है। संगीत कला का आरम्भ ही एकाग्रता से होता है। स्वर का उच्चारण करना और उसी पर स्थिर रहकर स्वर का अभ्यास करना संगीत की तरफ आकर्षित होने का मार्ग है। संगीत की साधना से श्रोताओं को भी एकाग्रचित होने का अभ्यास हो जाता है व उनका आध्यात्मिक विकास भी आरोही सोपानों पर गमन करने लगता है।
जपादष्ट गुणं ध्यानं ध्यानादष्टगुणं तपः । तपसोष्टगुण गानं गानात्परतरं न हि ॥
अर्थात् - जाप से आठ गुणा ध्यान, ध्यान से आठ गुणा तप व तप से आठ गुणा गान है और गान से परे कुछ नहीं।
भारतीय मनीषियों ने केवल गान को ही नहीं, संगीत के अन्य वादन व नृत्य द्वारा भी मानव दैवी शक्तियों को प्रसन्न करने का माध्यम माना है। अतः संगीत में ईश्वर से साक्षात्कार करने की असीम शक्ति निहित है। संगीत और आध्यात्म का सम्बन्ध घनिष्ठ है। तल्लीनता से किया गया गायन, वादन व नृत्य भगवान विष्णु को प्रसन्न कर देता है। नाद जो कि परम श्रेष्ठ है जिसे देवी सरस्वती की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है। संगीत साधक नाद के माध्यम से अपने हृदय में निहित अनुभूतियों को गाकर ही साकार रूप प्रदान करते हैं। हृदय का उद्रेक, भाव की संवेदना, विचार शक्ति इन सबकी अभिव्यक्ति वाणी के द्वारा ही होती है। यह वाणी स्वरमयी एवं शब्दमयी होती है और स्वर तथा शब्द नाद के अधीन हैं। शरीर के क्रमशः पांच स्थानों में नाद के पांच प्रकार की ध्वनि रहती है- अतिसूक्ष्म, सूक्ष्म, अपुष्ट, पुष्ट और कृत्रिम। 1 अतिसूक्ष्म नाभि में, 2 सूक्ष्म हृदय में, 3 अपुष्ट तालु में, 4 पुष्ट कण्ठ में, 5 कृत्रिम मुख में रहती है। इन पांच प्रकार की ध्वनियों का प्रयोग साधक अपने अभ्यास में करता है। जब साधक संगीत सौन्दर्य का आलौकिक आस्वादन करता है वह स्थिति उसकी सर्वोच्चता तन्मयता की होती है। उस समय साधक की आत्मा अपने अभ्यास से स्वरों की साधना में लीन होकर समस्त सांसारिक विषयों से हटकर ‘नाद ब्रह्म’ में विलीन हो जाती है। इस साधना के क्षणों में ही संगीत साधक को आध्यात्मिक अनुभूति होती है। मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन है संगीत जो कि मीरा बाई के संगीत साधना में मिलता है। मीरा ने अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए काव्य और संगीत का सहारा लिया। संगीत से सहज ही रजोगुण, तमोगुण व विजय व सतगुण की प्राप्ति होती है। ‘ऊ’ँ की साधना गायक को स्वर पर स्थिर करती है जिससे कलाकार ब्रह्म में साकार हो जाता है।
संगीत के द्वारा साधक समस्त मायाजाल व विचारों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक स्तर की उत्कृष्टता प्राप्त करता है। एक संगीत साधक अपनी साधना द्वारा सांसारिक व्याधियों से मुक्त होकर स्वयं का नैतिक, आत्मिक, धार्मिक व कलात्मक उत्थान कर सकता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आध्यात्मिकता का मूल एकाग्रता में है और संगीत कला का आरम्भ एकाग्रता से ही होता है। स्वर का उच्चारण उसी पर स्थिर रहकर अभ्यास करना ही आध्यात्मिकता का मार्ग प्रशस्त करती है। भारतीय मनीषियों ने संगीत को आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति का सबल माध्यम माना है। नादोपासना में निहित मुक्तिदायिनी शक्ति की महिमा वर्णित है। आहत नाद की उपासना अर्थात् संगीत के अभ्यास से अनाहद नाद की प्राप्ति स्वतः हो जाती है। अभ्यास व आध्यात्मिकता का गहरा सम्बन्ध है। भारतीय संगीत की आत्मा का आलौकिक श्रृंगार है आध्यात्मिकता। संगीत साधक व श्रोता दोनों ही स्वरों के अभ्यास जो ‘ऊँ’ में निहित है पर एकाग्रचित होकर ध्यानादि से वृत्तियों के लाभ प्राप्त कर सकते हैं जिसके माध्यम से उन्हें आलौकिक, आत्मिक, रसानुभूति प्राप्त होती है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
· संगीतायन - सीमा जौहरी
· भारतीय संगीत (शिक्षा और उद्देश्य) - डॉ0 पूनम दत्ता
· संगीत और संवाद - अशोक कुमार
· संगीत मैनुअल - डॉ0 मृत्युंजय शर्मा
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श्वेता अरोड़ा
शोध छात्रा
संगीत एवं नृत्य विभाग,
कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय,
कुरूक्षेत्र-136118 (हरियाणा)
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