आलेख ‘ वाटन ’ के व्याज से डॉ. रामवृक्ष सिंह हमारे घर में झाड़ू-पोंछा करनेवाली बच्ची से रस्मी बातचीत करने के उद्देश्य से पत्नी ने पूछा- ‘छ...
आलेख
‘वाटन’ के व्याज से
डॉ. रामवृक्ष सिंह
हमारे घर में झाड़ू-पोंछा करनेवाली बच्ची से रस्मी बातचीत करने के उद्देश्य से पत्नी ने पूछा- ‘छोटी, रात को क्या खाना बना था?’ अख़बार बाँचते-बाँचते हमारा ध्यान भी इस बातचीत की ओर गया। ‘आरती ने चटनी वाट ली थी। बस चटनी-रोटी और चावल खा लिए सब लोग।’ छोटी ने बड़े उत्साह से अपने अभावग्रस्त डिनर का मीनू बता दिया। गरीब मज़दूर किस तरह का भोजन करके अपना जीवन-यापन करते हैं, इसकी मीमांसा अर्थशास्त्र और समाज-विज्ञान का विषय हो सकता है। भाषा के इस विद्यार्थी को इस बातचीत में जिस शब्द ने चौंकाया, वह था- ‘वाटना’।
अकबर के नौरत्नों में से एक, उसके वीर सिपहसालार, बैरम खाँ के सुपुत्र दरबारी कवि रहीम ने एक नीतिपरक दोहा लिखा था- यों रहीम सुख होत है उपकारी के संग। बाटन वारे को लगे, ज्यों मेंहंदी कौ रंग। बचपन से हम यह दोहा पढ़ते आए, और यह समझते रहे कि यहाँ वाटन या बाटन या बाँटन शब्द का अर्थ बाँटना यानी वितरण करना है। तेलुगु में डाकिए को पत्र-बंट्रोतु कहते हैं, यानी चिट्ठियाँ बाँटने वाला। हिन्दी में संस्कृत से आगत शब्द है आवंटन, यानी बाँटना- अलॉमेंट। इससे लगता है कि संस्कृत में वंट धातु होती होगी, जिससे से शब्द बने हैं। हिन्दी फिल्मों का एक गीत भी रहा है- एक बटा दो, दो बटे चार। छोटे-छोटे बाटों में बँट गया संसार। किसी बड़ी वस्तु के छोटे-छोटे कई टुकड़े करके उसे कई लोगों को देना एक क्रिया है, जिसे बाँटना कहा जाता है। तौल या वज़न के मापक छोटे से लेकर बड़े कई तरह के बाटों की बात हम सुनते-देखते आए हैं, जैसे पचास ग्राम का बाट, सौ ग्राम का बाट और पचास किलो का बाट। मूल भावना शायद यहाँ भी बाँटने की ही है। किसी बड़ी वस्तु को वज़न की विभिन्न इकाइयों में बाँटकर उसके परिमाण को इंगित करना।
किन्तु वाटना शब्द जो पीसने के अर्थ में प्रयुक्त है, वह किस संस्कृत की किस धातु से बना है, यह देखना पड़ेगा।
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बहरहाल, अपने घर काम करनेवाली बच्ची के मुख से जब चटनी पीसने की क्रिया के लिए वाटन शब्द सुना तब हमारे ज्ञान-चक्षु खुल गए कि अरे, रहीम ने ‘वाटन वारे’ जो लिखा, उसका अर्थ पीसने से था। अब तो पिसी हुई चूर्ण मेंहंदी भी मिलने लगी है। पहले लोग मेंहंदी के पत्ते तोड़कर उन्हीं को सिल पर बट्टे से पीसा करते थे, जैसे हरी चटनी पीसी जाती है। सिल संस्कृत की शिला का तद्भव रूप है। उसे सिल नाम मिला, उसके शिला का टुकड़ा होने के कारण और बट्टे को बट्टा कहा गया, बटने यानी रगड़कर पिसाई करने की क्रिया में प्रयुक्त होने के कारण।
बटने से आशय है किसी वस्तु को बार-बार, गोल-गोल पीसना या संपीड़ित करना। पटसन या किसी भी अन्य रेशे से रस्सी बनाने की प्रक्रिया भी बटना ही कहलाती है। रेशों को आपस में मिलाकर हाथ से, तकली से या फिर किसी यंत्र से गोल-गोल घुमाकर ऐँठते जाइए तो बारीक रेशे भी रस्सी का रूप ले लेते हैं। इसी प्रकार सिल पर बट्टे को दोनों ओर के सिरों से ढीला पकड़कर, सिल और बट्टे की सतह के मध्य कोई भी पिसने योग्य वस्तु रखकर जब बट्टे को गोल-गोल घुमाकर, दबाते हुए आगे-पीछे किया जाता है तो दोनों सतहों के मध्य रखी वस्तु टुकड़ा-टुकड़ा होकर पिसने लगती है, वटने लगती है। वटने या बटने की इस प्रक्रिया को संपन्न करने में जो सबसे ज़रूरी वस्तु काम आती है, वह है बट्टा, यानी जिससे बटा जाता है। बट्टे को कहीं-कहीं लोढ़ा भी कहा जाता है। लोढ़ा इसलिए कि वह सिल पर लोढ़ाया जाता है, आगे-पीछे धकेला-खींचा जाता है। यूं लोढ़ाने का काम सूप से भी होता है। सूप में सरसों आदि रखकर लोढ़ाए जाते हैं, जिससे भारी दाने एक ओर हो जाते हैं और पइया यानी निस्सार दाने एक ओर निकल आते हैं। लोढ़ाने का अर्थ है लुढ़काना।
बट्टे को सिल पर लोढ़ाने भर से काम नहीं चलेगा। थोड़ा दबाकर लोढ़ाते हुए पीसना होगा, तभी दोनों सतहों के मध्य स्थित ठोस सामग्री पिसकर चूर्ण के रूप में और पानी के साथ मिलने पर घोल के रूप में परिवर्तित होगी। इसलिए चटनी वटना सबसे उपयुक्त प्रयोग प्रतीत होता है।
चटनी पीसना भी कहा जाता है, किन्तु पीसना क्रिया ठोस और शुष्क पिसाई के लिए अधिक उपयुक्त लगती है। इसीलिए गेहूँ, चना, मकई आदि को पीसा जाता है और इस क्रिया में मिलने वाली सामग्री पिसान कहलाती है। पीसने से जो मिला वह हुआ पिसान।
गन्ने या किसी अन्य ठोस वस्तु जैसे सरसों, नारियल व अन्य तिलहनों में से तरल रस, तेल आदि प्राप्त करने के लिए उनको पेरा जाता है। हालांकि संपीड़न वहाँ भी होता है, किन्तु उसकी त्वरा केवल उतनी होती है, जिससे ठोस में मौजूद अधिक से अधिक तरल पदार्थ बाहर आ जाए। शेष ठोस सामग्री पेराई के बाद खोइया या खली आदि के रूप में रह जाती है।
वाटना, पीसना, पेरना के ही क्रम में एक और शब्द है- मींजना। जब हम अपनी हथेली से किसी चीज़ को दबाकर उसका रस निकालते हैं तो यह क्रिया मींजना कहलाती है। आँखें मींजना और वनस्पतियों के बीज, पुष्प अथवा पत्ते मसलकर उऩका रस निकालना भी मींजना क्रिया के ही विभिन्न उदाहरण हैं। हाथ मींजते/मलते रह जाना मुहावरा भी प्रचलित है।
उपर्युक्त शब्दों की संक्षिप्त मीमांसा का उद्देश्य इस तथ्य की ओर संकेत करना है कि हिन्दी की आत्मा संस्कृत में नहीं, उसकी बोलियों, देशज शब्दों और उनसे विकसित हुए रूपिमों में निवास करती है। यदि हिन्दी को आगे बढ़ाना है, उसे अधिकाधिक प्रचलन में लाना है तो इन लोक-प्रचलित शब्दों और पदबन्धों की प्रतिष्ठा करनी होगी। सरकारी दफ्तरों में जो हिन्दी विकसित हो रही है, वह उस पीपल की बोन्जाई के मानिंद है, जिसकी जड़ें, तना और पत्ते सब के सब बौने और सीमित सामर्थ्य वाले हैं। और मज़े की बात तो यह है कि हिन्दी की इस बोन्जाई को चाहने वाले भी निरन्तर घट रहे हैं। उसके बरक्स अंग्रेजी का विशाल वटवृक्ष फल-फूल रहा है, जिसके किसी कोटर में हिन्दी की इस बोन्जाई को छांव मिल जाए तो मिल जाए, वरना तो कोई उम्मीद नहीं दिखती।
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