आलेख प्रस्तर युग में सरकती कश्मीर घाटी जवाहरलाल कौल ज ब भी जम्मू कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों में ठहराव आने लगता है तो उसे तोड़ने क...
आलेख
प्रस्तर युग में सरकती कश्मीर घाटी
जवाहरलाल कौल
जब भी जम्मू कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों में ठहराव आने लगता है तो उसे तोड़ने के लिए किसी ऐसा नेता की हत्या करने की योजना बनती है जो लोकप्रिय हो. बरसों पहले जब अलगाववादी नेताओं में पुनर्विचार होने लगा और आतंकवादी गुटों के लिए पांव जमाना मुश्किल हो गया तो मीरवाइज मौलवी फारुक की रहस्यमय हत्या करवा दी गई. रहस्य इसलिए रखना आवश्यक था कि इस का दोष सेना और भारत सरकार पर थोपा जा सके. इस से आतंकवादी लहर तेज हुई और आतंक का एक लम्बा दौर चल पडा. जब इस आतंक का प्रभाव आम जनता से हटने लगा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया जोर पकड़ने लगी तो एक और कद्दावर नेता अब्दुल गनी लोन की हत्या कर दी गई. अब जब भारत में नए तरह की सरकार टिक गई और जम्मू कश्मीर में भी दो ऐसे दलों के बीच सरकार बनाने का गठबंधन हो गया जिस की कल्पना कुछ वर्ष पहले तक कोई नहीं कर सकता था तो आतंकवादियों के लिए ही नही, गैर हथियारबंद अलगाववादी गुटों के लिए भी यह खतरे की घंटी थी. नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समरोह में पाकिस्तान के प्रधान मंत्री के शामिल होने के पश्चात मोदी नवाज शरीफ मित्रता की हवा बहने से पहले ही पाकिस्तानी राजनीति पर हावी वर्ग यहां तक आरोप लगाने लगे कि नवाज शरीफ ने भारत के प्रधान मंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में हाजिरी देकर उपमहाद्वीप पर भारत की प्रभुता को ही स्वीकार कर लिया. नवाज मोदी सम्बंधों को शत्रुता में बदलने में उन्हें अधिक देर नही लगी. तभी से कश्मीर में हालात बिगाड़ने की तरकीबें सोची जाने लगीं. यह मौका उन्हें मुफ्ती मोहम्मद सईद की मुत्यु और फिर सरकार बनाने में दो महीने के अनिश्चय से मिल गया. महबूबा मुफ्ती को एक कमजोर नेता मानते हुए कश्मीर सरकार को अस्थिर करने के लिए भी किसी आजमाए हुए नुस्खे की तलाश थी जो एक नौजवान बुरहान वानी ने मुहैय्या कर दिया. नेट और सोशल मीडिया के शौकीन बुरहानी में उस के पाकिस्तान नियंत्रकों को संभावनाए दिखाई दीं. नेट पर उस की छवि चमकाने के लिए आवश्यक था कि उसे कोई अहम पद दिया जाए और वह हिज्बे मुजाहिद्दीन आतंकवादी गुट का कमांडर बना दिया गया. ऐसे व्यक्ति की अगर हत्या हो जाए तो अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही महबूबा सरकार के लिए स्थिति सम्भालना असंभव नही तो बहुत कठिन तो होगा ही. लगे हाथों मृतप्राय हिजबुल मुजाहिद्दीन में भी नई जान फूंक दी जाएगी. बुरहान की हत्या के लिए किसी रहस्यमय योजना की आवश्यकता ही नहीं थी. वह खुल कर अपनी दूरदर्शनीय छवि बना रहा था. देर सवेर सुरक्षा बलों का उस तक पहुंचना कोई असाधारण घटना नहीं थी.
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एक नायक की मौत पर, भले ही वह केवल छाया नायक ही क्यों न हो, विरोध और आवेश पैदा करने के लिए कई महीने का समय आवश्यक था जो उन्हें मुफ्ती की मौत के बाद मिल गया. इस के लिए पहले से परीक्षित समरनीति को अपनाने का ही फेसला किया गया. पत्थरबाजी और कम उम्र के बच्चों का इस्तेमाल...दोनों का उपयोग जब पहली बार हुआ था तब भी प्रशासन लगभग बेबस हो गया था और केंद्र सरकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर केवल बचावी स्थिति में आ गया था. आज भी पहले कुछ सप्ताह तक वही बेबसी कश्मीर प्रशासन और भारत सरकार में दिखाई दी. अपने विरोधियों पर पत्थर मारना कश्मीर में कोई नई बात नहीं, लेकिन पत्थरबाजी को सुरक्षा बलों के खिलाफ एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की समरनीति 2008 के बाद ही विकसित हुई. तब के मुख्यमंत्री ने इसे नेतृत्त्व विहीन जमात कहा था. लेकिन आज वह नेतृत्त्वहीन नहीं है. उसे कही से निर्देश मिलते हैं, कहीं से वित्तीय सहायता मिलती है. कोई भी बंद कुछ दिनों के पश्चात ही आम जनता के लिए असह्य हो जाता है. लोग उसे समाप्त करने के प्रयास आरम्भ करते हैं, चाहे वह आंदोलनकारियों की हडताल हो या फिर सरकार का लगाया कर्फ्यू. श्रीनगर में भी लोगों को जीने के लिए दिन प्रतिदिन की आवश्यकताएं पूरी करनी होती हैं. उन में अपने ही घरों की कैद से बाहर आने की छटपटाहट पैदा होती है. लेकिन अगर दो महीने पश्चात भी लोग कुछ सरकारी प्रतिबंधों के कारण और कुछ आत्मबंधन के कारण जी रहे हैं तो यह आवश्यक है उन्हें कहीं से सहायता मिल रही है. लेकिन जिन लोगों का व्यवसाय इस बात पर निर्भर है कि बाजार खुले रहें और लोग सुरक्षित घूम फिर सकें, यातायात उपलब्ध हो, उन मजदूरों, नाव वालों, होटल वालों और टैक्सी वालों की हानि की भरपाई कोई अदृश्य ताकत नहीं कर सकती है.
जब भी प्रशासन को इस प्रकार की स्थिति का सामना करना पडता है उस की दलील यही होती है कि यह समस्या राजनैतिक है केवल आर्थिक सहायता से शांति नहीं आ सकती है. यही 2009 में उमर अब्दुल्ला ने दी थी और यही महबूबा भी दे रही है. लेकिन दूसरी और यह दलील भी दी जाती है कि बच्चे इसलिए सडकों पर पत्थरबाजी के लिए आते हैं कि वे बेरोजगार है, शिक्षित होने पर भी उन के पास अपनी शिक्षा का कोई उपयोग नही है. यह सच हो सकता है. लेकिन अगर कश्मीरी शिक्षित युवकों के पास काम नहीं, वे आर्थिक शक्ति बनते हुए भारत की प्रगति का हिस्सा बनना चाहते हैं लेकिन नहीं बन पा रहे हैं तो उन्हें यह भी समझ लेना होगा कि आज की दुनिया में सरकारी नौकरियों पर ही सारा रोजगार निर्भर नहीं रह सकता है. आज रोजगार देने में निजी उद्योगों की भूमिका सब से अधिक है. लेकिन उन्हें यह पूछना चाहिए कि कश्मीर में, जहां उद्योगों के लिए आवश्यक पानी, बिजली और जमीन की कमी नहीं है, उद्योग क्यों नहीं लगते. किसी दूसरे राज्य के पूंजीपति को कश्मीर में उद्योग लगाने के लिए जमीन नही मिलती, तो उद्योग कहां से लगेंगे? रोजगार कहां से आएगा? राजनीति तो आर्थिक विकास के ही लिए मार्ग बनाती है, लेकिन यहां तो राजनीति ही आड़े आती है तो फिर शिकायतों का हल कहां से आएगा? कश्मीर के अलगाववादी नेता कश्मीरी युवकों को एक ऐसे चक्रव्यू में फंसाते जा रहे हैं जिस से निकलने का मार्ग उन्हें नहीं आता.
कश्मीर घाटी में छोटे छोटे गुटों और जमातों का चलन नया नहीं है जो किसी न किसी विदेशाी शक्ति के नियंत्रण में रहे हैं. दुर्भाग्य से आज तक पूरे राज्य का कोई प्रभवशाली नेता सामने नहीं आया है. पूरे राज्य के किसी मान्य नेतृत्त्व के अभाव में अनेक गुटों में बंटी कश्मीर की राजनीति में अलगाववाद उन का व्यावसाय बन गया है. इसलिए वे कभी स्वाधीन नहीं रहे, सारी राजनीति विदेशी ताकातों के इशारे पर ही चलती रही है. आजादी से पहले भी कश्मीर का आंदोलन लाहौर से चलता था और आजादी के बाद भी पाकिस्तान से चलता है. जाने अनजाने भारत सरकारें भी इस स्थिति को बनाए रखने में सहायक ही सिद्ध हुई हैं. जब मोदी सरकार हुरियत नेताओं के खचरें में कटौती की बात करने लगी तब अधिकतर लोगों को पहली बार पता चला कि अलगाववाद और भारत विरोध को वित्तीय सहायता भारत सराकर के खजाने से भी जाती है.
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