श्रीराम श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग - नवधाभक्ति के श्रीरामकथा में नवरत्न ‘मानसश्री’ डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता ’’ मानस शिरो...
श्रीराम
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग -
नवधाभक्ति के श्रीरामकथा में नवरत्न
‘मानसश्री’ डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
’’मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति’’
भारतीय संस्कृति में प्रभु भक्ति का सदैव प्रभुत्व रहा है । हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में इन भक्तियों को बड़ी ही सूक्ष्मता से वर्णित भी किया है । मीरा, नरसीमेहता ,संत तुकारामजी, गोस्वामी तुलसीदासजी, संत एकनाथ , संत रामदासजी ,महर्षि नारदजी,महर्षि वाल्मीकि, चेतन्य महाप्रभु, भक्त प्रहलाद, भक्त ध्रुव, संत रैदास आदि सभी ने भक्ति के अनेक रूपों में से चुनकर भगवान् के सामीप्य का लाभ प्राप्त कर, हमें इस मार्ग के अनुकरण करने की शिक्षा दी है । इन सब भक्तों -संतों एवं ऋषियों मे कहीं न कहीं नवधा भक्ति परिलक्षित होती है । अतः नवधा भक्ति क्या है ? इसे इस रचना के द्वारा स्पष्ट करने का लघु प्रयास है ।
श्रीरामचरित मानस का कोई न कोई प्रमुख पात्र इन नौ भक्तियों में से किसी एक का प्रमुख रूप से नायकत्व -प्रतिनिधित्व करता हुआ उन भक्तियों को और अधिक बलवती करता हुआ पाठकों के चक्षुओं को तरलता प्रदान करके नवधा भक्ति को चरमोत्कर्ष पर ले जाते हैं ।
हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र की शिक्षा उपरांत अपनी गोद में बैठाकर उसका सिर सूँधा उसके नेत्रों से प्रेम के आँसू गिर-गिर कर प्रहलाद के शरीर को भिगोने लगे । उसने अपने पुत्र से पूछा - चिरंजीव बेटा प्रहलाद ! इतने दिनों तक तुमने जो शिक्षा प्राप्त की है , उसमें से कोई अच्छी सी बात तो हमें सुनाओ । प्रहलाद ने कहा -
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दन दास्यं संख्यमात्मनिवेदनम् ॥
श्रीमद्भागवत 7-5-23
पिताजी ! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद है - भगवान के गुण-लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके रूप नाम आदि का स्मरण ,उनके चरणों की सेवा ,पूजा -अर्चना वंदन दास्य ,सख्य और आत्म निवेदन । यदि भगवान् के प्रति समर्पण भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ । इसके बाद क्या हुआ ? हम सब जानते हैं कि भगवान् नृसिंह ने भक्त प्रहलाद की रक्षा हेतु हिरण्यकशिपु का वध कर दिया ।
इसी प्रकार नवधा भक्ति श्रीरामचरितमानस में एवं अध्यात्मरामायण में शबरी को श्रीराम द्वारा दी गई है । श्रीराम ने शबरी से कहा -
जाति पाँति कुल घर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
नवधा भगति कहऊँ तोहि पाहिं । सावधान सुनु धरू मन माहीं ॥
प्रथम भगति संन्तह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
दोहा- गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ॥
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन घरमा ॥
सातव सम मोहि मय जग देखा । मोते संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥
नव मुहँ एकउ जिन्ह कें होई । नारि पुरूष सचराचर कोई ॥
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड34/3/4-35-1-2-3
जाति,पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन ,बल, कुटुम्ब गुण और चतुरता ,- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है ? जैसे जलहीन बादल दिखाई पड़ता है । श्रीराम ने कहा - मैं तुमसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर।
पहली भक्ति है संतों का सत्संग।
दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम ।
तीसरी भक्ति अभिमान रहित होकर गुरू के चरण कमलों की सेवा ।
चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें ।
मेरे (राम) मंत्र का जाप मुझ में दृढ़ विश्वास-यह पाँचवी भक्ति है जो कि वेदों में प्रसिद्ध है।
छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह शील (अच्छा आचरण या चरित्र) अनेक कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संतपुरूषों के धर्म (आचरण) में रत या लगे रहना ।
सातवीं भक्ति है सम्पूर्ण जगत स्वभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना ।
आठवीं भक्ति है जो कुछ भी प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये (दूसरों के दोषों को न देखना)
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित व्यवहार करना ,हृदय में मेरा विश्वास-भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना । इन नौ में से जिनके एक भी भक्ति होती है , वह स्त्री-पुरूष , जड़ चेतन कोई भी हो । हे भमिनी मुझे वहीं अत्यन्त प्रिय है। तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति है । अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है ,वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है
यही नवधा भक्ति का अध्यात्मरामायण के अरण्यकाण्ड में आठ श्लोकों में वर्णन प्राप्त होता है यथा -
पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः ।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्॥
यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः ।
नैव द्रष्टुमहं शक्यों भद्भक्ति विमुखैः सदा॥
तस्माद्भामिनि संक्षेपाद्वक्ष्येऽंह भक्तिसाधनम्।
सतां संगंतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम् ॥
द्वितीयं मत्कथालापस्तृतीयं मद्गुणेरणम् ।
व्याख्यातृत्वं मद्वचसां चतुर्थं साधनं भवेत् ॥
आचार्योपासनं भदे्र मद्बुद्ध्यामायया सदा ।
पंचमं पुण्यशीलत्वं यमादि नियमादि च ॥
निष्ठा म्त्पूजने नित्यं षष्ठ साधनमीरितम् ।
मम मन्त्रोपासकत्वं सांग सप्तममुच्यते॥
मद्भक्तेष्वधिका पूजा सर्वभूतेषु सन्मतिः ॥
बाह्यार्थेशु विरागित्वं शमदिसहितं तथा ।
अष्टमं नवमं तत्वविचारो मम भामिनि ।
एवं नवविधा भक्तिः साधनं यस्य कस्य वा ॥
अध्यात्मरामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 10-20 से 27
श्रीराम ने शबरी से कहा - पुरूषत्व-स्त्रीत्व का भेद अथवा जाति, नाम और आश्रम ये कोई भी मेरे भजने के कारण नहीं है । उसका कारण तो एक मात्र मेरी भक्ति ही है जो मेरी भक्ति से विमुख ह,ै वे यज्ञ, दान तप अथवा वेदाध्ययन आदि किसी भी कर्म से मुझे कभी नहीं देख सकते । अतः हे भामिनि ! मैं संक्षेप में अपनी भक्ति के साधनों का वर्णन करता हूँ । उनमें पहला साधन तो सत्संग ही है । मेरे जन्म कर्मों की कथा-कीर्तन करना , दूसरा साधन है मेरे गुणों की चर्चा करना यह तीसरा उपाय है और मेरे वाक्यों की व्याख्या करना उसका चौथा साधन है । हे भद्रे अपने गुरूदेव की निष्कपट होकर भगवद् बुद्धि से सेवा करना पॉचवां चरित्र स्वभावि ,यम-नियमादिका पालन और मेरी पूजा में सदा प्रेम होना छठा तथा मेरे मंत्र की सांगोपांग उपासना करना सातवाँ साधन कहा जाता है । मेरे भक्तों की मुझसे भी अधिक पूजा करना ,समस्त प्राणियों में मेरी भावना करना, बाह्य पदार्थों में वैराग्य करना और शम-दमादि सम्पन्न होना , यह मेरी भक्ति का आठवाँ साधन है एवं तत्वविचार करना नौंवा है । हे भागिनि । इस तरह यह नौ प्रकार की भक्ति हैं ।
अतः यह सर्वमान्य एवं निस्सन्देह कहा जा सकता है कि भक्ति से मोक्ष प्राप्त होता है भक्ति इन नौ साधनों में से पहला ऐसा है कि इसमें जिसमें सभी भक्ति अपने आप आ जाती है , यह सत्संग ही है ।
यदि हम चिन्तन मनन करके इन नवधा भक्ति के रहस्य को समझने का प्रयत्न करें तो श्रीरामकथा में नौ पात्रों ने इसका जीवन में अनुकरण कर प्रभु की कृपा प्राप्त की है । श्रवण भक्ति में श्रीहनुमान्जी की भक्ति से श्रेष्ठतर उदाहरण अन्य कोई नहीं है - यथा
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकान्जलिम् ।
वाष्पवारिपूर्णलोचनं मारूतिं नमत राक्षासान्तकम् ॥
श्लोक का भावार्थ यह है कि जहाँ जहाँ श्रीरघुनाथजी का कीर्तन होता है वहाँ वहाँ विनयपूर्वक हाथ जोड़े हुए तथा प्रेमाश्रुओं से परिपूर्ण नेत्र वाले श्रीहनुमान्जी सदैव उपस्थित रहते हैं राक्षसों का अंत करने वाले ऐसे उन श्रीहनुमान्जी की वन्दना करना चाहिये ।
कीर्तन रूपा भक्ति का दर्शन महर्षि वाल्मीकि में स्पष्ट दिखाई देता है वे उल्टाराम का नाम जप कर महर्षि बन गये । महर्षि वाल्मीकि के बारे में कहा गया है कि वे रामचरितामृतका पान गायन गान करते हुए कभी भी तृप्त नहीं हुए । उन्होंने संगीतमय रामकथा लव-कुश को देकर अयोध्या नगरी में भेजा था ।उनकी उस संगीतमय रामकथा से श्रीराम भी भावविभोर हो गये थे।
स्मरण भक्ति श्रीसीताजी में कूट-कूट कर भरी थी । रावण द्वारा अपहरण कर लंका में जब वे वहाँ रही । चौबीस घन्टों श्रीराम का स्मरण करती रही। यथा -
दोहा - नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥
श्रीरामचरितमानस सुण्दरकाण्ड दोहा-30
पादसेवन भक्ति का उदाहरण श्री भरतजी की श्रीराम मे अनन्य भक्ति का श्रेष्ठतम उदाहरण है । श्री भरतजी ने 14 वर्षो तक नन्दीग्राम में रहकर तथा श्रीराम की चरण पादुकाओं का उनके सिंहासन पर अभिषेक करके श्रीराम के प्रतिनिधि बनकर राज्य संचालन किया । श्रीराम का पाद सेवन भक्ति का अद्वितीय उदाहरण अन्य कहीं भी देखने को मिलता नहीं है ।
अर्चनाभक्ति में शबरी की गणना करना भी उसकी भक्ति का अनुपम उदाहरण है ,श्रीराम की प्रतीक्षा एवं दर्शनलाभ के लिये उसने महर्षियों के आश्रम को अपना जीवन सेवा करने हेतु समर्पित कर दिया ।
वन्दना भक्ति विभीषण में थी वह एक राक्षस का भाई होने के उपरान्त राक्षसीवृत्ति से दूर रहा तथा लंकापति रावण को श्रीसीताजी सौंपने तथा राक्षसों के कृत्यों से दूर रहने का कहता रहा श्रीराम के चरणों में शरण उपरांत श्रीराम ने समुद्र के किनारे ही उसे तिलक कर लंकेश बना दिया था ।
दास्यभक्ति के दर्शन लक्ष्मणजी की भक्ति में है । वे बचपन से श्रीराम की छाया बनकर साथ रहे श्रीराम को 14 वर्षो का बनवास हुआ था, किन्तु लक्ष्मणजी उनके साथ तुरन्त चल दिए । वे एक क्षणमात्र भी अयोध्या न रहे । श्रीराम एवं सीताजी की सेवा कर उन्होंने दास्य भक्ति में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है ।
सेवहिं लखनु करम मम बानी। जाइ न सीलू सनेह बखानी ॥
लक्ष्मणजी मन वचन कर्म से श्रीरामचन्द्रजी की सेवा करते है उनके शाील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता ।
कृपासिंधु प्रभु होंहीं दुखारी। धीरज धरहीं कुसमय विचारी॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाही। जिमि पुरूषहिं अनुसर परिछाहीं॥
श्रीराम.च.मा.अयो.140-3
कृपा के समुद्र प्रभु श्रीरामजी दुःखी हो जाते हैं ,किन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज कर लेते है । श्रीरामचन्द्रजी को दुःखी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते है, जैसे किसी मनुष्य की परछाई उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है ।
सखा या मित्रता की भक्ति का साक्षात्कार हम श्रीराम एवं सुग्रीव की अग्नि प्रज्वलित कर प्रदक्षिणा के समक्ष मित्रता की शपथ में देखते है । सुग्रीव ने भी श्रीराम के कार्य में पूरी-पूरी सहायता दी है । इन दोनों की मित्रता हनुमान् जी ने अग्नि को साक्षी मानकर करवाई थी ।
अंत में इन नवधा भक्ति को समझने के बाद हमें इस कलयुग में सबसे सरल सुगम भक्ति श्रवण अर्थात श्रीराम की कथा एवं सत्संग में दिखाई देती है । यदि हम अपनी यथा शक्ति अन्य सात भक्ति में से चुनकर करें तो मानव जीवन सफल हो सकता है । यही बात तुलसीदासजी ने कहीं है -
बड़े भाग मानषु तन पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन गावा ॥
श्रीराम च.मा. उत्तर. 42-7
‘मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति’’ .103ए व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार उज्जैन (म.प्र.)पिनकोड- 456010
Email:drnarendrakmehta@gmail.com
COMMENTS