जयशंकर प्रसाद कब? शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी? वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी? रिक्त हो रही मधु से सौरभ सू...
जयशंकर प्रसाद
कब?
शून्य हृदय में प्रेम-जलद-माला कब फिर घिर आवेगी?
वर्षा इन आँखों से होगी, कब हरियाली छावेगी?
रिक्त हो रही मधु से सौरभ सूख रहा है आतप है;
सुमन कली खिलकर कब अपनी पंखुडियाँ बिखरावेगी?
लम्बी विश्व कथा में सुख की निद्रा सी इन आँखों में-
सरस मधुर छवि शान्त तुम्हारी कब आकर बस जावेगी?
मन-मयूर कब नाच उठेगा कादम्बिनी छटा लखकर;
शीतल आलिंगन करने को सुरभि लहरियाँ आवेंगी?
बढ उमंग-सरिता आवेगी आर्द्र किये रूखी सिकता;
सकल कामना स्रोत लीन हो पूर्ण विरति कब पावेगी?
झरना से ।
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प्रभाकर माचवे
मीत
झर-झर बूँदों में बरस पड़ी
मन की युग-युग से संचित निधि ।
यह पावस क्या आया सजनी
यह सजल सलज माया-रजनी
भर-भर पलकों से खिसक चली
रह-रह बरसों की संचित सुधि।
बिछ गयी फूटकर हरियाली
अंगार रहे दिल में आली
वे जाने कब आये कि गये,
जानू न विदा की मैं गति-विधि!
अनुक्षण / 1959 से।
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भारतभूषण अग्रवाल
मिलन
छलककर आयी न पलकों पर विगत पहचान,
मुस्करा पाया न ओठों पर प्रणय का गान;
ज्यों जुडी आँखें, तुम, चल पट्टा मैं मूक--
इस मिलन से और भी पीडित हुए ये प्राण |
तारसप्तक + 1943 से ।
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मैथिलीशरण 'लुप्त
अब तक लौटे नहीं प्रवासी ।
देखा करती है ऊपर चढ दूर-दूर तक दासी।
रवि आता है शशि आता है,
जग जगता फिर सो जाता है।
गन्ध मात्र मारुत लाता है,
बढती और उदासी ।
अब तक लौटे नहीं प्रवासी ।
कैसे कहूँ भूल भटके वे,
पर किस हेतु कहाँ अटके वे?
भूखे निज गंगा तट के वे,
गंगा उनकी प्यासी!
अब तक लौटे नहीं प्रवासी ।
--
विष्णुप्रिया से |
--
निरख सखी, ये खंजन आये,
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये!
फैला उनके तन का आतप, मन ने सर सरसाये,
घूमे वे इस ओर वहाँ, ये हंस यहाँ उड़ छाये!
करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाये,
फूल उठे हैं कमल, अधर-से ये बन्धूक सुहाये!
स्वागत, स्वागत, शरद, भाग्य से मैंने दर्शन पाये,
नभ ने मोती वारे, लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये!
--
साकेत , (नवम सर्ग) से ।
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मंगलेश डबयाल
16
बाहर एक बाँसुरी सुनाई देती है
एक और बाँसुरी है
जो तुम्हारे भीतर बजती है
और सुनाई नहीं देती
एक दिन वह चुप हो जाती है
तब सुनाई देता है उसका विलाप
उसके छेदों से गिरती है राख
'हम जो देखते हैं / 1995 से 'पुनर्रचनाएँ' श्रृंखला की सोलहवीं कविता (इस
संचयन में शामिल मंगलेश डबराल की सभी कविताएँ इसी शृंखला से हैं)
शृंखला के आरम्भ में कवि ने यह टिप्पणी अंकित की है : 'ये कविताएँ पहाड
के दूर-दराज क्षेत्रों के ऐसे लोकगीतों से प्रेरित हैं जिन्हें लोककविताएँ कहना
ज्यादा सही होगा पर ये उनके अनुवाद नहीं हैं।''
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ध्रुव शुक्ल
प्रिया
शब्द को शाप है
वह अकेला रह जाएगा
अर्थ को डिगाने के लिए
व्याप रहा है
एक और अर्थ
हथेली से बाहर का
भाग्य कहाँ खोजें
अनंग भस्म
सूने घर की देहरी पर
खड्डी राह देख रही है प्रिया
--
खोजो तो बेटी पापा कहाँ हैं . 1989 से । इस संचयन में शामिल कवि की सभी
कविताएँ इसी संग्रह से हैं।
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महादेवी वर्मा
अलि कहाँ सन्देश
अलि कहाँ सन्देश
मैं किसे सन्देश
एक सुधि अनजान उनकी,
दूसरा पहचान मन की,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु-भार अशेष भेजूं!
चरण चिर पथ के विधाता :
उर अथक गति नाम पाता,
अमर अपनी खोज का अब पूछने क्या शेष भेजूं?
नयन-पथ से स्वप्न में मिल,
प्यास में घुल साध में खिल
प्रिय मुझी में खो गया अब दूत को किस देश भेजूं?
जो गया छवि-रूप का घन,
उड़ गया घनसार-कण बन,
उस मिलन के देश में अब प्राण को किस वेश भेजूं!
उड़ रहे यह पृष्ठ पल के,
अंक मिटते श्वास चल के,
किस तरह लिख सजल करुणा की कथा सविशेष भेजूं!
दीपशिपा में संकलित (महादेवी साहित्य से) |
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माखनलाल चतुर्वेदी
यदि
उनकी सौ-सौ मधु साँसों पर उच्छवास कहीं बन पाती मैं?
सौ-सौ सपनों का सावन-भादों मास कहीं बन पाती मैं?
फूलों की नत-तत पलकों में ओसों को आँसू बन सजनी,
स्वप्निल छवि सी छुप छाया में रजनी का तम उकसाती मैं।
केशर सनेह की बन भरती प्रात: की किरणों की भरती
चाँदी की रातों का लेखा सूरज को कुछ दे पाती मैं।
जब, हूक हूक उठती-सी मैं सागर की लहरों पर छाती
तब उमड़ी चाहों की बेबस-सी कसकन कहला पाती मैं।
जब निशि के सूने पहरों का शत-शत तारे पहरा देते
जब क्षिति के हरित कपोलों पर ओसों के आँसू लाती मैं।
जब रूप निगोड़ा 'हिरदे' को सूली पर होता
तब गुन का गल फन्दा कसकर साजन के तम-रथ जाती मैं।
माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली-6 से ।
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महादेवी वर्मा
तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने सन्देश
पथ में बिछ जाते बन पराग;
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग;
आँसू लेते वे पद पखार!
हँस उठते पल में आर्द्र नैन
धुल जाता ओठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसन्त
लुट जाता चिर संचित विराग;
आँखें देतीं सर्वस्व वार!
नीहार में संकलित (महादेवी साहित्य से) ।
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यतींद्र मिश्र
मेरे आनन्द के आँगन में
मैं अपने होने को तुम्हारे न होने के बीहड सच में ढूँढ रहा हूँ
तुम्हारी अनुपस्थिति की चादर से मेरी उपस्थिति का सलमा-सितारा उघड
गया है
मेरे आनन्द के आँगन में तुम्हारे मौन की साँकल पडी हुई है
मैंने आधा सपना बुनकर छोड दिया इसलिए कि तुम्हें पूरा करना है
तुम देखे हुए झूठ को भुला दो
क्योंकि अदेखे सच से हमारी दुनिया शुरू होती है
तुम्हारे आने से पहले मुझे तुमको
प्रार्थना की तरह अपने लिए लिखना है
आँगन में मेरे शब्द ढाँढस की तरह बिखरे रहते हैं।
जैसे कह रहे हों कि तुम यहीं हो पास में कहीं
और यह जो चाँदी जैसा रात भर चमकता है
उसमें कोई जादूगरनी अपनी तकली पर
मेरे आनन्द का सूत कातती है लगातार ।
बहुवचन-9 में प्रकाशित।
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नरेन्द्र शर्मा
क्या मुझे पहचान लोगी
मिल गये उस जन्म में संयोगवश यदि,
क्या मुझे पहचान लोगी?
चौंककर चंचल मृगी-सी धर तुरत दो चार पल पग,
कहो प्रिय, क्या देखते ही खोल गृह-पट आ मिलोगी?
खुली लट होगी तुम्हारी झूमती मुख चूमती-सी,
कहो प्रिय, क्या आ ललककर पुलक आलिंगन भरोगी?
कहो, क्या इस जन्म की सब लोक-लज्जा,
प्राण, मेरे हित वहाँ तुम त्याग दोगी?
जब विरह के युग बिता, युग प्रेमियों के उर मिलेंगे।
कौन जाने कल्प कितने बाहु-बन्धन में
कहेंगे दूग-अधर हँस-मिल अश्रुमय अपनी कहानी,
एक हो शत कम्प उर के मौन हो-होकर सुनेंगे?
प्रलय होगी, सिन्धु उमडेंगे हृदय में,
चेत होगा, फिर नयी जब सृष्टि होगी!
मिल गये उस जन्म में संयोगवश यदि,
क्या मुझे पहचान लोगी?
आधुनिक कवि शृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित
नरेन्द्र शर्मा के संचयन (1976) से ।
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उदयन वाजपेयी
सम्भव है वह भूल जाए अपना प्रेम
सम्भव है वह भूल जाए वह स्पर्शगंगा
जिसमें वह तिरी थी
लेकिन एक शाम सड्क पर चलते-चलते
हल्के लाल आकाश को देखकर क्या वह
एक क्षण को भी नहीं सोचेगी:
यह कौन है,
यह कौन है
मैंने इसे जरूर कहीं देखा है!
जरूर कहीं देखा है!!
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त्रिलोचन शास्त्री
तुम्हें जब मैंने देखा
पहले पहल तुम्हें जब मैंने देखा
सोचा था ।
इससे पहले ही . : ।
सबसे पहले
क्यों न तुम्हीं को देखा
अब तक
दृष्टि खोजती क्या थी
कौन रुप क्या रंग
देखने को उड़ती थी
ज्योति-पंख पर
तुम्हीं बताओ
मेरे सुन्दर
अरे चराचर सुन्दरता की सीमा रेखा
-
तुम्हें सौंपता हूँ / 1985 से ।
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नन्दकिशोर आचार्य
देह होने दो
लो पलकें.
तुम्हारी कामना तब भी मुँदेगी नहीं
पकती रहेगी बन्द सीपी में।
कुच उदग्र हो जाएँगे कपोल रक्तिम
बारिश में भीगी वनखण्डी-सी
सिहरेंगी साधें श्यामल
उमडेंगी दुकूल में बँधी हुई
नदिया-सी सोनल जंघाएँ
चम्पक तन रह-रहकर कम्पित, विह्नल!
पलकें मूंद लो
और देह होने दो
अपनी आत्मा को
खुद को छुपाती हुई मुझसे जो
किसी गहरी कसक-सी _
छलक जाती है अजाने ही
तुम्हारी करुण आँखों में।
--
आती है जैसे मृत्यु / 1990 से ।
00000000000000
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
(प्रिय) यामिनी जागी
(प्रिय) यामिनी जागी
अलस पंकज-दृग अरुण-मुख-
तरुण-अनुरागी ।
खुले केश अशेष शोभा भर रहे,
पृष्ठ-ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे;
बादलों में घिर अपर दिनकर रहे,
ज्योति की तन्वी, तड़ित-
द्युति ने क्षमा माँगी |
हेर उर-पट फेर मुख के बाल,
लख चतुर्दिक चली मन्द मराल,
गेह में प्रिय-स्नेह की जय-माल,
वासना की मुक्ति, मुक्ता
त्याग में तागी ।
--
गीतिका में संकलित (निराला रचनावली-1 से) ।
000000000000000
जगदीश गुप्त
स्पर्श-गूँज
सतह तक आकर
कुछ छुआ;
फिर ललछौंही किरनों की
दो पतली काँपती
मछलियाँ
पंख हिलातीं
तृप्ति के गहरे जल में
उतर गयीं।
स्पर्श जो हुआ
वह शिराओं में
पहरों तक
हाथ से छूट गिरी
फूल की थाली-सा काँप
झनझनाता रहा।
होंठों को होंठों का
अनिर्णीत स्वाद
याद आता रहा।
--
जुग्म से |
000000000000
अशोक वाजपेयी
केलि
मैं बिछाता हूँ धरती का हरा
मैं खींचता हूँ आकाश की नीली चादर
मैं सूर्य और चन्द्रमा के दो तकिये सम्हालता हूँ
मैं घास के कपडे हटाता हूँ
मैं तुमसे केलि करता हूँ।
--
अगर इतने से-1986 से ।
0000000000000000
श्रीकान्त जोशी
दुर्बल क्षण
यह आत्म-समर्पण, दुर्बल क्षण ।
शब्दों की अमिधाओं का यह आत्म-हनन
पलकों की सीमाओं में यह सिन्धु गहन
खामोशी में फूट रही वाचा प्रतिक्षण
व्यक्त हो रहा भावों का उत्थान-पतन
बना हुआ हो अगर परस्पर मन दर्पण,
बहुत सहज है,
तुम्हीं समझलो
शेष कथन,
यह आत्म समर्पण, दुर्बल क्षण ॥
।
प्रश्न कौन तोड्रेगा/1971 से |
000000000000000
शिरीष ढोबले
एक पक्षी की तरह
तुम्हारी देह
कॅपकॅपायी
मेरा नाम
उच्चरित हुआ
उस जाग्रत बाँसुरी के
आदि स्वरों
और
संकोच से
मिलकर
--
00000000000000000
विनोद कुमार शुक्ल
उसने उसके स्पर्श का
उसने उसके स्पर्श का अनुमान लगाना चाहा
लगा कि अनुमान में स्पर्श का गुण आ रहा है
उसने अनुमान लगाया अग्नि
वह थोड़ा जल गया।
उसने अनुमान लगाया जल
वह थोड़ा भीगकर डूब गया।
उसने धूप का अनुमान लगाया
और उसने छुआ कि सूर्य को हुए बादल
हट गये हैं।
उसने अन्तरिक्ष का अनुमान लगाकर
ऐसा गहरा स्पर्श किया
कि नक्षत्रों की बाढ में
वह थोड़ा डूबकर भीग गया।
जब उसने उसके स्पर्श का अनुमान लगाना चाहा
तब वह उसके स्पर्श का अनुमान
ठीक-ठीक नहीं लगा सका।
---
अतिरिक्त नहीं से |
000000000000000000
रमेशदत्त दुबे
ओ प्रिया
फैलती हरी दूब-सी निशशब्द
और आसमान के टूटते रंगों-सी आकुल
ओ प्रिया,
तुम मुझे देखती हो
और अपनी सलाइयों में नयी-नयी
गलियाँ बुनती हो
मैं बजते हुए नगर
और चखचखाते मुहल्ले को
अपने दोनों हाथों से ठेलता हुआ
पहुँच जाता हूँ तुम तक
लेकिन तुम नयी-नयी गलियाँ बुनती हो
दूरियाँ घटाती हुई... *
ओ नदी तुम मुझसे लिपटकर भी
बूँद-बूँद झरती हो
भू-खण्ड गलाती हुई
ओ पुष्पित डाल
तुम मुझे छूकर भी
फूल-फूल झरती हो
नगर-मुहल्ला और गली को
दबाती हुई
ओ प्रिया।
--
गाँव का कोई इतिहास नहीं होता/1981 से ।
00000000000000000
रघुवीर सहाय
जब मैं तुम्हें
जब मैं तुम्हारी दया अंगीकार करता हूँ
किस तरह मन इतना अकेला हो जाता है?
सारे संसार की मेरी वह चेतना
निश्चय ही तुम में लीन हो जाती होगी।
तुम उसका क्या करती हो मेरी लाडली--
-अपनी व्यथा के संकोच से मुक्त होकर
जब मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
--
सीढियों पर धूप में:1960 से |
0000000000000000
दुष्यन्त कुमार
साँसों की परिधि
जैसे अन्धकार में
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा ।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।
।
आवाजों के पेरे से |
000000000000000
लीलाधर जगूडी
वह शतरूपा
एक स्त्री मुझे पलटकर देखती है एक नजर में सौ बार
देखते-देखते
वह शतरूपा स्त्री बदल देती है मुझे एक ही जीवन में
अनेक बार
नाभि से जिसका खिलता है हजार पंखुडियों वाला कमल
दूधों नहाते और पूतों फलते हैं हम
एक सिर एक उदर एक विवर ढाँपे वह रूपांबरा दिखती है
मुझे सृष्टि के अनुरूप मुक्त करती हुई
एक नयी शतरूपा खेलती है गोद में मिलता है एक नये
मनु का उपहार
पलटकर देखती है हर बार वह प्रथम शतरूपा एक नजर में मुझे सौ बार
और सृष्टि के मूल से बाँध देती है
--
अनुभव के आकाश में चाँद-1994 से |
000000000000000000000
मलयज
प्रेम
बन्द अँधेरे में
दो सफेद चमकते बटन
थोड्रा-सा लाल ऊन थोड़ा-सा नीला
और
कुछ बुनने को मचलती दो सुनहली सलाइयाँ
आओ
सलाइयों से बटन उठाकर
अँधेरे में कहीं टाँक दें
लाल ऊन होंठों-सा उनके नीचे फैला दें
और ऊपर तान दें
प्रगाढ नीला आसमान
हम तुम एक हो जाएँ...
--
अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ/1980 से |
000000000000000000
अज्ञेय
खुल गयी नाव
खुल गयी नाव
फिर आयी संझा, सूरज डूबा सागर तीरे।
धुंधले पडते से जल-पंछी
भर धीरज से मूक लगे मंडलाने,
सूना तारा उगा, चमककर, साथी लगा बुलाने ।
तब फिर सिहरी हवा, लहरियाँ काँपीं,
तब फिर मूर्छित व्यथा विदा की जागी धीरे-धीरे।
--
सदानीरा-1 से ।
000000000000000000
सर्वश्वरदयाल सक्सेना
वसन्त-स्मृति
एक पीली तितली
जाने कब से भटक रही है मेरे कमरे में-
काली जड दीवारें गोया डाल हैं।
पहली बार मुझे लग रहा है
कि दीवारें भी हिल सकती हैं
और वसन्त मेरे कमरे में भी आ सकता है ,
कितनी मधुर है तुम्हारी स्मृति!
लेकिन कितना करुण है उसका '
इन दीवारों में भटकना!
फिर भी कितना साहस है मुझमें, कि मैं बैठा
वसन्त की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
--
कविताएँ-1 से ।
00000000000000
विनोदकुमार शुक्ल
प्रेम की जगह अनिश्चित है
प्रेम की जगह अनिश्चित है
यहाँ कोई नहीं होगा की जगह भी कोई है।
आड़ भी ओट में होता है
कि जब कोई नहीं देखेगा
पर सबके हिस्से का एकान्त
और सबके हिस्से की ओट निश्चित है।
वहाँ बहुत दोपहर में भी
थोडा-सा अँधेरा है
जैसे बदली छायी हो
बल्कि रात हो रही है
और रात हो गयी हो ।
बहुत अंधेरे के ज्यादा अंधेरे में
प्रेम के सुख में
पलक मूंद लेने का अंधकार है।
अपने हिस्से की आइ में
अचानक स्पर्श करते
उपस्थित हुए
और स्पर्श करते, हुए बिदा।
--
सब कुछ होना बचा रहेगा:1992 से ।
000000000000000000
तेजी ग्रोवर
एक दिन में आखिर
एक दिन में आखिर कितनी बार लगना है
यह अन्तिम क्षण है
कितनी बार तुम्हारी आँखें चूमते हुए
कई जन्म कौंध जाने हैं
घास के दो हरे साँप मेरे स्वप्न में लगातार रहते हैं
ये कौन हैं, अस्सू, मेरे बच्चे
मेरे झोले की जेब से मुण्डी निकाल वे क्या माँगते हैं
यह कौन है, मेरी माँ, जो इस समय मुझसे प्रेम कर रहा है
देह की कामना करते हुए
दुश्ख क्यों आ रहा है बार-बार हमारे पास
मैं इतना बोल क्यों रही हूँ
--
लो कहा साँबरी/1994 से ।
0000000000000000
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कविताएँ - प्रेम के रूपक - आधुनिक हिंदी प्रेम कविताएँ - संपादक मदन सोनी पुस्तक से साभार प्रकाशित ।
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