हास्य-व्यंग्य : पूत के पाँव और सियासत का पालना / राकेश अचल

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कहावत सौ फीसदी सही है कि -पूत के पाँव पालने में दिखाई देने लगते हैं .पूत के पाँव देखने के लिए पालना जरूरी है. पालना काठ का हो या सियासत का...

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कहावत सौ फीसदी सही है कि -पूत के पाँव पालने में दिखाई देने लगते हैं .पूत के पाँव देखने के लिए पालना जरूरी है. पालना काठ का हो या सियासत का ,इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. आपको पता हो या न हो लेकिन हकीकत ये है कि देश में आज भी पालनों की बहुत कमी है. देश में पिछले सत्तर सालों में पालनों के बारे में बहुत कम काम किया गया .एक ही पार्टी ने इस दिशा में काम क्या ,इसलिए दूसरे पूतों के लिए न पालने आये और न उनके पाँव देखे जा सके .

आजादी के सत्तर साल बाद अब सबको साथ लेकर पालना विकास का अभियान चलाया गया है अब सभी सियासी दलों को ये आजादी दी गयी है कि वे अपने-अपने पूतों के पाँव देखने के लिए उनके साइज के पालने बनवा सकते हैं. पालने बनवाने के लिए राज सहायता की जरूरत हो तो वो भी मिल सकती है,विदेशों से अनुदान लिया जा सकता है,लेकिन शर्त एक ही है कि जो लोग पालना खरीदें या बनवाएं वे और उनके पूत उसके लायक होना चाहिए .

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हमारा तजुर्बा है कि पूत के पाँव बिना पालने के नजर आते ही नहीं. आपको याद होगा कि भगवान कृष्ण के पास पालना था इसलिए उन्होंने जो चाहा सो किया .उनके पास पालने का प्रमाण बाबा  सूरदास ने जसोदा   हरी पालना झुलावें" लिख    कर  दिया   है. भगवान राम भले ही चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र थे लेकिन उन्हें पालना नसीब नहीं हुआ. इसका प्रमाण है  कि कविवर को लिखना   पड़ा "ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैजनिया "राजा दसरथ ने अपने लिए 10  रथ तो बनवा लिए लेकिन अपने बेटों के लिए पालने निर्मित करने    में कंजूसी   कर  गए  और इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा .पालना होता तो वे अपने बेटों के पाँव पालने में ही देख   लेते  और उन्हें वनगमन  से बचा   लेते  ,लेकिन कोई कर  भी क्या सकता है. अपनी -अपनी किस्मत है.कलियुग में हालात   बदल   गए   हैं. आज के राजे-महराजे सियासत में होलटाइम काम करते हैं इसलिए सबसे  पहले  अपने बच्चों   के लिए पालने का इंतजाम करते हैं ,ऐसा करते समय उन्हें कोई दूसरा नजर नहीं आता . अर्जुन की तरह  आज के सियासी सामंतों की आँख केवल और केवल अपने पपोटों  के लिए पालना बनवाने    पर रहती    है . जब  बड़े    सियासी सामंत  ऐसा करते हैं तो छोटे सामंतों को उनका अनुसरण करना ही पड़ता है .अगर आपकी दिलचस्पी हिस्ट्री में है तो आप जानते  ही होंगे कि हमारे शांतिदूत ने सबसे पहले इस दिशा में पहल की थी. उनके पास कोई पूत-सपूत नहीं था इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री को ही पूत मानकर उसके लिए न केवल पालना बनवाया बल्कि उसके पाँव भी बचपन में देख लिए नतीजा ये हुआ कि बिटियारानी उनकी सियासी उत्तराधिकारी बनी और ऐसी बनी कि बकौल पंडित जी "दुर्गा" बन गयी.

अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए दुर्गा माता ने अपने बाद अपने पूतों के लिए सियासी पालने बनवाये  और उन्हें भी उनके पाँव पालने में ही नजर आ गए. उनके बेटे को भी सियासी सद्गति प्राप्त हुई.

जिन सियासी सामन्तों ने पालना महत्व को नहीं समझा वे घाटे में रहे मसलन समाजवादियों ने इस दिशा में बहुत समय    बाद सोचा ,साम्यवादी इस दिशा में चिंतन कर ही नहीं सके. जनसंघी भी इसी अज्ञानता की वजह से घाटे में रहे .इन सभी विचारधाराओं के लोगों की समझ में पालना महत्व तब समझ में आया जब इनके पूत पालने से बाहर निकल कर बाहर आ गए. कोई साइकल चलाने लगा तो कोई विमान. कोई प्रापर्टी डीलर बन गया तो कोई और कुछ पूत के पाँव देखने के लिए पालने बनवाने का काम अब सियासत का पहला काम है जिनके अपने पूत-कपूत हैं उनके लिए पालने सबसे पहले पालने का ऑर्डर दिया जाता है. अब इस मामले में कोई दल किसी से कम नहीं है. इस मामले में सभी सियासी दल "कॉमन  मिनिमम  प्रोग्राम "पर यकीन करते  हैं . इसका उन्हें फायदा भी मिल रहा है. जब-जब चुनाव  का मौसम  आता  है तब -तब  सबसे पहले सियासी सामंतों के पूतों की पूछ होती है. उनकी योग्यता के प्रमाण स्वरूप कीमती ही नहीं बेशकीमती पेश किये जाते हैं. कहा जाता है कि इन सभी के पाँव तो पालने में ही नजर आ गए थे कि ये सब सियासत के लिए ही बने हैं .आपको मेरी बात पर यकीन न हो तो पार्षदी से लेकर लोकसभा-विधानसभा के टिकिटों की फेहरिस्त उठा कर देख लीजिये .आपको एक खोजिएगा तो अनेक प्रमाण मिल जायेंगे .पालने के पूत उस समय बहुत काम आते हैं जब कोई विरोधी बाप की मुखालफत करता है और उसके टिकिट के पीछे पद जाता है,ऐसे में तत्काल टिकिट पाने के लिए पालने के पूत प्रस्तुत कर दिए जाते हैं .इससे सांप भी मर जाते हैं और लाठियां भी नहीं टूटतीं. .समझदार लोग अपना ओरिजनल पूत न होने पर अपने और सपूत या भतीजे-भतीजियों का इस्तेमाल भी कर लेते हैं लेकिन उनके लिए उन्हें पलने पाने पैसे से बनवा कर देना पड़ते हैं .

भारतीय संस्कृति में पालने और पूत को बहुत पावन माना गया है. दुर्भाग्य से पालना संस्कृति समाज के ऊपरी तबके तक ही सीमित कर रह गयी. गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोग अपने पूतों को पुरानी साड़ियों के झूले में झुलाते हैं. कपड़े का झूला इतना सकरा होता होता है कि उसमें पूत के पाँव नजर ही नहीं आते. ऐसा झूला तो झूला भी कहने लायक नहीं होता. यही वजह है कि सियासत में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत बहुत कम है. इस वर्ग से इक्का-दुक्का लोग ही सियासत में कदम रख पाते हैं. ये लोग भी उन परिवारों के होते हैं जिनके पास काठ -कबाड़ में मिला पालना किसी न किस तरह आ जाता है .

कहने का अर्थ यही है कि पूत,पालना आउट पोलिटिक्स का गहरा रिश्ता है. ये रिश्ता पाक-साफ़ और जन्म-जन्मांतर का रिश्ता है. अटूट होते हुए भी ये कभी-कभी टूट भी जाता है किन्तु ऐसे हादसे कभी-कभी ही होते हैं, यानी उन्हें अपवाद ही माना जाना चाहिए. तो आपकी समझ में आ ही गया होगा कि एक जिम्मेदार पिता का पहला जिम्मा है कि वो अपने पूत के पाँव देखने के लिए सबसे पहले पालना खरीदे. पैसे न हों तो बैंक से ऋण ले, जीपीएएफ निकले,या डाका डाले ,लेकिन पालना बनवाये .बिना पालना पूत के पाँव के दर्शन नहीं हो सकते.

@राकेश अचल

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य : पूत के पाँव और सियासत का पालना / राकेश अचल
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