बाल-विज्ञान-कथा / साइगा ग्रह की यात्रा / कल्पना कुलश्रेष्ठ

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शाम का समय था। हवा में हलकी सी ठंडक घुलने लगी थी। चारों ओर भीड़, गाड़ियों की चिल्ल-पों और लोगों के शोरगुल के बीच से बचकर साइकिल चलाता इकब...

शाम का समय था। हवा में हलकी सी ठंडक घुलने लगी थी। चारों ओर भीड़, गाड़ियों की चिल्ल-पों और लोगों के शोरगुल के बीच से बचकर साइकिल चलाता इकबाल परेशान हो उठा था। धुएं के कारण उसकी आंखों से पानी आ रहा था सांस लेने में तकलीफ हो रही थी और कान मानो बहरे हुए जा रहे थे। घर आते-आते छह बज चुके थे।

‘‘इकबाल बेटा, जरा बाजार से यह सामान लाना। पर, अरे, तुम्हारी आंखें तो बड़ी लाल हो रही हैं।’’ मां चौंक उठीं-‘‘लेट जाओ, मैं तुम्हारी आंखों में गुलाब जल डाल देती हूँ।’’

गुलाब जल आंखों में जाते ही थोड़ी देर बाद उसे ठंडक महसूस होने लगी। उसने आंखें बन्द कर लीं। सोचने लगा-‘क्या कोई ऐसा शहर नहीं हो सकता, जहां इतना प्रदूषण न हो?’ नींद की हलकी सी खुमारी ने अभी उसकी पलकों पर दस्तक दी ही थी कि अचानक एक मधुर अजनबी स्वर ने उसे चौंका दिया-‘‘मेरे साथ घूमने चलोगे?’’

इकबाल ने आंखें खोल दी।

यह लगभग उसी की आयु की बारह-तेरह वर्ष की एक सुन्दर लड़की थी। उसकी भूरी आंखें खुशी से चमक रही थीं। लाल-भूरे रंग के घने-घुंघराले बाल कंधों पर फैले हुए थे।

‘‘दरअसल मैं यहीं खड़ी तुम्हारी और मां की बातें सुन रही थी। मैंने सोचा कि तुम्हें अपने साथ ऐसी जगह ले चलती हूँ, जिसकी कामना तुम अभी कर रहे थे। चलोगे मेरे साथ?’’ उसने उत्साहित स्वर में पूछा।

‘‘लेकिन तुम हो कौन?’’-इकबाल ने आश्चर्य से पूछा।

-‘‘मैं एस.जी. 19099 हूँ और सन 2520 से आई हूँ’’ सुनकर हैरत से इकबाल का मुंह खुला रह गया।

‘‘ओह, तो मैं भविष्य के मनुष्य से मिल रहा हूँ। लेकिन तुम्हारा नाम कितना विचित्र है?’’ -इकबाल उत्साहित हो उठा। ‘‘यह नाम नहीं, बल्कि कोड है। तुम चाहो तो संक्षेप में

मुझे साइगा पुकार सकते हो। मैं मानव और मशीन का मिला-जुला रूप हूँ। मेरी आंखों में एक्सरे दृष्टि है। मैं हर तरह की ध्वनियां सुन सकती हूँ। बिना थके लगातार कई हफ्ते काम कर सकती हूँ। टेलीपैथी के माध्यम से बिना बोले बातचीत कर सकती हूँ। आओ, अब चलो मेरे साथ!’’ उसने आदेशात्मक स्वर में कहा। उसी समय इकबाल उठकर चुपचाप घर की छत पर आ गया।

अंधेरा कुछ गहरा हो गया था। आस-पास धूल और धुंए के कारण वातावरण मे कोहरा सा छाया था।

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‘‘उफ, कितना प्रदूषण है तुम्हारे ग्रह पर। मेरी नाक में फिल्टर न लगा होता, तो मुसीबत हो जाती। पता नहीं तुम लोग सांस कैसे लेते हो?’’-साइगा ने मुंह बनाया, तो इकबाल शर्मिदा हो गया।

साइगा हाथ में पहनी कलाई घड़ी जैसी यंत्र की सूइयां घुमाने लगी। कुछ सेकेंड बाद छत पर रंगाबिरंगा प्रकाश छोड़ती गोल-गोल घूमती, लट्टू जैसी, आकृति प्रकट हो गई।

‘‘यह हमारा कालयान है। समय में कुछ सेकेंडों के उलट-फेर के कारण यह नजरों से ओझल था। मैं इसे समय में ले आई हूँ। जिससे तुम्हें अपने ग्रह पर ले जा सकूँ’’ तुम साइगा ने बताया।

अगले ही क्षण दोनों कालयान के अन्दर थे। तीव्र झटके के बाद घूमता परिदृश्य लकीरों में बदलता जा रहा था। काला आसमान और उसमें चमकते अरबों ग्रह-नक्षत्रों के बीच यात्रा इकबाल के लिए एक अलौलिक अनुभव था। धीरे-धीरे उसकी पलकें बोझिल होने लगीं। शायद वह सो गया । न जाने कितना समय बीत चुका था, जब इकबाल की मुंदी पलकों में हरकत हुई।

‘‘कहां हूँ मैं?’’- वह उठकर बैठ गया। ‘‘ग्लीज 581 सी पर स्वागत है मित्र!’’ - साइगा जैसे ही सुन्दर और आकर्षक पोशाकों में सजे कई स्त्री-पुरुष उसके सामने थे।

यह एक विशाल कक्ष था। चारों ओर की दीवारें पन्ने जैसे रंग की अर्द्ध पारदर्शी सी दिखाई दे रही थीं। हवा इतनी स्वच्छ, ताजा और मोहक सुगंध से भरी थी कि इकबाल की किसी बगीचे में बैठे होने का आभास हो रहा था।

‘‘पहले कुछ खा लो इकबाल, तुम्हें भूख लगी होगी’’ - साइगा ने हाथ में पकड़ी प्लेट उसकी ओर बढाई। इकबाल ने देखा प्लेट में सुनहरी, लाल, नीली और हरी गोलियां रखी थी।

‘‘यह तुम्हारा खाना है?’’ सुनकर अनिच्छापूर्वक इकबाल ने कुछ गोलियां उठाकर मुंह में डाल लीं। अपने प्रिय व्यंजनों खीर और समेासे का बढ़िया स्वाद उसे अचंभित कर गया। गोलिया पेट में जाते ही उनके शिथिल तन-मन में स्फूर्ति दौड़ गई।

‘‘चलो, सबसे पहले तुम्हें इस ग्रह के अनोखे संग्रहालय में ले चलती हूँ।’’ कक्ष से बाहर आकर वे चारों ओर से बंद एक कैप्सूलनुमा वाहन में बैठ गए। पलक झपकते ही उनकी हवाई कार आसमान से बाते करने लगी। इकबाल ने खिड़की से झांककर देखा। गुलाबों आकाश की पृष्ठभूमि में नीले कांच सी चमकती सड़कें बेहद सुन्दर लग रही थी। विचित्र आकार प्रकार के वृक्ष थे, जिन पर लटके फल रंगीन जुगनुओं की तरह चमक रहे थे। कई वृक्षों से मद्धिम संगीत-लहरी फूट रही थी।

‘‘हैरान मत होओ इकबाल। ये म्युजिकल ट्री हैं, जो अपने मूड के अनुसार संगीत की ध्वनियां उत्पन्न करते हैं’’ साइगा ने उसकी जिज्ञासा का समाधान किया।

हरे चमकदार पत्थरों से बनी एक शानदार इमारत के सामने वे उतर गए। यह लगभग तीस फुट ऊंची छत वाला बहुत बड़ा गालियारा था, जिसकी मोती जड़ी दीवारों से आंखें को ठंडक देने वाली हलकी-हलकी रोशनी निकल रही थी। ब्रह्माण्ड की विभिन्न आकाश गंगाओं की अद्भुत वस्तुओं का संग्रह देखने के बाद इकबाल ने आगे जो देखा, उससे वह स्तब्ध रह गया।

आगरा ताजमहल, पीसा की मीनार, गीजा के पिरामिड, पेरिस का एफिल टॉवर, मास्कों का क्रेमलिन और रोम के कोलोजियम के साथ-साथ अन्य कई प्रसिद्ध इमारतों की बड़ी-बड़ी अनुकृतियां वहां रखी थीं। सर आइजक न्यूटन, आइंस्टीन, जगदीशचंद बसु, अब्राहम लिंकन और महात्मा गांधी की सजीव सी लगने वाली आदमकद मूर्तियां भी वहां शोभायान थी।

‘‘यह सब यहां कैसे?’’- इकबाल ने पूछा।

‘‘यह हमारे पूर्वजों की विरासत है। पृथ्वी के मानव ने ही हमारे ग्रह आबाद किया था। तुम हमारे पूर्वज हो’’-भावुक स्वर में साइगा ने बताया। ‘‘मैं समझा नहीं.....’’-इकबाल ने उलझे स्वर में कहा।

-‘‘पृथ्वी से 20 प्रकाश-वर्ष दूर हमारा यह ग्रह ग्लीज 581-सी तुम्हारी पृथ्वी से आकार के डेढ़ गुना बड़ा और पांच गुना भारी है। कुछ लोग हमारे ग्रह को पृथ्वी की बड़ी बहन या सुपर अर्थ भी कहते हैं।’’

इकबाल को याद आया कि ये सारी बातें तो उसने अखबार में पढ़ी थीं। स्कूल टीचर ने भी बताया था कि इस नए खोजे गए ग्रह की परिस्थितियां पृथ्वी से बहुत मिलती जुलती हैं। और वहां जीवन होने की संभावना है।

‘‘धरती पर प्रदूषण की वजह से ग्लोबल वार्मिग बढ़ती जा रही थी। मानव सभ्यता का विनाश होने को था। तब मानव ने अपनी दूसरी दुनिया बसाने की ठान ली। प्रकाश की गति से चलने वाले अंतरिक्ष-यान बनाने के बाद, वह मंदाकियों की टोह लेने निकल पड़ा। फिर ऐसे ग्रहों पर जाकर बस गया, जहां जीवन फल-फूल सके। उन्हीं में से एक हमारा यह ग्रह है’’-साइगा ने कहा।

काफी समय बीत चुका था। बातें करते-करते वे संग्रहालय से बाहर आकर सड़क पर टहलने लगे। ग्रह का गुलाबी आसमान धीरे-धीरे स्लेटी रंग का होने लगा था, जहां चमकते तीन चंद्रमा दूधिया चांदनी बरसाने की तैयारी में थे। चारों ओर रंग-बिरंगी रोशनियां छोड़ती तरह-तरह की हवाई गाड़ियां बिना आवाज के उड़ रही थीं। ऊंची इमारतों की खिड़कियों से रोशनी बिखर रही थी।

‘‘कितनी शांति है तुम्हारे ग्रह पर। धूल, धुआं और शोर बिल्कुल नहीं।’’

‘‘यहां आने के बाद मानव ने वे गलतियां नहीं की, जो वह

पृथ्वी पर करता आ रहा था। न हथियार, न परमाणु-परीक्षण,न युद्ध और न ही प्रकृति का शोषण। प्रकृति से जो कुछ हम लेते हैं, उसे वापस भी देते हैं, जैसे पानी और शुद्ध हवा वगैरह’’-साइगा ने बताया।

सड़क के दोनों ओर बनी दुकानें तरह तरह के सामान से भरी पड़ी थी। एक शो केस में अनोखा धूप का चश्मा था। उसे पहनते ही सामने वाले के मस्तिष्क में उठती विचार-तरंगें पढ़कर, उसके मन की बात समझी जा सकती थीं। रंगीन तकिए थे, जिन पर सिर रखकर सोने से सुन्दर और सुहाने सपने आते थे।

‘‘यह स्पेस फेान तुम्हें मेरी ओर से.....’’ साइगा ने मोबाइल फोन जैसा एक सेट उसके हाथ में थमा दिया-‘‘इससे तुम पृथ्वी पर रहते हुए यहां मुझसे बातचीत कर सकोगे। इसकी स्क्रीन पर यहां के दृश्य देख सकोगे। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों पर रहने वाले लोगों से संपर्क कर, उनसे दोस्ती कर सकोगे। दोस्ती और प्रेम...यही मानव होने का अर्थ है न।’’

‘‘अब मुझे चलना चाहिए साइगा। मां को बताऊंगा कि मैं अपनी मौसी के घर घूमकर आया हूँ। तुमने कहा था कि यह ग्रह हमारी धरती माँ की बड़ी बहन कहलाता है। तो यह मेरी मौसी का घर हुआ न’’ -इकबाल खुशी से भरकर बोला। कालयान के अन्दर बैठते ही इकबाल फिर अपनी छत पर था। उसने घड़ी पर निगाह डाली। आठ बजे थे। यानी उसे धरती से गए सिर्फ दो घंटे ही बीते थे। मन भारी सा हो रहा था। गनीमत थीं कि वह साइगा से बात कर सकता था। उसने जेब मं हाथ डाला। स्पेस फोन वहां नहीं था। उसने जल्दी-जल्दी सारी जेबें देख डालीं। शायद स्पेस फोन कालयान में ही छूट गया था।

भारी कदमों से आकर वह बिस्तर पर लेट गया। आशा की नन्ही सी किरण मन के किसी कोने में जगमगा रही थी कि

शायद साइगा कभी फिर उससे मिलने आए।

 

(विज्ञान कथा - जनवरी - मार्च 2017 से साभार)

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बाल-विज्ञान-कथा / साइगा ग्रह की यात्रा / कल्पना कुलश्रेष्ठ
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