झोपड़पट्टी की उस बेतरतीब बस्ती के पास रेंगता एक नाला है। सुअर के तीन बच्चे प्राय: उस नाले में किलोल करते पाए जाते हैं। एक किंचित बड़ा बच्चा...
झोपड़पट्टी की उस बेतरतीब बस्ती के पास रेंगता एक नाला है। सुअर के तीन बच्चे प्राय: उस नाले में किलोल करते पाए जाते हैं। एक किंचित बड़ा बच्चा है, शेष पिद्दीनुमा । वयस्क तथा बूढ़े सुअर भी उसी नाले में लोटते हैं अथवा किनारे की घास पर पड़े हुए अपने सुअर होने की नियति पर परिचर्चा आयोजित करते हैं। कीचड़ में लथपथ तीनों बच्चे, जब सुअर सा मुंह उठाए नाले में एक-दूसरे को ठेलते, गुरगुराते इस छोर से उस छोर तक छप-छप करते भागते हैं तब किनारे बैठे बूढ़े सुअर वात्सल्य रस में नहा जाते हैं (सुअर भी नहाते हैं) । ये बूढ़े सुअर प्राय: दार्शनिक मुद्रा में बैठकर यह सोचा करते हैं कि इन नादान बच्चों को कोई यह बताए कि सुअर के बच्चों तथा उल्लू के पट्टो, किस बात पर इतना किलोल कर रहे हो? नाले में ही कट जानी है तुम्हारी यह नश्वर जिंदगी । इन झोपडपट्टी के आदमियों जैसी हो गई है तुम्हारी जिंदगी--बूढ़े सुअर बस्ती की तरफ थूथन घुमाकर सोचते हैं। 'नादान तथा बेवकूफ नई पीढी . . : वे सोचते हैं और थूथन पर एक भद्दी मुस्कान लिए नाले के किनारे-किनारे टहलने निकल जाते हैं।
झोपडपट्टी के नाले वाले सिरे के पास से ही ऊंचे, भव्य तथा सुंदर मकानों और बंगलों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। नाले और इन मकानों के बीच तीन-चार कूडे-कचरे के डिब्बे हैं। बंगलों का कचरा तथा जूठा इन डिब्बों में और उसके आसपास फेंका जाता है। घूरे का एक ढेर बन गया है वहां।
सुअर के इन तीन बच्चों का नाश्ता, लंच इत्यादि इन्हीं ढेरों पर होता है । भूख लगती है तो नाले से निकलकर वे इस ठसके से इन ढेरों की तरफ जाते हैं मानो बाथरूम से डाइनिंग लाबी में प्रवेश कर रहे हों । भरपेट कचरा खाकर कुदक्कडें लगाते वे पुन: नाले में गुलाटियां मारने लगते हैं। "अहा सुअर जीवन भी क्या है . . ." इन्हें देखकर ही किसी कवि ने ये पंक्तियां उचित कही हैं, या कह दी होती यदि कवि भी सुअर होता, अथवा सुअरों में भी दुर्भाग्य से यदि कोई कवि होता तो कह डालता यद्यपि अभी सौभाग्य से उनके बीच ऐसा नहीं होता है और ठीक ही नहीं होता है, वरना सुअरों की जिंदगी सुअर से भी बद्तर हो जाती।
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तात्पर्य यह है कि सुअर के इन बच्चों की अच्छी कट रही थी। अच्छी कट रही थी उनकी । | गंदे नाले से कचरे के डिब्बे तक सीमित सुअर-जीवन, जिसमें संत्रास तथा कुंठा गली के कत्तों द्वारा खदेड़ने पर पैदा होती और बेईमानी कचरे के डिब्बे के आसपास । प्रगतिवाद _ जहां नाले से डस्टबिन तक की यात्रा थी और प्रतिक्रियावाद कचरे में भोजन की तलाश को लेकर सिर फुटव्वल । जहां सुअर अपने बच्चों को नाले में छोडकर सुबह से गलियों में भटकने निकल जाते थे और सुअरनियां किसी पतिव्रता के ठसके से सुअरपति के पीछू-पीछू | सुबह से शाम, सुअरों की टोलियां इस झोपड़पट्टी की बस्ती में यहां-वहां डोलकर भोजन तलाशतीं और बस्ती के आदमी शहर की गलियों में रोजी तलाशते घूमते । सुअर और आदमी, दोनों भटक रहे थे । अच्छी कट रही थी पट्टों की। न भी कट रही हो, पर शहर में आम राय रही थी कि अच्छी कट रही है। खैर बात सुअर के उन तीन बच्चों की चल रही थी । उनकी निश्चित ही अच्छी कट रही थी और आगे भी कटती रहती यदि आदमी के तीन बच्चे उनके जीवन में नहीं आते । आदमी के जीवन में तो हजारों सुअर आते रहते हैं और उस पर विशेष प्रभाव नहीं पैदा करते, पर सुअर के बच्चों का आदमी के बच्चों से यह सीधा साक्षात्कार उनके जीवन के कीचड में हलचल पैदा कर गया। हुआ यूं कि एक दिन सुअर के ये तीन बच्चे.जब घूमते-घामते घूरे पर पहुंचे तो उन्होंने पाया कि आदमी के तीन बच्चे उस घूरे पर पहले से ही जमे हुए हैं। शुरू में तो, दूर से देखकर उन्हें यही लगा कि जैसे सुअर के ही तीन बच्चे हों, परंतु पास पहुंचने पर उन्होंने पाया कि वे बच्चे सुअरों से भी अधिक गंदे और किसी भी आम सुअर के बच्चे से अधिक दुबले-पतले थे। तब वे समझ गए कि हो न हो, ये बच्चे आदमी के हों। आदमी के बच्चे कचरे के ढेर को उलट-पुलटकर कुछ खोज रहे थे । सुअर की छोटी-सी खुपडिया--उन्होंने सोचा कि यूं ही कचरे से खेल रहे होंगे। हां भई, वरना आदमी के बच्चे का घूरे पर क्या काम? कोई सुअर है क्या कि लगा है घूरे पर! ऐसा सोचकर तीनों सुअर घूरे की तरफ बढ़े।
तभी वे एकदम से रुक गए। उनका दिल धक्क रह गया । जो दृश्य उन्होंने देखा उसे वे अपने संपूर्ण सुअर जीवन में नहीं भुला सकते थे। उनके खाली पेट से खाली दिमाग तक में एक बेचैन ऐंठन दौड गई। क्या देख रहे हैं वे? जो अपेक्षाकृत बड़ा किशोर सुअर का बच्चा था, उसने दोनों छोटे सुअरों को पूंछ के इशारे से अपने पीछे आ जाने को कहा । दोनों छुटके, बंटानी सुअर सीनियरे ; हिलायी के पीछे घुस गए और उसकी पिछली टांगों के बीच से भयभीत नजरों से देखने लगे। सुअर ने आंखें मिचमिचाकर देखा, फिर थूथन को घास पर रगइकर आंखें साफ की।
नहीं, यह सपना शुरू नहीं था। वह सही-सही देख रहा था।
उसने देखा कि आदमी के तीन बच्चे कचरे में से बीन-बीनकर कुछ खा रहे हैं। यह क्या मजाक हो रहा है सुअरों के साथ? यदि आदमी ही कचरा खाने लगेगा, तो हम सुअरों का क्या होगा? आदमी कब से सुअर हो गया? आदमी को यह क्या हो गया है--वह अपनें अधिकारों के लिए न लड़कर हम सुअरों के अधिकारों पर अतिक्रमण कर रहा है? "दुनिया के सुअर एक हो!" "जो हमसे टकराएगा, नाली में घुस जाएगा।" "सुअर का बच्चा जिंदाबाद, आदमी मुर्दाबाद।" "सुअर-सुअर भाई-भाई, आदमी तेरे खेलों को देख लिया और देखेंगे। नाले-नाले लोटेंगे, सुअर के बच्चे जीतेंगे।' "सुअर के बच्चे-जिंदाबाद" "हर कीचड़ नाले-कचरे में, संघर्ष हमारा नारा है।" ''जात से न बात से, सुअर लडेगा लात से" ऐसे नारे और हजारों अन्य नारे, जो किशोर सुअर ने चुनाव के दिनों में गंदे नाले की टट्टी पुलिया पर से गुजरती जीपों से उछलते सुने थे, आज उसके दिमाग में गूंज उठे। उसे लगा जैसे वह भी एक नेता हो गया है जिसके कुछ कर्तव्य हैं। उसने पीछे की तरफ घूमकर नारा उछाला-"सुअर के बच्चे . . .
किसी ने जिंदाबाद नहीं कहा।
बल्कि उसके दो अनुयायी उसकी टांगों के बीच डरकर और दुबक गए। उसे याद आया कि इन मासूमों ने तो चुनाव, नारेबाजी का वह माहौल देखा ही नहीं है। जब ये पैदा हुए थे तब अंतिम चुनाव इस देश में हो चुके थे। उसे लोकतांत्रिक देश में पैदा हुए उन सुअरों पर तरस आया जिन्हें लोकतंत्र की रक्षा में नारेबाजी तथा हुल्लड़ का महत्व ज्ञात नहीं था। उसने एक संक्षिप्त वक्तव्य प्रसारित किया कि सुअरों का लोकतंत्र खतरे में है। आज आदमी कचरे पर अधिकार जता रहा है, कल वह हमें नाले से खदेड़ देगा। उसने नारेबाजी का अर्थ बताते हुए अंत में जयहिंद से पूर्व कहा कि वह नारे लगाता कचरे के ढेर की तरफ बढेगा, वे नारे का जवाब नारे से देते पीछे-पीछे आएं।
"सुअर के बच्चे . . ."
"जिंदाबाद।"
तीनों सुअरों का पिद्दी जुलूस घूरे की तरफ चल
"जिंदाबाद-जिंदाबाद . . ."
"मुर बुर ... चींचीं ..
सुअर के बच्चों की टोली शोर मचाती डस्टबिन की तरफ चली । चीं-चीं या घुर-घुर के शोर से बस्ती गूंज उठी।
"अबे देख बे, सुअर के बच्चे . . ." शोर सुनकर कचरा बीनते आदमी के बच्चों में से एक ने कहा । तीनों बच्चे कचरा बीनना छोड़कर खड़े हो गए और सुअरों की तरफ देखने लगे। सुअर के बच्चों की टोली डरकर ठिठक गई । नारेबाजी बंद हो गई । 3.… अब एक तरफ सुअर के बच्चे खड्डे थे और दूसरी तरफ आदमी के \ | «भाग स्साले . . ." आदमी के एक बच्चे ने कचरे से एक ढेला उठाकर मारा।
"यह क्या बदतमीजी है . . ." बड़ा सुअर भागता हुआ चिंचियाया । छोटे सुअर काफी दूर तक भाग निकले । बड़े सुअर के सुअरत्व तथा नेतागिरी ने जोर मारी | वह रुक गया। अनुयायियों को पीछे छोड़कर वह तेज चाल से पुन: घूरे की तरफ आया।
"बड़ा ढीठ है यह सुअर . . ."
"लगा स्साले के एक जूता . . ."
बच्चे बोले । आदमी के एक बच्चे ने खाली हाथ से ही ठेला मारने की एक्टिंग की । बड़ा सुअर डरकर तीन-चार कदम पीछे भागा और रुक गया । आदमी के बच्चे सुअर को बेवकूफ बनाकर हंसने लगे । यहां तक कि आदमियों के इस मजाक पर पीछे खड्डे दोनों छोटे सुअर तक चीं-चीं करते हंस पड़े।
बड़ा सुअर अपने साथियों की अप्रतिबद्धता पर दुखी हुआ।
वह क्रोधित होकर चिंचियाता हुआ घूरे की तरफ दौड़ा, "क्या तमाशा मचा रखा है यह?" उसने आदमियों के बच्चों के ऐन सामने पहुंचकर थूथन ऊंची करके पूछा।
"देख तो रे इसकी हिम्मत . . ."
"हां है मेरे में हिम्मत । मैं आदमियों की तरह कायर नहीं?" उसने जवाब दिया।
"अब चिंचियाए जा रहा है . . ."
"हां, चीख-चीखकर सारे जमाने के सामने चिंचिआऊंगा । तुम लोगों की तरह अन्याय नहीं सहूंगा । तुम इन बंगलों में न घुसकर हमारे कचरे में भोजन तलाशने घुस सकते हो? कायर कहीं के . . ." सुअर फिर चिंचियाया और आदमी के बच्चों के और करीब पहुंच गया।
"अबे, लगा तो इसको लात, घुसा ही आ रहा है?"
एक लौंडे ने घुमाकर एक लात सुअर के पिछवाडे पर मारी और वह लुढ़कता हुआ 'अपने चिंया अनुयायियों के पास जा गिरा । सारी क्रांति हवा हो गई।
तीनों सुअर बचाओ, बचाओ करते नाले की तरफ भागे।
आदमी के बच्चे हंसते हुए फिर कचरे में से जूठन बीनकर खाने लगे।
उस दिन के बाद सुअर के बच्चे दुखी रहने लगे।
रोज बेचारे नाले से निकलकर छुप-छुपकर कचरे की तरफ जाते और पाते कि कोई-न कोई आदमी या आदमी का बच्चा वहां डटा है। उन्होंने पहचाना--सभी इन झोपडपट्टियों की बस्ती के रहने वाले आदमी थे। शुरू में दो-तीन सप्ताह देखने के बाद उनकी आशा टूट गई और वे भी अपने मां-बाप की तरह गलियों में भटककर कचरा तलाशने लगे। फिर भी कहीं कोई आशा थी, सो दिन में एकाध बार तीनों उन डिब्बों तक चक्कर मार आत्ते।
एक दिन उनमें से एक ने अपने सुअर पिता को आदमी का यह अजीब व्यवहार बताया तो वह हंसने लगा। (सुअरों के पिता आदमी के पिता से भिन्न होते हैं तथा अपने बच्चों से हंसकर भी बात कर लेते हैं)। उसने अपने बच्चे को बताया, "बेटा, खैर मनाओ कि सुअर का जन्म लिया। कचरा मिल जाता है, पेट पल जाता है, अभी छोटे हो, जब बड़े होगे और इस झोपडबस्ती में घूमोगे तो पाओगे कि आदमी कितना दुखी है। दुबले-पतत्ते, मरते अधमरे आदमी के बच्चों को देखकर तुम्हें ज्ञात होगा कि सुअर के बच्चे के रूप में तुमने कितनी ऐश की । न तुमने नन्हें हाथों से पालिश की पेटी ढोई, न हाथ-पांव तुडवाकर भीख मांगी | न तुमने होटल में प्लेटें धोकर मालिक के जूते खाए, न तुम डाक्टर की दुकान के सामने दवाई के अभाव में मरे। न तुम मिलावटी कचरा खाकर बीमार हुए, न ही पैदा होते ही रेलवे स्टेशनों पर सामान ढोने लगे । तुम बहुत अच्छे रहे सुअर के बच्चे कि तुम आदमी के बच्चे नहीं हुए।"
उस बच्चे ने शेष सुअर के बच्चों को बताया कि आदमी का बच्चा होना कितना खतरनाक काम है । उन्हें कुछ संतोष तो हुआ पर कचरे के डिब्बों का स्वादिष्ट जूठन हाथ से निकल जाने का गम सताता रहा।
ऐसे ही दिन गुजरते रहे। कि एक दिन बहुत-सी पुलिस, बुलडोजरों के साथ उस झोपडपट्टी बस्ती में घुस आई। सारे छोटे-बड़े सुअर भागकर नाले के दूसरे किनारे पर आकर दुबक गए। पर आदमी की बड़ी फजीहत हुई। बस्ती में बड्डी मारामारी हुई। पुलिस ने मार-मारकर आदमियों, औरतों तथा बच्चों को बस्ती से खदेड़ दिया । रोत्ते-पीटते आदमियों के झुंड, नाले पर बने टूटे पुल पर से टूटा-फूटा सामान लिए बस्ती में भाग निकले । बुलडोजर ने घूमकर बस्ती साफ कर दी । बरसात होने लगी और सारी बस्ती कचरा बनकर सुअरों के सामने नाले में बहने लगी। सुअरों की सहमी भीड़ भागते आदमियों को देखती रही। सुअर के वे तीन बच्चे भी यह दृश्य देख रहे थे। एक ने अपने उसी बुद्धिमान सुअर पिता से जिज्ञासा की, "यह क्या हो रहा है, पापा?" उन्होंने समझाया, "आदमी सुअर से अलग किस्म का प्राणी है बेटा । सुअर सारे एक जैसे होते हैं, पर आदमी नहीं। आदमी: दो तरह का होता है--अमीर तथा गरीब । गरीब बड़ा गंदा आदमी होता है, ऐसा अमीर मानते हैं। वे गंदी बस्तियां बनाकर शहर की शोभा बिगाड़ते हैं। इसीलिए बीच-बीच में इनकी बस्तियां उजाड़ दी जाती हैं, कुछ इस भागदौड में मरकर छुटकारा पा जाते हैं। जो बच जाते हैं, उनमें गजब की संघर्ष शक्ति होती है। वे पुन: बस्ती बना लेते हैं। फिर बुलडोजर आते हैं। . . . इनके साथ यही चलता रहता है। हम सुअरों से भी असुरक्षित भविष्य है इनका ।" बच्चों को एक बार पुन: प्रसन्नता हुई कि वे सुअर के बच्चे हैं।
तभी उनको आदमियों की भागती भीड़ में आदमी के वे तीन बच्चे भी दिखाई दिए, जिन्होंने इन्हें घूरे से बेघूरा कर दिया था । टूटे डिब्बे, टिन आदि सर पर लादे भयभीत और बीमार-से इन बच्चों को देखकर वे सुअर के बच्चे सहम गए। उन्हें उन पर दया आई। तभी सबसे छोटा सुअर का बच्चा बोल उठा, "अब अच्छा रहेगा, ये बच्चे नहीं रहेंगे तो अपुन कचरे के डिब्बे पर फिर आराम से खा सकेंगे . . ." किशोर सुअर के बच्चे ने घूरकर उसे देखा और डांटा, "शर्म नहीं आती तेरे को? इन बेचारों पर मुसीबत पड़ी है और तुझे अपनी सूझ रही है। आदमी को शर्म और दया न आए, पर हम तो सुअर हैं . . ." सुअरों की भीड़ स्तब्ध खड़ी रही और झोपडबस्ती की जगह बंजर रह गई। आज भी कचरे के वे डिब्बे वहीं हैं। कचरा, जूठन पड़ा रहता पर सुअर के वे तीन बच्चे उस तरफ फटकते भी नहीं । आदमी के उन तीन बच्चों के साथ आदमी ने जो क्रूर व्यवहार किया, उसके विरोध में वे इतना ही कर सकते हैं। उन्हें दु:ख है कि वे सुअर हुए, यदि आदमी होते तो वे इस अन्याय से लड़ते । ¦
परंतु, आदमी होते तो क्या वे सचमुच लड़ते?
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(हिंदी हास्य-व्यंग्य संकलन, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत से साभार)
Main namaskr karta hu. Insano ka ur bura hal hoga.
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