संगीत को सभी ललित कलाओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में अभ्यास को सर्वोपरि माना गया है। अभ्यास के संदर्भ म...
संगीत को सभी ललित कलाओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में अभ्यास को सर्वोपरि माना गया है। अभ्यास के संदर्भ में कवि रहीम का एक दोहा प्रसिद्ध है-
‘‘करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान’’
अर्थात् अभ्यास से मंदबुद्धि भी उसी प्रकार ज्ञानी हो जाते हैं, जिस प्रकार रस्सियों के निरन्तर घर्षण से पत्थरों पर निशान पड़ जाते हैं। संगीत क्षेत्र में रियाज से स्वर-ताल-लय के साक्षात् दर्शन करना, अपनी शिक्षा गृहीत गायकी का वादन शैली में नवीनता का प्रादुर्भाव करना इत्यादि सभी कुछ है। रियाज में भी संगीतज्ञ की एकाग्रता का बहुत महत्व है जो उसका एकान्त में अपनी मनोदशा को हर प्रकार से संगीत के प्रति समर्पित करके प्राप्त होता है। उस समय मानसिक तौर से केवल संगीतज्ञ और उसका वाद्य साथ रहता है। गुरूमुख से शिक्षा प्राप्त कर उसका रियाज एकाग्र मन से एकान्त में ही श्रेष्ठ है।
तानसेन ने स्वर साधना के विषय में कहते हुए षड्ज साधना के सन्दर्भ में इस प्रकार गुणगान किया है-
षडज साधे गाऊँ, मैं श्रवणन सुनहूँ सुनाऊँ।
भैरव-मालकोष-हिडोल-दीपक, श्री राग मेघ सुर ही ले आऊँ।
तानसेन कहे सुनो हो सुधर नर, यह विधा पार नहीं पाऊँ।
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मस्तिष्क और आधार स्वर सामंजस्यएक अदृश्य किन्तु अनुभव और आधार स्वर पर जितना ही आप ध्यान केन्द्रि करता है उतना ही वह संगीत से अपने को जोडता है और उसका गायन या वादन भी उसी अनुपात से उसके प्रति समर्पित हो जाता है। आधार स्वर अभ्यास से ऐसी स्थिति आती है जब संगीतज्ञ और आधार स्वर दोनों मिलकर एक समान एकाएक हो जाते हैं। इसी अवस्था के बाद गायकी या वादन शैली की शिक्षा आरम्भ होती है। षडज स्वर एक समान तथा एकाकार हो जाते हैं। इसी अवस्था के बाद गायकी या वादन शैली की शिक्षा आरम्भ होती है। षडज स्वर साधना प्रत्येक गायक और वादक को जरूरी है। गायक अपने कंठ से प्रायः सारा जीवन इसकी साधना नित्य करता है। कोई भी अच्छा वादक अपना जीवन कंठ साधना से ही प्रारम्भ करता है। इसलिए शुरू में तो वह षडज साधना से ही प्रारम्भ करता है इसके बाद सारा जीवन स्वर का मनन चिन्तन अपने मस्तिष्क के सहारे अपने हाथ से करता है। षडज साधना के साथ भद्र साधना जिसे खडज साधना भी कहा जाता है, इसका शास्त्रीय संगीत में महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय संगीत में आवाज पर अधिकार करने और गायन को मधुर बनाने के लिए मद्र साधना पर विशेष बल दिया जाता है। सबसे पहले मध्य षडज पर काफी लम्बे समय तक ठहर कर उसका उच्चारण किया जाता है, जब यह षडज स्थित हो जाता है उसके पश्चात धीरे-धीरे एक-एक स्वर नीचे जाया जाता है जहाँ तक किसी व्यक्ति की आवाज आसानी से पहुंच सके। इन स्वरों पर आकार, इकार, ओंकार, उकार आदि द्वारा उच्चारण किया जाता है। इसके अतिरिक्त ओम शब्द का उच्चारण भी लाभप्रद होता है।
संगीत की शिक्षा में अलंकारों का महत्वपूर्ण स्थान है। उपयुक्त मात्रा एवं उपयुक्त स्थान में प्रयोग करने से इनके नाम की सार्थकता सिद्ध होती है। यदि एक समय में हम बार-बार अलंकारों का प्रयोग करेंगे तो इनकी महत्ता कम हो जाती है। हम अलंकारों को अलग-अलग ढंग से बनाकर और उन्हें गाए तो ऐसे हमारे गले का रियाज होता है। अलंकारों का अभ्यास करने से गाने के लिए गले को तैयार किया जाता है। अलंकारों के अभ्यास से गायक के कंठ में आकर्षण तथा सुरीलापन आता है। वह श्रोताओं को आनन्दित करने में सफल रहता है। अलंकारों के अभ्यास से स्वरों पर अधिकार प्राप्त होता है और गले की तैयारी बढ़ जाती है। इसी प्रकार लय और ताल की साधना भी अत्यन्त आवश्यक है। सबसे पहले स्वरों का या बोलों की प्रारम्भिक रचना का अभ्यास करना चाहिए। स्वर अभ्यास के बाद लय-ताल का अभ्यास करना चाहिए। आलाप और गाने के लिए राग का आरोह अवरोह के अनुसार मन्द्र, मध्य व तार सप्तकों के स्वरों का उच्चारण धीरे धीरे अति विलम्बित लय में करना चाहिए। आलाप गाते समय एक-एक स्वर पर ठहर कर स्वर को ध्यान में रखकर गाना चाहिए। स्वरों के लगाव और राग के चलन का विशेष ध्यान रखते हुए अभ्यास करना चाहिए। आलाप का अभ्यास स्वरों के अलावा आकार में भी करना चाहिए। तानों के अभ्यास के लिए उन्हीं स्वरों के छोटे-छोटे समूहों का छह-छह या आठ-आठ स्वरों को एक साथ मध्य लय में ताल देते हुए बोलने का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार जब बोलने का अभ्यास अच्छी तरह हो जाता है फिर लय को बढाकर उसे तेज लय में बोलने का प्रयास करना चाहिए। तानों में स्पष्टता इसी प्रकार आती है। आलाप व तानों के अभ्यास के बाद लय का अभ्यास आवश्यक हो जाता है। सबसे पहले एक मात्रा काल में एक स्वर बोलने का अभ्यास होना चाहिए। फिर इसके बाद एक मात्रा में दो, तीन, चार, छह तथा आठ स्वर समूहों को बोलने का अभ्यास करना चाहिए ।इस प्रकार धीरे-धीरे, ताल व लय पर अधिकार करते हुए राग व बन्दिशों आदि का अभ्यास करना चाहिए। बिल्कुल आसान, सरल बंदिश बनाकर उसका अभ्यास करना चाहिए। जैसे-
स्थाई ः- आवो आवो बलमा तुम बिन
मन लागे ना मनावन आनन्द
अन्तरा - तुम बिन गीत फीका लागे
ना सुर ना लय ताल छन्द
इस प्रकार सरल बन्दिशों को गाकर हम अभ्यास कर सकते हैं । राग रूप में इनका प्रयोग करते समय षुद्ध विकृत स्वरों की योजना आरोह-अवरोह, अल्पत्व, बहुत्व आदि के नियमों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तार विधि का सहारा लेकर अभ्यास करने से राग विस्तार के लिए मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। इस प्रकार हम स्वर साधना मन्द्र, मध्य, तार, तथा स्वरों पर ठहराव, लगाव अलंकारों का अभ्यास, लय तथा ताल और सरल बन्दिशों का अभ्यास करके गले को गायन के लिए तैयार कर सकते हैं। ये निरन्तर अभ्यास करने से ही संभव होता है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने संगीत साधना को पांचों वक्त की नमाज बताते हुए कहा कि मैं सारा समय ही अल्लाह की इबादत में रहता हूँ और तो और संगीत को परम साधना मानते हुए किसी कवि का कथन है-
जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यौ, क्यों करील फल भावै।
इस प्रकार किसी विषय के सम्पूर्ण तत्व को जानने के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है और संगीत के तत्व को जानने वाला तो साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है।
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गुंजन शर्मा
संगीत शिक्षक,
गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल, थानेसर,
कुरूक्षेत्र-136118 (हरियाणा)
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है। कितना अच्छा लिखा गया है कि मस्तिष्क संगीत से अपने आप को जोड़ता है।
जवाब देंहटाएंरचना पोस्ट करने से पूर्व एडिटिंग ज़रूरी है ताकि त्रुटियों को दूर किया जा सके , इस आलेख में नीचे लिखे २ वाक्य दो बार लगातार लिखे गए हैं. इस अनावश्यक दोहराव से बचा जा सकता था अगर एडिटिंग की गई होती .
जवाब देंहटाएंइसी अवस्था के बाद गायकी या वादन शैली की शिक्षा आरम्भ होती है।षडज स्वर साधना प्रत्येक गायक और वादक को जरूरी है.