यहां वहां की भस्म नहीं भ्रष्ट होने की ओर दिनेश बैस सो च कर हैरानी होती है कि दिसम्बर न आता तो पता कैसे चलता कि एक साल हो गया है. जिंदगी ...
यहां वहां की
भस्म नहीं भ्रष्ट होने की ओर
दिनेश बैस
सोच कर हैरानी होती है कि दिसम्बर न आता तो पता कैसे चलता कि एक साल हो गया है. जिंदगी के घड़े से एक साल और, बूंद की तरह रिस गया या कि मृत्यु की दिशा में एक कदम और बढ़ गये. दोनों का मतलब एक है. जो जैसे समझ ले. यह बढ़त ‘चार कदम सूरज की ओर’ बढ़ने जैसा झांसा नहीं होता है. वैज्ञानिक सत्य यह है कि सूरज कि ओर बढ़ने का अर्थ होता है, भस्म होने की दिशा में बढ़ना. हम भारत के लोग भस्म होने की दिशा में नहीं बढ़ सकते हैं. बच्चा-बच्चा यह जानता है. हां, भ्रष्ट होने की दिशा में बढ़ने से हमें कोई रोक नहीं सकता है. यह भी बच्चा-बच्चा जानता है. यह बढ़त ‘अब अच्छे दिन आ गये’ जैसा भुलावा भी नहीं होता है. यह स्पष्टीकरण तो इस नारे को देने वालों ने ही दे दिया है कि वह सब जुमलेबाजी थी. नहीं भी स्पष्ट करते तो भी जनता समझ रही थी कि ‘अच्छे दिन’ तथा ‘भटके दिन’ में अंतर होता है.
दिसम्बर आता है तो चौंक कर जाग जाते हैं साल पूरा हो गया. वेतन वृध्दि करने की मांग करो. महंगाई भत्ते के लिये तगादा करो. सरकारें आनाकानी करती हैं महंगाई बढ़ी कहां है. फिर मंहगाई भत्ता किस बात का. ठीक है कि खाने पीने की चीजों के दाम बढ़ रहे है लेकिन देखो, तुम्हारे द्वारा चुने हुये लोगों का रेट अभी भी पुराना चल रहा है. उनके सेवा-शुल्क में कोई वृद्धि नहीं हुई है. फिर कैसी महंगाई.
जनता असंतुष्ट होती हैं सब जी एस टी- सब गड़बड़ सड़बड़ तरीका. हो रहा है, महाराज. पैसा दो तो निबटो. नहीं तो भरे रहो पेट में. गांवों का नाता नील गगन शौचालयों से नहीं टूट पा रहा है. शहर अपने डी लक्स तरीके से निबटने पर इतरा रहे हैं. कोई बता दे कि पेट में अगर पानी हो गया हो, रोके-रोके नहीं रुक रहा हो या पेट सूखे का मारा हो गया हो, सरकने का नाम नहीं ले रही हो तो एक अदद ठिकाने के लिये तड़फेगा आदमी या डी लक्स या नील गगन के लिये भटकेगा. वह तो सबै भूम गोपाल की मानेगा. जहाँ मिले ठौर, वहां लगा दो ढेर.
लेकिन यह ऐसे ही भ्रम पैदा करने का दौर है. किसी भी तरह आदमी की जेब में छेद तो हो. गोल गप्पा भी जी एस टी के भार से चरमरा रहा है. पैसा है तो पढ़ो. नहीं तो गंवार बने रहने में ही देशहित है. बोरी भर नोट हैं तो अस्पताल आपकी सेवा में हैं. नहीं तो मरो. खाल उतरवाने तक में श्रद्धा है तो वकील साहब का दरवाजा आपका स्वागत करता है. अन्यथा जमीन पर कब्जा हो ही जाने दो. कम से कम दबंगों से तो मधुर सम्बंध बने रहेंगे. उनकी की नजरों में गिरने से तो बचे रहेंगे. दबंगों की नजर टेढ़ी हो गई तो थाना भी कुछ नहीं कर पायेगा.
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मौसम भी असंतुष्ट हो जाता है दिसम्बर के द्वार पर आते-आते. लो, चले हम तो. खिली-खिली धूप के दिन ढल जाते हैं. उम्र के सोपान फलांगती भूतपूर्व सुन्दरी की तरह बिसूरती है, धूप- अब हम में वह बात कहां रही. कभी जब निकलती थीं तो फक्काटा हो जाता था. हमारी हीट का ताप झेल पाने का दम किस में था.
कमजोर पड़ जाओ तो हर बीमारी देह से दुराचार करने के लिये मचलने लगती है. धूप बेचारी कमजोर पड़ रही है दिसम्बर में. ठंड ने पांव पसार लिये हैं, उसके हिस्से की जमीन पर. धूप सिहर रही है. सिमट रही है. ठंड विहंस रही है. पसर रही है. सूरज भी निकलता है तो सहमा-सहमा सा. जितनी भी धूप है, सब मिलजुल कर काम चला लेते थे लेकिन रही सही कसर पूरी कर दी है व्यवस्था ने-
अपने आंगन में कतरा भर भी धूप नहीं आती,
जब से कोठी की मुंडेर पर जा बैठा सूरज.
ठंड के दिन और लम्बी-लम्बी डरावनी रातें. वाह क्या बात है, दिसम्बर भाई. हमला पूरी तैयारी से है. रजाई न हो तो जान ही निकल जाये. जान लेने का मन बना कर ही आते हो. लेकिन जिनके पास रजाई न हों, वो कहां जायें. क्या करें.
यह शाश्वत प्रश्न है. ऐसे प्रश्नों का उत्तर कोई नहीं देना चाहता है. उसकी छाती कितने भी इंच की हो. धर्म ऐसे प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं देता है. जो पूछेगा, भगवान उसे दण्ड देगा. भगवान भी तो आखिर उन्हीं के पास है. उन्हीं के साथ है जिनके पास उसे बनाने के साधन हैं. उसे चलाने के माध्यम हैं.
दिसम्बर भगवान के भरोसे नहीं आया. आदमी की काल गणना में दिसम्बर को भी एक जगह मिल गई. ठंड भी भगवान की धकेली नहीं आती है. ऋतु-चक्र का एक पड़ाव ठंड भी है. आदमी का बनाया दिसम्बर. आदमी के बनाये ठंड से बचने के साधन.
डरा आदमी भगवान से नहीं. डरा मौसम से भी नहीं. दिसम्बर ठिठुरा-ठिठुरा कर सिकोड़ देने के लिये आया. तो आदमी डट कर खड़ा हो गया लड़ने के लिये. बरसात ने धरती को नहला दिया था पानी से. आदमी ने धरती के सिर पर कंघी कर दी थी- खेतों को संवार दिया था. जोत बो दिया था. दिसम्बर के मौसम की ठंड से भीतर की गर्मी से मुठभेड़ करने की तैयारी कर ली थी. अब सुस्ता रहा है मद्धिम सी धूप में बैठ कर. आंच में ताप कर. लेट कर, मेहनत का फल निकलने की बाट जोह रहा है खेतों से. फुर्सत के क्षण हैं कुछ.
फुर्सत की तलाश में तो गालिब भी थे. दिन-रात की फुर्सत. दिल की फुर्सत. कौन जाने दिमाग की फुर्सत-
दिल ढूंढ़ता, है फिर वही, फुर्रसत के रात दिन,
बैठे रहें तसब्बुर-ए जाना किये हुये.
सम्भवतः दिसम्बर की सर्दियों में ही गालिब के मन में फुर्सत के दिनों के लिये हूक उठती होगी. पहले लोग काफी पिछड़े हुये थे. दिसम्बर आते-आते मन मचलने लगता था कि छत हो या घर का आंगन हो या घर का द्वार हो. दरवाजे पर एक खटिया हो. खटिया पर गुनगुनी धूप हो. भले ही बाप की डांट हो मगर ढेर सी फुर्सत हो. खटिया पर हम हों. हम में सपने हों. जाना न हों तो भी चलेगा. जाना की कल्पना हो या खुद की बीवी तसब्बुर में हो. अपनी हो या पराई हो. बस एक लुगाई हो. अपने तो भगवान भी पराई के लिये ही नाम कमाते रहे हैं- कन्हैया कोई यो- ही थोड़े ही बन जाता है.
एक परम ठलुआ, परम निष्काम नौजवान को दिसम्बर के महीने से और क्या चाहिये जिंदगी के लिये.
अब समय बहुत आगे बढ़ गया है. फुर्सत ही फुर्सत है. लेकिन समय नहीं है किसी के पास. किसी के लिये. नौजवानों की आंखों में सपने नहीं हैं. हाथों में मोबाइल है. भक्ति-काल के कवि इन नौजवानों को देखते तो भूल जाते कि भक्ति में लीन होना क्या होता है. यह तरुणाई भक्त नहीं है लेकिन लीन होने में प्रवीण है. जहां है, जैसी है, जिस हालत में है, आभासी जगत. छद्म दुनिया. में लीन है.
भगवान की कृपा से एक अंतिम संस्कार में सम्मलित होने का अवसर मिला. अर्थी उठी तो चिरंजीव आगे आ कूदे- एक सेल्फी ले लूं, अंकल- चिता पर पिता लिटाये जा चुके थे. पुत्र की गुहार हो रही थी फूंकने के लिये. सपूत ने क्षमा याचना की- जस्ट अ मिनिट पंडिज्जी, फेस बुक पर डैडी की डेथ पोस्ट की थी. तीन सौ पंद्रह लाईक्स आ चुके हैं. कमेंट्स रीड कर रहा हूं-
अद्भुत समर्पण. डैडी की डेथ पोस्ट करने का सौभाग्य सबको कहां मिलता है. लेकिन सोशल मीडीया के एक्टिविस्ट हैं. फेस बुक पर तो रहते ही हैं. तसुब्बुर-ए जाना की जरूरत नहीं रहती है. ढेरों जानायें मौजूद रहती हैं. जैसी चाहें, देख लीजिये. जैसे चाहें देख लीजिये. जानू भी देख रहे हैं. जाना भी देख रही हैं. मैटिंग भले ही न हो मगर चौटिंग-चीटिंग के अवसर अपार हैं.
एक समय था जब ढलती उम्र में बस, अफसोस हाथ रहता था कि अब तो बस देखने-सुनने का सुख बचा है. उखड़ने के नाम पर कुछ नहीं उखड़ता है. अब भरी जवानी में देख रहे हैं. मन मसोस रहे हैं. दिसम्बर कब खर्च हो जाता है, पता नहीं चलता है. बसंत का भी कहां पता चलता है कि कब निकल गया.
बस, उदय से पतझड़ में पदार्पण करते है. शायद सुपर फास्ट ट्रेन ऐसी ही होती हैं. एसी के शीशे अनुमति कहां देते हैं रास्ते का भूगोल-नागरिक शास्त्र समझने का. वह दिन गये जब महादेवी वर्मा साधारण ट्रेन की, साधारण श्रेणी में खिड़की के पास बैठ कर यात्रा करती थीं. रात भर इस मोह में सोती नहीं थीं कि भारत देखना है. भारत का समाज देखना है. और ऐसा करने वाली केवल महादेवी वर्मा नहीं थीं. देश को समझने का खब्त पालने वाले लगभग सभी ऐसे होते थे. तब ट्रेन नहीं होती थीं, ‘रेलगाड़ी’ होती थीं. लिखने वाले भी इस खब्त के मारे थे. तारांकित होटल के, वाताकूलित चौम्बर तथा नेट के भरोसे लिखना उन्हें कहां आता था. आता भी होता तो उपलब्ध कहां था.
तब दिसम्बर सुना नहीं जाता था, महसूस किया जाता था.
मेरे जैसे लोग, दिसम्बर के महीने को आशाओं के महीने के रूप में पूजते हैं- मंथ ऑफ होप- दिसम्बर आया है तो जनवरी भी आयेगी ही. हर अंत एक नये प्रारम्भ आगाज करता है. दिसम्बर आता है तो मन हूम-हूम कर उठता है- छोटे दिन बीते रे भैया, बीते रे भैया. बड़े दिन आये रे भैया, आये रे भैया..
यों ही नहीं ईशू ने पच्चीस दिसम्बर चुना होगा धरती पर आने के लिये. खगोल-विज्ञान कहता है कि इस दिन से दिन बड़े होना शुरू हो जाते हैं. कर्मयोगी होना पता नहीं क्या होता हैं कर्म योग से नहीं होते हैं. काम करने से होते हैं. काम तब होगा जब दिन बड़े होंगे. दिल बड़े होंगे. विस्तार में नहीं, व्यवहार में भी. आचार में भी.
दिसम्बर कानों में फुसफुसाता है. आगे बढ़ो. आगे नया साल है. तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है. जागो, बड़ी रात समाप्त हुईं. बड़े दिन आ रहे हैं.
सम्पर्कः 3-गुरुद्वारा, नगरा, झांसी-284003
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