अमित पुरी शिकोहाबादी की कविता जागो उठो जागो जागो युवराज उठो हे भारत के सरताज उठो संकट चहुं ओर से घिर आया कश्मीर से मृत शव फिर आया ह...
अमित पुरी शिकोहाबादी की कविता
जागो उठो
जागो जागो युवराज उठो
हे भारत के सरताज उठो
संकट चहुं ओर से घिर आया
कश्मीर से मृत शव फिर आया
हाथों में पुनः तलवार धरो
मत केवल चीख पुकार करो
मां बाप की है सौगन्ध तुम्हें
तजना होगा प्रतिबन्ध तुम्हें
है वक्त कि आज पलाश बनो
शेखर आजाद सुभाष बनो
मत मोदी मोदी मन्त्र जपो
मत लोकतन्त्र गणतन्त्र जपो
रग में यदि रक्त उबलता है
अंगार सदृश यदि जलता है
यदि भारत की सन्तान हो तुम
यदि सचमुच इक इंसान हो तुम
यदि है सम्मान शहीदों का
यदि है एहसान शहीदों का
ठल ठल ठल दन दन दन दनाट
घन घन घन घन घन घन घनाट
यूं बन्दूकों से वार करो
श्रृंगार नहीं संहार करो
श्रृंगार नहीं संहार करो
श्रृंगार नहीं संहार करो.
संपर्कः ग्रेटर फरीदाबाद,
सेक्टर 87 शबाना सिटी
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बुद्ध के देश में अमन की तलाश है
डॐ. हीरा मीणा, सहायक प्रोफेसर
चारों ओर हर कोई अमन को पुकारता
बुद्ध के देश में अमन की तलाश है
इतिहास में दफन हैं सैकड़ों कहानियां
हवा अभी जहरीली है तू धीरे-धीरे श्वास ले
चारों ओर आग है आतंक की
तू अपना जल बचाए रख
बुद्ध निकले थे राजगृह से अमन की तलाश में
छोड़कर अपनी सारी सुख सुविधाएं
त्याग कर अपना वैभवशाली राजपाट
स्वयं दुख को झेलकर जन-जन को उद्धार किया
फिर वही आतंक है, युद्ध है, भीषण मारकाट है
फिर वही प्रलय है, मानवीयता बेहाल है
चारों ओर हर कोई अमन को पुकारता
बुद्ध के देश में अमन की तलाश है
काम, क्रोध, लोभ, मोह और हिंसा को त्याग कर
घर घर से बुद्ध निकलेंगे और चमन महकेगा
अमन की ठंडी बयार से चमन बनेगा थ्फर से स्वर्ग
मानवों का राज होगा मानवों के घर होंगे
ना कोई आतंक होगा न कोई तानाशाह होगा
ना तेरा होगा ना मेरा होगा
स्वर्ग हम सबका होगा
चारों ओर हर कोई अमन को पुकारता
बुद्ध के देश में अमन की तलाश है
सम्पर्कः 38, बागवान अपार्टमेंट पॉकेट-2 रोहिणी, सेक्टर-28, नई दिल्ली-110042
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कहां माइ के लाल
डॉ.राजकुमार ‘सुमित्र’
कश्यपमार कभी था जो, आज वही कश्मीर.
रावी, झेलम, सतलज का, पवन निर्मल नीर.
तपोभूमि यह ऋषियों की, उदभट थे कवि-राज.
आदि शंकराचार्य ने, रखा तीर्थ का ताज.
देवभूमि केसर क्यारी, हुई रक्त से लाल.
खोया गौरव दिलवाये, कहां माइ के लाल.
सम्पर्कः 112, सराफा, चुन्नीलाल का बाड़ा,
कोतवाली के पीछे, जबलपुर (म.प्र.)
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बेबस है कश्मीर
कवि राजेश जैन ‘राही’
नफरत से खिलते नहीं, फूल कभी तकदीर.
पत्थर लेकर हाथ में, वहीं खड़ा कश्मीर.
सत्य नहीं ओझल हुआ, झूठ बांचता पीर.
संसद में चलती रहे, घाटी पर तकदीर.
धूल लगी है गाल पर, दर्पण को है दोष.
टिका झूठ की नींव पर, हिंसक होता रोष.
खेमों से बाहर निकल, उठो करो उद्घोष.
हिम्मत किसकी जो करे, दुश्मन का जयघोष.
दुश्मन के नारे लगें, गद्दारों के गीत.
छलनी-छलनी हो गई, सीमाओं की जीत.
नहीं पढ़ाई काम की, डिग्री भी बेकार.
सबसे पहले चाहिए, मातृभूमि से प्यार.
पहरे में मां भारती, बंधी पांव जंजीर.
हाय तिरंगा देश का, बेबस है कश्मीर.
मातृभूमि के नाम पर, आपस में तकरार.
इससे ज्यादा क्या लिखूं, कलम रही धिक्कार.
पत्थर के पैसे मिलें, फूल हुए बेकार.
गुलशन में होने लगा, हिंसा का व्यापार.
मेहनत की रोटी मिले, अमन चैन के साथ.
रहे तिरंगा देश का, ऊंचा अपने हाथ.
संपर्कः काव्यालय, आई-1,
राजीव नगर, रायपुर (छ.ग.)
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सुशीला शिवराण के दोहे एवं छंद
दोहे
तहजीबों का मुल्क है, अपना हिंदुस्तान.
गूंजे पावन आरती, ले कर साथ अजान..
आजादी है फर्ज भी, नहीं सिर्फ अधिकार.
काश दिलों में रोप लें, सब जन यही विचार..
पनप रहा था बीज इक, खिलने को बेताब.
आतंकी उन्माद ने, डाल दिया तेजाब..
धुआं-धुआं से शहर में, कहां ढूंढ़ते छांव.
उजड़ गई हैं बस्तियां, उजड़ गए हैं गांव..
सरहद के इस पार या, सरहद के उस पार.
अमन पसंद अवाम है, सियासतें मक्कार..
मुक्तामणि छंद
कुदरत ने जी खोल कर, हुस्न दिया नूरानी.
इश्क इश्क बस इश्क तुम, इश्क करो रूहानी..
जहनो-दिल में नफरतें, नजरों में वीराने.
हसीं वादियों में मिले, ये कैसे अफसाने..
जन्नत से कश्मीर की, सहमी सी हैं वादी.
चप्पा-चप्पा जल रहा, फिजा हुई उन्मादी..
डल-वूलर घायल पड़ीं, मुर्दा पड़े शिकारे.
पत्ता-पत्ता कांपता, अल्ला ही अब तारे..
महकी सी वो वादियां, महकी केसर क्यारी.
दहशत में नद-झील हैं, हवा हुई हत्यारी..
नफरत की बोए फसल, रख फितरत शैतानी.
मिलकर उस गद्दार की, खत्म करो सुल्तानी..
लड़ें आखिरी सांस तक, परमवीर बलिदानी.
मर कर भी जिंदा रहे, उनकी अमर कहानी..
संपर्कः जलवायु टॉवर्स, गुड़गांव
मोबाइल : 0124-4295741
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मंजू पाण्डेय ‘उदिता’ की कविता
मुझको जन्नत जमीं की कश्मीर चाहिए
मुझको जन्नत जमी की कश्मीर चाहिए
ऐमुल्क तेरी बदली तस्वीर चाहिए
अब न ये धरती लहू से रंगीन हो
कोई जुल्म न इंसानियत पर न संगीन हो
बेगुनाहों की आहों से दिशा गूंजती है
निर्दोष आंखे सबब पूछती हैं.
बहुत मिल चुका दर्द दावा चाहिए
हमें मुस्कुराती हर फिजा चाहिए.
ये नफरत की आंधियां कोई रोक दे
दिलों को दिलों से कोई जोड़ दे
महकने लगे फिर वादियां एक बार
बर्बाद चमन हो जाये गुलजार
महकाए जो गुलशन पराग चाहिए
अंधेरा मिटाये वो चिराग चाहिए
शुरू हो अम्ल अब इंसानियत पर
दे चादर उसे, भी जो सोया फुटपाथ पर
ये बन्दुक बारूद किसकी जरुरत
बचपन कुम्हलाया कैसी है दहशत
बच्चों को तो उन्मुक्त गगन चाहिए
वतन को रोटी और अमन चाहिए
बेवक्त चिर निंद्रा में सो गए
रौशन सितारों में जो खो गए
वो मासूम यादों में रहेंगे हमेशा
जो लिपट तिरंगे में गम हो गए
उदिता अंजुरी सुमन चाहिए
पवन हृदय स्पंदित मन चाहिए
मुझको जन्नत जमी की कश्मीर चाहिए.
सम्पर्कः ‘उद्ताश्रय,जजफार्मपो,ओ.मुखानी,
हल्द्वानी, नैनीताल (उतराखंड)
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मीठा मीर डभाल, मीठा खां सलीम खां मीर
की एक कविता
अब तो देखो कायरता भी ये छुपके-छुपके रोती हैं,
भारत के वीरों की हालत देखो तो जरा क्या होती हैं.
कब जानें संसद जागेगा ये तजकर नींद खर्राटों की,
इकजूट होकर सब बोले जो चुप्पी तोड़ सन्नाटों की,
मिटा देना है नामों निशां को जो ये हमारी बपौती है,
भारत के वीरों की हालत देखो तो जरा क्या होती हैं।।1।।
लाल किले से जारी फरमां हो जायेगा जब लड़ाई का,
देह दुश्मन की थर थर कांपे ये हाल होगा हरजाई का,
इन्कलाब की आंधी आकर जो नस्ले रकीबां मिटाती है,
भारत के वीरों की हालत देखो तो जरा क्या होती हैं ।।2।।
कहीं किसी की कोख हो सूनी कहीं सिन्दूर मिट जाता है,
कहीं बाप का साया तो सर से इक पल में उठ जाता है,
कहीं बहनों की राखी रो रोकर मन ही मन मुरझाती है,
भारत के वीरों की हालत देखो तो जरा क्या होती हैं ।।3।।
संभल सको तो अब भी संभलो फिर सदा पछताओगे,
अमन चैन खुशियों का मौसम तुम कैसे फिर पाओगे,
किस काम का फिर पछतावा हर बार भूल हो जाती है,
भारत के वीरों की हालत देखो तो जरा क्या होती हैं ।।4।।
भाग्य विधाता भारत के तुम वीर सुनो ये बात सही,
वीर धीर रख बात विचारों कदम पिछे न हटो कहीं,
रहो आन के तुम रखवाले बात ये मात बतलाती हैं,
भारत के वीरों की हालत देखो तो जरा क्या होती हैं ।।5।।
संपर्कः मुकाम पोस्ट डभाल, तहसील सांचौर,
जिला जालोर, राजस्थान
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रविन्द्र शुक्ल ‘रवि’
नगपति मेरा वंदना ले लो
उज्ज्वल किरीट भारत मां का
गरिमा है आर्य सभ्यता की,
कश्मीर शीश के बिना भला
परिपूर्ण कहां होगी झांकी.
ऋषियों की श्रद्धा से पूजित
कविकुल आदर्श सनातन है,
शिव पार्वती का लीलाघर
साधक का तीर्थ पुरातन है.
है जगद्गुरु की तपस्थली
सम्पूर्ण प्रकृति का नर्तन है,
सौरभ भावों की तितली का
वह दुनिया का नंदन वन है.
भारत की ‘श्री’ का श्रीनगर
हो गया आज क्यों श्रीहीन?
सुजलां सुफलां भारत मां का
रस राज हुआ क्यों रस विहीन?
क्यों चादर हिन्द बहादुर का
बलिदान अकारथ चला गया?
गुरु तेग बहादुर का शोणित
अपने घर में ही छला गया.
झेलम चिनाब का पानी क्यों
हर बार रक्त से लाल हुआ,
क्यों भारत माता का उन्नत
चोटों से घायल भाल हुआ.
क्यों धधक रहा कश्मीर आज
ये बर्फ बीच शोले क्यों है?
ये अपनी पावन धरती पर
पाकिस्तानी गोले क्यों हैं?
क्यों अतिवादी घुसपैठी ये
माता का आंचल खींच रहे,
क्यों अपनी केशर बगिया में
हम नागफनी को सींच रहे.
क्यों इतने युद्ध हुए अब तक
क्यों निर्दोषों का रक्त बहा?
इस अर्ध शताब्दी में क्या-क्या
भारत माता ने दर्द सहा?
है कौन मूल अपराधी भी
उसने क्या-क्या अपराध किए?
किसने माता को घाव दिए
किसने माता के घाव सिए?
इन प्रश्नों का उत्तर दूंगा
हमको आशीष वचन दे दो.
नगपति मेरा वंदन ले लो...(1)
सन् सैंतालिस पंद्रह अगस्त
जब गगन तिरंगा लहराया,
था स्वर्ण दिवस भारत मां का
आजादी परचम फहराया.
आजाद, भगत सिंह, राजगुरु
बिस्मिल, बटुकेश्वर, अशफाक,
जाने कितने ही राष्ट्रभक्त
बलिदेवी पर हो गए खाक.
इनकी ही अमर शहादत ने
हमको सौंपी थी आजादी,
पर भूल, भूल पर भूल, हुई
हो गई देश की बर्बादी.
यदि लौह पुरुष भारत मां का
हो जाता पंत प्रधान यहां,
तो जगद्गुरु के आसन पर
भारत पाता सम्मान यहां.
पर नेहरू ने चुपके चुपके
ऐसा सत्ता नाटक खेला,
अंधियारी संध्या में बदली
भारत की अरुणोदय बेला.
चुपचाप देश को बांट दिया
थी बापू को भी खबर नहीं,
माता के टुकड़े कर डाले
इतिहास पृष्ठ का सत्य यही.
सत्ता के लालच में ही तो
षड्यंत्र यहां तक किया गया,
प्रत्यर्पण में देंगे सुभाष
यह वचन ब्रिटिश को दिया गया.
फिर पांव रखे आजादी ने
भारत की पावन धरती पर,
कैसे होंगी वह एक राष्ट्र
जो जागीरें फैलीं घर घर?
था यक्ष प्रश्न सबके समक्ष
मानेगा भला निजाम कहां?
क्या झुक जाएंगे रजवाड़े
कैसे होगा ये काम महा?
तब वरद् पुत्र भारत मां का
जिसको जग लौह पुरुष कहता,
उसने यह बीड़ा उठा लिया
मां की पीड़ा कैसे सहता.
हे अमर वीर सेनानी तुम
भारत का मौन नमन ले लो.
नगपति मेरा वंदन ले लो....(2)
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खतरा पहरेदारों से
आचार्य कैलाश नाथ पांडे
खतरा दुश्मन से नहीं देश को, खतरा पहरेदारों से.
खतरा एटम से नहीं देश को, खतरा तुच्छ विचारों से.
बलवती वेगिनी सरिता जब तूफान लिए बढ़ती आगे.
वह अपना मार्ग बना लेती चाहे चट्टानें हों आगे.
खतरा नदिया से नहीं किसी को, खतरा क्षीण किनारों से.
खतरा दुश्मन से नहीं देश को, खतरा पहरेदारों से.
मेरी सत्ता पर काबिज हैं, जो कोरे नारों के बल पर.
जो देश बेचकर सोते हैं, मखमली गलीचों के ऊपर.
खतरा बहार से नहीं हमें, खतरा है उन गद्दारों से.
खतरा दुश्मन से नहीं देश को, खतरा पहरेदारों से.
जागो भारत की संत्तानों अपनी आवाज बुलंद करो.
अन्याय और भ्रष्टाचारी शासन का, देश से अंत करो.
जो झुका रही मां का मस्तक, नादिरशाही तलवारों से.
खतरा दुश्मन से नहीं देश को, खतरा पहरेदारों से.
सम्पर्कः ग्राम-नाथ पुर पांडे,
पोस्ट-गोपीनाथ पुर, जनपद-बस्ती (उ.प्र.)
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जागो, जागो, जागो
नरेश शांडिल्य
जागो, जागो, जागो, ऐ भारत की संतान,
मातृ-मुकुट-मणि कश्मीर के संकट में हैं प्राण.
वो धरती का स्वर्ग, भारती का अनुपम कश्मीर,
जिसे कहा करते थे हम सब जन्नत की तस्वीर,
फिर से उस आंगन की देखो फूटी है तकदीर,
दुश्मन के पैरों कुचले हैं केसर के उद्यान.
खामोशी अब बन ना जाये गद्दारों की जीत
कोटि-कोटि कंठों से गाओ अखंडता के गीत,
रघुवर का संदेश गुंजाओ ‘भय बिन होय न प्रीत’,
बहुत हो चुकी शांति-साधना अब हो शर-संधान.
जब तक कलकल-छलछल गंगा की है शाश्वत धारा,
दसों दिशाओं में भारत की गूंजेगा यह नारा,
है कश्मीर हमारा - है कश्मीर हमारा,
इसी माटी के कण-कण पर तन-मन-धन कुर्बान.
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सरिता भाटिया के दोहे एवं कुंडलियां
दोहे
होम डिलिवरी है शुरू, मांगो नहीं पनाह.
इनके घर में अब घुसो, कर दो इन्हें तबाह.
होम डिलिवरी है शुरू, सुनो पाक नापाक.
इनके घर में अब घुसो, जमे पाक पर धाक.
होम डिलीवरी हो गई, यह दिल मांगे मोर.
नमन शहीदों को करो, चलो पाक की ओर.
वीर शहीदों को नमन, तर्पण कर दो आज.
होगा क्या अंजाम अब, जब यह है आगाज.
कुण्डलियां
सीना छप्पन इंच का, देख रहा संसार.
घर में घुसकर पाक के, किया दुष्ट पर वार.
किया दुष्ट पर वार, पाक ने मुंह की खाई,
किया नेस्तनाबूत, दिवाली गयी मनाई.
कुचलो उनको आज, चैन जिन्होंने छीना,
सरिता करती नाज, हिन्द का चौड़ा सीना.
सीना छप्पन इंच का, जय जय हिंदुस्तान.
घर में तुझको ढेर कर, पुनः बढ़ा सम्मान.
पुनः बढ़ा सम्मान, विश्व ने लोहा माना,
जय जय नमो प्रधान, सुनें अब क्यूं कर ताना.
भारत वीर जवान, सीख लो इनसे जीना,
सरिता देखे आज, देश का गर्वित सीना.
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विशिष्ट कवि
कुशेश्वर
परिचिती : कुशेश्वर
पूरा नाम : कुशेश्वर महतो
जन्म : 30 जनवरी, 1949, खैरा, समस्तीपुर (बिहार)
शिक्षा : बी.कॉम (क.वि.वि.), बी.ए.(हिन्दी विशेष) क.वि.वि., साहित्य रत्न (प्रयाग)
लेखन
समकालीन भारतीय साहित्य, हंस, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, कहानीकार, वातायन, भंगिमा, आजकल, हिमप्रस्थ, राष्ट्रवाणी, संबोधन, इन्द्रप्रस्थ, लोकशासन, कारखाना, जनसत्ता, सन्मार्ग, छपते-छपते, दैनिक जागरण, विश्वमित्र, प्रभात खबर आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं, 24 कहानियां एवं 120 दोहे प्रकाशित.
2 एकांकी, कुछ निबंध एवं व्यंग्य प्रकाशित एवं आकाशवाणी कोलकाता से 2 रेडियो नाटक प्रसारित.
राजा हे राजा, नई मंजिल, शीशे की दीवार, दीपराजी (कथा पर आधारित) पूर्ण नाटक, चोर-चोर मौसेरे भाई, स्वागत एक साहब का, भूत भगाओ, आज का बकरा, (चारों हास्य-व्यंग्य एकांकी) बक्सा-तोड़, एकांकी, एकांकी नाट्य प्रतियोगिता में पुरस्कृत. आकाशवाणी कोलकाता से प्रसारित.
विविध : फिल्म अनजाने मेहमान के संवाद तथा 3 गीत
फिल्म : प्यार के राही में
अतिरिक्त संवाद
धारावाहिक कावेरी में संवाद एवं शीर्षक गीत, टेलिफिल्म मंजिल में संवाद. फोटो-टाक (चित्र कथा) का एक नया प्रयोग एवं सार्वजनिक प्रदर्शन 1994, कोलकाता पुस्तक मेला में कुश-एकाक्षरी की परिकल्पना, अन्वेषण, लेखन एवं आकाशवाणी कोलकाता के एफ.एम.(रेनबो) चौनल पर पिछले 7 जनवरी, 2007 से जून, 2007 तक प्रस्तुति.
प्रकाशन
ज्वालामुखी पर खिला हुआ फूल (कविता संग्रह) 1997 में प्रकाशित. एक कथा-संग्रह ढाक-ढोल तथा एक नाटक राज-पाट एक प्रकाशक के पास पिछले 3 वषरें से प्रकाशन की प्रतीक्षा में.
आकाशवाणी कोलकाता में सामयिक एफ.एम. प्रेजेन्टर 1998 से लेकर 2012 तक.
कोल. बी. में सामयिक उद्घोषक एवं प्रेजेन्टर जून, 2014 तक.
ऑल इंडिया रेडियो नाट्य-प्रतियोगिता 2012 एवं 2015 में क्रमशः
1. एक तलका की कहानी, 2. टूटा हुआ रिकार्ड
बांग्ला से अनूदित नाटकों को प्रथम पुरस्कार सर्वभारतीय ऑल इंडिया रेडियो नाट्य प्रतियोगिता में.
संपर्क : पी-166/ए, मुदियाली फर्स्ट लेन, कोलकाता-700 024
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
कविताएं
भाग्यशाली भगवान
अपने एक मित्र के साथ हूं
बनारसी पान दूकान पर
उसे चाहिए पान बनारस वाला
मेरा ध्यान चला जाता है
बगल में बंद पड़े एक कॉटन मिल के गेट पर
जहां झूल रहा है ताला
बैठे हैं दो दरबान
आपस में बतियाते
सामने तना हुआ है
मैला-सा एक पुराना तिरपाल
बैठे हैं उसके नीचे
धरना देने वाले
कुछ लेटे हैं
कुछ खेल रहे हैं ताश
बगल में रक्खे रेडियो से
एफ.एम. पर आ रहा है गाना
आना है तो आ राह में कुछ देर नहीं है
भगवान के घर देर हैं, अंधेर नहीं है
मुझे मन ही मन हंसी आ जाती है
कोई तो नहीं आ रहा
न मिल मालिक
न नेता
न सरकार
सुना था
यहां ब्लैक आऊट के समय भी
लॉक आऊट नहीं हुआ था
आज किंतु विपरीत है हालत
पैसा और कानून
जो न कराये थोड़ा है
बगल में ही है एक मन्दिर
जहां अच्छी आवा-जाही है
चारों ओर बत्तियों की झालर लटक रही है
बिजली का कनेक्शन किंतु इसी कारखाने से है
जहां ताला पड़ा हुआ है
तू कितना भाग्यशाली है भगवान
आदमी खुद को अंधेरे में रखकर भी
तेरे घर में उजाला करता है
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विस्थापन
मैं जहां पर जन्मा था
बदल गया है अब नाम वहां का
क्या बोलूं मैं अब
कि कहां का रहने वाला हूं
जहां हूं
या जहां का था
एक तरह की माटी
एक-सा आकाश
एक जैसा गांव
एक जैसा रूप
एक जैसी छांव
एक जैसी धूप
मैं तब छोटा-सा बच्चा था मुझको नहीं पता था
एक ही दिन में बदला कैसे
गांव, शहर और देश का नाम
अपने ही घर-आंगन में हम
हो गये रातों-रात विदेशी
आकाश में जितने बादल नहीं दिखते
उतनी शंकायें दिखती हैं
मन सोचने लगता है
कहीं अचानक फिर किसी मध्य-रात्रि के बीच
छीन के हमारी भाषा और बोली
कर दी जाये घोषणा
गूंगे-बहरे देश के लोग
तुम्हें विस्थापित होना है.
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वर्णाक्षर
मैं न तो मिर्च की जाति का हूं
न करेले की वंशज का
फिर मैं तीता क्यों हूं
मेरे शरीर में वैसा ही रक्त है
जैसा कि उनके शरीर में
जो कहलाते हैं मीठे अंगूर
ब्लड-ग्रूप की रेखा उभर जाती हाथों पर
तो हवाओं को टकराना पड़ता अनगिनत धिक्कारों से
किस-किस की नाक से निकली
झांका किन-किन आंखों में
चूमा है किस-किस का चेहरा
बायें से दायें लटकते
असंख्य कच्चे धागों के श्राप का भय
सूर्य को सामने आने नहीं देता है
सागर से मिलने के पहले ही
सागर का अपहरण हो गया होता
भटक जाती बेचारी गंगा
घूंघट डाले बहू
क्या जाने किस राह को जाना
फिर कैसे खेलते उसकी गोद में
पागल कीट, पतंगे
कैसे नहाती मछली, पशु-पक्षी और ढोर
एक-एक पूजा घर कैसे पीता अमृत
छीरू इतनी लज्जाहीन
कि खेले नमक के संग
बादल से करे ठिठोली
आकाश भाग गया दूर
बहुत दूर
कैसे बतलाता
किसका गोत्र जुड़ा है उसके साथ
संकट-मोचन यूं ही नहीं बना दिये गए मूरत
जो आदृश्य है
वही स्वर्ग है सबके लिए
पहले धरती पर
नरक दृश्य में मरना होगा
अंतर हाथों में नहीं
जिसने बनाये वस्त्र
दोष उस मस्तिष्क का है
जिसके अंदर तन ढंकने का विचार जन्मा
सबके सामने नंगे जनम लेने वाले
जब तक नंगे थे
नहीं था भेद
वरण का
चरण का
शरण का.
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आओ मेरे अंदर
कुएं की जगत पर
जैसे ही बैठी एक चिड़िया
अंदर से बोला कुआं
देखो, आकाश में भर रहा है धुआं
बचना है तो आ जाओ मेरे अंदर
अचरज से अंदर झांकी चिड़िया
वह कुछ और अभी सोचती
कि उसे लील गया कुआं
कुएं के जगत पर
आके बैठी एक पगड़ी
अंदर से बोला कुआं
देखो, आकाश में भर रहा है धुआं
बचना है तो आओ मेरे अंदर
पगड़ी ने देखा आकाश की ओर
फिर अपनी जेब से निकाला कागज का एक टुकड़ा
और डाल दिया कुएं के मुंह में
पगुराने लगा कुआं.
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आंधियों का कर्ज
रातें
कवियों के लिए
हुआ करती हैं
मधुछन्दा
किंतु मेरी रातों में
नीम समा जाए
तो करूं फिर मैं क्या
वह पेड़ यदि मेरे आंगन में होता
तो गांव मेरा पूरा
उसकी छांव में सिमट आता
अपने दांतों के लिए मांगता
सफेदी की मुस्कान
तब आम, महुआ, कटहल के खोहों में
लटक जाते मधु-छत्ता
मेरी आंखों की पुतलियां
खेल नहीं पाईं
कदम्ब और गुलमोहर के साथ
क्योंकि बचपन से ही फंसे रहे गए हैं
मेरी पलकों में
खजूर और बबूल के कांटे
मेरे पांव से कभी
लिपटी नहीं
उगते सूरज की ललछौंही किरणें
चीख कर भाग गयीं
देख कर मेरी फटी बिवाई
मां बताती है
डेढ़ फुट का ही रहा होऊंगा
जब मैं चलने लगा था
मेरे चलने और बढ़ने का यह सिलसिला
सवा पांच फुट तक आकर रुका
इस तरह रुक गया था
जैसे गंगा का सागर से मिलने के बाद
और कोई जगह न बची हो उसके लिए
आगे बढ़ने की
लेकिन मेरे सामने के रूपनगर का मकान
जो कि उसी दिन जन्मा था
जब मेरे घर में थाली बजी थी
वह मुझसे सौ गुना अधिक ऊंचा हो गया है
उसके अंधेरे के नीचे
दबी है मेरी कुटिया
एक खटिया के सिवा
अब कुछ न बचा
बचा है केवल, आंधियों का दिया हुआ कर्ज
पूरे इस जनम की खातिर
जहां उठाता हूं रेत
जांगर समेत
दूसरे दिन नहीं बचता जब कुछ मेरी मुट्ठी में
देखता हूं आकाश को
तो वक्त कहता है क्या देखता है
तू मेरा बंधुआ है
यदि छूटना है
तो मुझे पछाड़!
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काव्य जगत
डॉ. सुरेश उजाला की गजल
निज सपनों से दूर आदमी
कितना है मजबूर आदमी
महंगी में त्योहार कहां का
निभा रहा दस्तूर आदमी
पहले तो थी निरी सादगी
सत्ता पा मगरूर आदमी
तन से जितना पास रहा वो
मन से उतना दूर आदमी
कोई सही जौहरी मिलता
हो जाता मशहूर आदमी
चांदी है ठेकेदारों की
आहत है मजदूर आदमी
संस्कार यदि नहीं मिले तो
बना रहेगा क्रूर आदमी
संपर्कः 108-तकरोही, पं. दीनदयाल पुरम् मार्ग, इंदिरा नगर,
लखनऊ (उ.प्र.)
मो. 0522-2710055, 9451144480
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शिवकुमार कश्यप के दोहे
कमल पात से नैन हैं, कोयल जैसे बैन.
विद्युत-रेखा सी हंसी, क्यों न छिने फिर चैन.
बांकी चितवन ने दिया, कुछ ऐसा संदेश.
हृदय बीच हलचल मची, किया वसंत प्रवेश.
मधुर मिलन की आस में, खुले नयन के द्वार.
सांसों का पहरा लगा, लुटे नहीं घर-बार.
पुरवाई सी तू बहे, शीतल मंद बयार.
मन बौराये देखकर, तेरा प्यार उदार.
रात चांदनी खिल उठी, पा चंदा का साथ.
ऐसे में तुम हो कहां, दो हाथों में हाथ.
मीठे तेरे बैन हैं, तीखे तेरे नैन.
सपनों में डूबा रहे, दिल मेरा दिन-रैन.
आंखों की दो बूंद ने, कह डाला इतिहास.
मन की गाठें खुल गईं, हृदय हुआ आकाश.
अंखियों से तुम दूर हो, मन के बिल्कुल पास.
मन तो खिला-खिला रहे, अंखियां रहें उदास.
विलग हो गए हो हमसे, बैठे वहां विदेश.
इस वियोग की धार को तेज करे संदेश.
इन आंखों में है बसा, मधुर मोहिनी रूप.
जब उदास घन छाते, तो देती यह धूप.
संपर्कः 15-बी, पौर्णमी, अपार्टमेंट
पांच पाखाड़ी- नामदेव वाड़ी
ठाणे (पश्चिम)- 400602, (महाराष्ट्र)
मो. 9869259701
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यूनुस अदीब की गजल
खुद को खुद अपने हाथों से मरने नहीं दिया.
सौदा कभी जमीर का करने नहीं दिया.
काली कमाई करता तो बन जाता मैं अमीर,
गुरबत की रोशनी ने ये करने नहीं दिया.
सैलाब उनकी यादों का पलकों पे थम गया,
आंखें से आंसू मैंने भी गिरने नहीं दिया.
दुनिया तो चाहती थी बिखर जाऊं मैं मगर,
इक तेरे गम ने मुझको बिखरने नहीं दिया.
किस्कमत ने खूब खोले दरीचे बहारे के,
अपनों ने पर अदीब संवरने नहीं दिया.
सम्पर्कः 2898, स्टेट बैंक के सामने,
गढ़ा बाजार, जबलपुर
मोः 9826647735
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शिवशरण दुबे का नवगीत
ना जाने कब घुसी गांव में
चाल-ढाल शहरी.
पनघट गुम हैं, नई सभ्यता
नल पर अब ठहरी.
लोहे-पीतल के बर्तन
आपस में लड़ते हैं.
माटी के घट खाली
घर की राह पकड़ते हैं.
थोड़ी दूर कुयें में डूबी
मरी पड़ी बकरी.
बड़ी बहू पलंगा पर पौढ़ी
गहरी नींद लिये.
मंझली बहू उठी न अब तक
पसरी मान किये.
सास चीखती, आठ बज गये,
उठ री अब लहुरी.
मंगल दादा घूमघाम कर
लौटा गोइंड़े से.
द्वार खड़ा कनबतियां करता
मंगल पांड़े से..
जाने क्यूं! भइया इस युग में
हवा बहने जहरी.
सड़क-किनारे देख, मेंड़ पर,
चुनरी फटी पड़ी.
झुरमुट-भीतर हिलती-डुलती
गठरी रकतभंड़ी.
लगता लाज भरी मर्यादा
घूरे पर उतरी.
संपर्कः संदीप कॉलोनी, बरही-483770
जिला- कटनी (म.प्र.)
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भैया विवेक प्रियदर्शी
मुखौटा
हूं मैं एक
सम्भ्रान्त व्यक्ति
इसलिए मुख पर मेरे
है एक मुखौटा.
मेरा मुखौटा लेकिन
है इतना सजीव
कि समझ लेते हैं
मुखौटे को ही,
लोग मुख मेरा
और लगते हैं गढ़ने
मुखौटे की सुन्दरता पर
रोज नए कसीदे.
मुखौटे पर लगे
उजले रंग को
वे समझते हैं प्रतीक
मेरी उस सच्चाई
ईमानदारी
और सादगी का
थी ही नहीं जो
कभी चरित्र में मेरे.
पीले रंग से वे
लगाते हैं कयास
सांसारिक भोगों के प्रति
मेरी अनासक्ति का.
अन्य रंगों के भी
निकालते हैं वे
ऐसे ही निहितार्थ.
बातें उनकी
कर देती हैं कई बार
मुझको भी भ्रमित
मानने लगता हूं
ऐसे में खुद को,
मैं महापुरुष कोई.
देता है तर्क
प्रमुदित मन मेरा
‘‘है क्या ये संभव
कि हो कभी झूठी
जनता में निहित
जनार्दन की आवाज?’’
दर्पण में लेकिन
दीख ही जाता है
मुझको मेरा चेहरा
जो है बदसूरत
और दागदार
उगे हुए हैं
सिर पर मेरे
दो सींग
लालच और अहंकार के.
देखकर जिसे
करने लगें लोग
नफरत मुझसे
इसलिए चढ़ा लेता हूं
तत्क्षण मुखौटे को,
मैं अपने मुख पर.
ऐसा नहीं कि
है सिर्फ मेरी ही
शक्ल इतनी बदसूरत
कई लोग हैं ऐसे
चेहरा जिनका
है बहुत भयावह
परन्तु देख नहीं पाता
कोई उनके भी मुख को.
चढ़ा हुआ है क्योंकि
उनके भी मुख पर
सुन्दर
और जीवन्त मुखौटा
मुखौटा सेवा का
त्याग का
बलिदान का
आदर्श का
धार्मिकता का
देशभक्ति का
राष्ट्रवाद का...
लाजिमी है करना
उनके लिए भी ऐसा
आखिर गिने जाते हैं
इस समाज में वे भी
सम्भ्रान्त व्यक्तियों में.
चमत्कार
इस आधुनिक युग ने
चमत्कार
एक कर दिखाया है
कि धर्म को
और बाजार के
घटिया उत्पादनों को
लाकर
एक ही धरातल पर
खड़ा किया है.
और अब
यह स्थिति है
कि दोनों को
बनाए रखने को
अपना-अपना अस्तित्व
लेना पड़ता है
सहारा
प्रचार का.
सम्पर्कः न्यू एरिया, पहली गली, हजारीबाग (झारखण्ड)
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डॉ. शेष पालसिंह ‘शेष’ की कविता
टातंकवाद
कभी भयानक रात आ गयी,
आया दुखद सवेरा है.
धीर-वीर-गम्भीर हिन्द में,
क्यों आतंकी डेरा है.
चरित उदार मिला है हमको,
सदा नीति पर चलते हैं.
नैतिकता के धारक हैं हम,
उत्तम भाव पिघलते हैं.
पाठ पढ़ा हमने पटुता का,
कभी न सोना, खोना है,
आक्रामक, अन्यायी पर हम,
होकर कुपित उबलते हैं.
इसीलिए तो समय-समय पर,
हमने शठ को घेरा है.
कोई भूला देश पड़ौसी,
यदि आतंकी चाल चली.
घुटनों के बल वह गिरता है,
कभी न उसकी दाल गली.
भारत है वीरों की धरती,
नहीं मात हम खाते हैं,
विदुषी-विद्वानों की वसुधा,
न्याय मिलेगा गली-गली.
धर्म और अध्यात्म देश में,
युग-युग रहा घनेरा है.
हवा चली आतंकवाद की,
बच्चा-बच्चा जाग उठा.
अस्त्र-शस्त्र-तलवारें चमकीं,
आतंकी झट भाग उठा.
घुसपैठी हर एक पछाड़ा,
टुकड़े-टुकड़े कर डाले,
रन्चमात्र भी देश न चूका,
बन फनधारी नाग उठा.
फैलीं यहां ज्ञान की किरणें,
बिलकुल नहीं अंधेरा है.
संपर्कः ‘वाग्धाम’-11डी, ई-36 डी,
बालाजी नगर कालोनी,
टुण्डला रोड, आगरा-28200
सुषमा भंडारी की कविता
कश्मीर अपना है
ये घिनौना कृत्य छोड़ो, मत करो प्रयास
कश्मीर अपना है, रहेगा ये हमारे पास
है भारत शरीर तो
कश्मीर मस्तक है
सिर के साथ ही जिये
हर जिस्म का हक है
पाक के नापाक इरादों का नहीं आभास
ये घिनौना कृत्य
जन्नत की कल्पनाओं की
तस्वीर यही है
भारत अगर रांझा है
तो फिर हीर यही है
रकीब तुम बने हो गर भोगो तुम्ही संत्रास
ये घिनौना कृत्य
भटका के नौजवानों को
हासिल हुआ है क्या?
जंग के उन सिलसिला ने
तुम को दिया है क्या?
भटके परिन्दे लौटेंगे मुझको है विश्वास...
ये घिनौना कृत्य छोड़ो, मत करो प्रयास
कश्मीर अपना है, रहेगा ये हमारे पास...
सम्पर्कः फ्लैट नं. 317, प्लैटिनम हाइट्स 18 बी, द्वारका, नई दिल्ली-110078
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