रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : उत्तर आधुनिकतावाद दार्शनिक आख्यान : मिशेल फूको और जॉक देरीदा / मिहाएला मेरल अहमद

SHARE:

मिहाएला मेरल अहमद उत्तर आधुनिकतावाद दार्शनिक आख्यान : मिशेल फूको और जॉक देरीदा (अनुवाद - पुनर्वसु जोशी) इस विशिष्ट अध्ययन में हम, मिशेल...

मिहाएला मेरल अहमद

उत्तर आधुनिकतावाद दार्शनिक आख्यान :

मिशेल फूको और जॉक देरीदा

(अनुवाद - पुनर्वसु जोशी)

इस विशिष्ट अध्ययन में हम, मिशेल फूको और जॉक देरिदा की भाषा से संबन्धित उत्तर आधुनिक चिंतन की उन ऐतिहासिक पुनस्र्थापनाओं का हम विश्लेषण करेंगे। मिशेल फूको भाषा और सत्ता और यथार्थ के अंतरसंबंध को विश्लेषित करते हैं, वहीं दूसरी ओर जॉक देरीदा, भाषा और ‘पाठ’ के अंतरसंबंध को विश्लेषित करते है। यहाँ यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि इस अध्ययन में उत्तर आधुनिक साहित्य ही, वह दायरा है, जिसमें इस सिद्धांत की रोशनी में ही, समालोचनाएं सामने आएंगी जिनमें, समीक्षात्मक-प्रज्ञा सक्रिय रह कर, तर्क के जटिल रूप को, विवेचित करती है।

मिशेल फूको, सत्ता की प्रकृति और उसके कार्य और व्यवहार की शैली को विवेचन के उपकरणों से आलचाल करते हैं, और पाते हैं कि सत्ता अपनी आत्यंतिकता में किस तरह से ‘ज्ञान’ तथा उससे संबंध और अंतर्निहित को, ‘सामाजिक-नियंत्रण’ के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करती है। क्योंकि, जो मनुष्य की ‘आवयविकता’ या शरीर से संबन्धित है, वही सत्ता की कामना के केंद्र के इर्द-गिर्द, ज्ञान का आवरण चढ़ा कर, उसे और अधिक ‘समवेत’ सत्ता में बदलती है। उन्होंने, अपने सामाजिक संस्था के आलोचनात्मक अध्ययन में, खास तौर पर, मनःचिकित्साशास्त्र, औषध विज्ञान, मानविकी तथा कारागार के अतिरिक्त मनुष्य के यौन व्यवहार के विभिन्न पक्षों को समाहित किया है। ज्ञान की इस ‘जीनियोलोजी’ को रूपायित करने में निर्विवाद रूप से, जिस दार्शनिक से उन्होंने सर्वाधिक प्रबल प्रभाव ग्रहण किया है, वह है बीसवीं सदी के सर्वाधिक प्रखर दार्शनिक फ्रेड्रिक नीत्शे।

[ads-post]

मिशेल फूको के लेखन की केंद्रीय निष्पत्ति यही है कि वे ‘ज्ञान’ और ‘सत्ता’ के बीच चतुर्दिक फैले सूक्ष्मतम सूत्रों को पकड़कर, उस आवरण को उतार सकें जिसके चलते वे दर्शन की दुनिया में दुःसाध्य बनकर, लगभग एक अबूझ-सी पहेली की तरह बन गए हैं। वे स्थापना देते हैं कि ‘सामाजिक वर्चस्व’ और ‘ज्ञान की प्रविधि’ के बीच, एक गहन लेकिन अप्रकट अंतरसंबंध है जिसके कि बहुतेरे आयाम हैं। फूको ज्ञान की विभिन्न प्रविधियाँ, सामाजिक नियंत्रण की तकनीकों और अभ्यासों का ‘संहिताकरण’ करते हुए, नियंत्रण की प्रकृति को उद्घाटित करते हैं। उदाहरणार्थ, कारागार, पागलखाना, विश्वविद्यालय, अस्पताल इत्यादि वे संस्थाएं हैं जिनमें ‘सत्ता’ विभिन्न भागों और क्षेत्रों में फैली हुई है। हम इनको समझने के लिए कोई सामान्य-सिद्धांतिकी ईजाद नहीं कर सकते, जो इनके मध्य और इनके भीतर के सत्ता के अंतसंर्घर्षों को पूरी तरह बता सके।

हालाँकि, लेखक की मृत्यु जैसे जटिल मुद्दे को मिशेल फूको ने जितने तीक्ष्ण और सूक्ष्म विवेचन से, और लगभग एक विस्फोटक ढंग से प्रकट किया है, वह अन्य किसी विचारक ने, जो उत्तर आधुनिक विचारक के रूप में चिह्नित और स्वीकृति भी रहे हैं, ने नहीं किया है।

फूको, पुस्तक को एक ‘ऑब्जेक्ट’ की तरह देखते हैं, अर्थात साहित्य की एक ‘जगह’। प्रकारांतर से एक ‘ऑब्जेक्ट’ के रूप में, पुस्तक की प्रतिष्ठा को वे व्याख्यायित करते हैं, तो साहित्य की विशिष्टता के रूप में ही, और पुस्तक का एक ‘नियत स्थान’ निर्धारण भी वह उसी अवधारणा के आश्रय से करते हैं। मिशेल फूको अवकाश (स्पेस) की अवधारणा को, स्पष्टतः इमैनुअल कांट के दार्शनिक चिंतन से ही प्रभावित होकर, अपनी व्याख्याओं के उपकरण के बतौर लाते हैं। क्योंकि, इमैनुअल कांट की दर्शन के क्षेत्र में यदि कोई महानतम उपलब्धि कही जा सकती है तो निःसन्देह, वह है, मानव तर्क के, शुद्ध-बुद्धि विवेक और न्यायिक संकाय में विभक्तिकरण का।

यह मनुष्य की बौद्धिक योग्यता का वह प्रादर्श है, जिसके चलते ‘ज्ञान’ का उपयोग जीवन और समाज के क्षेत्रों में संभव बनता है। यह भी त्रिस्तरीय वर्गीकरण है- सूचनाओं का परिवेश से संकलन, सूचनाओं को अवधारणा के रूप में व्यवस्थित करना, और ‘विचार’ का विस्तार करना। प्रथम स्तर है, मस्तिष्क अंतःबोध से सूचनाओं को ग्रहण करता है, फिर उसको बाह्य चेतना (स्पेस) से भी सुस्पष्ट ढंग से संबंधित करता है। हम किसी भी ‘ऑब्जेक्ट’ को तब तक ग्रहण ग्रहण नहीं कर सकते जब तक कि उनकी, स्पेस में होने की आंतरिकता को हम यथेष्ट ढंग से चिह्नित न कर सकें। हम ‘ऑब्जेक्ट’ को ‘काल’ के संदर्भ के बिना भी ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि ‘काल’ की अनुपस्थिति में हम गति और क्रोनोलोजी को भी नहीं समझ पाएंगे। मिशेल फूको का कहना यह है कि चूँकि इमैनुअल कांट के दार्शनिक विवेचन ने ‘काल’ की समस्या को हमेशा के लिए स्पष्ट कर दिया था, कदाचित इरादतन लेकिन उन्होंने यह किया ‘स्पेस’ की समस्या की अवहेलना करते हुए। चूँकि, कुछ अन्य महान दार्शनिकों मसलन, हेनरी बर्गसां, हेगेल, मार्टिन हाइडेगर आदि ने मनुष्य के अस्तित्व को ‘काल’ के विशिष्ट संबंध के अंतर्गत केंद्रित कर लिया था।

अतः, मिशेल फूको, पाठ को ‘स्पेस’ के साहचर्य और ‘स्पेस’ के संबंध में ही रखते हैं। वे नैरेटिव (बखान) को मृत्यु के अवकाश की तरह विश्लेषित करते हैं, लेकिन पूरी तरह मृत्यु के विरुद्ध अभिमुखी होकर। इसके लिए स्पष्टीकरण यह है कि मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर मृत्यु की झलक, एक व्योम को उत्कीर्ण करती है, वही बोलने के लिए उकसाती भी है। हम जीवित हैं, यह जनचेतना में प्रमाणित करने के लिए हम बोलते हैं। हम लिखते हैं, इस उम्मीद से कि हम मृत्यु के बाद में लोगों की स्मृति में जीवित रह जाएंगे। और अगर यदि हम पढ़े जा रहे हैं, यदि हमने यश अर्जित कर लिया है, तो निश्चय ही हमारा स्मरण किया जाएगा, हम विस्मृत नहीं होंगे। यह मृत्यु की अनिवार्यता का अतिक्रमण है, क्योंकि यह काया से इतर एक ‘यश-काया’ का निर्माण करता है। जबकि उत्तर आधुनिकतावादी मनुष्य यह सुस्पष्टतया जानता है कि इस वक्त में, जिस में हम जी रहे हैं, उसमें हम सिर्फ एक ही उम्मीद कर सकते हैं, और वह यह कि हम एक ‘क्षणिक चौंध’ भर हैं। हम अपने पूर्वजों की कालजयी प्रसिद्धि पर विजय नहीं हो सकते, क्योंकि अब मनुष्य के ज्ञान का वृत्त अधिक बड़ा है। हमें कुछ भी अविस्मरणीय करने के लिए, अथाह ज्ञान का दावेदार बनना होगा। बावजूद इसके हम अपने ‘लिखे हुए’ (टेक्स्ट) से उठती हुई अमरत्व की पुकार पर नियंत्रण नहीं पा सकते। क्योंकि, लिखा हुआ प्रकारांतर से हमारे अस्तित्व के अंश को ‘अंतरस्थ’ कर लेता है। लुक फेरी का कहना है कि यह लिखने की, जब्त न हो सकने वाली इच्छा, नैराश्य के बावजूद भूलना संभव नहीं है। लुक फेरी का यही कहना है कि हम लिखते हैं क्योंकि हम मृत्यु से भयाक्रांत हैं।

बहरहाल, एक लेखक का लिखना, उसकी मुक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। इसके उपरांत स्टारोबिंस्की का कथन है कि अमरत्व और एक लेखक और उसकी कृतियों के बीच एक अतर्क्य संबंध है। वे साथ ही गेस्टन पेरिस के एक अध्ययन ‘पोण्डरिंग ज्यू’ को उदाहरण की तरह प्रस्तुत भी करते हैं। इसके साथ ही, यह भी तय है कि लेखक अपनी मानसिक-पैथोलॉजी को ही प्रस्तुत करता है, जो इस शर्त से प्रभावित होकर, यह यकीन करने लगता है कि वह अमर है। यह अवस्था, उस सामान्य से व्यवहार से संचालित होने लगती है, कि अस्थाई सीमा को, अनंत से भिड़ा देता है। इस तरह, वे तर्क और अतर्क के बीच की खाली जगह में प्रवेश करके वहाँ से प्रश्न और उसकी भंगिमा को उठाते हैं।

यह अनंतकाल, वही समय है, जिसमें कोई संभावना शेष नहीं है। यह रचने की असंभाव्यता, उसके अंदर गहन कुंठा, उसे, मन और तन सहित एक ‘इटरनल वांडरिंग’ यानि कि भटकाव में डाल देती है। ‘पैथोलॉजिकल मेलंकली’, महान जैसा कुछ लिख पाने की असंभाव्यता से उपजती है। भाषा, मृत्यु के विरुद्ध विद्रोह का प्रतिनिधित्व करती है, जो इस बात से इंकार करती है कि वह अपने पीछे महान जैसा छोड़े बगैर मर सकता है। लेकिन, लेखन बोले गए से हमेशा अधिक ही है। एक आख्यान का मौखिक बखान, विचार का दोहराव होगा। लिखने का अर्थ दोगुने का दोगुना कहा जाएगा। लिखने का अर्थ एक आत्म-प्रतिनिधित्व के साथ आभासी ‘स्पेस’ के भीतर अवस्थित होना है। मिशेल फूको के अनुसार लिखने का अभिप्राय, वस्तुओं के साथ कर्म केंद्रित होना नहीं, बल्कि केवल ‘विचार’ के साथ निरंतर सक्रिय रहते हुए कार्यरत रहना है। जबकि भाषा पहले से ही कर्म का प्रतिनिधित्व करना है, तथा तथ्यों की एक अवस्था भी है। भाषा हमारे कर्म का दर्पण है। दरअसल प्रकारांतर से ‘लेखन’ लेखक को दर्पण की सी एक सूक्ष्मतम नियति की ओर धकेलता है, फलस्वरूप, वह यह प्रतिरोपण का नैरंतर्य कर देता है, एक अंतहीन जीवन का। फूको, इसी जैविक-जटिलता को खोलने का यत्न करते हैं, जो कि एक गहरी दार्शनिक चेष्टा है।

मिशेल फूको, दर्शन के क्षेत्र में चर्चित रहे अपने प्रसिद्ध अध्ययन में ‘पागलपन’ को भी गहरे दार्शनिक कोण से विश्लेषित करते हैं। उनके इस अध्ययन का परिप्रेक्ष्य यह है कि ‘पागलपन’, भाषा से बहुत भिन्न है। पागलपन, अबौद्धिकता की एक वर्जित आवाज़ है। मनोरोगी, भाषा के स्पष्ट चिह्नित रुप से विलग और असंबद्ध है। विगत वर्षों के इतिहास में यही साक्ष्य मिलते हैं कि हम मनोरोगी की भाषा को ख़ारिज करने को उद्धत रहे हैं। क्योंकि, उसकी सामान्य बुद्धि की दृष्टि से, अतर्क्य लगती भाषा को, ढंग से ‘डिकोड’ नहीं किया जा सकता। जबकि, एक पागल व्यक्ति की कल्पना की तीव्रता ही उसकी भाषा और आंतरिक तार्किकता की निर्मिति करती है। और मनोरोग को एक ‘टैबू लैंग्वेज’ के रूप में ही उसकी तस्दीक करते हैं। और विक्षिप्तता को, एक निषिद्ध भाषा के दायरे में रखते आए हैं, जबकि दर्शन एक दूसरी किस्म की वर्जित भाषा का सामना करती है, इस तरह वह, भाषा में अव्यक्त को रखना चाहती है। यहाँ ही भाषा की सीमाएं प्रकट हो जाती हैं। क्योंकि, ‘पागल’ की कल्पना में जो है, वह अव्याख्येय है, उसका साधारणीकरण संभव नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति की बुद्धि से कभी भी नहीं।

मृत्यु और लेखन के मध्य संबंध, वह सिद्धांतिकी जो कि शहरजाद के उस मिथक के विरुद्ध है, मिशेल फूको को उन उत्तराधुनिक चिंतकों के बीच चिह्नित करती है जो कि ‘ऑथर’ की मृत्यु का विश्लेषण करते हैं। वर्णन, मौखिक संप्रेषण से या पाठ के रूप में, मृत्यु को आहूत नहीं करता बल्कि, केवल लेखक की मृत्यु को ही इंगित करता है। लेखक अपनी वैयक्तिकता के संकेतों से पाठक को भ्रमित करता है। इस तरह लेखन की क्रीडा में लेखक ‘मृतक’ की भूमिका का निर्वाह करता है। पश्चिम में, सत्रहवीं शताब्दी तक, ऑथर की ऑथौरिटी थी। उसका होना और दावा करना, स्वीकारा जाता था।

मिशेल फूको आख्यान के ध्रुव को और उसके मनोनयन के बीच फर्क करते हैं। लेखक का नाम उस व्यक्ति का नाम नहीं है, जो लिखता है। हालाँकि, दोनों मिलकर एक ही व्यक्ति का ही बखान और उसे ही चिह्नित करते हैं, लेकिन, उसी यथार्थ को निर्दिष्ट नहीं करते। मिशेल फूको, लेखक के नाम के अंतर्विरोधी एकाकीपन को विश्लेषित करते हैं। लेखक का प्रकार्य 17वीं और 18वीं सदी के मध्य लुप्त हो गया था। लेखक की सत्ता, उसमें विलुप्त थी, जिसमें ‘लिखे हुए’ का संबंध उस सत्य से था, जो पहले भी स्वयं को स्थापित और अपनों को व्यक्त कर चुका था। साहित्यिक विमर्श भी, वैज्ञानिक विमर्श की तरह ही, लेखक के नाम को धारण करता है। उत्तर आधुनिक ‘वैचारिकी’, हमेशा मौलिकता की गुणवत्ता के बारे में केंद्रित नहीं रहती, बल्कि, इसके उलट वह मौलिकता को ही प्रश्नांकित करती है। क्योंकि, वह सृजन को ‘दिक’ और ‘काल’ में से गुजारने के बाद देखती है। इस वैचारिकी को अत्यधिक सुसंगत रूप में स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण दृश्य कलाओं से लेंगे। छायाकार शेर्री लेविन, प्रख्यात चित्रों के चित्र लेने के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ ‘प्लेजियारिज्म’ को उस तरह लागू नहीं किया जा सकता, जैसा कि ‘अन्य’ मसलों में होता है, क्योंकि वे उन प्रसिद्ध चित्रों को एक मॉडल के रूप में ले रही हैं। यह समस्या उस संदर्भ में प्रासंगिक है- वे चित्र किसके हैं? क्या वे उसके चित्र हैं, चूँकि उसने बनाए हैं, या वे कि उस मूल ‘ऑथर’ (चित्रकार-छायाकार) के हैं, चूँकि उन्होंने पहली बार बनाए हैं। इसलिए, लेविन के फोटो की मीमांसा की स्थिति क्या है? वह फोटो क्या हैं? क्या लेविन के चित्र, कलाकृति हैं, यदि कलाकृति को ‘मौलिकता’ के रूप में ही देखा जाए तो सहसा हमारे सामने मौलिकता तथा ऑथौरिटी का अंतर्विरोध तब सहसा प्रकट होता है, जब हम आखरी प्रश्न का उत्तर खोजने लगते हैं। ये इस अर्थ में मौलिक हैं, क्योंकि लेविन के पूर्व किसी अन्य ने, चित्रकृतियोें के चित्र नहीं लिए थे। लेकिन, दूसरे अर्थ में वह मौलिक बिलकुल नहीं है, क्योंकि जो वास्तविक ‘छवि’, वे चीज जो कि चित्रकृति प्रस्तुत करती है, वे मूलतः उसके पहले ‘ऑथर’ की ही मिल्कियत हैं। कुल मिलाकर, वह उन चित्रों के द्वारा, यह संप्रेषित करना चाहती हैं कि संप्रति कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे मौलिकता की तरह स्थापित या कि चिह्नित किया जा सके। उसका अभीष्ट यह बताना है कि उसने उन चित्रों की प्रतिलिपि ही की है। अतः उत्तर आधुनिकता मौलिकता के च्युत होने के प्रति पूर्णतः चेतस भी है, क्योंकि वह नवोन्मेष द्वारा स्थाई नवीनीकरण के आदर्श को त्याग देती है। इसलिए, सृजन व सृजक के अंतरसंबंध सामान्यतः देखने में सरल लगते हैं-लेकिन, वे दुरूह तथा जटिल हैं, और उसमें आवेष्टि ‘वस्तुगत’ साथ की मांग करते हैं।

लेविन का उदाहरण यहाँ बहुत प्रासंगिक है, क्योंकि हम उत्तर आधुनिक साहित्य में इस समस्या से रू-ब-रू होते हैं। उदाहरण के लिए ‘फ्राइडे या अन्य द्वीप’ विलियम डफो के ‘रॉबिंसन क्रूसो’ का पुनर्लेखन ही है। अतः इस उदाहरण को हम सूक्ष्मता से विवेचित करें तो पाते हैं कि न केवल ‘गल्प’ का सृजन होता है, बल्कि उसके साथ लेखक का भी। यदि उपन्यास का लेखक, वही वास्तविक व्यक्ति नहीं है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह कठपुतली का संचालन करने वाले का, अनंत तक से गुणनफल हो सकता है। लेकिन हम स्क्रैच से गल्प के संसार की रचना नहीं कर सकते, चूँकि हम यदि गल्प का सृजन करना चाहें, तो हमें यथार्थ से कुछ तथ्य उधार लेने पड़ेंगे।

अतः दर्शन और साहित्य के मध्य यही प्रमुख भेद है कि ऑथर (लेखक) केवल कंवेंशन का एक सेट बनाता है, या वह किसी अन्य लेखक द्वारा रचे गए सेट ऑफ़ कंवेंशन को लिखने के लिए प्रयुक्त करता है, ताकि वह बखान के आधार पर कोई पाठ निर्मित कर सके। जबकि दार्शनिक केवल विमार्शात्मक पैटर्न का ही निर्माण करता है। एक उपन्यास का लेखक, साहित्यिक शैली को भी उद्घाटित करता है जो कि किंचित समानताओं और उपमाओं के क्षेत्र को खोलता है। अतः दार्शनिक न केवल अपनी पुस्तक के लेखक होते हैं, बल्कि वह पाठ निर्मिति की संभावनाएँ और उसके नियम भी तैयार करता है। उदाहरण के लिए, फ्रायड न केवल, ‘स्वप्नों की व्याख्या’ नामक पुस्तक के लेखक हैं, बल्कि वह अन्य विमर्शों की नई संभावनाओं से भी परिचित कराते हैं। दार्शनिक स्वयं को, न केवल एक पुस्तक के संदर्भ में, बल्कि सिद्धांतिकी और परंपरा के संदर्भ में भी स्वयं को एक ट्रांस-डिस्कर्सिव (विमर्शात्मक) स्थिति में पाता है। जबकि, ‘साहित्य’ की पाठ निर्मिति का सर्जक, केवल अपने ही पाठ का सर्जन होता है। दार्शनिक, जहां नई संभावना, नई शैली और नये चलन के भीतरी संरचना में, एक चिंतन के पैराडाइम का भी सृजनकर्ता है। पैराडाइम की सिद्धांतिकी मूलतः विज्ञान के एक थॉमस कून ने दी है। अतः पैराडाइम एक किस्म का विश्व के प्रति दृष्टिकोण है, एक चिंतन का मार्ग बनाता है, उस हर चीज के लिए जो एक शोध की रुचि का ऑब्जेक्ट होता है। पैराडाइम उनके बीच संप्रेषित नहीं करता। कून यह व्याख्या देते हैं कि उनके पास कोई झरोखा नहीं है, इकाइयों के बारे में जो, लाइबनीज का फार्मूला या सूत्र है। एक वैज्ञानिक पैराडाइम से दूसरे वैज्ञानिक पैराडाइम तक जाना, एक बहुत जटिल परिवर्तन के कारण संभव होता है, जो कि कभी कभार ही घटता है। हालांकि, ये जरूरी नहीं है कि, हरेक त्रुटिपूर्ण परिणाम, वैज्ञानिक पैराडाइम में परिवर्तित नहीं हो जाता। वैसे ज्यादातर परिणामों को एक तरह से त्रुटि की तरह ही लिया जाता है। केवल बहुत ही किसी विरले प्रकरण में ही, नए पैराडाइम का जन्म होता है। साहित्यिक ‘टेक्स्ट’ भी इन्हीं पैराडाइम का प्रतिभाग ही है, क्योंकि पैराडाइम का जो पैटर्न है, जो बहुत सारे कालखंडों को परावर्तित करता है, और बहुत सारे विचारों को भी। विमर्श का प्रवर्तक ही संभावनाओं को ‘टेक्स्ट’ से नाथता भी है। यह विमर्शात्मक उद्घाटन, विज्ञान के ‘सत्य’ के उद्घाटन से किंचित भिन्न होता है, लेकिन यह भिन्नता, इस अर्थ में भिन्न होती है कि वहां, शोधकर्ता किसी एक सिद्धांतिकी पर एकाग्र होता है, जबकि दर्शन में, एक नहीं अनेक विमर्शों का सर्जन होता है। मिशेल फूको, दर्शन में, वह मार्ग, जो दार्शनिक सिद्धांतों ने खोला था, वह वापस भी वहीं ले आता है, और पैराडाइम में डोमेन को रूपांतरित करने का सामर्थ्य भी होता है। यह सृजनोन्मुखी भी हो सकता है। इसके बरक्स, विज्ञान में केवल डोमेन के इतिहास में रूपांतर संभव है, मूल डोमेन में नहीं। और, यह सृजनोन्मुखी हो, यह भी अनिवार्य नहीं है। मिसाल के तौर पर ग्रीक से बिल्कुल आरंभ में, पुरातन दार्शनिकों को देखें, वे नीत्शे पर बहुत सृजनात्मक प्रभाव डालते हैं, वे खास तौर पर, पुरातन दार्शनिकों के काम में, अपनी रुचि रखते हैं, जैसे कि हेराक्लिटेस। लेकिन जब मिशेल फूको उन तक जाते हैं, तब मिशेल फूको की रुचि एक नई शोध-प्रविधि को जन्म देती है, जिसे वह कहते हैं, जिनियोलॉजी।

हाइडेगर भी नीत्शे के द्वारा प्राचीन दार्शनिकों के काम में रुचि प्रकट करने के अभीष्ट को पाते हैं कि समकालीनों की तुलना में वह कहीं ज्यादा चुनौतियां पैदा करते हैं। वह प्राचीन दर्शन के डोमेन को पुनर्जीवित और पुनराविष्कृत करते हैं, चाहे वह फिर सर्वाधिक प्राचीन मेटाफिजिक्स ही क्यों न हो। वह नीत्शे की रुचि को धारणा की शर्त की तरह ग्रहण करते हैं, उदाहरण के लिए हाइडेगर के काम को, विशेष तौर पर Sein Und eZit को लें, वह लगभग एक नई भाषा में लिखा गया है, जिसमें, जर्मन, प्राचीन जर्मन और ग्रीक भाषा के तत्वों का मिश्रण कर दिया गया है। जैसी कि हम चर्चा कर रहे थे कि मिशेल फूको ने भी अपनी जिनियोलॉजी के दृष्टिकोण के लिए, नीत्शे से यह प्रविधि विरासत की तरह हासिल की है, जिनमें पागलपन, यौनिकता, और दंड विधान के संदर्भ में जीनियोलोजी शामिल हैं। वह शोध का मार्ग अतीत में ले जाता है, लेकिन समकालीन ज्ञान और समकालीन प्रविधियों के साथ, जिसके जरिए वह ‘समकाल’ की जटिलताओं का समाधान निकालते हैं। यह अतीत की वापसी का रास्ता, उत्तर आधुनिकतावादियों में अत्यंत प्रचलित है क्योंकि वे किसी भी साधन से उसे नवोन्मेषी नहीं बनाते।

देरिदा इस बात पर देर तक टिके रहते हैं कि ‘पाठ’ से बाहर कुछ भी नहीं है क्योंकि, मूलतः ‘सत्य’ को भी एक संरचना मान कर, उसे ‘भाषा’ के भीतर अवस्थित एक निर्णायक घटक की तरह देखते हैं । इस दृष्टिकोण में, परिभाषाएँ किसी चरम-अर्थ को आवेष्टित करके नहीं रहतीं, बल्कि, यह दूसरी परिभाषाओं से एक पारस्परिक अवधारण बनाती है। विखंडन, विसर्जन बन जाता है, विनष्टिकरण नहीं। यही है, वह प्रक्रिया, जो इसके अनिवार्य तत्व में घुला देती है। सन् साठ के दशक में विखंडनवाद एक सांस्कृतिक प्रवृत्ति का रूप ग्रहण कर लेती जिसमें देरिदा विशेषकर सर्वाधिक निष्णात दिखाई देते हैं। देखा जाए तो इसकी प्राथमिक शुरुआत, हाइडेगर के उस प्रयास से होती है, जब वे पुरातन सत्ता मीमांसा के विखंडन के सहारे, एक दूसरी सत्ता मीमांसा को संभव बनाने के काम में लगे थे। जब विखंडन को मेटाफिजिक्स से पृथक करते हैं, तब ‘साहित्यालोचन’ के डोमेन में प्रवेश कर जाता है। और खासकर अमेरिकी दर्शन के विखंडनवाद में। लेकिन, ओल्सन का कथन है कि यदि हम दर्शन के डोमेन से विदा नहीं लेते हैं तो ‘विखंडन’ अपनी प्रासंगिकता को कायम किए रहता है। विखंडन का अर्थ उसके कोई खंड खंड कर देने से नहीं है अपितु उसके आरंभिक तत्व में घुल जाना है। विखंडन की सिद्धांतिकी अतीत पर लागू नहीं होती है, सिर्फ वर्तमान और भविष्य के वैश्लेषिक में प्रयुक्त अवधारणा का होता है। हाइडेगर के लिए ‘विखंडन’ का अभिप्राय किसी जटिल दार्शनिक समस्या को निरस्त करके कूड़ेदान में फेंक देने से बचाने की चेष्टा को कहा जाएगा। और सबसे यदि कोई जटिल समस्या है, तो वह है ‘होने’ की अर्थात अस्तित्व के होने की। एक तरह से किसी वस्तु या विषय के बारे में सामान्यतः जो हमारी मान्यता होती है, उसके वास्तविक अर्थ का अभिलोपन है। हम क्या जानते हैं और हम क्या सोचते हैं, हम जानते हैं कि उस धारणा को हम छुपाना चाहते हैं, जो वह धारणा स्पष्ट करती है। जबकि हाइडेगर, विश्लेषित करते हैं ‘विखंडन’ की प्रक्रिया में ‘होने’ भर को। देरिदा किसी अर्थ की दशा में विभेद की क्रीड़ा पर जोर देते हैं। दूसरा जो प्रमुख प्रसंग है, देरिदा के चिंतन की परिधि में, वह है, उद्भव। कुल मिला कर, विखंडन का मुख्य अभीष्ट यह होता है कि वह भिन्न मेटाफिजिकल अवधारणाओं से मूल अर्थ को निकाल ले। देरिदा, फूको से भिन्न काम करते हैं। वह यह कि वे भाषा के विश्लेषण की शुरूआत phonemes (ध्वनि की न्यूनतम इकाई) से व्याख्या करते हैं कि यदि हम किसी phonemes को सुनते भी हैं तो, जो अनिवार्यतः भाषा के भीतर नहीं है, क्योंकि हम सुनते हैं, वह मात्र दो के बीच के भेद को सुनते हैं। Marges de La Philosophie में, देरीदा, भाषा की क्रीडा को स्थगित कर देते हैं। वे कहते हैं, यदि हम उसकी शुरुआत विमर्श से करेंगे तो भाषा को कदापि नहीं समझा जा सकता। विमर्श भी स्वयं को वहीं स्थिर किये रहता है, जहां उसके भीतर ‘पाठ’ का सिद्धांत मौजूद होता है। जबकि, भाषा ऐसा नहीं करती। विभेद अनसुना रह जाता है। जो आवश्यक तत्व है, भाषा का, वह है खामोशी। देरीदा तो इसीलिए आगे चल कर ‘रचना’ और ‘सृजन’ के बीच भी एक सूक्ष्म भेद की उपस्थिति को इंगित करते हैं। वे कहते हैं कि वे समानार्थी दिखते हैं, लेकिन अर्थ वैभिन्य है। ‘रचना’ केवल ‘कंस्ट्रक्ट’ है, जबकि ‘सृजन’ में संवेदना भी है। यहाँ देरिदा फूको के बरअक्स एक दूसरा दृष्टिकोण रखते हैं। हम किसी भी भाषा को तभी समझ सकते हैं, जब हम अनिवार्य अवधारणाओं के विमर्श को जिनियोलॉजी के द्वारा समझने की चेष्टा करें और साथ ही विमर्श के वैशिष्ट्य को विचारणीय मानें, फिर चाहे वह साहित्यिक हो, वैज्ञानिक हो या कि दार्शनिक। इसका अभिप्राय हुआ कि मिशेल फूको सिद्धांतः, विखंडन के अत्यंत सामीप्य में हैं, क्योंकि वे यह मानते हैं कि कहीं कोई इतिहास नहीं है, जिसे ‘इन सोलिटरी जिनियोलॉजी’ का आधार स्वीकार कर लिया जाए। जिनियोलॉजी का अस्तित्व यह बताता है कि हम इतिहास की एकात्मकता के बारे में अब और बात नहीं कर सकते। एक उदाहरण विखंडन का हम लें, खासकर विखंडन के जरिए सामने रखें तो यह भेद करना, देरिदा के विभेदीकरण की प्रविधि से। वैसे फ्रेंच के ‘डिफरेंस’ शब्द से अंग्रेजी के भेद शब्द का सही अभिप्राय नहीं समझ पाएंगे क्योंकि दोनों का ही उच्चारण एक सा ही है। लेकिन दोनों के मध्य काफी अर्थ वैभिन्य है। यहाँ हमें यह स्वीकार लेना चाहिए कि उत्तर आधुनिकता हमें बहुतेरे सिद्धांतिक विकल्प उपलब्ध कराती है, जिसके सहारे से हम समकाल में, जो गहरे और त्वरित सांस्कृतिक परिवर्तनों को जज्ब करके उन्हें समझने में हम सफल हो सकते हैं। यद्यपि वे कारक, जो इन परिवर्तनों को तय करते हैं, अनेकानेक हैं। मसलन, ज्ञान युग के आदशोंर् का विलीनीकरण, व्याख्याओं को विस्तार दे देता है, फिर किसी भी प्रकरण में उत्तर आधुनिक सिद्धांतकार, हमें यह बता देंगे कि हम ऐतिहासिक को उसकी एकरेखीयता में देख नहीं सकते। आधुनिकतावादी लेखन में, गल्प जगत का संघटन ‘कर्ता’ चारों ओर ही रहता है जबकि इसके समांतर, उत्तर आधुनिक लेखन का दायरा संघटित नहीं, विखंडित होता है। इसमें साहित्य के पाठ के स्पेस का संघटन और विखंडन एक साथ होता रहता है। ये अवस्थितियाँ निम्नांकित हैं : सर्व प्रथम तो यह कि गल्प जगत का सीमोल्लंघन होता है और फलस्वरूप, पाठ के भीतर के जगत में कई अन्य पाठों के लिए अवकाश निर्मिति भी चलती रहती है। यह क्षेत्र दर्शन में भी निर्मित होता है और दिलचस्प बात यह कि यह प्रकृति काफी पहले से उत्तर आधुनिक दर्शन में रही आई है। क्योंकि कोई भी दर्शन परंपरा के योगदान के अभाव में अपने विगत के आलोचनात्मक दृष्टिकोण के साथ ही, पुनर्नवीनीकरण और नवोन्मेष करती है। क्लेरेंस मेजर के रिफ्लेक्स एंड बोन स्ट्रक्चर में हम चरित्र के कैंसलेशन को अत्यंत स्पष्ट तौर पर पाते हैं। डेल जो कि मेजर का प्रमुख पात्र है, दरवाजा खोलता है तो पाता है कि वह उसके सामने बैठा है, तब ‘बाहर’ का ‘आख्यानकार’, पाठक को सूचित करता है कि, उसने उसे कैंसिल कर दिया है। दर्शन में हम, इसी प्रविधि से मुठभेड़ करते हैं, जो देरीदा ने प्रयुक्त की है।

ग्रामेटोलॉजी में एक तकनीक प्रस्तावित होती है कि किसी शब्द को किन्हीं दो काटने वाली पंक्तियों से काटा जाता है। हम तभी ‘पाठ’ को समझ सकते हैं, यदि हम उन कटे हुए शब्दों को पढ़ते हैं, लेकिन यह भी कि उन कटे शब्दों के बीच का भेद नहीं समझ पाते हैं, क्योंकि उनका अर्थ बदल चुका होता है। पाठक विभ्रमित हो जाता है कि कटा हुआ ‘पाठ’ वहां है भी और नहीं भी है। ठीक ऐसे ही जैसा कि अनकटा पाठ वहां मौजूद है। दरअसल, मूलतः अभीष्ट यही है कि देरिदा के मेटाफिजिक्स से जुड़े कुछ मुख्य अवधारणाओं को प्रश्नांकित करना है। उत्तर आधुनिक साहित्य में, उसी प्रविधि के प्रयुक्त किए जाने के पीछे, प्रदर्शित गल्प जगत के कुछ ऑब्जेक्ट को सवालों से घेरना भी है। इस विखंडन के ‘आवेग’ से पाठ के भीतर ‘अन्य’ पाठ को आविष्कृत करना है, या कोई एक अन्य ‘सूचना’ को प्राप्त करना है, जिससे पता चले कि एक पाठ के भीतर दूसरे ‘पाठ’ की संरचना कैसे हो रही है।

विखंडनवादियों के चिंतनानुसार, कोई भी साहित्य या दर्शन का ‘पाठ’, किसी ‘अन्य’ और पूर्व पाठ से ही जन्म लेता है। और, वे यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि इसकी ‘भनक’ ऑथर को भी कतई नहीं होती। देरिदा के कथनानुसार यह वह प्रमुख कारण है, जिसके चलते उत्तर आधुनिक विमर्श से एक किस्म के कोलाज की प्रतीति होती है। इस तरह के कोलाज में, सूचना को ग्रहणकर्ता, एक प्रतिभागी है जैसे कोई सह-प्रस्तुतकर्ता हो, उत्तर आधुनिक दर्शन के पाठ का, कलाकृति का, या साहित्यिक ‘टेक्स्ट’ आदि का भी। पाठक केवल कोई अक्रिय या निर्विकार उपभोक्ता नहीं है, चूँकि उसे उत्तरआधुनिक सृजन को एक अर्थ प्रदान करना है। इस तरह से, विखंडन की प्रक्रिया के प्रभाव के परिणामतः लेखक की वैधता का भी विखंडन अनिवार्य रूप से घटित होता है। न केवल साहित्य अपितु दर्शन में भी, देरिदा, sous rature टेक्स्ट के जरिए, अवकाश (स्पेस) के महत्त्व को रेखांकित करना चाहते हैं कि यह उत्तर आधुनिक ‘थीम’ के भीतर एक प्रमुख घटक है। वस्तुतः यहां यह स्पष्ट कर दें कि देरीदा के द्वारा ‘स्पेस’ के महत्त्व पर इतना अधिक जोर देने का एक कारण यह है कि आधुनिकतावादियों ने, अपनी गढ़ंत के कारण अवकाश (स्पेस) का बुनियादी थीम की तरह विलोपन कर दिया था, जिससे वे विकास और ‘इवोल्यूशन’ तथा द्वंद्वात्मकता को अभिव्यक्त करना चाह रहे थे। शब्द प्राथमिक रूप से, ‘स्पेस’ के जरिए ही अनावृत और अभिव्यक्त होते हैं, जब टेक्स्ट को प्रकृति की तरह प्रयुक्त किया जाता है। लिखित ‘पाठ’ विमर्श में उपस्थित ‘संदेश’ को उठा ले जाते हैं। जहां शब्द समय पर लंगर डाले रहता है और वह आकाशीयता में मुक्त रहता है। देरिदा का यह दावा महत्त्वपूर्ण इसलिए है चूँकि कुछ लेखक, ‘काल’ और ‘दिक’ के संदर्भ को रखकर, आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद के बीच भेद स्थापित करने लगते हैं। उदाहरणार्थ, हार्वे के अनुसार आधुनिकतावाद ‘काल’ और ‘दिक’ से संबंधी एक नए अनुभव के कारण हमारे चिंतन के दायरे में दाखिल हुआ। संक्षेप में कहें कि ‘काल’ और ‘दिक’ के संकुचन की प्रतीति की तरह। आगे वह अपने विचार को विस्तार देते हुए कहने की चेष्टा करते हैं कि पुनर्मूल्यांकन और विश्व की आधुनिकतावादी प्रस्तुति, यह दोनों ही ‘काल’ और ‘दिक’ के परिवर्तन के प्रसूत हैं। और यह जो एक तरह का ‘बायनरी अपोजीशन’ है तथा होने और बनने के मध्य जो तनाव दृष्टिगोचर होता है, वह काल की विशिष्ट पहचान तथा ‘दिक’ का केंद्रीकरण है। और, यह एक भू-राजनीतिक संबंध है, जो केवल दर्शन के स्तर भर पर नहीं है। सत्तर के दशकारम्भ से ही, भू-राजनीतिक सिद्धांतिकी के लिए, बहुतेरी और विस्तृत रुचि की वजह भी है, जिसमें अवकाश का सौंदर्य खास तौर पर और स्थानिकता की समस्या आमतौर पर रही है।

रिचर्ड रोट्री तो इंगित करते हैं, यह बताने के लिए कि विखंडनवाद तथा साहित्य और दर्शन के मध्य उपस्थित विभेद को विलोपित कर दिया जाना चाहिए। इस बिंदु से देखा जाए तो जॉक देरिदा, नीत्शे की खींची हुई रेखा पर खड़े दिखाई देते हैं जिसने पुरातन ग्रीक त्रासदी और दर्शन के बीच के विभेद को निरस्त कर दिया था। मार्टिन हाइडेगर की प्रेरणा का स्रोत तो खास तौर पर जर्मन रूमानवादी कवि ही रहा था। यहाँ तक आते हुए हम यह भी स्पष्ट कर दें कि विखंडनवाद का एक अन्य अर्थ भी है जिसका संदर्भ, पाठ की व्याख्या की प्रविधि भी है, जो साहित्य और दर्शन के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचती है। दुर्भाग्यवश, देरीदा ने इसका उपयोग नहीं किया। दर्शन अपने उत्तर आधुनिक स्वरूप के पूर्व, एक वास्तविक और मिथ्याभास के बीच विभाजन और अदार्शनिक भाषा के चरित्र को पकड़ने का भी काम करता रहा है, क्योंकि वह परंपरागत तर्क पद्धति की जरूरत को पूरा नहीं कर पाती थी। हालाँकि, अंत में फूको, ‘सत्ता’ और ‘ज्ञान’ के अंतसंर्बंधों के आलोचक नहीं हैं, बल्कि वे उनके बीच उपस्थित अप्रकट संबंध और संवाद को सबको उपलब्ध कराने की बहुत बड़ी दार्शनिक भूमिका के निर्वाहक का काम करते हैं।

COMMENTS

BLOGGER: 1
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : उत्तर आधुनिकतावाद दार्शनिक आख्यान : मिशेल फूको और जॉक देरीदा / मिहाएला मेरल अहमद
रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : उत्तर आधुनिकतावाद दार्शनिक आख्यान : मिशेल फूको और जॉक देरीदा / मिहाएला मेरल अहमद
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2yxCT8TXw3oGbbUb3modTzNvwTcSiAdXvDzpMnvmLYezXxiOWuGKHQbKAxRjMleAICQe0IUBFUe2D3JBgs1N_6ORWtG-VseacQURNG-nip6ZdHE39to1T-O122vn5yFrm666w/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2yxCT8TXw3oGbbUb3modTzNvwTcSiAdXvDzpMnvmLYezXxiOWuGKHQbKAxRjMleAICQe0IUBFUe2D3JBgs1N_6ORWtG-VseacQURNG-nip6ZdHE39to1T-O122vn5yFrm666w/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2017/01/2016_7.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2017/01/2016_7.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content