जीवनभर आग उगलते रहे ‘उग्र’ शिवप्रसाद ‘कमल’ ‘‘मैं नै क्या-क्या नहीं किया? किस-किस दर की ठोकरें नहीं खायी? किस-किस के आगे मस्तक नहीं झुक...
जीवनभर आग उगलते रहे ‘उग्र’
शिवप्रसाद ‘कमल’
‘‘मैंनै क्या-क्या नहीं किया? किस-किस दर की ठोकरें नहीं खायी? किस-किस के आगे मस्तक नहीं झुकाया? मेरे राम आपको न पहचानने के सबब ‘जब जननी जननि जग दुःख दसहू दिसि पाएं.’ आशा के जब में फंसे चोर मोस्ट ओबीडिएंट सर्वेंट बनकर, नीचों को मैंने परम प्रसन्न होकर प्रेमपूर्वक प्रभु! प्रभु! पुकारा. मैंने बार-बार मुंह फैलाया दीनता सुनाने, लेकिन किसी ने उसमें एक मुट्ठी धूल तक नहीं डाली. भोजन और कपड़ों के लिए पागल बन यत्र-तत्र-सर्वत्र, वक्त बेवक्त मारा फिरा. प्राणों को से भी प्रिय आत्मसम्ममान त्यागकर खलों के सामने मैंने खाली पेट खोल-खोल कर दिखाया. सच कहता हूं नाथ. कौन-सा ऐसा नीच नाच होगा- जो लघु लोभ ने मुक्त बेशरम को नचाया न होगा. किंतु आह! आह! लालच से ललचाने के सिवाय नाथ! हाथ कुछ नहीं लग्यो.’’
जनाब. ये संवाद किसी नाटक-कहानी या सिनेमा के किसी पात्र के नहीं हैं. वरन् इसे तो अपने समय के दिग्गज और दबंग साहित्यकार पांडेय बेचन वर्मा ‘उग्र’ ने अपनी आत्मकथा ‘‘अपनी खबर’’ में बड़े बेवाक तरीके से लिखा है. जी हां, चुनार में जन्म लेने वाले, अत्यंत गरीब ब्राह्मण परिवार में ‘उग्र जी का जीवन तमाम-तमान विसंगितयों से भरा हुआ था. घर का विषाक्त तथा रामलीला मंडलियों के व्यभिचार पूर्ण वातावरण ने उन्हें एकदम ‘बिगाड़’ कर रख दिया था. ऐसा वह स्वयं मानते थे.
हालांकि प्रारंभिक शिक्षा चुनार में हुई थी और कक्षा छह तथा सात की बनारस के हिंदू स्कूल में, जहां कमलापति त्रिपाठी उनके बाल सखा बने. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल भी गए तो जेल के अस्वास्थ्यपूर्ण माहौल ने भी उनके कच्चे दिमाग को ऐसा प्रभावित किया कि आजन्म वे इससे मुक्त नहीं हो सके. उनकी रचनाओं में इसीलिए उनका भोगा हुआ यथार्थ, खूब और खूब प्रतिबिंबित हुआ है. अत्यल्प शिक्षा के बावजूद ‘उग्र’ का भाषा ज्ञान अति उत्तम था. उर्दू, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी के अलावा भी कई भाषाएं वे जानते-समझते थे. अपनी अजब-गजब भाषा, शैली और भाव के कारण, इन एक सौ पंद्रह वर्षों में हिंदी का कोई महारथी उनका मुकाबला करने में असमर्थ रहा है. उनकी रचनाओं की मौलिकता अकाट्य है.
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लेखन के क्षेत्र में ‘उग्र’ जी ने अपने पांच गुरु बतलाए हैं, उमाचरण पाण्डेय ‘त्रिदंडी’, लाला भगवान ‘दीन’, पं. बाबूराव विष्णु पकड़कर, कृष्णदत्त पालीवाल और काशीपति त्रिपाइी. ‘उग्र’ जी ने लिखा है- ‘‘त्रिदंडी से मुझे लिखने का शौक मिला, काशीपति जी से सहृदयता, दीन जी से दृष्टि, पराड़कर जी से राह और पालीवाल जी से उत्साह. इन गुरुओं में काशीपति जी तो कमलापति जी एक अग्रज थे और स्वयं ‘त्रिदंडी’ जी ‘उग्र’ जी के अग्रज थे. वह भी बीस वर्ष बड़े. यानी ‘उग्र’ जी विक्रमीय संवत के 1957वें वर्ष के पौष शुक्ल अष्टमी को जन्म थे (कुछ लोग अंग्रेजी तारीख के अनुसार 24 या 29 दिसम्बर सन् 1900 ई. मानते हैं. इसमें अंतर 24 और 29 तारीख का है. चाहे तारीख जो भी रही हो.) और उमाचरण जी का जन्म सन् 1880 के आसपास का था. इस बीस वर्ष की अवधि में पं. बैजनाथ पांडेय को अनेक पुत्र-पुत्रियां हुई थीं. किंतु उमाचरण और श्यामाचरण को छोड़कर सभी दिवंगत हो चुके थे. इसीलिए उग्र जी के जन्म लेने पर उन्हें बेच दिया गया था- सिर्फ एक टके पर और उसका गुड़ मंगाकर माता रामकली ने खा लिया था.
‘अपनी खबर’ में उन्होंने जितनी अपनीाख्बर ली है, उतनी ही दूसरों की भी खबर ली. मिर्जापुर जिले में जन्म और प्रारंभिक शिक्षा तथा बनारस में रहकर भी पढ़ाई करने के कारण, उन पर दोनों स्थानों का प्रभाव-पानी चढ़ा हुआ था- जिससे वह दो धारी तलवार बन गए थे. बनारस में रहकर, दैनिक ‘आज’ में पराड़कर जी द्वारा उनका लेखकीय द्विजत्व संस्कार, सुधार-परिष्कार होता रहा तो बनारस से 1924 ई. में कलकत्ता जाकर ‘मतवाला’ मंडल से जुड़कर उन्होंने अपने ‘लेखक’ को परिपुष्ट किया. बनारस में क्रांतिकारियों और साहित्यकारों का साथ तो कलकत्ता में ‘मतवाला’ मंडल के महादेव प्रसाद सेठ, (मतवाला के संस्थापक- प्रकाशक) आचार्य शिवपूजन सहाय, महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और मुंशी नवजाविक लाल का संग-साथ हुआ.
‘आज’ में ‘उग्र’ जी व्यंग्य तो ‘अष्टावक्र’ के उपनाम से, कहानियां शशि मोहन शर्मा के नाम और कविताएं ‘उग्र’ उपनाम से लिखते रहे, लेकिन ‘मतवाला, ने पहुंचते ही उनके अंतस का लेखक जैसे विस्फोट कर गया और वह हास्य व्यंग्य, उपन्यास, कहानी, लेख सभी कुछ लिखने लगे.’ ‘चंद हसीनों के खतूत’ और ‘चॉकलेट’ आदि का प्रकाशन ‘मतवाला’ में ही प्रारंभ में हुआ. उनकी पुस्तकें भी छपीं. ‘चॉकलेट’ के कारण ‘उग्र’ जी को बहुतों का विरोध सहना पड़ा, क्योंकि किशोरों के साथ होने वाले अप्राकृतिक कार्यों को जो समाज में वर्ज्य विषय था- उसे उन्होंने उजागर किया. ‘उग्र’ के विरोध में ‘विशाल भारत’ के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘घासलेटी साहित्य’ का आंदोलन चलाया था. बाद में गांधी जी द्वारा यह कहने पर- ‘‘लेखक ने अप्राकृतिक कार्यों के प्रति घृणा ही उत्पन्न की है- इसका ऐसा ही असर मुझ पर पड़ा.’’ तब कही जाकर ‘घासलेटी आंदोलन’ शांत हुआ.
इसी बीच ‘उग्र’ जीने 1924 ई. में ही गोरखपुर से निकलने वाल स्वदेश का उसके संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी के आग्रह पर रीझ कर, ‘दशहरा अंक’ का ऐसा भयानक संपादन किया कि प्रेस जब्त हुआ, दशरथ प्रसाद द्विवेदी जेल गए और वारंट ‘उग्र’ के खिलाफ भी निकल गया. फलतः ‘उग्र’ कलकत्ता से भागकर बम्बई चले गए. वहां वह मूक फिल्मों ने पटकथा- संवाद लिखते रहे. तभी वह वारंट घूमता हुआ बंबई पहुंचा. ‘उग्र’ जी गिरफ्तार हो गए और उनकी कमसिनी का ध्यान रखकर जज ने उन्हें नौ महीने की सजा सुनायी, जबकि दशरथ प्रसाद जी को 27 महीने की सजा हुई थी.
इसके पश्चात् उग्र जी 1930 ई. ने पुनः बम्बई गए, लेकिन कुछ वर्षों बाद ही लौट कर इंदौर पहुंच गए. पांव में शनिश्चर था तभी उज्जैन, मालवा, जयपुर से दिल्ली तक भटकते रहे. इस बीच उनके उपन्यास शराबी, बुधुआ की बेटी, ‘कढ़ी में कोयला’, ‘फागुन के दिन चार आदि तथा सैकड़ों कहानियां पाठकों में पहुंच चुकी थीं. इसके साथ ही उन्होंने ‘विक्रम’, ‘वीणा’, ‘उग्र’, ‘मतवाला’, ‘भूत’ इत्यादि का संपादन किया. ‘व्यक्तिगत’ उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक है तो अपनी खबर उनकी आत्मकथा वह भी जन्म से 20 वर्षां तक की. ऐसी आत्मकथा, ऐसा बेबाक वर्णन कि उसे ‘उग्र’ ही कर सकते थे.
‘उग्र’ ने बहुत पैसा कमाया और बहुत गवांया, बड़ा नाम कमाया, तमाम बदनामियां भी उनके नाम हैं. यह सब हुआ हवाया, लेकिन उनकी पटी किसी से भी नहीं. यहां तक कि उनके बड़े भाई उमाचरण से भी नहीं, जो चुनार में रहते हुए 1959 ई. में स्वर्गवासी हो गए थे. ‘उग्र’ ने अपने पतन, परिवार के पतन का सारा ठीकरा उमाचरण पाण्डेय ‘त्रिदंडी’ के सिर पर फोड़ा है और ‘अपनी खबर’ ने उन्हें ‘कसाई’ कहा है. ‘उग्र’ जी ने अपने निधन 23 मार्च 1967 ई. तक, कृष्णानगर दिल्ली के कमरे में एकाकी रहकर जो नरक भोगा या मालपुए खाए, भंग छानी या बोतलें गटकीं उसे तो वे ही जानें, लेकिन यहां चुनार में, उनके बड़े भाई ने एकाकी रहते हुए जो नरक भोगा उसका साक्षी तो इन पंक्तियों का लेखक रहा है.
‘उग्र’ पर तमाम लोगों ने तमाम कुछ लिखा है- पढ़ा है, लेकिन उनके प्रथम गुरु और उन्हें लेखन में प्रवृत्त करने वाले ‘त्रिदंडी’ जी पर कभी किसी ने कुछ नहीं लिखा क्यों? ‘त्रिदंडी’ जी विवाहित थे और उनके दो पुत्र थे. विवाह के पश्चात् पुत्र अपनी पत्नियों के साथ बनारस रहने लगे और बनारस से ‘त्रिदंडी’ जी प्रूफरीडिंग के कार्य से मुक्त हो गए तो चुनार आकर रहने लगे. एकाकी और स्वपाकी. मैं जब 1954 ई. में लिखने पढ़ने में प्रवृत्त हुआ और जब कुछ पत्रों का संवाददाता बना तो उनके यहां अक्सर जाता था. जाता इसलिए था कि कुछ सीखूं और उनकी सहायता भी करूं. सहायता इस मामले में कि वह चुनार में दैनिक ‘आज’ के संवाददाता के जबकि वह हाथ कांपने के कारण समाचार न लिख पाते थे. अतः वह बोलते तो कभी प्यारे लाल तिवारी ‘मस्त’ और कभी मैं समाचार लिखकर पोस्ट कर दिया करते. त्रिदंडीजी भी अच्छे लेखक थे और हिन्दी, संस्कृत तथा बंगला भाषा पर अच्छा अधिकार था.
इसी दिनचर्या में दिवस बीत रहे थे कि इसी बीच 1954 ई. उग्र जी ने अपने संस्मरण ‘व्यक्तिगत’ नाम से प्रकाशित की. अपने अग्रज के पास उसकी एक प्रति भी भेजी. ‘त्रिदंडी’ जी ने ‘उग्र’ को हजारों गालियां दीं. हम समझ नहीं पाए. पूछने का साहस न था. उमाचरण जी और उग्र जी में तकरार कई बातों को लेकर थी. इनमें से एक था ‘त्रिदंडी’ जी का अकेले खेत बेचकर खा जाना. यह कैसी विडंबना थी कि 1920 ई. के बाद उग्र चुनार केवल दो बार आए एक बार तब, जब खेतों को बेचने की सलाह देने और दूसरी बार तब जब देश आजाद हुआ और ‘उग्र’ ने मिर्जापुर से ‘मतवाला’ निकालना शुरू किया. काशी और मिर्जापुर दोनों ही चुनार से बीस मील की दूरी पर हैं. इतने नजदीक रहकर भी अपने भाई से चिढ़े होने पर ही, वह चुनार कभी झांकने न आए. हां, तो जब उग्र दुबारा आए तब तक ‘त्रिदंडी’ जी खेत बेच चुके थे. यह खबर पाकर ही उग्र अपना हिस्सा लेने आए थे- बस कुछ घंटों के लिए, किंतु जब भाई से उन्हें छदाम भी न मिली तो गाली गलौज कर वह पुनः मिर्जापुर लौट गए.
1920 ई. से मृत्यु पर्यन्त अर्थात् सैंतालिस वर्षों तक जो उग्र का चुनार आना या रूकना संभव न हुआ उसके मूल में केवल ‘त्रिदंडी’ जी ही थे. ये बात ‘त्रिदंडी’ जी मुझसे स्वयं कभी भावावेश में आकर कहा करते थे. अपने रक्त से इतना दुराव केवल और केवल, उग्र के ही वश की बात थी. एक बात और, ‘अपनी खबर’ ने जैसी बुरी ‘खबर’ उमाचरण जी की उग्र ने ली है, वह भी उग्र के ही वश की बात थी. और तो और उग्र सारे जीवन चुनारवासियों से भी कभी संबंधित न हुए. मेरे भी किसी पत्र का उत्तर उन्होंने न दिया, जबकि मेरी और उनकी रचना दैनिक ‘आज’ में साथ-साथ छपी थी. इसके साथ ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में थी. यद्यपि मैं उग्र जी से कुल जमा सैंतीस साल छोटा हूं. उन्होंने जीवन में किसी को भाव न दिया और अभाव में पड़े रहे. उनकी दृष्टि ने केवल दो ही महाकवि थे. एक तुलसी, दूसरे गालिब. गालिब के दीवान की उन्होंने दिव्य व्याख्या हिंदी में की है- ‘गालिब-उग्र’ नाम से. यह सारा वृतांत पहली बार लिख रहा हूं. जबकि उनके निधन से आजतक 20-25 लेाख् देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं मेरे.
पहली बार लिखने का मतलब ‘त्रिदंडी’ प्रकरण से है और 47 वर्षों में ‘उग्र’ के मात्र दो बार कुछ घंटों के लिए चुनार आने से संबंधित है. वैसे इधर कुछेक वर्षों में ‘उग्र’ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने वाली कई पुस्तकें आयी हैं, इनमें सबसे ताजा भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है ‘‘उग्र संचयन’’, इसके संपादक हैं राजशेखर व्यास. ‘‘उग्र संचयन’’ ने उनकी कुछ कहानियां, निबंध, रिपोर्ताज, लघुकथाएं, भूमिकाएं, पत्र-व्यवहार, अपनी खबर आदि-आदि का समावेश है. मतलब ‘उग्र’ के व्यापक फलक का दिग्दर्शन इसमें है और राजशेखर जी ने यह भी वादा किया है कि शीघ्र ही ‘उग्र समग्र’ पाठकों के समक्ष आयेगा. चूंकि राजशेखर जी के पिताजी पं. सूर्यनारायण व्यास के साथ उज्जैन ने उनके भारती भवन में ‘उग्र’ जी दो वर्षों तक साथ-साथ रहे, अतः काफी सामग्री राजशेखर जी के पास है- ऐसा उनका दावा है. और चुनार? चुनार में उनका नाम है, ‘काम’ कहीं ढूंढ़े न मिलेगा. हां, उनकी अधिकांश पुस्तकें, उन पर लिखी समीक्षाएं आदि, पैसा खर्च कर पढ़ने और संग्रह करने वाले गणेश पाण्डेय के पास अवश्य है. बेहद सुरक्षित, लोगों से अलक्षित.
बहुत कुछ ‘त्रिदण्डी’ जी के पास भी था लेकिन उनके निधन के बाद उनके पुत्र ‘उग्र’ की थाती तो ले ही गए, साथ ही ‘उग्र’ के प्राकट्य स्थल को भी भैरों के हाथ बेच गये. सिवाय इसके कि उनके मकान के सामने वाले कुएं पर एक शिलापट्ट ‘उग्र’ के नाम का लगा हुआ है. वह तो भला हो ‘मौजी जियरा एसोसिएशन’ का जिसके द्वारा उनकी जयंती पर विचार गोष्ठी, कवि-सम्मेलन-मुशायरा आयोजित कर याद दिला देते हैं कि लो देखो, ‘उग्र’ भी इसी नाटी की देन थे. इस कार्यक्रम को कराने में योगदान मेरा भी है, जबकि दिल्ली जाकर उनसे मिलने पर उन्होंने जरा भी स्नेह मेरे प्रति नहीं दिखाया. इतनी नफरत थी. चुनार से उन्हें.
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