रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : साहित्य क्या है ? / मिशेल फूको

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  मिशेल फूको साहित्य क्या है ? (अनुवाद - पुनर्वसु जोशी) हिन्दी आलोचना की पोथियों में, वर्षों तक ‘साहित्य क्या है?’ इस प्रश्न का एक रेडीम...

 

मिशेल फूको

साहित्य क्या है ?

(अनुवाद - पुनर्वसु जोशी)

हिन्दी आलोचना की पोथियों में, वर्षों तक ‘साहित्य क्या है?’ इस प्रश्न का एक रेडीमेड उत्तर दिया जाता रहा कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’। इस रूपकात्मकता के सहारे, साहित्य की परिभाषा देने की जो भी कोशिशें की गईं, वे बहुत भोली और सरल थीं। और आज ऐसे समय में, जबकि दर्पण की किस्में बदल चुकी हैं और समाज को देखने की दृष्टि, अब लेंस के उस पार से देखने की दृष्टि में विकसित हो चुकी है, तब, ऐसे में ‘साहित्य क्या है?’ इस प्रश्न का उत्तर देना अब और भी अधिक जटिल हो गया है। क्योंकि, अब समाज और साहित्य को, लेंस के ‘मैक्रो’ और ‘माइक्रो’, दोनों ही कोणों से देखा जा रहा है। इसलिए, तमाम दृष्टियों के बीच, एक अपरिहार्य द्वैध मौजूद है। पश्चिम में, जब एल्विन कर्नान का ‘विमर्शात्मक’ लेखन सामने आया तो, ‘साहित्य क्या है?’ जैसे प्रश्न की नई शल्यक्रिया होने लगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि एल्विन कर्नान ने तो साहित्य के अवसान की ख़बर ही फैला दी थी। उन्होंने कहा कि, साहित्य का कोई स्वायत्त संसार नहीं है। लेखक और साहित्य के बीच संबंध-विच्छेद हो चुका है। साहित्य भी किसी अन्य अनुशासनों की तरह ही, लेखन की एक क़िस्म है। वह कोई महान् कर्म नहीं है। इस नए ज्ञानबोध ने उसके लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। इसके साथ ही भाषाओं के संरचनागत उलट-फेर ने भी, साहित्य को एक नए और अप्रत्याशित ढंग से, चतुर्दिक घेर दिया है। जब, सत्य ही संकटग्रस्त है, तो निश्चय ही, उसके उत्पाद के रूप में साहित्य भी अपना वर्चस्व खो चुका है। ठीक इसी विमर्श के बीच, मिशेल फूको ने भी साहित्य को केंद्र में रख कर, जो लंबे, उत्तर-आधुनिक चिंतन की दृष्टि से आख्यान दिये, उन्हीं में से एक आख्यान का अनुवाद प्रस्तुत है। इसमें रचना, कृति, भाषा, और साहित्य के संश्लिष्ट अंतसंर्बंधों को खंगालने की, बहुत ईमानदार कोशिशें की गई हैं। प्रस्तुत है, ‘साहित्य क्या है?’ इस प्रश्न के उत्तर खोजने के परिणाम स्वरूप सामने आये मिशेल फूको का 1964 में बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में दिया गया, यह आख्यान -अनुवादक ‘साहित्य क्या है?’ कदाचित् यह ऐसा चर्चित प्रश्न है जिसका सरोकार अवश्य ही साहित्य-कर्म से ही है, परंतु इन दिनों, इसे हर बार कुछ ऐसी भंगिमा के साथ उठाया जाता रहा है,जैसे कि इसके पूर्व, यह कभी उठाया ही नहीं गया था, जबकि इसकी उम्र बेशक़ हमारी उम्र से अधिक तो क़तई नहीं है। हक़ीकत यह है कि, इस प्रश्न को उठाया भी जा रहा है, तो उस तीसरे पक्ष द्वारा, लगभग आश्चर्य प्रकट करने की मुद्रा बनाते हुए, उस ‘वस्तु’ को लेकर जो प्रकटतः स्वयं को, इस सबसे बाहर रखती है जबकि, उसका ‘उत्स’ मूलतः साहित्य के भीतर ही है। नतीजतन, यह प्रश्न साहित्य-कर्म से पृथक होकर और विशिष्ट बन जाता है।

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‘साहित्य क्या है?’ यह प्रश्न साहित्य के इतिहासकार, आलोचक या समाजशास्त्री के तरफ़ से उठ कर आया हुआ नहीं है जो भाषा के किसी विशिष्ट तथ्य को लेकर, विस्मित हों, बल्कि ऐसा लगता है, ग़ालिबन, साहित्य के भीतर कोई गुफा खुल गई है जिसके भीतर ही यह प्रश्न, अपने समूचे अस्तित्व के साथ रहता आया है। कहना न होगा कि तो भी इसमें, एक बड़ा प्रकट अंतर्विरोध दिखता है जो प्रकारांतर से दुष्कर ही है। मेरा कहना है कि ‘साहित्य क्या है?’ इस प्रश्न में ही तो ‘साहित्य’ समाहित है। फिर भी यह प्रश्न, काफ़ी कुछ हाल ही का है। कहना चाहिए, यह प्रश्न बस कुछ ही दशकों का है और ख़ासतौर पर, इस प्रश्न के संबंध में हम यही--या इतना भर ही कह सकते हैं कि, जब हमारे समक्ष पहली बार, मलार्मे का कृतित्व आया, तब ही यह प्रश्न भी सूत्रबद्ध हुआ। साहित्य अपने आप में, निश्चय ही कालातीत है, और उसकी, मानव-भाषा से बढ़ कर, कोई कालक्रम और नागरिकता नहीं स्वीकारी जा सकती। हालाँकि, मेरा मानना है, और मैं इस धारणा को लेकर काफी हद तक अपने तईं सुस्पष्ट भी हूँ कि साहित्य स्वयं उतना ही पुराना है, जितना कि हम,अभी तक उसके होने का दावा करते रहे हैं। निस्संदेह, सहस्राब्दियों से, ऐसा ‘कुछ’ अस्तित्व में रहा है जिसके पुनरावलोकन के रूप में हम, उसे साहित्य कहने के अभ्यस्त हैं। परंतु, संक्षेप में, यकीनन यह वही है, जिसकी ‘सत्यता’ पर, हमें निरन्तर ही प्रश्न उठाते रहना चाहिए। मसलन, इसे संदेह से देखा जाना चाहिए कि दांते या सर्वान्तेस या यूरिपिडिस ने, जो कुछ रचा था,क्या वह साहित्य था? निस्संदेह, वे लोग साहित्य के ही हैं, इस कथन से मेरा आशय वही है कि वे हमारे ‘समकाल’ के साहित्य के अंश हैं। मात्र इसलिए कि जिस काल से उनका संबंध है, उससे हमारे भी सरोकार दूर तक उसी तरह ही जुड़े हुए हैं। वे हमारे साहित्य का ही अंश हैं, लेकिन अपने स्वयं के साहित्य का नहीं, क्योंकि इसका तर्कसंगत कारण यह है कि तब तक ग्रीक-साहित्य का कोई अस्तित्व ही नहीं था। और, लैटिन साहित्य का भी नहीं। यदि, प्रकारांतर से दूसरे शब्दों में मुझे कहना पड़े, तो मैं यही कहना चाहूँगा कि यूरिपिडिस का संबंध वस्तुतः हमारे साहित्य से आता है, लेकिन उन्हीं कृतियों का संबंध, निश्चित रूप से ग्रीक से नहीं आता। यह स्थापना स्पष्ट करने के लिए, मैं मुख्य तीन चीज़ों के मध्य स्पष्ट भेद रेखांकित करना चाहूँगा।

पहला यह कि भाषा है और उस भाषा में, जो कुछ भी उच्चरित होता है, वह उसका स्पंदन है, और इसके साथ ही, यह एक ऐसी नितांत पारदर्शी व्यवस्था है, जिसके फलस्वरूप, वस्तुतः हम जब बोलते हैं, तभी हम समझे भी जाते हैं। संक्षेप में, भाषा एक ही समय में, पूरे इतिहास भर में एकत्र शब्दों का परिणाम है, और साथ ही साथ, यह अपने आप में, भाषा की एक अंतर्निहित व्यवस्था भी है, जो हमारे मध्य, स्वयं को ‘सम्प्रेषित’ या ‘अभिव्यक्त’ होने के काम के दायित्व को सम्पन्न करती है।

 

अतः, जहाँ एक तरफ़ हमारे पास भाषा है तो वहीं दूसरी तरफ़ हमारे पास साहित्यिक कृतियाँ हैं। चलिये, यह कहिए कि, पहले तो भाषा के भीतर एक विचित्र ‘वस्तु’ है, और दूसरे भाषा का अपना एक विशिष्ट विन्यास है, जो स्वयं पर भी स्वयं को एकाग्र करता है, और जो गतिहीन होकर स्वयं, अपने लिए एक ‘स्पेस’ बनाता है। वह उसी ‘स्पेस’ में, उस स्पंदन के प्रवाह को रोके रखती है। कहना न होगा कि यही बात ही, उसके चिह्नों और शब्दों की पारदर्शिता को सघन बनाती है। ऐसा करते हुए, वह धीरे-धीरे उस पारदर्शिता को, अपारदर्शी और रहस्यपूर्ण ‘वएल्यूम’ में बदल देती है। फलतः यही साहित्यिक कृति की गढ़ंत है।

इसके अलावा, वहाँ एक तीसरा शब्द भी है, जो वास्तविक अर्थों में भाषा या लेखन नहीं है बल्कि, यह तीसरा शब्द ही साहित्य है। दरअस्ल, साहित्य भाषा का कोई सामान्यीकृत रूप नहीं है, ना ही कोई ऐसा शाश्वत क्षेत्र है जहाँ भाषा अपना कार्य सम्पन्न करती हो। कहना चाहिए कि इस तरह, यही वह तीसरा शब्द है, त्रिकोण का शीर्ष, जिसके भीतर भाषा और भाषा-कार्य संपादित होता हुआ, संचारित होता है।

मेरा विश्वास है कि यह इसी क़िस्म की संबंधता है जिसके चलते साहित्य शब्द, सामान्य तौर पर स्वीकारा जाता है, और जो ‘साहित्य’ कहलाता है। सत्रहवीं शताब्दी में, साहित्य से अभिप्राय, किसी व्यक्ति का प्रचलित भाषा में, अपने दैनंदिन को कुशलता से व्यक्त करना था, जो अंतर्निहित था। इसी संबंध ने, क्लैसिक युग में, साहित्य की गढ़ंत की निर्मिति की जिसका परिचय, ज्ञान, स्मृति और उसकी ग्राह्यता भर से था। परंतु, एक समय बाद, भाषा तथा उसके कार्य व्यापार का अंतर्संबंध, साहित्य को लांघ जाता है। एक निश्चित समयावधि के बाद, यह, ज्ञान की एक ‘निरी संबंध निरपेक्षता’ में जा कर, विसर्जित हो जाता है, लेकिन यही संबंध रचनात्मक लेखन और भाषा के साहित्यिक कार्य-व्यापार में, रूपान्तरण के समय, गहन और अस्पष्ट हो जाता है। यही वह क्षण होता है, जब ‘साहित्य’ शब्द, पूर्व में बने उस त्रिकोण का तीसरा जीवंत शब्द हो जाता है।

कुल मिलाकर,यह क्षण, प्रत्यक्ष रूप से अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का समय है यानि कि ‘शतूब्रियाँ’, ‘मदाम द स्तील’, या ’द ला आर्प’ के निकट का समय है, जब अठारहवीं शताब्दी स्वयं से विमुख हो गई और अपने साथ ऐसा ‘कुछ’ लिये चली गई, जो अब हमारे पास नहीं है। लेकिन, यह हम निर्धारण करना चाहते हैं कि ‘साहित्य क्या है?’ तो यह सब, तो अनिवार्यतः विचारणीय होगा ही।

बेशक़, कुछ विशुद्ध ऐतिहासिक कारणों की वजह से, एक समय ऐसा भी आया, जब साहित्य काफ़ी हद तक इस स्थिति में रहा कि जब उसके पास, स्वयं के अतिरिक्त स्वयं को देने के लिए कोई अभीष्ट था ही नहीं। हक़ीकतन, मुझे लगता है कि बिलकुल आरंभ से ही साहित्य का ‘स्वयं से संबंध’, और ‘साहित्य क्या है?’ इस सवाल का जन्मना संबंध, त्रिकोणीयता से आता है। किसी भी भाषा को स्वयं को कृति में रूपान्तरण के लिए, साहित्य की आवश्यकता नहीं होती, न ही उसे भाषा से गढ़ंत की दरकार होती है, साहित्य तो तीसरा बिन्दु है, जो साहित्यिक काम और भाषा दोनों से बिलकुल भिन्न है। जी हाँ, तीसरा बिन्दु, जो कि, उनकी गति के लिए बाहरी है। भाषा, इसी हेतु के लिए एक खाली स्पेस का निर्माण करती है,और अनिवार्यतः उसी ख़ालीपन में, ‘साहित्य क्या है?’ यह प्रश्न जन्म लेता है। परिणामतः, यह सवाल साहित्य पर, ऊपर से थोपा नहीं जा सकता।

हम सदा से ही यह कहने के अभ्यस्त रहे हैं कि ‘साहित्य की प्रकृति’ के बारे में, आलोचनात्मक विवेक, चिंतनात्मक अनिश्चितता, पर्याप्त विलंब से आई और अपने साथ वह, एक तरह से साहित्यिक कृतियों के विरलीकरण और अशुद्धीकरण को भी लाई। यह ऐसे समय में था, जब, विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक कारणों से साहित्य, विकल्प देने के लिए, स्वयं के अलावा स्वयं का ही विकल्प दे सकने की स्थिति में था और कोई अन्य अभीष्ट देने में सर्वथा अक्षम था। हकीकतन, ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि साहित्य का स्वयं से स्वयं का ही संबंध है। यह आलोचनात्मक विवेक के द्वारा नहीं जोड़ा गया है, जो साहित्य का परिशिष्ट है, साहित्य का मूल अस्तित्व है। लेकिन मूल रूप से विच्छिन्न और विखंडित।

मेरा ‘कर्ता’ विशेष के बारे में बोलने का उद्देश्य नहीं है, न ही कृति के बारे में, न ही साहित्य के बारे में, और न ही भाषा के बारे में। परंतु, मैं अपनी भाषा को, उसमें अवस्थित करना चाहता हूँ, जो दुर्भाग्य से, न तो एक कलाकृति है और न ही साहित्य। मैं उसे, उस दूरी में अवस्थित करना चाहूँगा, उस अपसरण में, उस त्रिकोण में, उस उत्स के उस विस्तार में, जहां कृति, साहित्य और भाषा एक दूसरे को चकाचौंध में डालते हैं। और इससे मेरा अर्थ यह है कि ये परस्पर एक दूसरे को आलोकित करते हैं और अंधा बनाते हैं, ताकि शायद, इसके कारण, उनके अस्तित्व का कोई आयाम चुपके से हम तक पहुँच सके। शायद, आप, मेरे कहे जाने की न्यूनतया अपर्याप्तता से कमोबेश कुछ स्तब्ध और निराश होंगे।

परन्तु, मैं यह पूरी तरह चाहूँगा कि आप इस अल्पता पर ध्यान दें, क्योंकि मैं चाहता हूँ कि आप भाषा की इस गुफा से अवगत हों, क्योंकि वह अपने अस्तित्व में आने के समय से ही, साहित्य में धँसती जा रही है, जिसका मतलब है, उन्नीसवीं शताब्दी से। मैं चाहूँगा कि आप संज्ञानात्मक बन कर, घिसे पिटे जुमलों से अपना पिण्ड छुड़ाएँ। एक विचार, जो कि साहित्य ने विशेष रूप से स्वयं के बारे में निर्मित किया है, और वह विचार इस प्रकार है--साहित्य एक भाषा भी है, शब्दों से बना हुआ एक पाठ, शब्द-दर-शब्द। परंतु, उन शब्द को, जो इतने उपयुक्त और सटीक ढंग से चुने और जमाए गए हैं कि जो कुछ ‘अकथनीय’ है, वह उनके बीच से गुजर जाता है।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मामला इसके बिलकुल ही उलट है। साहित्य, अप्रकट से नहीं बना है, बल्कि ‘अप्रकट के प्राकटय्’ से बना है, कुछ ऐसा, जिसके फलस्वरूप हम उसका उल्लेख कर सकते हैं, जिसे हम शब्द के मूल और यथातथ्य अर्थ में, ‘गल्प’ कह सकते हैं। अतः इसलिए, यह ‘गल्प’ से बना है, कुछ उससे भी जिसे कहा जाना चाहिए और जो कहा जा सकता है। परंतु यह ‘गल्प’ ‘अनुपस्थिति की भाषा’ में कहा जाता है।यह वध है,यह द्वैध है, यह प्रतिकृति है, जिसके कारण, मुझे ऐसी प्रतीति होती है कि साहित्य पर विमर्श संभव है। एक ऐसा विमर्श, जो उन संकेतों से भिन्न हो, जिन्होंने कई सौ सालों से हमारे कानों पर चोट की है, संकेत जो इंगित करते हैं, मौन की तरफ, गोपन की तरफ, जो ‘अकथ’ है उसकी तरफ, हृदय के उतार-चढ़ावों की तरफ, और अंत में वैयक्तिकता के सारे आकर्षणों की तरफ, जहां आलोचना ने, अभी हाल ही तक, अपनी ढुलमुलता को आश्रय दे रखा था।

 

प्राथमिक खोज यह है कि, साहित्य, भाषा का क्रूर तथ्य नहीं है, जो शनैः शनैः स्वयं के वेधन की अनुमति देता है, अपने ‘सत्व’ और अपने ‘अस्तित्व’ के अधिकार के गूढ़, और अनुषंगी प्रश्न को। अपने आप में, साहित्य, भाषा के खोखल से पैदा की गई, गुंजायमान दूरी है, एक दूरी, जो निरंतर तय की जाती है, परंतु कभी उस पार नहीं ले जाती। यह एक प्रकार की ऐसी भाषा है, जो अपने ही इर्दगिर्द डोलती रहती है, जिसमें है, एक प्रकार का स्थित कंपन। परंतु, भाषा के भीतर का यह ‘दोलन’ और ‘कंपन’ अपने आप में, पूर्णतः यथोचित नहीं है, क्योंकि ये हमें या साहित्य के पाठक को इस आभास के निकट ले जाते हैं कि साहित्य द्विधुव्री है। अर्थात, साहित्य एक ही समय में, साहित्य का हिस्सा है और ठीक उसी समय में वह समान रूप से भाषा का हिस्सा भी है और यह भी कि इससे भाषा और साहित्य के बीच संकोच जैसा भी है। दरअस्ल, रचना के साहित्य से संबंध को, पूरी तरह से रचना की जड़, और गतिहीन सघनता के भीतर जाकर समझा जाता है, और ठीक उसी समय में, यही वह संबंध है, जिससे ‘रचना’ और ‘साहित्य’ एकमेक होते हैं।

‘लेखन’ कब, एक प्रकार से, साहित्य होता है? लेखन का विरोधाभास, कमोबेश, यह तथ्य है कि वह, अपने प्रारंभ के सिर्फ कुछ क्षणों में साहित्य होता है, अपने पहले वाक्य के साथ, अपने कोरे कागज के साथ। निस्संदेह, यह उस क्षण में और लगभग उस सतह पर साहित्य है, उस प्रारम्भिक संस्कार में, जो शब्दों को, उनके ‘स्पेस’ के साथ प्रतिष्ठापन की जगह देता है। इसके परिणामस्वरूप, जब यह रिक्त पृष्ठ भरने लगता है, जब शब्द, अब तक की अछूते रहे कागज की इस सतह पर लिखे जाते हैं, तो ठीक उसी क्षण में, हरेक शब्द, साहित्य के अर्थ में रूप में, परम विफलता है, क्योंकि तब ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो अनिवार्य रूप से, किसी नैसर्गिक अधिकार से, साहित्य से संबन्धित हो। दरअस्ल, जब एक खाली पृष्ठ पर, एक शब्द लिखा जाता है, जो कि साहित्य का पृष्ठ होगा, ठीक उसी क्षण में,वह साहित्य नहीं होता। यानि, हरेक सच्चा शब्द, एक किस्म से अतिक्रमण है, और ऐसा अतिक्रमण है, जो शुद्ध, श्वेत, रिक्त, और पूज्य साहित्य के सत्व के संबंध में अतिक्रमण करता है, जो हर रचना को साहित्य की पूर्ति नहीं बनाता बल्कि उसके पतन, उसके उल्लंघन और उसके विलगाव का कारण बनता है। हरेक शब्द, जो साहित्यिक गौरव से दूर और प्रतिष्ठाच्युत है, एक अतिक्राम्य है, हर नीरस और साधारण शब्द, एक प्रकार का अतिक्राम्य है। परंतु, हर शब्द, जैसे ही वह लिखा जाता है, वह भी एक अतिक्राम्य शब्द है।

‘काफी अरसे बाद, मैं सोने के लिए बिस्तर पर जल्दी गया।’ In Search fo Lost Time* की शुरुआत इस तरह होती है। एक अर्थ में, यह वास्तव में, साहित्य में प्रवेश है, पर यह स्पष्ट है कि इनमें से एक भी शब्द, साहित्य के अंतर्गत नहीं आता। यह साहित्य में प्रवेश इसलिए नहीं है क्योंकि, यह वाक्य, उस भाषा की प्रविष्टि होगी, जो पूरी तरह साहित्य के सारे चिह्नों, के साथ पृष्ठ पर उतरती है। इसलिए कि यह, पूर्णतया खाली पृष्ठ पर भाषा का फूटना है, बिना किसी पूर्व सूचना, चिह्नों और अस्त्र-शस्त्रों के साथ, ऐसे ‘कुछ’ की दहलीज पर, जिन्हें हम कभी अपनी माँस-मज्जा में शामिल नहीं देखेंगे। शब्द, जो हमें उस निरंतर ‘अनुपस्थिति की दहलीज’ पर ले जाते हैं, जो अंततः साहित्य बनता है।

इसके अलावा, साहित्य की यह विशिष्टता है कि जब से वह अस्तित्व में आया है, उन्नीसवीं शताब्दी से, जबसे इसने पाश्चात्य संस्कृति को एक अतिपरिचित छवि दी है, जिसको लेकर हम विस्मित होते हैं या यह एक विशिष्टता है कि साहित्य ने हमेशा स्वयं को एक कार्य भार दिया है, और वह कार्य, साहित्य के वध का कार्य है। उन्नीसवीं शताब्दी से, अब यह साहित्यिक कृतियों के अनुक्रम में, उस विवादित और प्रतिवर्ती ‘संबंध’ का प्रश्न नहीं रहा है। वह जानना, जो अपने आप में काफी दिलचस्प है--अर्थात् वह संबंध है, जो कि पुराने से नए का है, और जो सारे क्लैसिक साहित्य के आत्मान्वेक्षण का केन्द्र बिन्दु रहा है। यह अनुक्रमण का भी संबंध है, जो कि उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकट हुआ। कई प्रकार से, यह एक पूर्व संबंध है, जो कि दोनों,‘साहित्य के उपसंहार’ का और ‘साहित्य के आद्य वध का’ संबंध है। बौदलेयर के लिए रोमांटिसिज्म वह नहीं है, जो मलार्मे के लिए है और बौदलेयर वह नहीं है, जो मलार्मे के लिए। अति यथार्थवाद वह नहीं है जो, रासीन, कोर्निये के लिए था या ब्यूमार्की, मारीवू के लिए था।

हकीकतन, साहित्य के क्षेत्र में, उन्नीसवीं शताब्दी में, जो ऐतिहासिकता प्रकट हुई, वह ऐतिहासिकता एक विशिष्ट प्रकार की है, जो कि किसी भी प्रकार से, उस ऐतिहासिकता के साथ सम्मिलित नहीं की जा सकती, जिसने अठारहवीं शताब्दी तक साहित्य की ‘निरंतरता’ या ‘अंतराल’ को सुनिश्चित किया। उन्नीसवीं शताब्दी में, साहित्य की ऐतिहासिकता के लिए, अन्य रचनाओं को खारिज किया जाना आवश्यक नहीं है, और ना ही आवश्यक है, उनका लोप होना, या उनका स्वीकार। दरअस्ल, उन्नीसवीं शताब्दी में, साहित्य की ऐतिहासिकता के लिए यह आवश्यक है कि साहित्य अपने स्वयं को निरस्त करे, और साहित्य को इस ‘स्वयं के खारिज करने का मूल्यांकन, साहित्य के स्वयं की नकार के काफी जटिल उलझन के परिप्रेक्ष्य में करना चाहिए। हर एक काम, भले ही वो बौदलेयर का हो, या मलार्मे का, या अतियथार्थवादियों का या किसी और का, उसमें कम से कम चार निषेध, चार अस्वीकृतियाँ, या चार संभावित वध समाविष्ट रहते हैं। पहला, अन्यों के साहित्य को खारिज करना, दूसरा, अन्यों के साहित्य के रचने के अधिकार की अस्वीकृति, और इस तथ्य को चुनौती कि दूसरों की रचना, संभवतः साहित्य की तरह स्वीकारी जा सकती है या नहीं, तीसरा, स्वयं के साहित्य के रचने के अधिकार को चुनौती देना या उसे नकारना, और चौथा, साहित्यिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए, सिवाय साहित्य के सुवव्यस्थित और पक्के वध के अलावा, कुछ कहने और करने को अस्वीकारना।

तो, हम यह कह सकते हैं कि, उन्नीसवीं शताब्दी के बाद से, हर साहित्यिक कर्म ने अपने को, उस पवित्र और अज्ञेय सत्व की तरह जिसे साहित्य माना गया था, के अतिक्रमण के रूप में, न केवल स्वयं को प्रस्तुत किया, बल्कि वह स्वयं भी इस अतिक्रमण से अवगत था। और फिर भी, एक अर्थ में, हर शब्द, उस क्षण से, जब वह उस चर्चित खाली पृष्ठ पर, जिसको लेकर हम विस्मित हैं, पर लिखा जाता है, अंततः हर शब्द एक चिह्न बनाता है। यह शब्द, किसी विशेष के लिए चिह्न बनाता है, क्योंकि यह सामान्य, साधारण शब्द नहीं है। यह कोई चिह्न बनाता है, जो कि साहित्य है। हर शब्द, जो जैसे ही उस रचना के खाली पृष्ठ पर लिखा जाता है, एक प्रकार का सूचक है, जो किसी ऐसे ‘कुछ’ की तरफ संकेत करता है, जिसे हम साहित्य कहते हैं। क्योंकि यथार्थ में, भाषा के किसी भी काम में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो दैनंदिन में कहा जाता हो, ‘कुछ’ भी, किसी असली भाषा का हिस्सा नहीं है, और मैं आप को चुनौती देता हूँ कि आप किसी भी साहित्यिक कृति में से, ऐसा एक भी अनुच्छेद ढूंढ कर लाइये, जिसके बारे में हम यह दावा कर सकें कि वह रोजमर्रा की भाषा के यथार्थ से लिया गया है।

 

यद्यपि, मैं यह पूर्ण रूप से समझता हूँ कि कभी-कभार ऐसा भी होता है,मैं जानता हूँ कि कुछ लोगों ने वास्तविक संवादों को लेकर, उनमें से कुछ टेप पर रिकएर्ड भी हैं, जिस तरह मिशेल ब्यूटोर ने अपने सान मार्को के वर्णन के लिए किया है, जहां गिरजाघर के वर्णन में, उसने कई दर्शनार्थियों के टेप पर रिकोर्डेड संवादों की पुनर्प्रस्तुति की है, उनमें से कुछ ने गिरजाघर के बारे में टिप्पणी की है और कुछ ने पास ही में बिकने वाले आइसक्रीम की गुणवत्ता पर टिप्पणी की है। परंतु, यथार्थ की भाषा जो अभी उद्धृत की गई और साहित्यिक कृति में इस्तेमाल की गई, और जब वह अस्तित्व में आती है, तब वह एक क्यूबिस्ट चित्र में अटके कागज के चिंदे से अधिक कुछ नहीं है। कागज का यह चिंदा, चित्र को ‘यथार्थ’ बनाने के लिए नहीं है, बजाए इसके, यह उस चित्र के ‘स्पेस’ को खण्डित करने के लिए है, और इसी प्रकार में, सच्ची भाषा, जब वह सचमुच में साहित्यिक कृति में प्रविष्ट की जाती है, तो यह भाषा के ‘स्पेस’ को छेदने के लिए है, उसे एक प्रकार का सममितार्थी आयाम देने के लिए है, और जो दरअस्ल, उसमें नैसर्गिक रूप से समाहित नहीं है। इसलिए कृति, अंत में सिर्फ उस सीमांत तक अस्तित्व में आती है, और उस क्षण में, सारे शब्द का रुझान साहित्य की ओर होता है, और साथ ही साथ, वे साहित्य की तरह दीप्त हो उठते हैं, और एक ही समय में, यह कृति अस्तित्व में है क्योंकि यह साहित्य अब अपवित्र है, जादुई है, यही साहित्य, जो इन सारे, पहले से लेकर आखरी शब्दों को समर्थन देता है।

तो हम यह कह सकते हैं कि कुल मिला कर, एक प्रस्फुटन के रूप में ‘रचना’ का विलोपन हो जाता है और उस स्पंदन में जो कि साहित्य का मंत्र है, विलीन हो जाता है। इसलिए ऐसी कोई ‘रचना’ नहीं है, जो साहित्य का हिस्सा न बन जाए, जो सिर्फ इसलिए अस्तित्व में है, क्योंकि उसके आसपास, आगे, पीछे, साहित्य की निरंतरता जैसा कुछ अस्तित्व में है।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ये दो आयाम, सात्विक और तामस, जिनका प्रकार्य है, हर शब्द को साहित्य के ‘हेतु’ के लिये लगातार नए सिरे से, चिह्नित करते रहना। मुझे ऐसा लगता है कि यही वह तत्व है, जो हमें साहित्य के दो अनुकरणीय और प्रतिमानक रूप में रेखांकित करने की गुंजाइश देगा, जबकि वे एक दूसरे से विमुख हैं, फिर भी एक दूसरे से अंतर्निहित संबंध रखते हैं।

पहला होगा, उल्लंघन का अलंकार, मानी भाषा का अतिक्रामी रूप, और दूसरा होगा, उन शब्दों का स्वरूप जो साहित्य की ओर, तथा, साहित्य को इंगित करते हैं। तो, एक तरफ हमारे पास अतिक्रामी कथन है, और वहीं दूसरी ओर, हमारे पास है, जिसे मैं कहूँगा, पुस्तकालय। (’यहाँ पुस्तकालय शब्द स्थान विशेष की तरह नहीं, बल्कि, पोस्ट-स्ट्रक्चरल अवधारणा के संदर्भ में व्याख्याश्रित है- अनुवादक) की पुनरावृत्ति। एक बहिष्कृत का, भाषा की सीमा का, कारागृह में बंदी लेखक का अलंकार है। दूसरा, एकत्रित पुस्तकों का स्पेस है, जो एक-दूसरे से सटा कर रखी हुई हैं, और उनका सबका सिर्फ एक झरोखे जैसा अस्तित्व है, जो उनकी रूपरेखा बनाता है और सभी संभावित पुस्तकों के आकाश में उनकी पुनरावृत्ति करता रहता है।

यह स्पष्ट है कि अठारहवीं शताब्दी के अंत में, साद ने, अतिक्राम्य भाषा सुस्पष्ट की। हम यह भी कह सकते हैं कि, उनकी कृतियाँ वह प्रस्थान बिन्दु हैं, जहां एक साथ, सारी अतिक्रामी भाषा, एक साथ इकट्ठी भी होती हैं और उसे संभव भी बनाती हैं। साद का काम, निस्संदेह, साहित्य का एक ऐतिहासिक प्रारम्भ है। कहने दीजिए कि एक अर्थ में, साद का सारा काम एक वृहद ‘psatiche’ है। उसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह उनसे पहले किसी अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिक, जैसे कि रूसो ने कहा न हो, और वह दार्शनिकों के कथन पर उल्टा न दिया गया हो, एक भी दृश्य और वृत्तांत ऐसा नहीं है, अठारहवीं शताब्दी के उपन्यासों के उन असहनीय दृश्यों में से,जो साद वर्णित करते हैं, हां, एक भी दृश्य ऐसा नहीं है, जो यथार्थ में हास्यप्रद और अपने आप में ‘psatiche’ न हो। हमें सिर्फ उन उपन्यासों के चरित्रों के नामों को खंगालना भर होगा, उन लोगों के नाम जानने के लिए, जिन्हें साद अनाकृत करना चाहते थे।

कहने का तात्पर्य यह कि, साद का लेखन, समूचे दर्शन को, समूचे साहित्य को, और साथ ही साथ समूची भाषा को, जो उनके पहले आई, खारिज कर देने का दावा करता था, और दिलचस्प बात यह है कि इसके साथ ही साद का वह सारा साहित्य भी खारिज होकर के अलग इसलिए हो जाएगा, क्योंकि वह अतिक्राम्य हो चुका है, उस भाषा के द्वारा, जिसने उस पृष्ठ को अपवित्र किया। और, जो अब पुनः रिक्त हो चुका था। और अब जहां तक अबाधित नामोल्लेख का प्रश्न तथा साद के बहुचर्चित रत्यात्मक दृश्यों की तमाम हलचलों का प्रश्न है, जो सतर्कता से अपनी सारी संभावनाओं से गुजरती हैं, वे और कुछ नहीं बल्कि, एक अतिक्रमित भाषा में विघटित कृतियों के अलावा कुछ और नहीं हैं। वह कृत्य, जो एक अर्थ में, पहले के लिखे हुए समूचे शब्दों को मिटा देता है, और ऐसा करने में, एक ऐसे रिक्त ‘स्पेस’ का निर्माण करता है, जहां आधुनिक साहित्य जगह लेगा। जबकि, मैं तहेदिल से मानता हूँ कि साद, साहित्य के प्रतिमान हैं। और साद की भाषा का अर्थालंकार, जो कि अतिक्रमित भाषा का है,का प्रतिरूप, पुस्तक के रूप में उपस्थित है, पुस्तक जो कि अनंत तक रहती है और उसका प्रतिरूप, उसका विलोम है, पुस्तकालय, जो कि कहना होगा कि, साहित्य के समांतर अस्तित्व में है, एक अस्तित्व, जो कि यथार्थ में, सरल नहीं है, एकार्थक नहीं है, पर जिसका द्वि-प्रतिमान, जैसा कि मैं मानता हूँ, शतूब्रियाँ होंगे।

इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि, साद और शतूब्रियाँ की समकालीनता, महज कोई साहित्यिक संयोग नहीं है। प्रारम्भ से ही, शतूब्रियाँ का लेखन, अपनी पहली पंक्ति से, अपने आप में एक पुस्तक होने की तसदीक करता है, वह स्वयं को साहित्य के निरंतर स्पंदित होते रहने के स्तर पर बना कर चलता है, वह स्वयं को तत्क्षण, इस एक प्रकार की धूल-धूसरित हो जाने वाली शाश्वतता, जो कि एक परम पुस्तकालय की होती है, में रूपांतरित करना चाहता है। वह तत्काल, साहित्य के ठोस अस्तित्व से पुनःसाक्षात्कार करता है, और इसके कारण, सब कुछ जो भी शतूब्रियाँ, के पहले लिखा या बोला गया है, उसका एक प्रकार के पूर्व इतिहास में सिमट जाने का, निमित्त बनता है। इसलिए, हम यह कह सकते हैं कि कुछेक सालों के अंतराल के भीतर से, शतूब्रियाँ, और साद, समकालीन साहित्य की दो परिसीमाएँ हैं। मसलन, याद कीजिये, Atala, or the Love of Two Savages in the Desert और La Nouvelle Justine, ou les Malheurs de la veru, लगभग एक ही समय अस्तित्व में आईं। हालाँकि, निश्चित रूप से, इन दोनों पुस्तकों की तुलना करना बहुत सरल होगा। परंतु, हमें उनके पारस्परिक संवर्धन के सिद्धान्त को समझने की कोशिश करनी होगी, उत्तरी-अठारहवीं शताब्दी से लेकर पूर्वी-उन्नीसवीं शताब्दी तक के उस क्षण में, उन कृतियों में, उन अस्तित्वों में, यह समय की वह परत है, जिसमें साहित्य के आधुनिक अनुभव का जन्म होता है। इस अनुभव का, मृत्यु या अतिक्रमण से, संबंध विच्छेद नहीं किया जा सकता, इसका संबंध विच्छेद उस अतिक्रमण से भी नहीं किया जा सकता जिसमें अपने पूरे जीवन भर, साद संलग्न रहे और जिसका मूल्य, जैसा कि आप जानते हैं, उन्होंने अपनी स्वतंत्रता से चुकाया। और जहां तक मृत्यु का प्रश्न है, जैसा कि आप जानते हैं, मृत्यु का भय, शतूब्रियाँ, को, जिस क्षण से उन्होंने लिखना शुरू किया, तब से सताता रहा। उनके लिए यह स्पष्ट था कि, उनके लिखे हुए शब्दों का अर्थ उनकी मृत्यु तक ही था, उस हद तक कि उनके शब्द, उनके जीवन और उनके अस्तित्व से परे, कहीं मँडराते रहें।

मुझे ऐसा लगता है कि, यह अतिक्रमण और यह मृत्यु से परे की यात्रा, समकालीन साहित्य की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं। अगर आप चाहें तो, हम यह कह सकते हैं कि साहित्य में, भाषा के इस रूप के जो हमारे बीच उन्नीसवीं शताब्दी से अस्तित्व में है, उसके सही मायनों में बोलने वाले सिर्फ दो सच्चे नागरिक हैं- अतिक्रमण के लिए ईडिपस और मृत्यु के लिए ओर फीयस। और सिर्फ दो ही लोग हैं, जिनके बारे में बात की जाती है। दो लोग, जिन्हें एक ही समय में, धीमे स्वरों में और लगभग परोक्ष रूप से, संबोधित किया जाता है, और वे हैं, जोकास्टा, जो कि अपवित्र की गई है, और यूरिपिडिस का, जो कि पहले विलोपित हो जाती है और बाद में पुनः पायी जाती है। ये दो श्रेणियाँ, इसलिए, ‘अतिक्रमण’ और ‘मृत्यु’ या, अगर आप चाहें तो, निषिद्ध और पुस्तकालय, जिन्हें हम साहित्य का अंतर्निहित अवकाश कह सकते हैं, का वितरण करते हैं। यह अत्युक्ति नहीं है कि किसी भी प्रकार से, हमारे निकट साहित्य जैसा कुछ, इसी जगह से आता है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि साहित्य, साहित्यिक कृतियाँ, भाषा के पूर्व की एक प्रकार की रिक्तता से नहीं उपजती हैं, बल्कि पुस्तकालय के पुनरावृत्ति से आती हैं। पहले से ही, शब्द की अत्यधिक अशुद्धि से, और ठीक इसी क्षण से, और एक ही समय में ‘भाषा’, ‘यथार्थ’ और ‘साहित्य’ की ओर संकेत करती हैं।

बहरहाल, पूछा जा सकता है कि बताइए, यह कहने का अभिप्राय क्या है कि लेखन साहित्य की ओर संकेत करता है? इसका अभिप्राय यह है कि लेखन साहित्य को आहूत करता है, चूँकि वह अपने सरोकार प्रस्तुत करता है, कि वह स्वयं के ऊपर कई चिह्न थोपता है, जो कि दूसरों और उसे स्वयं को भी यह सिद्ध करने के लिए कि वह वास्तव में साहित्य है। ये-सच्चे-संकेत, जिनके द्वारा हर शब्द, हर वाक्य, यह दर्शाता है कि वह ‘साहित्य’ का है, यही वह है, जिसे वर्तमान आलोचना, रोलाँ बार्थ के समय से, ‘लेखन’ कहती है।

यह लेखन, हर ‘रचना’ को, एक प्रकार से, एक लघु प्रतिरूप, जैसा कि साहित्य का एक ठोस प्रतिमान है, बनाता है। इसमें साहित्य का सार समाविष्ट है, पर इसके साथ ही साथ, वह इसकी सच्ची, प्रत्यक्ष छवि प्रस्तुत करता है। एक अर्थ में, हम यह कह सकते हैं कि, हर रचना न केवल वह कहती है, जो वह कहना चाहती है, जिसका वह बखान करती है, अर्थात कहानी या गल्प, परंतु इसके अलावा, वह यह भी कहती है कि ‘साहित्य क्या है’। इसे, वह सिर्फ दो बार नहीं कहती है, एक बार कथ्य के लिए और दूसरी बार साहित्यशास्त्र के लिए। बल्कि एक ही बार में उन दोनों के लिए कहती है। यह एकत्व, इस तथ्य से परिलक्षित होता है कि अठारहवीं शताब्दी के अंत तक, साहित्यशास्त्र का लोप हो गया था। ‘साहित्यशास्त्र का लोप हो गया है’

 

इसका अभिप्राय यह है कि, साहित्यशास्त्र के लोप होने के क्षण से, साहित्य स्वयं ही उन संकेतों और योजनाओं को परिभाषित करने का उत्तरदायी होगा, जिनसे साहित्य बनता है। इसलिए, हम यह कह सकते हैं कि साहित्य का प्रकार्य, जैसा कि साहित्यशास्त्र के लुप्त होने के समय से हुआ है, सिर्फ, बखान करना नहीं है, या उन संकेतों--यानि कि साहित्यशास्त्र के संकेतों को जोड़ना, प्रकट करना, या सुस्पष्ट करना भी नहीं है, जो यह बताते हैं कि वह साहित्य है बल्कि साहित्य अद्वितीय भाषा के प्रयोग के लिए बाध्य है, और फिर भी, ऐसी भाषा, जो कि दुहरी है क्योंकि, कहानी सुनते हुए, किसी का वर्णन करते हुए, हर क्षण भाषा को यह दर्शाना, उसकी बाध्यता है कि, यह दृष्टव्य हो कि ‘साहित्य क्या है’, साहित्य की भाषा क्या है, क्योंकि साहित्यशास्त्र का लोप हो चुका है, जो कि एक समय हमें यह बताने के लिए उत्तरदायी था कि, सुंदर भाषा कैसी होनी चाहिए?

अतः, हम यह कह सकते हैं कि, प्रकारांतर से, साहित्य अन्ततः अपने एक अन्य अभीष्ट में एक भाषा भी है, जो कि अद्वितीय है और अपने स्वत्व के प्रतिरूप होने के नियमों से बाध्य भी है। दोस्तोएवस्की की उस चर्चित कथा-रचना ‘द्वोयनिक’ (रूसी) या ‘द डबल’ में घटित की तरह, जिस में मुख्य पात्र और उसके प्रतिरूप के बीच जो घटित होता है- ठीक वैसा ही भाषा और साहित्य के मध्य भी है। वह दूरी, जो कि धुंध और गोधूलि में, पहले से ही उपस्थित रहती है, जहां यह दूसरी आकृति, जिससे हम गली के हर मोड़ पर मिलते हैं और जो स्वयं भी, एक अकेले पैदल चलने वाले से मिलता है, तब उस क्षण में, आतंक के उस क्षण में, जिसमें उन दोनों का साक्षात्कार होता है, तब हम यह जान पाते हैं कि हम, हमारे प्रतिरूप के आमने-सामने हैं।

कुछ इसी तरह की प्रक्रिया, रचना लेखन और साहित्य के बीच भी होती है। रचना, निरंतर साहित्य के पूर्वाभास में रहती है। साहित्य एक प्रकार का द्वैध बन जाता है, जो लेखन के सामने आता है और लेखन उसकी शिनाख्त नहीं कर पाता है, और लगातार उसके रास्ते को पार करता रहता है, परंतु, महत्त्वपूर्ण रूप से, वह सृजन की रचनात्मक उत्तेजना के उस क्षण के वशीभूत नहीं होता, जो हमें दोस्तोएवस्की के पात्र में मिलता है।

साहित्य के क्षेत्र में हमें असली लेखन और जीवंत साहित्य की ऐसी निरंकुश मुठभेड़ नहीं मिलती है। लेखन, जब वह अंततः अपने अस्तित्व में आता है, तब, उसकी अपने प्रतिरूप से भिड़ंत कभी नहीं होती है और क्योंकि लेखन ही वह दूरी है,दूरी जो साहित्य और भाषा के बीच की है। यह इस प्रतिरूप की दूरी है, यह प्रतिबिम्बित दूरी, जिसे हम प्रतिकृति (simulacrum) कहते हैं।

मुझे ऐसा लगता है कि साहित्य, साहित्य का समूचा अपना अस्तित्व, अगर हम यह प्रश्न उठाएँ कि वह क्या है,तो हम सिर्फ एक ही तरीके से उत्तर दे सकेंगे, वह यह कि साहित्य का कोई अस्तित्व नहीं है। केवल एक प्रतिकृतिमात्र है, एक प्रतिकृति जो कि साहित्य का सम्पूर्ण अस्तित्व है। और प्रूस्त का लेखन इस कला सत्य को स्पष्टता से दर्शाता है कि किस तरह साहित्य एक प्रतिकृति (simulacrum) है। हम यह जानते हैं In Search fo Lost Time, उस गति की कथा है, जो प्रूस्त के जीवन से चल कर, प्रूस्त के लेखन तक नहीं जाती है, बल्कि उसकी वह एक तरह से शुरुआत होती है, जब प्रूस्त का सचमुच का जीवन, सामाजिक जीवन या कहें कि मिलना जुलना-स्थगित हो जाता है, बाधित हो जाता है, अपने आप पर रुक जाता है, और उस हद तक कि जहां जीवन स्वयं अपने पर आकर ठहर जाता है, तब लेखन प्रारम्भ होता है और अपने लिए एक ‘स्पेस’ की निर्मिति करता है।

परंतु, प्रूस्त का यह जीवन, यह यथार्थ का जीवन, इस का ब्यौरा कृति में कहीं नहीं है। और, वहीं दूसरी ओर, जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन को स्थगित किया, जिसके लिए उन्होंने अपने सामाजिक जीवन को बाधित किया, जो अपने में बंद हो गया यह काम भी कहीं नहीं दिया गया है। प्रूस्त, प्रकारांतर से हमें यह बताते हैं कि ठीक किस तरह वे अपने उस काम पर आएंगे, वह काम जो कि उस पुस्तक की अंतिम पंक्ति से शुरू होने वाला था, परंतु यथार्थ में, उस कृति के मुख्य भाग में कहीं नहीं है।

कुल मिलाकर कहें तो, In Search fo Lost Time, में स्वेज शब्द के तीन अर्थ हैं। पहला यह कि, जीवन का समय अब बंद, दूर, खत्म और लुप्त दिखता है। दूसरा, कृति का समय, जिसके लिए, सही तौर पर, उसके समापन के लिए कोई समय नहीं है, क्योंकि, असल में लिखा हुआ पाठ, जब समाप्त होता है, तब कृति वहाँ उपस्थित नहीं होती है, और उस कृति का समय, जो कि स्वयं को पूर्ण न कर सकी, उपस्थित होता है, और जो लिखा हुआ अपने उत्पन्न होने का बखान करने वाला था, उसका समय तो पहले से ही नष्ट हो गया है। न केवल जीवन जीने में, बल्कि, उस कहानी को गढ़ने में भी, जो प्रूस्त गढ़ते हैं, किस किस तरह वे अपनी कृति को लिखेंगे। और तीसरा, बिना किसी निश्चित अधिवास के समय है, वह समय, जिसमें किसी प्रकार का दिनांक या कालक्रम का अभाव है, वह समय जो मुक्तता से ऐसे तैरता है, जैसे वह दैनंदिन की दबी-घुटी भाषा और एक अंततः चमकते लेखन की वाग्विलासी भाषा के बीच खोया हुआ हो। यही वह समय है, जिसे हम प्रूस्त के काम में पाते हैं, जो हमारे सामने खण्डों में प्रकट होता है, जिसे हम मुक्त रूप से तैरता हुआ देखते हैं, बिना किसी वास्तविक कालक्रम के। यह एक भटका हुआ समय है, वह जो सिर्फ स्वर्ण के छितरे हुए कणों की तरह पाया जा सकता है। तो फिर प्रूस्त के लेखन में, रचना स्वयं कभी भी उपस्थित नहीं होती है, क्योंकि प्रूस्त का वास्तविक काम, कृति को रचने की परियोजना के अलावा कुछ नहीं है, साहित्य रचने की परियोजना, परंतु, वास्तविक काम तो कहीं निरंतरता से साहित्य की चौखट पर हिचकिचाता हुआ ठिठका हुआ है। ठीक उसी क्षण, जब सच्ची भाषा, जो कि साहित्य के आगमन की सूचना देती है, जब मौन होने को है ताकि रचना अपनी अधिविराट और अपरिहार्य वाणी में अभिव्यक्त हो सके, ठीक उसी क्षण, वास्तविक काम सम्पूर्ण हो जाता है, समय भी समाप्त हो जाता है, ताकि हम यह कह सकें कि चौथे अर्थ में, समय ठीक उसी क्षण विलोपित हो जाता है, जिस क्षण वह बरामद हुआ था।

आप देख सकते हैं कि प्रूस्त जैसों के लेखन में, हम यह नहीं कह सकते कि एक भी क्षण ऐसा है जो कि काम है, हम यह नहीं कह सकते कि एक भी क्षण ऐसा है, जो वस्तुतः साहित्य है। बल्कि, प्रूस्त की सारी वास्तविक भाषा में, वह समूची भाषा जिसे हम अब पढ़ते हैं और जिसे हम अब उनका काम कहते हैं और जिसका हम साहित्य के नाम से उल्लेख करते हैं, अब यहीं खड़े रह कर, अगर हम अपने आप से पूछें कि वह क्या है, हमारे लिए नहीं बल्कि वह स्वयं में, तब हमें यह बोध होता है कि यह न तो ‘लेखन’ है और न ही ‘साहित्य’ बल्कि इनके बीच का एक ‘स्पेस’ है, दर्पण में दिखने वाले ‘स्पेस’ की तरह, एक ऐसा कृत्रिम ‘स्पेस’, जिसे हम देख तो सकते हैं, परंतु छू नहीं सकते, और या वह प्रतिकृत्यात्मक ‘स्पेस’ है, जो प्रूस्त के काम को उसका परिमाण प्रदान करता है।

तो इस हद तक, हमें प्रूस्त की परियोजना को पहचानने की आवश्यकता है, उनके द्वारा किया हुआ, वह साहित्यिक कार्य जो उन्होंने इस कृति के लेखन में किया जिसका यथार्थ में कोई निर्दिष्ट अस्तित्व नहीं है, जो कि भाषा या साहित्य के किसी भी नियत बिन्दु पर अवस्थित नहीं है बल्कि इसके बदले हमें सिर्फ साहित्य की एक प्रतिकृति ही मिलती है, और प्रूस्त के काम में, समय का स्पष्ट महत्त्व, इस तथ्य से उदित होता है कि प्रूस्तियन समय, जो कि एक तरफ तो छितरा हुआ और अपक्षयी है, और दूसरी ओर, आनंद के क्षणों की पहचान और उसका पुनरागमन है, मूलतः सिर्फ आंतरिक प्रक्षेपण है, विषयगत, नाटकीय, वर्णित और पठित-कृति और साहित्य के बीच के आत्यावश्यक स्पेस का, जो कि साहित्यिक भाषा की मौजूदगी को स्पष्टतः रूपायित करता है।

अतः अगर हमें साहित्य की प्रकृति का विवेचन करना हो तो, एक ओर हमें अतिक्रमण और निषेध का, नकारात्मक चित्र मिलेगा जिसका साद ने प्रतीकीकरण किया। वहीं दूसरी ओर,यह पुनरावृत्ति का चित्र मिलेगा, यह हाथ में सलीब लेकर मकबरे में उतरते हुए, उस व्यक्ति की छवि मिलेगी, जिसने कभी कब्र से बाहर जा कर कुछ और नहीं लिखा है, और अंततोगत्वा, हमें मृत्यु का चित्र मिलेगा जिसका शतूब्रियाँ ने प्रतीकीकरण किया है। और फिर हमें इस प्रतिकृति का चित्र मिलेगा। यह सारे चित्र, मैं यह नहीं कहूँगा कि नकारात्मक हैं,परंतु वे किसी भी सकारात्मक पहलू के बिना हैं जिसमें साहित्य का अस्तित्व, मूल रूप से छितरा हुआ और नोंचा हुआ प्रतीत होता है।

परंतु, साहित्य को परिभाषित करने में हो सकता है कि हम शायद कुछ अत्यावश्यक को भूल रहे हैं। खैर, किसी भी रूप में, ऐसा कुछ है, जिसके बारे में विचार-विमर्श करना अभी बाकी है, और जो ऐतिहासिक रूप से, भाषा के इस रूप की प्रकृति के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो कि उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकट हुई। यह स्पष्ट है कि साहित्य को पूर्ण रूप से परिभाषित करने के लिए, अब अतिक्रमण पर्याप्त नहीं है, क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी के पहले कई, अतिचारी साहित्य थे। और, यह भी काफी समान रूप से स्पष्ट है कि प्रतिकृति भी साहित्य को समुचित रूप से परिभाषित करने में सक्षम नहीं है, क्योंकि, प्रूस्त के पहले, प्रतिकृति जैसा कुछ पहले से था--सवांर्तेस को देखिये, जिन्होंने उपन्यास की प्रतिकृति की रचना की, या श्रंबुनमे जीम थ्ंजंसपेज के साथ दिदेरो। इन सारे पाठों में, हम उस आभासी ‘स्पेस’ को पाते हैं, जहां न तो साहित्य है और न ही लेखन, परंतु जहां साहित्य और ‘लेखन’ के बीच में, एक अखंड आदान-प्रदान है।

‘अगर मैं उपन्यासकार होता’ Jacques the Fatalist अपने स्वामी से कहता है--‘जो, मैं आप से कह रहा हूँ, वह उस यथार्थ से कहीं ज्यादा सुंदर होता, जिसका मैं वर्णन कर रहा हूँ। जो भी मैं आप को बता रहा हूँ, अगर मैं उसको सजा-संवार कर बखान करना चाहता तो आप इस क्षण यह पाते हैं कि, यह बखान, साहित्य का एक उत्कृष्ट नमूना होता। परंतु मैं, यह नहीं कर सकता, क्योंकि मैं साहित्य की रचना नहीं कर रहा हूँ, मैं आपको, यथार्थ बताने के लिए बाध्य हूँ। और साहित्य की इस प्रतिकृति में, साहित्य की इस अस्वीकृति की प्रतिकृति में, दिदेरो ऐसा उपन्यास लिखते हैं, जो कि उपन्यास का प्रतिरूप ही है। दरअस्ल, प्रतिकृति की यह समस्या, दिदेरो में, उदाहरण के लिए, और उन्नीसवीं शताब्दी के बाद के साहित्य में, इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि, यह हमें उससे साक्षात कराता है,जो मुझे प्रतीत होता है, जो कि साहित्य की वास्तविकता के लिए केंद्रीय भी है। Jacques the Fatalist में, जैसा कि आप जानते हैं, कहानी कई स्तरों पर खुलती है। पहले, दिदेरो द्वारा यात्रा का वर्णन है, और फिर और वह छह संवाद हैं, जो Jacques तथाकथित Fatalist और उसके स्वामी के बीच होते हैं। फिर दिदेरो की यह कथा, इस रूप में बाधित होती है कि, Jacques एक प्रकार से, दिदेरो को विस्थापित करके, अपने प्रेम प्रसंगों का वर्णन करने लगता है। और इसके बाद, Jacques के प्रेम प्रसंगों की गाथा पुनः बाधित होती है, इस बार एक तीसरे स्तर पर बखान से बल्कि, तीसरे स्तर के कथन की शृंखला से, जिसमें, जैसे उदाहरण के लिए, मालकिन या कप्तान अपनी अपनी कथाएँ सुनाते हैं। और इस तरह, हमारे पास कथानक में, एक के भीतर एक कथानकों की कई परतें हैं, किसी जापानी गुड़िया की तरह, और यह ही उस रोमांचक उपन्यास का घाल-मेल है, जिसे हम Jacques the Fatalist के नाम से जानते हैं।

परंतु, जो महत्त्वपूर्ण है, जो मुझे पूरी तरह विशिष्ट लगता है, वह न केवल यह कि, किस तरह कहानियाँ नीड़ निर्मिति की तरह एक दूसरे के भीतर गुंथी हुई हैं, बल्कि यह भी कि, हर क्षण, दिदेरो, एक प्रकार से, कथानक को पश्चवर्ती बनाते हैं और इन गुंथी हुई कहानियों पर, वह थोपते हैं जिसे हम पश्चगामी चरित्र कह सकते हैं, जो निरंतर हमें एक ऐसे प्रकार के यथार्थ की ओर ले जाते हैं, एक प्रकार की तटस्थ भाषा के यथार्थ की ओर, उस प्रथम भाषा की ओर, जो दैनंदिन की भाषा का एक आदर्श बन जाये, स्वयं दिदेरो और उनकी तथा उनके पाठकों की भाषा।

और ये पश्चगामी चरित्र तीन प्रकार के हैं। पहले, हमारे पास इन चरित्रों की, इन गुंथी हुई कहानियों में, प्रतिक्रियाएँ हैं, जो लगातार कहे जाने वाले कथानक में अवरोध उत्पन्न करते हैं। दूसरे, वे चरित्र हैं जो गुंथी हुई कहानियों के पात्र हैं-किसी एक दिये गए क्षण में, मालकिन किसी उस पात्र की कहानी सुना रही होती है, जिसे हम नहीं देखते हैं, और जो कहानी में सिर्फ एक आभासी आगंतुक है, और फिर, दिदेरो की कहानी में, यह वास्तविक पात्र अचानक आ खड़ा होता है, जबकि यथार्थ में, इस पात्र का पद, मालकिन द्वारा कही गई, बहुपर्ती कहानी में था। तीसरा, हर क्षण दिदेरो, पाठक की ओर मुखातिब होते हैं, और कहते हैं, ‘जो भी मैं आप को बता रहा हूँ, वह सब आप को असाधारण लग रहा होगा, परंतु सचमुच में ऐसा ही हुआ।’ बेशक, यह साहसिक कार्य, साहित्य के नियमों से ताल-मेल में नहीं बैठाता है, यह अच्छी तरह से लिखे गए कथानकों के नियमों से भी ताल-मेल नहीं बैठाता है। परंतु, मैं यह स्वीकारता हूँ कि मेरा अपने पात्रों पर नियंत्रण नहीं है, वे मुझे अपूर्व रूप से अभिभूत कर देते हैं, वे अपने इतिहास, अपने जोखिमों, और अपने रहस्यों के साथ दृश्य में आए हैं। मैं तो आपको सिर्फ वह बता रहा हूँ, जो वास्तव में हुआ है। इस प्रकार, सघनित रूप से ढंके हुए, कथानक के सबसे परोक्ष मूल से लेकर यथार्थ तक, जो कि समकालीन है, यहाँ तक कि जो लेखन के लिए पूर्वकालिक है, एक प्रकार से दिदेरो, और कुछ नहीं करते हैं, सिवाए स्वयं को, स्वयं के साहित्य से विलग करने के। वे हमें निरंतर यह दिखाते हैं कि यह सारा सब, साहित्य नहीं है, और कि यह एक आसन्न, प्रथम भाषा है और सिर्फ वही एक मात्र ठोस भाषा है, जिस पर यह कहानियाँ स्वछंदता से, और सिर्फ उन्हें खड़े करने के आनंद के लिए खड़ी की गई हैं। यह ढांचा दिदेरो की विशेषता है, परंतु, हम यह सवांर्तेस में भी पाते हैं और सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी की असंख्य कहानियों में भी पाते हैं। साहित्य के लिए, यानि, भाषा के उस रूप के लिए, जो उन्नीसवीं शताब्दी में शुरू हुआ, Jacques the Fatalist में पाए जाने वाले खेल, यथार्थ में क्षुद्र हैं।

उदाहरण के लिए, जब जॉयस,एक उपन्यास लिखने के बारे में सोचते हैं, जो कि, चलिये मान लें कि, पूरी तरह The Odyssey पर आधारित है, तब वे उसे दिदेरो की तरह नहीं लिखते हैं, जब उन्होंने चतुर नायक पर लिखे गए उपन्यासों को आदर्श बनाकर एक उपन्यास लिखा था। दरअस्ल, जब जॉयस, न्सलेमे दुहराते हैं तो दरअस्ल, वे उसे भाषा के उस रूप में दुहराते हैं, जो अपने आप में दुहराया जाता है, तो ऐसा कुछ दिखता है, जैसा कि दिदेरो के साथ है, जो कि दैनंदिन की भाषा नहीं है, परंतु, ऐसा कुछ जो कि साहित्य के जन्म सा लगता है। यानि, जॉयस इस तरह से लिखते हैं कि, उनकी कहानी के भीतर, उनके द्वारा प्रयोग किए गए वाक्यों और शब्दों के भीतर, किसी एक शहर के, किसी एक व्यक्ति के जीवन के एक दिन की अनंत कथा के भीतर, ऐसा कुछ घटता है, जो साहित्य की अनुपस्थिति और सन्निकटता दोनों है, जिसका मतलब है कि, साहित्य वहाँ है, निश्चित रूप से, और वह निश्चित रूप से ही वहाँ है, क्योंकि यह न्सलेेमे के बारे में है, परंतु, एक ही समय में, कहीं दूरी में, किसी प्रकार से उसकी दूरी के भी, जितना संभव हो सके, उतना ही पास है।

बेशक, यह उस विन्यास की तरफ ले जाता है, जो कि जॉयस न्सलेमे के लिए अत्यावश्यक है, जहाँ एक तरफ, घुमावदार आकृतियाँ हैं, एक तरफ समय का वृत्त है, जो कि एक ही दिन की सुबह से लेकर, शाम तक चलता है, और दूसरी ओर जगह का वृत्त है, जो सारे शहर को घेरे हुए है, जिसमें वे कथापात्र घूमते रहते हैं। इसके बाद, इन घुमावदार आकृतियों के बाहर, एक तरह का अभिलम्बित और एक बिन्दु-दर- बिन्दु आभासी संबंध है और, एक, एक-से-एक संबंध है, जॉयस के न्सलेेमे के हर उपाख्यान और The Odyssey के हर रोमांच के बीच। और इस संदर्भ से, हर क्षण, जॉयस के पात्रों के रोमांच, प्रतिकृति नहीं होते हैं और ना ही परस्पर थोपे जाते हैं, बल्कि उलट इसके, वे The Odyssey के पात्र की, जो कि स्वयं अधिकारी हैं, परंतु पूर्णरूपेण दूरस्थ और साहित्य के हमेशा न पकड़े जाने वाले अधिकारी, ‘अनुपस्थित उपस्थिति’ से खोखला अनुभव करते हैं।

संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि भाषा का काम, क्लैसिक युग में, सही अर्थों में साहित्य नहीं था। ऐसा क्यों है, कि हम यह नहीं कह सकते कि, Jacques the Fatalist या सवांर्तेस का काम साहित्य है। हम ऐसा क्यों नहीं कह सकते कि, रासिन का काम साहित्य है, या कोर्निए, या यूरिपिडिस का, ऐसा सिर्फ हमारे अलावा, बेशक, उस सीमा तक है, जहाँ तक हम उन्हें अपनी भाषा में सम्मिलित नहीं कर लेते? ऐसा क्यों है कि ठीक इस क्षण, दिदेरो का अपनी स्वयं की भाषा से संबंध, वो साहित्यिक संबंध नहीं था, जिसके बारे में मैंने अभी बात की? मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, हम निम्नलिखित बातें कह सकते हैं क्लैसिक युग में, किसी भी हाल में अठारहवीं शताब्दी के अंत में, भाषा का हर काम एक मूक और आद्य भाषा की क्रिया स्वरूप अस्तित्व में आया जिसके पुनरुद्धार की जिम्मेदारी उसी काम की थी। यह मूक भाषा, एक प्रकार से, प्रारम्भिक निरपेक्ष स्रोत था, जिससे हर कृति बाद में निकली, और जिसके भीतर वह पहले से ही समाहित थी। यह मूक भाषा या यह कहें कि भाषाओं के पहले की भाषा, ईश्वर का शब्द था, सत्य, या भाषा का आद्य साँचा। यह भाषा का ‘पूर्वज’ था, यह बाइबिल था, शब्द बाइबिल को उसका परम अर्थ देता हुआ, यानि, कि व्यावहारिक बुद्धि। एक पूर्ववर्ती पुस्तक थी जो कि सत्य था, जो कि प्रकृति थी, जो कि ईश्वर का शब्द था, जो स्वयं ईश्वर में छिपी हुए थी, और जो एक ही समय में सारा सत्य बखानती थी।

और एक तरफ यह प्रधान और बाधित भाषा ऐसी थी कि, जबकि, दूसरी तरफ सारी मानव भाषाएँ, जब कृति बनना चाहती थीं, सिर्फ उस भाषा का, पुनरानुवाद, पुनर्लेखन, पुनरावृत्ति या पुनरुद्धार करती है। परंतु, दूसरे अर्थ में, ईश्वर की यह भाषा,या प्रकृति की भाषा, या सत्य की भाषा, रहस्यमय थी। वह हर रहस्योद्घाटन (ईसाई अर्थ में प्रकाशना) का आधार थी और फिर भी वह गुप्त थी, वह प्रत्यक्ष रूप से नहीं लिखी जा सकती थी। और इससे, उन बदलावों की आवश्यकता हुई, उन घुमावदार शब्दों की और, उस पूरे तंत्र की ही, जिसको हम साहित्यशास्त्र के नाम से उल्लेख करते हैं।

बहरहाल, प्रश्न उठता है कि अंततः जो रूपक, लाक्षणिक शब्द, उपलक्षक, आदि, मानवीय शब्दों के प्रयोग से, जो कि प्रारम्भ और अवरोधों की अंतरक्रीड़ा से धूमिल और स्वयं से छिपे हुए हैं, इस मूक भाषा के पुनरान्वेषण के प्रयास के अलावा और क्या था? इस मूक भाषा का पुनरान्वेषण, जो कि कृति के अर्थ के रूप में था और जिसका कार्य पुनरुद्धार और पुनर्प्रतिष्ठा था, के अलावा और क्या था?

दूसरे शब्दों में, एक वाचाल भाषा, जो कुछ नहीं कहती और ‘परम भाषा’, जो सब कुछ कहती है, परंतु कुछ भी प्रकट नहीं करती, इसके मध्य में एक मध्यस्थ भाषा होना ही चाहिए, जो उसे वाचाल भाषा से, प्रकृति और ईश्वर की मूक भाषा, यानि साहित्य की भाषा की तरफ ले जाये। अगर हम संकेतों को परिभाषित करें, बर्कली और अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिकों के साथ, तो भाषा के उस रूप में, जो कि प्रकृति या ईश्वर द्वारा बोला गया है, तब हम काफी सरलता से यह कह सकते हैं कि, क्लैसिक की विशेषता इस तथ्य के द्वारा कही जा सकती है कि क्लैसिक में, साहित्यशास्त्र के अलंकारों की अंतरक्रीड़ा के द्वारा, भाषा की सघनता, अपारदर्शिता, और अस्पष्टता आदि का, संकेतों की दीप्ति और पारदर्शी होने में, उसका कायान्तरण शामिल था।

इसके विपरीत, पाश्चात्य जगत के लिए, या कहें कि पाश्चात्य जगत के एक भाग के लिए, साहित्य का प्रारम्भ तब हुआ, जब यह भाषा, जिसका श्रवण कभी बंद नहीं हुआ, जिसका सहस्राब्दियों से अनुभव या ग्रहण कभी बंद नहीं हुआ, वह भाषा मौन हो गई। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, हमने उस प्रारम्भिक भाषा को सुनना बंद कर दिया, और इसकी जगह सुनी जा सकती है एक अनंत गुनगुनाहट, जो कि बोले गए शब्दों का संचयन मात्र है। इन परिस्थितियों में, कृति को साहित्य-शास्त्र के अलंकारों में, जो कि एक मूक, मूल भाषा के संकेतों के रूप में काम करेंगे, में सम्मिलित करने की आवश्यकता नहीं है। कृति को एक तरह की भाषा के अलावा बोलने की आवश्यकता नहीं है। यह भाषा उस तरह की भाषा है, जो कहा गया है, उसे दोहराती है और जो, दोहराव के बल से, एक साथ, जो कुछ कहा गया है उसे मिटाती हुई भी चलती है और ऐसा करके वह स्वयं को अपने आप के और निकट लाती है, ताकि वह साहित्य के सार को पकड़ सके।

हम यह कह सकते हैं कि, साहित्य का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन, जिसे हम पुस्तक का खंड कह सकते हैं, वहाँ रख दिया, जहां साहित्यशास्त्र की जगह थी। और, इस बोध का एक अनोखा एहसास है कि, यह पुस्तक साहित्य के अस्तित्व में, काफी देर से होने वाला प्रसंग है। पुस्तक को, वास्तव में तकनीकी रूप से, अपने आविष्कार के बाद, साहित्य में अपना स्थान पाने के लिए चार शताब्दियाँ लगीं। और इस तरह मलार्मे की किताब, साहित्य की पहली किताब है, मलार्मे की किताब, जो कि मूलरूप से एक त्रुटिपूर्ण परियोजना थी, जो कि असफल होने के अलावा और कुछ नहीं हो सकती थी, हम कह सकते हैं कि, वह गुटनबर्ग की साहित्य पर विजय है। मलार्मे की पुस्तक, जो दोहराई गई, और एक ही समय में, जिसने सारी पुस्तकों का ध्वंस भी किया,एक पुस्तक जो,अपनी रिक्तता में,उस अस्तित्व का पोषण करती है,जो साहित्य से हमेशा के लिए पलायन कर गया,उस महान मूक पुस्तक को, जो कि संकेतों से भरी हुई है, क्लैसिक्स ने जिसका प्रतिनिधित्व करने के लिए उसकी नकल की थी, उसे उत्तर देती है। मलार्मे की पुस्तक भी इस महान् पुस्तक को उत्तर देती है,पर साथ ही साथ, स्वयं को उसके स्थान पर रख देती है। यह उस महान् पुस्तक के लुप्त होने की अभिस्वीकृति है।

हम अब यह देख सकते हैं कि क्यों, अपनी प्रतिष्ठा में, और न केवल अपनी प्रतिष्ठा में, बल्कि, अपने सार में भी, एक तरफ, क्लैसिक्स, एक प्रतिनिधित्व के अलावा कुछ और नहीं थी, क्योंकि उन्हें एक ऐसी भाषा का प्रतिनिधित्व करना था जो कि पहले से स्थापित थी, इसीलिए, काफी गहरे में, क्लैसिक्स का मूल सार, नाटय् में पाया जाता है, भले ही वह शेक्सपियर हो या रासिन, क्योंकि हम प्रतिनिधित्व के जगत में हैं, और इसके विपरीत, साहित्य का सार, इस शब्द के सच्चे अर्थ में, उन्नीसवीं शताब्दी के बाद से हमें, नाटय् में नहीं, बल्कि पुस्तक में मिलता है।

और आखिरकार इस पुस्तक में, जो सारी पुस्तकों में घातक है, एक ही साथ, अपने ऊपर, साहित्य को रचने की, सर्वदा निराश करने वाली परियोजना ले लेती है। और आखिरकार, इस पुस्तक में साहित्य को अपना अस्तित्व मिलता है। हालाँकि, यह पुस्तक अस्तित्व में थी, और एक गहरे यथार्थ के साथ, साहित्य के आविष्कार से कई शताब्दियों पहले, यह दरअस्ल, साहित्य की जगह नहीं थी। यह भाषा के सम्प्रेषण का महज एक भौतिक अवसर भर थी। और इसका सर्वोत्कृष्ट प्रमाण है कि Jacques the Fatalist, रोमांचक उपन्यासों की जादूगरी से, पश्चगमन के माध्यम से पलायन कर गया, या निरंतर पलायन की कोशिश करता रहा, जैसा कि Don Quixote और सवांर्तेस ने किया था।

परंतु, अगर वास्तविक रूप में साहित्य अपने ‘होने’ की पूर्ति पुस्तक में करता है, वह धैर्य से पुस्तक के सार का स्वागत नहीं करता है, (इसके अतिरिक्त, यथार्थ में पुस्तक का, कोई सार नहीं होता है, सिवाए जो उसके भीतर है उसके) इसीलिए साहित्य हमेशा पुस्तक की प्रतिकृति रहेगा, वह उस तरह व्यवहार करेगा जैसे कि वह पुस्तक हो, और आगे चल कर वह पुस्तकों की एक शृंखला होने का स्वाँग भरेगा। और इसी कारण से, इसकी पूर्ति अन्य पुस्तकों के प्रति हिंसा और आक्रमण से ही होगी। और यही नहीं, बल्कि यह आक्रमण और हिंसा, पुस्तक के उस अप्राकृतिक, उपहासपूर्ण, और स्त्रैण सत्व के प्रति भी होगी। साहित्य, एक अतिक्रमण है, साहित्य, पुस्तक के स्त्रीत्व की तुलना में, भाषा का पौरुष है। परंतु, अंततोगत्वा, अन्य पुस्तकों में एक और पुस्तक, अन्य पुस्तकों के साथ एक और पुस्तक, होने के अलावा वह पुस्तकालय के एक रेखीय अवकाश (स्पेस) में और क्या हो सकता है? साहित्य, भाषा के भंगुर और मरणोपरांत अस्तित्व के अलावा, और क्या हो सकता है? इसीलिए, इस साहित्य के लिए यह संभव नहीं है, अब चूँकि उसका पूरा अस्तित्व एक पुस्तक में है,यह संभव नहीं है, अंत में, अपनी कब्र के अलावा और कुछ होना।

अतः जो भी कुछ इस पुस्तक खंड में संग्रहीत है, खुला या बंद, इन पृष्ठों में जो एक ही साथ रिक्त भी है और चिन्हित भी, इस अनोखे खंड में- क्योंकि हर पुस्तक अनोखी भी है और दूसरी सारी पुस्तकों के समान भी है, क्योंकि सारी पुस्तकें एक दूसरे के सदृश्य हैं- साहित्य के मूल अस्तित्व जैसा कुछ है। इस साहित्य को, मानव जाति की भाषा की तरह नहीं समझना चाहिए, न ही ईश्वर के शब्द की तरह और न ही प्रकृति की भाषा या हृदय या मौन की भाषा के रूप में देखना चाहिए। साहित्य एक तरह से अतिक्राम्य भाषा है, यह मर्त्य है, पुनरावृत्त है, प्रतिकृत्यात्मक है। साहित्य में, मात्र केवल एक ही कर्ता है, विचार या बोलने के लिए है, और वह है पुस्तक। यही वह वस्तु है जिसे, अगर आप याद करेंगे तो, सवांर्तेस दुःसाहस में जलाना चाहते थे, इसी वस्तु से,दिदेरो ने, Jacques the Fatalist में कई बार पलायन का प्रयास किया, यह वस्तु जिसमें साद कैद थे, और जिसमें, हम भी कैद हैं।

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : साहित्य क्या है ? / मिशेल फूको
रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : साहित्य क्या है ? / मिशेल फूको
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2017/01/2016_59.html
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