समीक्षा संवेदनाओं की अन्तर्धारा राजेन्द्र कुमार ख्या तिनाम आलोचक, शोधकर्ता, सम्पादक, कवि भारत यायावर का पांचवां काव्य संग्रह ‘तुम धरती ...
समीक्षा
संवेदनाओं की अन्तर्धारा
राजेन्द्र कुमार
ख्यातिनाम आलोचक, शोधकर्ता, सम्पादक, कवि भारत यायावर का पांचवां काव्य संग्रह ‘तुम धरती का नमक हो’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनकी चुनिन्दा और चर्चित 54 कविताएं हैं. इनका चयन व सम्पादन गणेश चन्द्र राही ने किया है. राही जी ने भूमिका में स्पष्ट किया है कि यायावर की कविता चाहे वैचारिक हो या फिर लोक संवेदना, उनमें पाण्डित्य अथवा दार्शनिकता दर्शाने का कोई सचेत प्रयास नहीं है; बल्कि ये कविताएं जीवन के अंग बनकर जीवन का राज खोलती हैं. उनकी कविताओं में जीवन की व्यापकता ध्वनित होती है.
कवि की पृष्ठभूमि ग्रामीण है तो कविताओं में गांव शिद्दत से उपस्थित है. हर कविता में कोई न कोई संघर्ष की करुण कथा है. व्यक्तिगत व सामूहिक अनुभव ही कविताओं का रचना संसार है. लोक गन्ध लिये कविताओं में ग्राम्य जीवन की विवशता व संवेदनाओं का दारुण चित्रण है. गांव में जीविकोपार्जन के लिए श्रम है, संघर्ष है. जो हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी सामान्य ढंग से जी पाने के लिए नाकाफी है. गांव की धरती पर अभाव और भूख है, जिनसे लड़ना, पाना सामूहिक व व्यक्तिगत दायित्व के रूप में कवि महसूस करता है. परिवार के लोगों, मित्रों व ग्रामीणों से कोशिश करता है कि धरती पर नमक बचा रहे, जो सबके लिए जीवनदायी है. दायित्वों के निर्वाह में कहीं-कहीं असफल रह जाने की ग्लानि कविताओं में है, चाहे वह घर के लिए हो, परिवार के लिए हो, मित्रों के लिए हो या समग्र ग्रामवासियों के लिए हो. यही दायित्वबोध व प्रेम कवि के पारदर्शी अन्तर्मन को सुस्पष्ट करता है और संवेदना की
अन्तर्धारा हर कविता में विद्यमान है.
[ads-post]
‘कितनी सड़कों पर कितने लोग’ में जीवित रहने के लिए निरन्तर संघर्ष की कथा है. पूंजीवादी व्यवस्था ने सब कुछ लील लिया है. पेट भरने के लिए देह बेचने को मजबूर युवती सब कुछ भूल चुकी है. फिर भी जीने की लालसा है. आदमी पेट भरने को मजदूरी करता है, लेकिन वह भी नियमित नहीं है. ‘ऐसा कुछ भी तय नहीं था’, ‘चौखट’, ‘नहीं टूटता घर’, ‘पिता के बारे में’, ‘बीनू’, ‘पत्नी के लिये’, ‘तुम कहां जा रहे हो’, ‘झोला’, ‘अस्पताल की डायरी’, ‘क्षमा करें’ कवितायें कवि के बचपन, मां, पिताजी, बहिन, घर के प्रति लगाव और साथ में निर्धनता, आत्मीय लगाव, बिखराव और विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज है.
यायावर वर्तमान समाज में स्वयं को ‘मिसफिट’ पाते हैं. उपरोक्त कवितायें कवि के निजी जीवन संघर्ष के संस्मरण ही नहीं हैं, अपितु आसपास के संघर्ष की व्यापक व्यथा-कथा भी हैं. कवि के फक्कड़पन और जीवन मूल्यों के प्रति निष्ठा ही ऊर्जा देती है. यही गुण यायावर को समकालीन कवियों में विशिष्ट बनाता है. उनकी भाषा देशज एवं लोक शब्दों के प्रयोग से पाठक को आत्मा से जोड़ती है और वैचारिक स्तर पर सोचने को विवश करती है.
‘हाल-बेहाल’ आज की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषमता का दस्तावेज है, जहां गरीब-गुरबा शारीरिक श्रम के बाद भी भूखा है. पत्नी का इलाज कराने में असमर्थ है. ‘आदमी कहां-कहां पीड़ित नहीं है’ में व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह उठाता है, क्योंकि सारी सुख-सुविधायें सीमित वर्ग के लिये हैं. ‘होना, नहीं होना’ कविता बौद्धिक जुगाली और कायर बुद्धिजीवियों की दैनिक दास्तान है, जो निठल्ले एवं होने न होने के बीच निष्क्रिय समाज का दर्पण है. ‘जगदीश केजरीवाल’, ‘चन्दा केसरवानी के लिये’, ‘दोस्त’ कवितायें मित्रता के सम्बन्धों की गहराई व आत्मीयता को प्रकट करती हैं. ‘आदमी की पीड़ा’, ‘अर्द्ध-निंद्रित समाज के प्रति’, ‘यह सिलसिला है’, ‘वे कौन हैं’ कवितायें सामाजिक उत्तरदायित्व बोध, जागरूकता तो जगाती हैं, किन्तु वर्तमान व्यवस्था में कुछ न कर पाने की छटपटाहट कवि को अन्दर तक कचोटती हैं. ‘वसन्त राग’ एक अलग भावप्रवण की कविता है, जो अनूठे लोक में ले जाकर यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर आ पटकती है.
‘चन्द्र’, ‘चन्दर का’ ‘किस्सा लंगड़ू पाण्डे का’, ‘इदरीस मियां’ आसपास के आम आदमी के संघर्ष, पीड़ा, जीवन के प्रति आस्था और सकारात्मक सोच की कवितायें हैं. कवि की संवेदनशीलता, करुणा और मनुष्यता को बनाने के अथक प्रयास हैं. ‘सर’, ‘श्रीमान’ आधुनिक सुविधाजीवी चापलूस और मोटी चमड़ी के लोगों को उघाड़ने वाले चित्रण हैं, जो अपने स्वार्थ के लिये किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं.
‘बखरी’ और धनरोपनी’ में धान रोपण में ग्राम्य जीवन का जीवन्त चित्रण है. महिला को शाम को दो सेर धान कूटकर ही पेट भरना है. पिया का विछोह देर रात तक और कई रातों तक अंधेरे में ताकने को विवश होना है. लोकगीतों में पति के परदेस कमाने जाना और पत्नी का विछोह के दुख में डूबने-उतरने का दारुण वर्णन है. ‘बखरी’ कवि की श्रेष्ठ कविता है. पिछले दशक में शायद ही इसके समकक्ष कोई कविता प्रकाशित हुई हो. कुछ हद तक निराला की ‘पत्थर तोड़ती’ के भाव व धरातल के आसपास है. तमाम महिला आन्दोलन, जो जागरूकता और समझ को नहीं ला सके, वो इस कविता की नायिका को है. ‘बखरी’ न जाने का कारण स्पष्ट है- गोबर निकालो, लीपो-पोतो, झाड़ू बुहारो, जूठन खाओ और मार खाओ. इसके लिये वह अब तैयार नहीं है. उसे पता है कि इसमें जीवन नष्ट होना है, सड़ना है. पंजाब और अन्य प्रान्तों में मेहनत-मजदूरी बेहतर है. नायिका की सोच कहा जाय या कवि की सोच, सराहनीय है. संक्षेप में संग्रह की कविताओं में वह सब है, जो कविता के होने और पढ़ने को सार्थक करता है.
पेपर बैक में कविता संग्रह का आवरण आकर्षक बन पड़ा है व मुद्रण त्रुटिरहित है.
समीक्षक सम्पर्कः 282, राजीवनगर,
नगरा, झांसी-284003
COMMENTS