विचारकों की नज़र में मिशेल फूको ________________________________________ एडवर्ड मैकगोशिन फूको की आत्मपरकता का एक विवेचन (अनुवाद - पुनर्...
विचारकों की नज़र में मिशेल फूको
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एडवर्ड मैकगोशिन
फूको की आत्मपरकता का एक विवेचन
(अनुवाद - पुनर्वसु जोशी)
दर्शन के क्षेत्र में ‘वस्तुनिष्ठ’ और ‘आत्मनिष्ठ’ दृष्टि के मध्य द्वन्द्वात्मकता सनातन है और यह वहीं से अपनी आ़द्य उपस्थिति दर्ज कराती आ रही है जब ‘पदार्थ और चेतना’ के बीच, द्वंद्व को चिंतन का केंद्र बनाया गया। यह बहस अपने सर्वथा आक्रामक रूप में तब प्रकट हुई जब मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के चरितार्थ को साहित्य के क्षेत्र में देखा जाने लगा। यांत्रिक भौतिकवाद ने चिंतन की इस पक्षधरता को, इस बिन्दु पर ला कर खड़ा कर दिया जहां से, दुनिया के अधिकांश साहित्य को, प्रतिक्रियावादी करार देते हुए, उसे समुद्र में डुबो देने को कृतसंकल्प आलोचकों की बिरादरी खड़ी हो गई। कहने की जरूरत नहीं कि इसमें क्रिस्टोफर कॉडवेल और अर्नस्ट फिशर जैसे साहित्य चिंतकों की स्थापनाओं ने भी काफी तीखा हस्तक्षेप किया। लेकिन, मिशेल फूको ने ऐसी कट्टरवादी दृष्टि को बदलने में, गहरी चिंतनपरक भूमिका निभाई और मार्क्सवाद को ‘आत्मनिष्ठता’ (Subjectivity) के सन्निकट लाकर, ऐसी वैचारिक तर्क-युक्तियों की स्थापना की, कि ‘आत्मनिष्ठता’ प्रतिक्रियावादी मूल्य होने के लांछन से मुक्त हो कर, सृजनात्मक क्षेत्र में एक नये रूप में स्वीकृत हुई। मिशेल फूको का, मार्क्सवादी चिंतन के क्षेत्र में, यह एक बड़ा अवदान है। प्रस्तुत है, मिशेल फूको के साहित्य-चिंतन के, एक चर्चित अध्येता द्वारा फूको की आत्मनिष्ठता की विवेचना को केंद्र में रख कर लिखी गई, एक लंबी टिप्पणी। -अनुवादक
यह आकस्मिक नहीं कि लगभग सभी ने, एक समय, यह सर्वव्यापी सी जान पड़ने वाली सलाह सुनी होगी, ‘आत्म से रहो’,‘सच से जुड़े रहो’, ‘स्वयं से ईमानदार रहो’, ‘स्वयं को खोजो’, ‘स्वयं को अभिव्यक्त करो’, ‘स्वयं पर आत्मविश्वास रखो’, ‘अपना आत्म- सम्मान रखो’, ‘अपना मार्ग स्वयं चुनो’ और आदि आदि। जहां एक तरफ यह मार्गदर्शन पूर्णतया सहज जान पड़ता है, परंतु क्या हम सभी स्वयं को स्वयं से बेहतर बनाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? वहीं, दूसरी ओर, यह निर्देश, ‘आत्म से रहो’ आश्चर्यजनक रूप से खोखला जान पड़ता है। क्योंकि एक प्रतिप्रश्न खड़ा होता है कि अंततः मैं, स्वयं के अलावा और कौन हो सकता हूँ? जाहिर है, हम सभी बहुतेरे ऐसे तरीकों से परिचित हैं जिनसे हम ‘आत्म’ के अनुरूप चलने में विफल होते हैं। हम सभी, स्वयं को समाज के अनुरूप ढालने के, स्वयं को ढाँपने के, और स्वयं को नकारने के दबावों और आवेशों को भली-भाँति जानते हैं। हम वही कहते हैं, जो हमें लगता है कि दूसरे चाहते हैं कि हम ‘वह’ कहें। हम ठीक उसी तरह से बर्ताव करते हैं, जैसा कि दूसरे अक्सर हमसे बर्ताव की नैसर्गिक अपेक्षा रखते हैं। हम स्वयं से झूठ बोलते हैं, स्वयं को धोखा देते हैं, अपने ‘आत्म’ को भूलने, विस्मृत करने की कोशिश करते हैं, स्वयं को शमिंर्दा करते हैं, और तो और स्वयं को अनदेखा भी करते हैं। इन सबसे सर्वोपरि, सचाई तो यह है कि हम प्रौद्योगिकी की धड़धड़ाती हुई प्रगति के एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जहाँ रासायनिक हेरफेर से हमारे मनोभावों में, और अनुवांशिकी से हमारी शारीरिक और मानसिक विशेषताओं में एक निश्चित रद्दोबदल संभव है। ऐसे में जब हम, रासायनिक या आनुवांशिक अभियांत्रिकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) से अपने मनोभावों, अपनी स्मृति, अपनी जीवनावधि, और यौनिकता में परिवर्तन करने की क्षमता रखते हैं, तब संभवतः एक अत्यंत सहज लेकिन जरूरी प्रश्न खड़ा होता है कि ‘आत्म से रहने’ का क्या आशय हो सकता है?
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और फिर भी, इन सभी तरह की विघ्न-बाधाओं के बावजूद, हम अपने सच्चे, प्रामाणिक ‘आत्म’ और सच्चे और प्रामाणिक जीवन की खोज करते हैं और उसे संरक्षित करते हैं या सहेजते हैं। स्वयं से ईमानदार रहने की यह कश-म-कश कहना चाहिए कि आधुनिक जीवन को परिभाषित करने वाली प्रमुख विशेषता है। फिल्म और संगीत, साहित्य और टीवी, सभी प्रकारांतर से इसका विस्तार से विवेचन और चित्रण करते हैं। कहना न होगा कि यही, विज्ञापन और ब्रांड मार्केटिंग, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र और राजनीति का मूल भाव भी है। अगर हम कुछ क्षण ठिठक कर इसके बारे में तटस्थता के साथ सोचें तो हमें एक अपरिचित, अशांत कर देने वाला कोई स्पष्ट तीक्ष्ण बोध होता है। ‘आत्म’ पर इतनी सघन एकाग्रता, एक उत्कृष्ट और ईमानदार ‘आत्म’ की इच्छा को प्रतिबिम्बित करती है, एक ऐसे ‘कुछ’ की लालसा जिसे ‘आत्म की नीति’ या ‘प्रामाणिक होने की नीति’ कहा जा सके (टेलर 1992)। फिर भी, साथ ही साथ, हमें ‘आत्म से रहने’ के लिए सतत प्रोत्साहन की जरूरत पड़ती रहती है, यही बात कहीं न कहीं यह इंगित करती है, कि हमारी प्रधान जीवन शैली मिथ्या है, या फिर काफी हद तक, हम सचमुच ‘आत्म से रहने’ में कहीं इस तरह पीछे रह जाते हैं, कि हम अपना आपा खो देते हैं। जैसा कि ज्यां पॉल सार्त्र (1989) ने कहा था कि, मनुष्य गोभी का फूल नहीं है। गोभी के फूल को कभी इस प्रश्न से मुठभेड़ नहीं करनी पड़ेगी कि, ‘गोभी का फूल होने का’ क्या अर्थ होता है, उसे कभी यह चुनना नहीं पड़ेगा कि वह अपना जीवन कैसे जिए और न ही कभी उसे अपने लिए गए निर्णयों के लिए किसी तरह की चुनौती का सामना करना पड़ेगा। गोभी का फूल वही है, जो वह प्राकृतिक रूप से है, ‘गोभी का फूल होने के सत्व’ से पूर्णतः परिभाषित और नियत। वहीं दूसरी ओर, मानव, एक गहरे स्तर पर विलक्षण है और अपने से अनभिज्ञ भी है जो एक ही साथ, अपने ‘आत्म’ से परे भी है, और फिर, अपने ‘आत्म’ से पूर्णतः बंधा हुआ भी है। अपने ‘अस्तित्व’ के इस विरोधाभासी कृत्य का दृढ़ता से सामना करने को मिशेल फूको ‘आत्मान्वीक्षण’ करना कहते हैं, यानि एक किस्म की ‘आत्म-सजगता’ से ‘आत्म की परख’। फूको हमारी ‘आत्मपरकता’ को इस तरह परिभाषित करते हैं जो हम ‘अपने आपको’ बनाते हैं, जब हम अपने ‘आत्मान्वीक्षण’ में पूरी तरह सेवानिष्ठ होते हैं। जब हम यह परखने लगते हैं कि ‘आत्म से ईमानदार’ होने के सूत्र की खोज के लिए क्या आवश्यक है, तब हम ठीक से समझने की शुरुआत कर सकते हैं कि फूको का ‘आत्मान्वीक्षण’ से और ‘आत्मपरकता’ से क्या अभिप्राय है।
वे सारी साधारण सलाहें- स्व से ईमानदार रहो, स्वयं को अभिव्यक्त करो, या स्वयं को खोजो, ‘आत्म’ के ‘आत्म’ से संबंध की युक्तियाँ हैं। उदाहरण के लिए, जब मैं अपने आप को अभिव्यक्त करता हूँ, तो मैं एक ही साथ, ‘आत्म’ जो ‘अभिव्यक्त कर रहा है’ और ‘आत्म’ जो और जितना ‘अभिव्यक्त हो रहा’ है, दोनों हूँ। मेरा ‘आत्म’ जो कि अभिव्यक्ति करता है, वह आत्माभिव्यक्ति की अंदरूनी प्रक्रिया से अभिव्यक्त होने वाली ‘वस्तु’ की तरह मुझ से जुड़ा हुआ है (फिर जो भी उस क्रिया के पूर्णतः मूर्त होने के लिए आवश्यक हो)। जब भी हम आत्माभिव्यक्ति या आत्मान्वेषण की बात करते हैं, तब हमारी प्रवृत्ति इन गतिविधियों के द्वारा प्रस्तुत किए गए ‘सार’ में, उलझ जाने की होती है और इस प्रकार हम उनके सांबंधिक चरित्र को नजरअंदाज कर देते हैं। ‘आत्म’ को ढूँढने और खोजने की गतिविधि में, मेरा ध्यान पूर्णतः ‘आत्म’ को ‘वस्तु’ की तरह खोजे जाने की तरफ केन्द्रित होता है, या उस पदार्थ या सत्व की तरह, जिसे मैं खोजता हूँ और जिससे मैं आत्यंतिक रूप से परिचित भी होता हूँ। आत्मान्वेषण और आत्माभिव्यक्ति में, हमारी उत्सुकता सहजरूप से उस ‘आत्म’ में होती है, जो अभिव्यक्त हो रहा होता है। अगर हम अभिव्यक्ति की गतिविधि या उस कृत्य की ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर देते हैं, तो वह इसलिए होता है ताकि हम सुनिश्चित कर सकें कि वह गतिविधि या कृत्य अभिव्यक्त होने वाले कथ्य के लिए उपयुक्त है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा झुकाव ‘अभिव्यक्ति’ या अन्वेषण की गतिविधि को, अभिव्यक्त होने वाले ‘आत्म’ को प्रकट करने वाले या अभिव्यक्त करने वाले माध्यम मानने का होता है। अगर बारीकी से देखें तो, तब स्वतः यह स्पष्ट हो जाता है कि, ‘अन्वेषण’ करना या ‘अभिव्यक्त’ करना, वे गतिविधियां हैं जिन्हें हम ‘सांबन्धिक’ गतिविधियां कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में, ये वे गतिविधियां हैं जो संबंधों के समुच्चय का निर्माण करती हैं या बनाए रखती हैं, या कहें कि संघनित करती हैं। इन ‘आत्म’-सांबन्धिक गतिविधियों को जो अपरिचित और अलग बनाता है, वह यह है कि जिन शब्दों का संबंध स्थापित किया जा रहा है, वे अपने मूलभूत रूप में समान हैं। आत्मान्वेषण और आत्माभिव्यक्ति दोनों ही ‘आत्म’ से ‘आत्म’ का संबंध स्थापित करती हैं। परंतु, बावजूद इसके, इसका यही अभिप्राय निकलता है कि ‘आत्म’ कुछ अर्थों में स्वयं काफी से भिन्न है।
अब आइए, कुछ इस पर विचार करें कि यह काम कैसे करता है? आत्म-सांबन्धिक गतिविधि व्यक्तित्व के भीतर एक भेद स्थापित कर के एक संबंध बनाती है। उदाहरण के लिए, स्वयं को खोजने की गतिविधि में, ‘आत्म’ अपने को विभाजित करता है (अ) प्रथमतः सक्रियता से खोजते हुए ‘विषय’ में और (ब) दूसरे अक्रियता से ढूँढे जाने वाली ‘वस्तु’ में। निस्संदेह, इन दो शब्दों को जोड़ने की गतिविधि ‘आत्म’ की सक्रियता से, स्वयं को ढूँढने, खोजने, और अभिव्यक्त करने के अलावा कुछ नहीं है। परंतु, ‘आत्म’ को, दोनों, सक्रिय ‘कर्ता’ और ‘अक्रिय वस्तु’ बनने के लिए, स्वयं को सक्रियता से किसी आत्म-सांबन्धिक गतिविधि के द्वारा विभाजित करना होगा। दूसरे शब्दों में, यह ढूँढने और खोजने की गतिविधि है, जो ‘आत्म’ को ढूँढने वाले के ‘रूप’ में और साथ ही साथ ढूँढे जाने वाली ‘वस्तु’ के रूप में बनाती या संघटित करती है।
यहाँ यह बात खास तौर पर गौर करने के लिए है कि जब हम स्वयं अपने ‘आत्म’ से संबंध गढ़ने का कठिन उपक्रम करने के लिए निकलते हैं, तब हम ‘आत्मान्वीक्षण’ कर रहे होते हैं। इसके परिणाम स्वरूप उपजी ‘आत्मपरकता’, वह ठोस गतिविधि है, जो ‘आत्म’ से ‘आत्म’ के संबंध को परिभाषित करती है। ‘आत्मपरकता’ इस अर्थ में, आत्म के दोनों, ‘कर्ता’ और ‘वस्तु’, होने का मूल आधार है। दूसरे शब्दों में, फूको तर्क रखते हैं कि, ‘आत्म’ या ‘कर्ता’ आत्म-स्थापित जीव नहीं है, किसी तरह का सत्व या पदार्थ है, जो हमारे भीतर पहले से ही विद्यमान है। भले ही हम उसे ढूंढें या न ढूंढें (1986 बी)। मुझे कहने दीजिए कि वह किसी सांबन्धिक गतिविधि के फलस्वरूप, अस्तित्व में लाया जाता है। इसके अलावा, आत्मपरकता, एक गतिमान, सक्रिय संबंध के रूप में बहुतेरे विभिन्न रूप ले सकती है (1986 ए440)। उदाहरण के लिए, कोई यह विश्वास रख सकता है, जैसा कि नीत्शे और अन्य संदेहवादियों ने किया, वे स्वयं सही अर्थों में क्या हैं, इसकी खोज वे तभी कर सकते हैं, जब वे कठिन चुनौतियों या खतरों का सामना करते हैं। या कोई ऐसा भी सोच सकता है, जैसा कि देकार्त और निर्गुणियों ने सोचा, कि आत्मान्वेषण शांत, एकांत में आत्मनिरीक्षण का कार्य है। कोई और, सुकरात की राह पर चलते हुए, यह मानकर चले कि आत्मान्वेषण दूसरों के साथ प्रतिक्रिया में प्रकट हो जाने वाली बातचीत के द्वारा ही संभव है, जहां व्यक्ति एक दूसरे की सँजोयी हुई आस्थाओं को परखते हैं और लगे हाथ उन्हें चुनौती भी देते हैं। आत्मान्वेषण की ये सारी गतिविधियां, एक अलग प्रकार के सक्रिय ‘कर्ता’ को जन्म देती हैं और अलग अलग ‘आत्म-पदार्थ’ या ‘आत्म-वस्तु’ को प्रकट करती हैं। इन सारे उदाहरणों में, यह गतिविधि है, जिसके द्वारा व्यक्ति, इस ‘आत्म से गतिशील संबंध’ को गढ़ लेता है, जो यह स्थापित करता है कि वह यथार्थ में कौन है? जब हम इस बिन्दु से दृष्टि हटा लेते हैं, तब, हम कौन और क्या हैं? इसके एक अचल, जड़ विचार को स्वीकार कर लेते हैं, और तब हम उस सक्रिय संबंध के विकास को, जो वास्तविक जीवन और ‘आत्मपरकता’ का हृदय है, की अवहेलना किए जाने के पक्षधर होने लगते हैं। बजाय यह मान लेने के कि कठिनाइयों से मुठभेड़ मुझे मेरे सही गुणों, मेरे ईमानदार ‘आत्म’, के अन्वेषण की अनुमति देती है। मुझे यह पहचानने की जरूरत है कि, कठिनाइयों से मुठभेड़ ही वह एक मात्र अभीष्ट है जो मुझे एक विशिष्ट प्रकार के ‘आत्म’ में ‘गढ़ती’ है।
चूंकि फूको यह मानते हैं कि, ‘आत्म’ से ‘आत्म’ का संबंध ही ‘आत्मपरकता’ है और यह संबंध संभावित गतिविधियों के वैविध्य से निर्मित है, गठित है, वे विषय या ‘आत्म’ का सिद्धान्त नहीं प्रस्तुत करते हैं, जो हमें यह बता सके कि हम सही मायनों में कौन और क्या हैं- वे हमें यह नहीं बताते हैं कि हम किस प्रकार के पदार्थ हैं या हमारा क्या सत्व है। इसके बदले, फूको का लेखन एक साथ दो कार्यों को परिणाम देता है। पहला, वे ‘आत्मपरकता’ के बहुतेरे विविध रूपों में से, जो पुरातन ग्रीक दार्शनिकों के समय से, पाश्चात्य सभ्यता ने उत्पन्न किए हैं, कुछ रूपों का एक सतर्क विवरण और विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। दूसरा, और इसके साथ ही साथ, वे आत्मपरकता के एक विशिष्ट ‘रूप’ को अभ्यास हेतु प्रयोग में लाते हैं। दूसरे शब्दों में, फूको की कृतियाँ, विमर्श के दायरे में हलचल पैदा करने वाली वे गतिविधियां हैं, जिनके द्वारा उन्होंने अपनी ‘आत्मपरकता’ की अवधारणा या कहें कि सिद्धान्त को रूप दिया और स्वयं के दार्शनिक होने के एक विशिष्ट प्रकार को स्थापित किया। फूको के ‘आत्मपरकता’ के सिद्धान्त और अभ्यास को बेहतर ढंग से समझने के लिए, और यह देखने के लिए कि किस तरह वे सिद्धान्त और व्यवहार, हमें अपने ‘आत्म’ की खोज में मदद कर सकते हैं, चलिये, उन तत्वों या सामग्री का सर्वेक्षण देखें, जिनसे हमारा साबका इस पर विचार करते हुए बार-बार पड़ेगा, जब हम स्वयं से संबंध बनाने की कोशिश करेंगे।
अनुशासनात्मक आत्मपरकता
जब, मैं अपने आप को देखता हूँ तो मैं वहाँ अपने भीतर विचार और भावनाओं को, आशाओं और कामनाओं को, स्मृतियों और कल्पनाओं को पाता हूँ। मैं स्वयं की अनुभव करने की, सोचने की, ध्यान केन्द्रित करने की, और चुनने की शक्ति को नए सिरे से पहचानता हूँ। मैं अपने मानसिक या मनोवैज्ञानिक जीवन और अपनी देह और उसकी प्रक्रियाओं और विशेषताओं के बीच बहुत सूक्ष्म लेकिन स्पष्ट अंतर करने में समर्थ हूँ। इसके फलस्वरूप, मैं यह सोच कर विस्मित होता हूँ कि क्या मैं पूर्णतया एक भौतिक पदार्थ हूँ? या फिर एक अभौतिक पदार्थ हूँ जो किसी तरह, इस भौतिक देह से जुड़ा हुआ है और इस जगत में विचरने और अनुभव करने के लिए इस देह पर आश्रित और बाध्य है। परंतु, अगर मेरा सच्चा ‘आत्म’ (मस्तिष्क या आत्मा) मेरी देह से पृथक है, तो भी यह ‘आत्म’ इस जगत में अपने कार्यों से बंधा हुआ है और उनके लिए वह चेतस रूप में जिम्मेदार है।
मेरा जीवन, पल-प्रतिपल, दिन-ब-दिन, परस्पर जुड़े हुए अनुभवों की एक शृंखला है जिसमें मैं, अपने आपको संबंधों में उलझा हुआ पाता हूँ, और अपने आप को उन परियोजनाओं में संलिप्त पाता हूँ जो मुझे विविध युक्तियों से वस्तुओं, व्यक्तियों, जगहों, और मूल्यों से जोड़ती हैं, हालाँकि प्रकट रूप में जो मेरे ‘आत्म’ से संबद्ध नहीं हैं। दरअस्ल, मेरा अधिकांश आंतरिक जीवन, मेरे कार्यों, संबंधों, संपर्कों के, या वस्तुओं, व्यक्तियों, जगहों, और मूल्यों से अन्तरक्रिया के परिणामस्वरूप और उस अन्तरक्रिया के संदर्भ में घटता है, और जोकि मेरे ‘आत्म’ से स्वतंत्र है और बाहर मौजूद है, यानि मेरे ‘अलावा‘ है। मैं उन वस्तुओं के बारे में अपनी राय बनाता हूँ, जो मैंने देखी हैं, जिन्हें मैंने अनुभव किया है, जिनकी मैंने कामना और आशा की है। मैं, यह निर्णय लेते हुए कि कुछ वस्तुएँ ‘अच्छी’ हैं और कुछ ‘बुरी’, अपनी धारणा बनाता हूँ कि कुछ वस्तुएँ मुझे प्रिय हैं और कुछ नहीं हैं, या अप्रिय हैं। वस्तुओं की तुलना करने और उनके बारे में अपनी धारणा निश्चित करने के अतिरिक्त, मैं मनन करता हूँ और चुनाव करता हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि, जीवन का हर क्षण जीते हुए मेरा सामना पल-प्रतिपल चयन की संभावना से होता है, हालाँकि, अधिकांशतः चीजें स्वतः आगे बढ़ती रहती हैं और मुझे अपने साथ लेती चलती हैं, बिना मेरे कोई पक्ष लिए। पर, मेरा मानना है कि मैं एक के बदले दूसरा कार्य करने के लिए स्वतंत्र हूँ। और अंत में, मैं इन सारी चीजों को समझने और उनकी व्याख्या करने की कोशिश करता हूँ और उनका,कई बार जगत के बारे में विस्तृत सुव्यवस्थित सिद्धान्त बनाए जाने की हद तक एक लेखा बनाता हूँ।
मैं अपना समय कोई न कोई कार्य करते हुए ही व्यतीत करता हूँ, विश्वविद्यालय जाते हुए, खाते हुए, सोते हुए, मित्रों के साथ गप्प लड़ाते हुए, समय व्यर्थ नष्ट करते हुए, मनोरंजन करते हुए, काम करते हुए, और यह विस्मय करते हुए कि मैं इस धरा पर क्या कर रहा हूँ? कई बार ऐसा लगता है जैसे कि मेरा जीवन सिर्फ पूर्णरूपेण एक के बाद एक घटने वाली बेतरतीब घटनाओं की काफी लंबी और उलझी हुई शृंखला है। दूसरे क्षणों में मैं यह पहचानता हूँ कि मेरे बहुत सारे कामों में एक प्रकार की व्यवस्था है, शायद अधिकांश कार्यों में जो मैं करता हूँ। उस समय, मैं देख सकता हूँ कि मेरा जीवन कुछ पूर्वनिर्धारित परियोजनाओं और कार्यों में सुगठित है। मैं, किसी काम को उसके अभीष्ट तक पहुँचाने में, प्रायः व्यवस्थित रूप से काम करता हूँ। उदाहरण के लिए, मैं विद्योपार्जन के लिए कॉलेज जाता हूँ, और मैं विद्या अर्जन करता हूँ, ताकि मैं एक अच्छी नौकरी पा सकूँ, और मैं अच्छी नौकरी पाता हूँ ताकि मैं अच्छा पैसा कमा सकूँ और अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर सकूँ, आदि आदि।
मैं शायद ईश्वर में भी विश्वास कर लूँ और यह मान भी लूँ कि इस सब का कोई निश्चित उद्देश्य भी है। परंतु, शायद मैं यह भी मान लूँ कि कोई ईश्वर नहीं है और हम यह सारे कार्य सिर्फ यूंही करते चले जाते हैं और अंत में मर जाते हैं। पर सबसे अधिक संभावना यह है कि, भले ही मैं ईश्वर में विश्वास करूँ या न करूँ, मैं स्वयं के लिए यह कोशिश करता हुआ पाता हूँ कि, या शायद यह आशा करता हूँ कि, अपनी मृत्यु से पहले, मैं अपने समय का अधिकतर उपयोग कर सकूँ। और जब मैं इसके बारे में सोचता हूँ, तो मुझे इस बात का ‘बोध’ होता है कि, यह मृत्यु बोध स्वतः ही मेरे कार्यों को एक प्रकार की अधीरता और व्यवस्था प्रदान करता है। ऐसा इसलिए भी अनुभव करता हूँ कि मैं इस पृथ्वी पर अनंतकाल के लिए नहीं रहने वाला हूँ, और मैं समय के व्यतीत होने को नहीं रोक सकता। मेरे जीवन की एक दिशा है, भविष्य की ओर एक निरंतर बहाव है, जन्म से बचपन तक। बचपन से लेकर लड़कपन तक। लड़कपन से लेकर युवावस्था तक। युवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक और अंत में मृत्यु तक, अगर मेरी मृत्यु पहले न हो जाए। मेरे जीवन के सर्वोत्कृष्ट समय में भी, मेरा एक हिस्सा है जो मुझे परिभाषित करता है और मुझे, ‘मैं कौन और क्या हूँ’, बनाता है। वह यह है कि, मैं एक नश्वर प्राणी हूँ। मैं, एक दिन निश्चित रूप से मृत्यु को प्राप्त होऊंगा। और मेरी मृत्यु किसी भी समय संभव है। मेरी देह, बाहरी वस्तुओं से, क्षति के लिए भेद्य है, पर इसकी भीतरी प्रक्रियाएँ भी उलट-पुलट हो कर, मेरी पीड़ा या मृत्यु का कारण बन सकती हैं। मेरा आंतरिक जीवन, मेरा मानसिक और भावनात्मक जीवन, कुछ अर्थों में मेरी देह से ज्यादा, बाह्य शक्तियों और घटनाओं के लिए भेद्य है, ये ही वे कारक हैं कि जिनके चलते बाहरी लोग मेरे ‘आत्म’ के ‘देखने’ को प्रभावित करते हैं, वे मुझे अपर्याप्त होने का, पराया होने का, गलत समझे जाने का, असामान्य होने का, या दुष्ट होने तक का आभास करा सकते हैं। मेरी भेद्यता तीव्रतम है, क्योंकि मैं अपने अलावा दूसरे लोगों और वस्तुओं पर आश्रित होता प्रतीत होता हूँ। दूसरे शब्दों में, मेरी, मेरे बाह्य परिवेश से अन्तरक्रिया, अन्यमनस्क नहीं हैं वे आवश्यक और त्वरित हैं। मुझे भोजन, आश्रय, और साहचर्य की आवश्यकता है। मेरा दूसरे लोगों से मेल जोल करते रहना, विशेष तौर पर आवश्यक है और इसके चलते ही यह सब खतरों से भरा हुआ है। मैं स्वयं को, सतत दूसरों की स्वीकारोक्ति और उनका अनुमोदन प्राप्त करने की कोशिश में लगा रहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि वे मेरा समुचित सम्मान करें, और जो मैं हूँ उसके लिए मेरी अहमियत स्वीकारें। मैं कमोबेश यह जानता हूँ कि यह मान्यता मेरे लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है- मैं प्रेम, सम्मान, और प्रतिष्ठा के लिए तरसता हूँ। और फिर भी, जितना मैं इन वस्तुओं के लिए तरसता हूँ, उतनी ही ये वस्तुएँ मेरे लिए निरंतर कठिन होती जाती हैं, और उतना ही मैं दूसरों की दया और उनके मेरे प्रति दृष्टिकोण पर जीता हूँ। इसके साथ ही, मुझे यह भी ज्ञात है कि दूसरे लोग भी, मेरी तरह उन्हीं वस्तुओं के लिए तरसते हैं, कई बार वे चाहते हैं कि ‘वह’ प्रेम और स्वीकृति, उन्हें ‘मुझसे’ मिले।
यह संक्षिप्त और सरल लेखन स्वयं से ईमानदार होने, आत्मान्वेषण, और आत्माभिव्यक्ति के संघर्ष की जटिलता को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। उन तत्वों को खंगालते हुए जिनसे जीवन और हमारा ‘आत्म’ गठित है। मैं इस सबसे विस्मय से भर उठता हूँ कि मैं कैसे, इन सब तत्वों में ‘आत्मान्वेषण’ की शुरुआत करूंगा और एक ऐसा जीवन जी सकूँगा जो सच्चा और साथ ही साथ प्रामाणिक हो। तथापि, जब मुझे इसका एहसास होता है कि मैं इन तथ्यों पर न्यूनतम ध्यान देकर भी जीवन जी सकता हूँ, तब आत्मान्वेषण की जरूरत अपनी तीव्रता खो देती है, और बिना किसी चिंतन के कि, कैसे अपने तईं इन तथ्यों को बेहतर समझा और जीया जाए। जीवन, जैसा है, मेरे सामने अधिकांशतः खुला पड़ा है। मुझे हर दिन, प्रोत्साहित और आदेशित किया जाता है, धीमे से आगाह किया जाता है, या सही दिशा में जाने के लिए मुझे दृढ़ता से धकियाया जाता है। मुझे इस जगत में जीवित रहने के लिए, अधिकांशतः जो कुछ जानने की जरूरत है, उसे स्पंज की तरह सोख लेना काफी सरल है। जिस रास्ते पर मुझे चला दिया गया है, रोबोट की तरह, उस रास्ते पर चलना काफी सरल है। उदाहरण के लिए, मैं स्कूल जाता हूँ और जो कुछ मेरे शिक्षक बताते हैं, उसे लिख कर मैं उसका अध्ययन करता हूँ। लेकिन जो मैं सीखता हूँ, वह ‘पाठ’ के ‘कथ्य’ से कहीं अधिक है। भले ही मैं गणित पढ़ रहा हूँ या इतिहास, जीव-विज्ञान पढ़ रहा हूँ या अर्थशास्त्र। पर सुबह उठकर, दाँत माँज कर, कपड़े पहन कर, नाश्ता कर, समय पर कक्षा में पहुँच कर, अपनी जगह पर बैठ कर, और अपने पाठ पर पूरी तरह ध्यान देकर, मैं गणित या इतिहास, जीव विज्ञान या अर्थशास्त्र के अलावा बहुतेरी दूसरी वस्तुएँ भी सीख रहा हूँ। मैं प्रतीक्षा करना और ध्यान से सुनना सीखता हूँ। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह कि मैं तुष्टीकरण को स्थगित करना सीखता हूँ। मैं अपने आपको परिमणात्मक रूप से मापना सीखता हूँ, अगर मैं परीक्षा में अच्छे अंक लाऊं तो मैं बुद्धिमान हूँ, या ऐसा भी है कि अगर मैं कुछ चीजें दूसरे लोगों से पहले कर लूँ। मैं इन परिमाणात्मक मूल्यांकनों का महत्त्व सीखता हूँ, और उन्हें उत्साह और उत्सुकता से ग्रहण करता हूँ- पहली बार ग्रेड ‘सी’ मिलने पर मन और बेहतर करने की कामना से भरता है। परंतु, बाद में यही ग्रेड ‘सी’ मिलने पर मन नैराश्य और अवसाद से भर जाता है, और अंत में पुनः यही ग्रेड ‘सी’ मिलने पर मन थकी हुई स्वीकृति से भर जाता है। अंक, मूल्यांकन, तनख़्वाह, वस्तुएँ, मुझे बताती हैं कि मैं कौन हूँ, मैं कैसा कर रहा हूँ, मेरा मोल क्या है।
टीवी और मनोरंजन, मेरा मन बहलाते हैं और मुझे अनुभव करने का एक मौका देते हैं, परंतु वे मेरी कल्पना को आकार देकर मुझे शिक्षित भी करते हैं, और मेरे प्रेम और कामना की, मेरी घृणा की, जो मैं होना चाहता हूँ, और मुझे कैसे आचरण करना चाहिए, इसकी प्रकट और मूर्त छवि बनाने में मदद करते हैं। मार्केटिंग भी यही करती है, लेकिन कुछ कम प्रभावशाली रूप में। इस सारी ‘प्रोग्रामिंग’ के चलते, मुझे कैसे उत्सव मनाना चाहिए, मुझे क्या पहनना और सुनना चाहिए, मुझे कैसे और किस से बात करनी चाहिए, मैं यह सब जानता हूँ। भले ही मैं कक्षा में रहूँ, या दोस्तों के साथ रहूँ, या नौकरी पर रहूँ, अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ रहूँ, फिल्म देखूँ, वीडियो गेम खेलूँ, मुझे, कभी सीधे और प्रत्यक्ष रूप से और कभी अप्रत्यक्ष रूप से, निरंतर यही संदेश मिल रहा है, ‘आत्म’ से ऐसे रहा जाता है! मेरे जीवन का ढर्रा, मेरे ‘आत्म’ का रूप, पूर्वस्थापित है और पहले से ही मेरी प्रतीक्षा में है।
मेरे जीवन का यह ‘पूर्वनिर्मित’ चरित्र आता है जिसे फूको कहते हैं, सामूहिकता पर ‘अनुशासनात्मक शक्ति’ या शासकत्व से। जैसे ही मैं इन संस्थानों (स्कूलों, नौकरियों, घरों, सरकारी निकायों, दवाखानों, मनोरंजन स्थलियों, आदि) से निकलता हूँ, जो मेरे जीवन को आकार देते हैं। मैं अपने आपको विवशता और चुनाव, कामना और आवश्यकता के पेचीदा जाल में उलझा हुआ पाता हूँ। मैं विशेषज्ञों और विद्वत्तों जो कि मुझे समाज का एक स्वस्थ, आनंदित, उत्पादनकारी और सुसमन्वित सदस्य बनने में मेरी मदद के लिए हैं, से मिलता हूँ। मनोविज्ञानियों और चिकित्सकों ने, उदाहरण के लिए, हमारे मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर चरणों का ब्यौरा तैयार कर लिया है, और इन चरणों में हमारे जीवन और ‘आत्म’ को मापने के लिए अद्भुत रूप से कारगर यंत्र बना लिए हैं। बाजार और मनोरंजन उद्योग ने कड़े श्रम से, वस्तुओं का निर्माण करके एक ऐसा जगत खड़ा कर दिया है, जो हमारे द्वारा ग्रहण किए गए उत्पादों और ब्रांड के जरिये, हमारे द्वारा सुने गए संगीत के जरिये, हमारे द्वारा देखी गयी फिल्मों के जरिये, हमें आत्म-अन्वेषण और आत्म-अभिव्यक्ति में मदद करता है। ये उद्योग, विशेषज्ञ, विद्वत्त, और संस्थान मुझे अपने ‘आत्म’ की खोज, उसे चरम पर ले जाने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए ‘धकिया’ कर मेरा पथ प्रदर्शन करते हैं, ”अनुशासनात्मक शक्ति का प्रधान कार्य है ‘शिक्षित’ करना... अनुशासन व्यक्ति को ‘बनाता’ है“ (फूको 1979/170)। ये सारे संस्थान और विशेषज्ञ मुझे ‘आत्म’ से रहने के लिए शिक्षित करते हैं।
इस शिक्षण प्रक्रिया के केंद्र में है, वह तरीका, जिससे वह अपना ध्यान, मुझ पर (और आप पर और बाकी सब पर भी) एक नियंत्रण और ज्ञान, दोनों का वस्तु के रूप में केन्द्रित करता है। अनुशासन, संस्थागत रूप में शक्ति का वह रूप है, जो सतर्कता से निगरानी रखता है, जाँचता है, दर्ज करता है, और मापता है। वह ऐसा करता है ताकि वह मुझे अपना पूर्ण, ‘उत्पादनकारी संभाव्य’ अर्जित करने में मदद कर सके। पर ऐसा करने में, वह काफी हद तक मेरे आचरण को नियंत्रित करता है और मेरे समय को ढांचागत बनाता है ताकि, मैं उसका भरपूर उपयोग कर सकूँ। वह सबके समय और आचरण को सुव्यवस्थित कर देता है ताकि वह सबकी एक दूसरे से तुलना कर सके और इस बात का अंदाजा लगा सके कि इनके लिए किस प्रकार की वृद्धि और विकास सामान्य है। इसका परिणाम है ”केलकुलेबल मानव“ एक अत्यधिक अनुशासित प्राणी, जो बहुत सक्षम है पर साथ ही साथ अत्यंत आज्ञा-परायण भी (फूको 1979, 193य 135-69)। फूको इसको ‘प्रसामान्यीकरण’ की प्रक्रिया कहते हैं (फूको 1979,177-84)। कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘प्रसामान्यीकरण’ की यह प्रक्रिया, उत्तरोत्तर व्यापक और संघनित होती जा रही है, भले ही वह कम से कमतर प्रत्यक्ष और अंतर्वेधी हो रही हो। निगरानी अधिक से अधिक रूप में दक्ष और सूक्ष्म होती जा रही है (सुरक्षा कैमरे मुझे सार्वजनिक स्थानों पर दर्ज कर लेते हैं, स्पायवेयर मेरी इंटरनेट की गतिविधियों पर निगरानी रखता है, नौकरी में मेरा बॉस, कभी भी मेरे कंप्यूटर का निरीक्षण कर सकता है, मोबाइल फोन पर मेरी बातचीत, कोई भी छुप कर सुन सकता है, विक्रेता मेरी पसंद और मेरे क्रय-विक्रय के व्यवहार का लेखा-जोखा रखते हैं, ताकि मुझे लक्ष्य करते हुए विशेष परिकल्पित विज्ञापन दे सकें)। अब यह चौंकाने वाला सत्य है कि जीवन की स्वतंत्रता और उन्मुक्तता अब कम से कमतर होती जा रही है- नई संचार तकनीकें मुझे मेरे दफ्तर से जरूर मुक्त कर दें, पर वे ऐसा हर स्थान को एक अन्तःसम्बद्ध संजाल का हिस्सा बना करती हैं, अतः मैं प्रकट रूप में कार्यालय से कार्यमुक्त होने के बावजूद हमेशा नौकरी पर हूँ। बच्चों का जीवन तो पहले से और भी ज़्यादा अनुशासित हो गया है, वैज्ञानिक रूप से परिकल्पित उन्नतिशील खिलौनों से लेकर ढांचागत, सुव्यवस्थित और पर्यवेक्षित ‘क्रीड़ा’ समूहों और उन्नतिशील गतिविधियों तक, अब उनका समय अधिक से अधिक व्यस्त हो गया है।
कुल मिलाकर इन सारे उदाहरणों में, मैं उस तरह शासित नहीं हूँ, जिसमें मैं दमित या उत्पीड़ित लगूँ। इसके बदले, अनुशासन मुझे और उत्पादनकारी बनाता है, यह मुझे शिक्षित करता है, और जीवन जीने की मेरी क्षमताओं को अपने ही हित में विकसित करता है जिसका मेरे लिए प्रतिरोध करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि यह मुझे यही प्रतीति देता है कि यह सब मेरे पक्ष में है, यह मुझे मेरा जीवन जीने के लिए संसाधन देता है। हालाँकि, ये तमाम वस्तुएँ, मुझे गढ़ती हैं, मेरे जीवन को एक निश्चित आकार और व्यवस्था देती हैं, और मुझे यह विचार बनाने में मदद करता है कि मैं कौन हूँ और मुझे कैसे चीजों का क्रियान्वयन और अनुभव करना चाहिए, कई बार मुझे यह अनुभूति होती है कि यह यथार्थ में, मैं नहीं हूँ।
इस अनुशासनात्मक संदर्भ में हम उस ‘आत्म’ के लिए ‘भीतर’ की ओर देखने का निर्णय लेते हैं, वह ‘आत्म’ जो न गढ़ा गया है या किसी के अनुरूप ढाला गया है, और न ही जो अनुशासित है। पर इस क्षण में भी, हम अपने ‘आत्म’ से कतिपय विशिष्ट तरीकों से सम्बद्ध होने के लिए शासित या शिक्षित हैं। सिर्फ यह विचार भी, कि हमारे भीतर एक ईमानदार ‘आत्म’ है, जो सतह के भीतर प्रतीक्षा करता है, अपने आप में एक विशिष्ट प्रकार का ‘आत्म’ से ‘आत्म’ का संबंध है, जैसा कि हमने पहले दर्ज किया है। फूको इस प्रकार की ‘आत्मपरकता’ को ”व्याख्यात्मकता“ या ‘कनफेशनल“ कहते हैं, क्योंकि यह आत्म-व्याख्या (”व्याख्यात्मकता“, व्याख्या की कला है) और आत्माभिव्यक्ति (कनफेशन, यह अभिव्यक्ति या सम्प्रेषण की वह कला का अभ्यास है, जो कहने में कठिन, पर आवश्यक है।) की गतिविधियों से बनी है। फूको का सूत्र यह है कि, व्याख्यात्मकता और कनफेशन न तो आंतरिक सत्य को पहचानते हैं और न ही अभिव्यक्त करते हैं। बल्कि, इन गतिविधियों के अभ्यास से, हम विशिष्ट प्रकार के ‘आत्म’ में ढलने के लिए तैयार कर दिए जाते हैं।
कनफेशन ने अपना प्रभाव दूर तक और व्यापक रूप से फैलाया है। यह न्याय, चिकित्सा, शिक्षा,पारिवारिक सम्बन्धों, और प्रेमसम्बन्धों, दैनंदिन के कामों, और विधिवत धार्मिक अनुष्ठानों में भी, अपनी भागीदारी करता है, कोई अपने अपराधों की स्वीकारोक्ति करता है, स्वयं के पापों के, स्वयं के विचारों और कामनाओं के, स्वयं की बीमारियों और समस्याओं को व्यक्ति बतियाता चलता है, गहन प्रासंगिकता के साथ, वह सब कुछ भी, जो बताना सबसे कठिन है... पाश्चात्य मानव असाधारणरूप से कनफेशन करने वाला मानव बन गया है।
व्याख्यात्मकता और कनफेशन के विषय उस जाल में गिरते हैं जो हमने ऊपर देखे हैं। हम उस ‘आत्म’ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर के, जो कि व्याख्या और कनफेशन से प्रकट होता है, हम यह देखने में विफल हो जाते हैं कि किस तरह यही तमाम गतिविधियां हमें परिभाषित करती हैं और हमें उस प्रकार के व्यक्ति में ढालती हैं जो हम हैं। यद्यपि, अनुशासन हमें सँजोता है और व्यवस्थित करता है, व्याख्यात्मकता और कनफेशन हमारी आत्मपरकता को आकार देते हैं।
आत्मपरकता और ‘आत्मान्वीक्षण’
अनुशासनात्मक जीवन शैली और व्याख्यात्मकता, और ‘आत्मपरकता’ के कनफेशनल रूप की प्रतिक्रिया में फूको, हमारे जीवन और स्वत्व को आकार देने के बारे में एक वैकल्पिक सोच के यथोचित तरीके का प्रस्ताव रखते हैं। जैसा कि हमने पहले देखा है, फूको के लिए आत्मपरकता कोई वस्तु नहीं है, बल्कि ‘हम’ हैं, यह एक गतिविधि है, जिसे ‘हम करते’ हैं। यही वह ‘सार’ है जो हमारे भीतर की चेतना को ‘वयम’ बनाता है। आत्मपरकता संबंधात्मक है, गतिशील और अधीर है, संभवतः उछृृंखल और अननुमेय भी है। परंतु, अगर ‘आत्मपरकता’ एक सक्रिय रूप से ‘हो जाना’ है, बजाए जड़ होने के, तब स्वयं को ढूँढने की या खोजने की कठिन चेष्टा, सत्व या पदार्थ के रूप में- व्यर्थ है। और इसके साथ, हम अपना ध्यान इस ‘आत्म’ पर केन्द्रित करके और अपनी ऊर्जा इस ‘आत्म’ को ‘अभिव्यक्त’ करने में, हम अपने आत्मपरक अस्तित्व को अनदेखा करते हैं जिस पर अनुशासनात्मक शिक्षण और प्रसामान्यीकरण की गतिविधियों ने आधिपत्य जमा लिया है।
अतः आत्मपरकता की व्याख्या और विश्लेषण करने के लिए, फूको उस गढ़ंत की ओर मुड़ते हैं, जिसे वे ‘आत्मान्वीक्षण’ कहते हैं, जो उनका ग्रीक और रोमन दर्शन में नियमित रूप से आने वाले पद (epimeleia heautou) का अनुवाद है। फूको ‘आत्मान्वीक्षण’ को ‘कनफेशनल आत्म’ और ‘व्याख्यात्मक आत्म’ के बरक्स रखते हैं। व्याख्यात्मक और कनफेशनल ‘आत्मपरकता’ इस आदेशक से प्रभावित हैं, ”आत्म को जानो“। प्राचीन जगत में, दूसरी तरफ, आत्मपरकता इस आदेशक पर निर्भर है, ”अपने को संभालो, सहेजो”। फूको यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि ‘आत्मान्वीक्षण’ का ढांचा, ‘स्वयं’ के बारे में, एक भरेपूरे और समृद्ध रूप से सोचने के तरीके को, और साथ ही साथ सक्रिय रूप से ‘स्वयं’ के ‘होने’ को, संभव बनाता है। प्राचीन दार्शनिकों के लिए, ‘आत्मपरकता’, आत्म-ज्ञान का रूप नहीं था, बल्कि आत्म-ज्ञान की खोज, उसी हद तक की जाती थी, जहां तक उसकी आवश्यकता ‘आत्मान्वीक्षण’ के लिए जरूरी थी। आत्म-ज्ञान की खोज, ‘आत्मान्वीक्षण’ के मूलभूत प्रयास में सिर्फ एक संभावित, परंतु हमेशा सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व नहीं था। तो, अगर ‘आत्मान्वीक्षण’ आत्म-ज्ञान से पूर्णतया परिभाषित नहीं है, तो फिर इसमें और क्या शामिल है? ‘आत्मान्वीक्षण’ उससे बना है, जिसे कभी कभार फूको ‘आत्म की तकनीकें’ या ‘जीने की कलाएँ’ कहते हैं।
जब फूको, ‘आत्म’ या जीवन की ”तकनीकों“ या ”कलाओं“ की बात करते हैं, तब वे ग्रीक शब्द ‘टेक्ने (techne) का आश्रय ले रहे होते हैं, जो अंग्रेजी के शब्द ‘technology’ का व्युत्पत्ति मूलक से संबंध शब्द है। ‘टेक्ने (techne)’का अनुवाद अक्सर ‘तकनीकी जानकारी’ या ‘कला’ या ‘शिल्प’ के रूप में होता है। ‘टेक्ने (techne) एक प्रकार का ज्ञान है, जो किसी को कार्यविशेष या निर्दिष्ट परिणाम तक पहुँचने में मदद करता है। प्राचीन दार्शनिक अक्सर दर्शन को technetou bio- यानी जीने कि कला मानते थे (फूको 2005/, 177-8)। दर्शन की कल्पना एक महान, सुंदर, और सच्चे जीवन की उत्पत्ति की कला या शिल्प के रूप में की जाती थी
(प्राचीन ग्रीक लोगों के लिए, शिवम, सुंदरम, और सत्य एक समान माने जाते थे)। इस ढांचे में, ‘आत्म’ को एक कला कृति समझा जाता था जिसे मनुष्य स्वयं गढ़ता है।
फूको की ‘आत्म’ की ‘कलाओं’ या ‘तकनीकों’ की अवधारणा और जीने की कलाओं का, कलाकार और उसकी अपनी कृति से संबंध की बहुत सामान्य और तत्वतः आधुनिक अवधारणा से कोई लेना देना नहीं है। हम अक्सर कला को आत्माभिव्यक्ति के रूप में देखते हैं, पुनः हमारे भौतिक, बुनियादी आत्म के पूर्वानुमानों पर आश्रय लेते हुए। जब हम इस प्रवृत्ति के बहकावे में आ जाते हैं, तब हम कला और कलाकृतियों की गतिशील उत्पत्ति को समझने में चूक जाते हैं। हम, कलाकार कैसे काम करके अपनी कला कृति रचते हैं, इसका मूल्यांकन करने में विफल हो जाते हैं, और हम यह भी समझने में विफल हो जाते हैं कि, किस तरह कलाकार, सही अर्थों में, कलाकार बनते हैं। फूको के लिए, कला या techne रचनात्मक श्रम या काम में कार्यान्वित होती है (ग्रीक समाज इस प्रकार के श्रम को ‘पोएसिस’ ‘poiesis’ कहता था, जो कि अँग्रेजी के शब्द ‘पोएट्री-poetry’ का मूल शब्द है। किसी ‘कथ्य’ या ‘निष्कर्ष’ के प्रस्तुतीकरण में, कुछ अति सटीक और सुव्यवस्थित प्रक्रिया का निष्पादन आवश्यक है, प्रक्रिया जिनमें एक विशिष्ट प्रकार की जानकारी और ज्ञान की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, एक कलाकार के लिए यह जानना अत्यावश्यक है कि, जो विशेष रंग वह अपने चित्रनिर्माण के लिए इस्तेमाल कर रहा है, वह उस सतह पर, जिस पर वह चित्रांकन कर रहा है, कैसे लगेगा या सोखा जाएगा, क्योंकि जिस तरह से, वह रंग जो वह कृति के निर्माण में उपयोग में ला रहा है, उस सतह पर चिपकेगा या सतह के द्वारा सोखा जाएगा, वह उस चित्र को अंतिम आकार देगा। अगर कोई कलाकार किसी ‘कृति’ का निर्माण किसी एक ‘विचार’ से प्रारम्भ करता है, परंतु उसे रंगों को मिलाने का, या किस प्रकार का रंग किस सतह पर इस्तेमाल किया जाता है, इसका ज्ञान नहीं है, तब वह अपने ‘विचार’ को कार्यान्वित नहीं कर सकेगा नतीजतन, वह अपनी कृति नहीं ही रच पाएगा। कलाकार के लिए कला का ज्ञान ठीक उस प्रकार का ज्ञान नहीं है, जो कि मुख्यतः सिर्फ अध्ययन से अर्जित किया जाता है। यह मूलतः कोरा ‘सैद्धान्तिक’ ज्ञान नहीं है। निस्संदेह, तैल-रंगों के पीछे के रसायन विज्ञान और उनके लकड़ी पर चिपकाने के गुणधर्म को सीखना सहायक हो सकता है, परंतु रंग के रसायनशास्त्र को पढ़ने की परिणति कला में नहीं होती है। बल्कि, कला को अर्जित करने के लिए, कलाकार के लिए यह अत्यावश्यक है कि वह सतह पर रंग के साथ प्रयोग करे और उसके बोध और रूप को अनुभव करे, कुल मिलाकर रंग संबंधी रसायन विज्ञान का कितना भी गहन अध्ययन इस प्रकार का ज्ञान नहीं दे सकता। सिर्फ रंगों के मिश्रण से, विशेष कूची और चित्र बनाने की सतह के चयन से, और रंगों के सतह पर लगाने से, कलाकार, कला-techne की शुरुआत करता है जो कि एक चित्र चित्रित करने के लिए आवश्यक है, और जो एक कलाकृति रचने के लिए तो अत्यंत आवश्यक है। परंतु, व्यक्ति चित्रांकन तो, चित्र बनाकर ही सीखता है। यहाँ अनुभव महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
कृति की कलात्मकता इन उपर्युक्त गतिविधियों से व्युत्पन्न होती है और, उस ज्ञान से, जो उन्हें संभव बनाता है, और इसके अलावा और महत्त्वपूर्ण रूप से, तो वह सब उस के ‘भीतर’ से ही आता है। निस्संदेह, चित्रांकन सिर्फ रंगों और सतहों के अध्ययन से कहीं अधिक है। उन तमाम चिंताओं के अलावा, जो एक कलाकार के कलाकर्म में आती हैं, उनमें कुछ ऐसे प्रधान तत्व हैं जिन पर हम बहैसियत दर्शक ध्यान केन्द्रित करते हैं, कृति का रूप या शैली और उसका ‘कथ्य’ या ‘अर्थ’। हम उस कलाकृति को पूर्ण कहते हैं, जो उस सब को अक्षुण्ण रूप में क्रियान्वित कर दे, जिसे हम कलाकार की ‘कल्पना शक्ति’, उद्देश्य या सौन्दर्य विषयक ‘विचार’ यानि एस्थेटिक विजन कहते हैं। कला के आत्माभिव्यक्ति के रूप की दृष्टि से, हम यह मान कर चलते हैं कि ‘कल्पना शक्ति’, ‘उद्देश्य’, या ‘विचार’ अभिव्यक्त करता है कि सच में कलाकार कौन है। तब कृति को कलाकार के कनफेशन के रूप में देखा जाता है, और चित्र का अर्थ व्याख्यानात्मक रूप से निकाला जाता है, प्रकट कथ्य के परोक्ष रूप से काम करते हुए। अप्रकट मन्तव्य, कल्पना, उद्देश्य, या विचार जो ‘स्व’ (आत्मा, मन, मस्तिष्क) में निवास करता है। परंतु, आकार, शैली और कथ्य भी कला के उसी श्रम के उतने ही फल हैं, जितने कि वे उसके निदेशक सिद्धान्त या स्रोत हैं। किसी कलाकार का वास्तव में किसी पूर्ण कृति को देखना, कल्पना करना या उसका संकल्पन, चित्रांकन के ठोस अभ्यास के द्वारा माध्यम की संभावनाओं को सीखने के परिणामस्वरूप है। निश्चित रूप से, हम सभी, कला के संभावित विषयों को देखकर और विशेष तौर पर दूसरों की कृतियों का सूक्ष्म अध्ययन कर के एक कलाकृति, जो कि अस्तित्व में नहीं है, उसकी कल्पना करने की क्षमता प्राप्त करते हैं। पर, हमारे पास एक कार्यान्वित की जा सकने वाली सौंदर्य दृष्टि या विचार तब तक नहीं आता है, जब तक कि हम स्वयं उस माध्यम की जिसमें हम काम करना चाहते हैं, वास्तविक संभावनाएं और सीमाएं न सीखें, और यह सिर्फ चित्रांकन के अभ्यास के द्वारा ही सीखा जा सकता है। उद्देश्य, विचार, और दृष्टि अभ्यास और कला के प्रतिफल हैं, उसके कारक नहीं। वास्तविक श्रम से कलाकार की दृष्टि स्वयं रूपांतरित होती है, गहराती है, या संघनित होती है। वस्तुतः कलाकार स्वयं एक उतनी ही कला कृति है, जितनी कि कृति के रूप में वस्तु को वह प्रस्तुत करता है। हम कला की गतिविधियों के कठोर अभ्यास तपस्या से ही ‘दृष्टि’ जैसा ‘कुछ’ अर्जित करते हैं, और एक वास्तविक, अर्थपूर्ण, और क्रियान्वित किए जा सकने वाले कलागत विचार या उद्देश्य में सक्षम होते हैं।
अब हम यहाँ इस बिन्दु पर विचार करें कि, कला के बारे में यह विमर्श, ‘आत्म’ के ‘आत्म’ से संबंध पर किस प्रकार लागू होता है? ‘आत्म’ किस तरह, स्वयं को और स्वयं के जीवन को कला-कृतियों के रूप में आकार देता है? फूको, प्राचीन दार्शनिकों की कृतियों में, ‘आत्म’ की और जीवन की कलाओं के बहुतेरे उदाहरण खोज लाते हैं। फूको के लिए, इन अभ्यासों का अध्ययन, हमें नाना प्रकार की तकनीकों का संसाधन मुहैया कराता है, जिन्हें हम हमारे अनुकूल बना कर प्रयोग में ला सकते हैं। इसके आगे हम संक्षिप्त में ‘आत्म-परिष्कार या आत्म-प्रक्षालन’ की कुछेक तकनीकें देखेंगे और परखेंगे, जो प्राचीन दर्शनिकों द्वारा विकसित की गई हैं। यह हमें, ‘आत्म’ और जीवन की कलाएं कैसे प्रतीत होती हैं, यह समझने के लिए एक स्पष्ट योजना देगा। हम यह भी देखेंगे कि किस तरह फूको का काम स्वयं, ‘आत्म’ की कलाओं से संरचित है जिनका वे विशिष्ट अभ्यास करते हैं, ताकि वे स्वयं, अपने ‘आत्म’ से एक प्रकार का अंतर्विरोध रहित संबंध स्थापित कर सकें, और एक विशेष प्रकार के दार्शनिक बन सकें।
चलिये, पहले देखें, अंतश्चेतना की जांच-पड़ताल के प्राचीन अभ्यासों के कुछ उदाहरणों को। उदाहरण के लिए, फूको का बखान देखें कि, किस तरह मार्कस औरेलीअस (सन 161 से सन 180 तक राज्य करने वाले दार्शनिक रोमन सम्राट और ‘मेडिटेशन्स’ नामक दर्शन की पुस्तक के रचयिता-अनु), अंतश्चेतना की पूर्वानुमानित, जांच पड़ताल के साथ अपने दिन की शुरुआत करते हैं : इस जांच पड़ताल में यह कतई सम्मिलित नहीं है कि कल रात, या उसके पहले दिन क्या किया जा सकता था यह, जो तुम करोगे, उसका अन्वेषण है... इसमें उन गतिविधियों की, जिन्हें तुम करोगे, की पूर्व मीमांसा सम्मिलित है, तुम्हारी प्रतिबद्धताएँ, तुम्हारे द्वारा की गई नियुक्तियाँ, कार्य, जिन का तुम्हें सामना करना पड़ेगा, उस व्यापक लक्ष्य का स्मरण रखते हुए, जो तुमने इन गतिविधियों के द्वारा अपने लिए निर्धारित किया है और उन व्यापक लक्ष्यों को भी जो जीवन भर तुम्हारे मानस में होने चाहिए। और इसके साथ ही, वे सावधानियाँ भी, जो बरती जानी हैं, इन सटीक उद्देशों और व्यापक लक्ष्यों के अनुसार उन परिस्थितियों में कार्य करने के लिए जो कि उदीयमान होंगी।(2005/481)
इस तकनीक के द्वारा, ‘आत्म’ का ‘आत्म’ से जो संबंध स्थापित होता है, वह सैद्धान्तिक रूप से न तो विवेचनात्मक है और न ही स्वीकृतिमूलक। इनके बजाय, यह तैयारी और स्मृति का रूप है। मुझे अपने सिद्धान्त और लक्ष्य याद रखने ही चाहिए, मुझे दिन की आने वाली घटनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि मैं वही न भूल जाऊँ, जो मैं हासिल करना चाहता हूँ। इसी रौ में, फूको आत्मान्वेषण के एक रूप का वर्णन करते हैं जो सेनेका के लेख में मिलता है। इस उदाहरण में, सेनेका, दिन के अंत में कुछ समय यह याद करने और उसे दर्ज करने के लिए निकालते हैं कि आज आखिर उन्होंने दिन भर क्या किया। एक बार फिर, इस गतिविधि में उनका मुख्य लक्ष्य और केंद्रबिंदु, अपने किए हुए कार्य के किसी छुपे हुए मन्तव्य को पहचानना नहीं है, और न ही उनका प्रमुख उद्देश्य अपने कार्यों पर फैसला देना है (हालाँकि वे इस प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए विधि की भाषा का इस्तेमाल जरूर करते हैं )। उनके कार्यों में ‘आत्म’ का कोई अप्रकट भाव नहीं दिखता है, जो उन्हें अर्थ प्रदान करता हो। सर्वप्रथम, उनकी गतिविधि एक प्रकार की प्रशासकीय या ‘लेखा-जोखा’ रखने वाली गतिविधि है, बहीखातों को जोड़ कर देखते हुए कि आज का दिन कैसा गया। वे इस कला का बखान, उस दिन की अपनी गतिविधियों के एक प्रकार के निरीक्षण के रूप में करते है, यह देखने के लिए कि उन्होंने जो कुछ उस दिन किया वह उतनी ही अच्छी तरह किया जितना कि वह संभव था और यह सीखने के लिए कि वे भविष्य में कैसे भूलों से बच कर भविष्य में बेहतर बन सकते हैं। मार्कस औरेलीअस के प्रातः निरीक्षण की तरह, सेनेका का सायं निरीक्षण भी ऐसा ही है।
सायं निरीक्षण मूल रूप से, कार्य के उन लक्ष्यों के मूलभूत नियमों के पुनर्सक्रियण की परीक्षा है, जो हमारे मानस में होने चाहिए, और उन साधनों की, जो हमें इन लक्ष्यों को पाने में इस्तेमाल करने चाहिए और उन तात्कालिक उद्देश्यों की जो हम अपने लिए निर्धारित करते हैं। अंतश्चेतना की जांच पड़ताल,उस हद तक,एक स्मृत्याभ्यास है, न केवल इस संबंध में कि आज दिन भर में क्या हुआ, बल्कि उन नियमों के संबंध में भी जो कि हमारे मानस में हमेशा होने चाहिए। (2005/483)
मार्कस औरेलीअस और सेनेका, दोनों में अंतश्चेतना की जांच-पड़ताल आत्मपरकता की निर्मिति के लिए, ‘आत्म’ की रचना के लिए एक कला है। यह पूर्व-जीवित पदार्थ या सत्व खोजने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह ‘एक प्रकार के व्यक्ति’ बनने की कोशिश का हिस्सा है, ताकि व्यक्ति के जीवन को एक विशिष्ट रूप दिया जा सके, ताकि ‘आत्म’ से ‘आत्म’ के संबंध को आकार दिया जा सके, अधिक गहरा बनाया जा सके, संघनित किया जा सके, और विकसित किया जा सके। आत्म-परीक्षण की यह तकनीकें, इस अर्थ में आत्मान्वीक्षण के तरीके हैं कि, वे हमारे आत्म की निर्मिति की गतिविधि में सहायता करते हैं, जो हम बनने की कामना करते हैं या जो हमें बनना आवश्यक है। मार्कस औरेलीअस और सेनेका दोनों ही उस जीवन सामाग्री को लेते हैं, उन सारे तत्वों -विचार और भावनाएँ, क्रियाएँ और संबंध, और आदि आदि-को लेते हैं जिनकी समीक्षा हमने इस निबंध के प्रारम्भ में की थी। वे घटनाओं और गतिविधियों के आवेश में, विचारों के अनवरत प्रवाह में, निर्णयों विकल्पों में से, और जीवन में से एक सुनिश्चित ‘रूप’ गढ़ने की कोशिश करते हैं और आत्म से संबंध को आकार देते हैं। इस कवायद का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि मैं पूरी तरह अपनी जड़ से उखड़ कर घटनाओं के बहाव में न बह जाऊँ, बिना कभी ‘उसकी’ झलक भी पाए या उस पर पकड़ मजबूत किए, जो कि जीवन के लिए सार्थक है और साथ ही साथ मैं अपने ‘आत्म’ का कुछ बना सकूँ। इन दार्शनिकों की तरफ मुड़ने में, फूको का प्रयोजन हमें यह समझाने के लिए नहीं है कि हम इन निर्गुणी दर्शनिकों का जीवन पुनः जिएँ। बल्कि, फूको के काम का भाव हमें आत्मपरकता के व्याख्यानात्मक और कनफेशनल अभ्यासों से विलग करता है, यह दिखाने के लिए कि ‘आत्म’ पदार्थ या सत्व नहीं है, बल्कि एक कला-कृति है, और हमें कई कलाओं का स्वाद चखाने के लिए, और इसके परिणामस्वरूप स्वयमेव बहुतेरे प्रकार के ‘आत्म’ जिनका हम अभ्यास कर सकते हैं। इस रूप में, फूको का अध्ययन हमें नए संसाधन और नई तकनीकें देता है, जिनका हम इस्तेमाल कर सकते हैं, भले ही हम निर्गुणी जीवन और जीवन में निर्गुणता के लक्ष्यों को समग्रता से न अपनाएं।
‘आत्म’ और जीवन की सारी कलाएं, ‘आत्मान्वेषण’ का रूप नहीं हैं। उदाहरण के लिए, प्राचीन दर्शन की एक प्रधान धारा ‘आत्म’की कला, प्रकृति और बाह्य यथार्थ से सम्बद्ध है। प्रकृति का चिंतन, ‘आत्म’ के स्वयं से संबंध पर एक शक्तिशाली और परिवर्तनकारी प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए, सेनेका एक प्रकार के प्रकृति दर्शन का अभ्यास करते थे, जो उन्हें एक उच्चतर परिप्रेक्ष्य देता था, जहां से वे स्वयं का और जीवन का अवलोकन करते थे (2005/275/85)। जब हम घटनाओं के मध्य में उलझ जाते हैं- नौकरी या शिक्षा के दबाव, सम्बन्धों, धन, स्वास्थ्य, और आदि आदि- दैनंदिन जीवन की चिंताएँ सर्वग्रासी बन जाती हैं। हम स्वयं को अपनी समस्याओं और चिंताओं में खोया हुआ पाते हैं, हमारे सम्बन्धों या हमारे काम में हमारी तन्मयता, कई तरीकों से हम पर प्रभाव डालती है और नियंत्रण से बाहर होते जीवन और आत्म को नष्ट कर देने वाली यह चिंता, आत्मनाशी आदतों और व्यवहार में परिणित होती है। परंतु, ब्रह्मांड की भव्यता और अनंतता का चिंतन करके, हम स्वयं को दैनंदिन की दुनियादारी से ऊपर उठाते हैं। तब वहाँ से नीचे देखते हुए, हमे ब्रह्मांड को उसके बड़े, सच्चे, और ब्रह्मांडीय परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। तब हमारा रोजमर्रा की व्यस्तताओं का संसार, समय की व्यापक अनंतता में एक निमिष की तरह यथार्थ में प्रकट होता है, धूल का एक कण मात्र जो कि अंतरिक्ष के अनंत विस्तार में नगण्य, आकाशीय पिंडों के सामर्थ और सुंदरता के सामने तुच्छ। दूसरे प्राचीन दर्शनिकों ने, प्रकृति के चिंतन के अपने अलग रूप विकसित किए, परंतु हर एक प्रकार, अपने आप में, ‘आत्म’ के बनने का माध्यम बना, आत्म को उसकी मजबूरियों और भयों से मुक्त करता हुआ, अत्यावश्यक समस्याओं से उद्वेलित मस्तिष्क को शांत करता हुआ, तुच्छ माँगों, व्याकुलताओं और प्रलोभनों के लगातार आक्रमण से विछिन्न इच्छाशक्ति को सुदृढ़ बनाता हुआ। फूको के लिए, यह ‘आत्म’ की कला दिखाती है कि, यह जरूरी नहीं है कि आत्मपरकता का अभ्यास हमारी दृष्टि को आवश्यक रूप से अंदर की ओर मोड़ दे और अंदरूनी जीवन पर केन्द्रित हो और उसका तात्विकीकरण कर दे। बल्कि, जीवन की ये, वे सशक्त कलाएं हैं, जो हमें जगत के ऊपर प्रक्षेपित करतीं हैं, और हमें आत्मान्वेषण और आत्माभिव्यक्ति के बारे में हमारी पूर्वधारणाओं से विलग करती हैं। प्राकृतिक जगत या इतिहास और समाज पर हमारा ध्यान ‘स्वयं’ से ईमानदार होने में शामिल है- दूसरे शब्दों में, हमारे ध्यान को अंदर के बजाए बाहर की ओर मोड़ता है।
आत्म की निर्मिति
फूको का प्राचीन दर्शन में ‘आत्मान्वीक्षण’ और आत्म की कलाओं का अध्ययन, इन गतिविधियों का लेखा-जोखा और विश्लेषण मात्र नहीं है। दरअस्ल, यह स्पष्ट है कि फूको, अपनी सारी दार्शनिक गतिविधियों की तरह, इस अध्ययन में भी, स्वयं की आत्मनिष्ठता को बनाने के सक्रिय अभ्यास में संलिप्त थे। अगर हम फूको के काम के विचलन का निरीक्षण करें, तो हम देखते हैं कि दार्शनिक विचार के श्रम से, फूको ने दार्शनिक चिंतन के अभ्यास की एक कला विकसित की, जिसने उनके स्वयं के लिए एक निश्चित दृष्टि और स्वयं से संबंध के सूक्ष्म स्रोत का काम किया। उन्होंने दार्शनिक होने के एक विशिष्ट तरीके को मूर्त किया। यहाँ पर एक तरीका है जिसमें वे, एक कला के रूप में स्वयं को मूर्तता देने के स्वयं के प्रयासों का वर्णन करते हैं।
जिसने मुझे प्रेरित किया, वह काफी सरल है। मैं आशा करता हूँ कि कुछ लोगों की दृष्टि में वह अपने आप में वह पर्याप्त होगा। यह उत्सुकता थी- सिर्फ उस प्रकार की उत्सुकता, जो किसी भी स्थिति में, एक अड़ियल रवैये के परिमाण में क्रियान्वयन के लायक है। वह उत्सुकता नहीं, जो किसी व्यक्ति के लिए क्या जानना उचित है, उसे आत्मसात करने के लिए ढूंढती है, बल्कि वह उत्सुकता जो व्यक्ति को स्वयं से ‘मुक्त’ करने में समर्थ बनाती है। आखिरकार, ज्ञान के लिए वो जुनून ही क्या, जिसकी परिणति सिर्फ कुछ मात्रा की सुविज्ञता में हो, न कि, एक या दूसरे रूप में और जहां तक संभव हो सके, ज्ञाता के खुद से ही विषय के भटकाव में? (1990/8)
फूको का ‘आत्मान्वीक्षण’ बहुतेरी कलाओं से अंतसंर्बंध रखता था मसलन-पठन-पाठन, लेखन, शिक्षण, चिंतन के सहित। परन्तु इन्हीं तक सीमित नहीं- जो उन्हें स्वयं से ‘मुक्त’ होने की अनुमति देता था। दर्शन फूको के लिए मुख्यतः, ज्ञान या आत्म-ज्ञान का रूप नहीं था बल्कि, ”विचार की प्रविधि में आत्म की कसरत थी“ (1990/9 )। इस प्रकार की कवायद का क्या परिणाम था?
व्यक्ति, स्वयं के दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए, स्वयं के ज्ञान की सीमाओं में परिवर्तन के लिए और उन सीमाओं से बाहर निकलने का जोखिम उठाने में, जो प्रयास करता है, उनमें एक उपालंभ है। क्या मेरे प्रयास चिंतन के एक किसी अलग तरीके में, यथार्थ में फलीभूत हुए? शायद, अधिक से अधिक, उन्होंने, जो मैं पहले से ही सोच रहा था उसके बीच से जाने को, उसे अलग प्रकार से सोचने के लिए, और जो मैंने किया, उसे एक नए कोण और अधिक स्पष्टता से देखना संभव बनाया। दूर तक चलने से आश्वस्त होने के बाद, व्यक्ति पाता है कि वह स्वयं को ऊपर से देख रहा है, एक तरह का स्वयं का विहंगावलोकन। ऐसी यात्रा, चीजों को पुनर्जीवित कर देती है, और स्वयं के स्वयं से संबंध को वयस्क बनाती है। (1990/11)
स्पष्ट रूप से, ‘आत्म’ से मुक्त होने का यह अभिप्राय नहीं है कि हम ‘आत्म’ का परित्याग कर नए व्यक्ति बन जाएँ, जो भी उस ‘नए’ का अर्थ होता हो। बल्कि, व्यक्ति स्वयं से थोड़ी दूरी और परिप्रेक्ष्य बनाता है, ”वह ऊपर से स्वयं को देखता है“। परंतु, वह ‘आत्म’ कौन है, जिससे वह मुक्त होना चाहता है? जिस ‘आत्म’ से फूको मुक्त होते हैं, वह और कोई नहीं बल्कि यह, वही ‘आत्म’ है जो अनुशासन से बना है, जिसकी आत्मपरकता व्याख्यानात्मकता और कनफेशन के दुहराव से गढ़ी गई है। अनुशासन, कनफेशन, और व्याख्यानात्मकता, एक ऐसे आत्म का निर्माण करते हैं जो विशेष प्रकार से रहता है, जो स्वयं को और जगत को प्रसामान्यीकरण, आत्म-विश्लेषण और ‘आत्माभिव्यक्ति’ के नजरिये से देखता है। जब फूको ‘वैचारिक प्रक्रिया में चेष्टा करते हैं’, वे ‘अलग तरह से सोचने’ का प्रयास करते हैं और अपने को उस कथित ‘अनुशासित आत्म’ से विलग करते हैं, जो वे यहाँ तक आते आते बन गए हैं। ‘आत्म’ की कला या ‘कृति’ ही, वह तपस्या है जिसके द्वारा फूको अनुशासित, व्याख्यानात्मक, और कनफेशनल ‘आत्म’ से एक दूरी का संबंध स्थापित करते हैं। परंतु, अब क्या वे अपने सच्चे ‘स्वत्व’ को पा चुके हैं?
‘आत्म से रहो’, ‘सच से जुड़े रहो’, ‘अपना मार्ग स्वयं चुनो’। फूको का आत्मपरकता का लेखा, इन सारे शब्दों को एक नया अर्थ देता है और यह समझने में हमारी मदद करता है कि जो कार्य वे बताते हैं वे इतने आवश्यक हैं फिर भी इतने कठिन, और अंततः अंतहीन क्यों हैं। ‘आत्म से रहना’ अध्यवसायी प्रयासों और दृढ़निश्चयी कलात्मकता का मुद्दा है, क्योंकि ‘आत्म’ अनवरत बनता रहता है, वह जड़ नहीं है। इसके परिणामस्वरूप, स्वयं के बनने की कला हमेशा कुछ सीमा तक, ‘जो भी अभी तक मैं हूँ वह अब न रहने’ की कला भी है, यही वह एक है कला जो ‘आत्म’ को ‘आत्म’ से विलग करती है ताकि वह स्वयम से एक नया, गहरा और प्रज्ञापूर्ण संबंध स्थापित कर सके जो फिर उसकी स्वयं की आत्म-दूरी को बनाएगा, और मुझे अज्ञात भविष्य की ओर भेजेगा।
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