आलेख आतंकवाद का लोकजीवन पर प्रभावः जम्मू -कश्मीर के संदर्भ में पंकज शुक्ला , शोध छात्रा सा माजिक जीवन को संचाालित करने में वहां के लोक जी...
आलेख
आतंकवाद का लोकजीवन पर प्रभावः जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में
पंकज शुक्ला, शोध छात्रा
सामाजिक जीवन को संचाालित करने में वहां के लोक जीवन की काफी महवपूर्ण भूमिका होती है. साधारण लोग अपने जीवन का ताना-बाना लोक जीवन के धागे से गूंथते हैं. किसी भी सभ्यता का आधार उसकी संस्कृति पर ही टिका होता है. संस्कृति एक व्यापक शब्द है जिसमें उस समाज के विविध रूप शामिल होते हैं. संस्कृति का अर्थ व्यक्ति के परिवेश से है. उसके रहन-सहन, वेश-भूषा व जीवन की पद्धतियों से है. इसमें व्यक्ति के जीवन-मूल्य, परंपरायें, भौगोलिक स्थिति, साहित्य एवं धर्म सभी समाहित हैं. ये वे संस्कृतियां होती हैं, जिसे जन-सामान्य गढ़ता है. समाज में जन-सामान्य अपने को लोक-काव्य में व्यक्त करता है. यह जन-सामान्य अपना जीवन सहज और सरल ढंग से जीता है. लोक संस्कृति इसी की उपज होती है. इसी से निकलती है- उसकी भाषा, पहनावा, गीत, नृत्य, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार और पर्व आदि. प्रत्येक लोक-संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट पहचान होती है, लेकिन उनमें कोई न कोई एक सूत्र भी होता है, जो उन्हें अन्य लोक-संस्कृतियों से जोड़े रहता है.
लोक-संस्कृति की अभिव्यक्ति लोक-साहित्य में होती है. लोक-साहित्य वाचन शैली में होता है. इनको लिपिबद्व करने में एक लम्बा समय लग जाता है. लोक-साहित्य अपनी विभिन्न विशेषताओं के कारण लोकजीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. लोक-संस्कृति का जैसा सच्चा तथा सजीव चित्रण इसमें उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र नहीं. सरलता, स्वाभाविकता और सरसता में यह अपना सानी नहीं रखता. लोक-साहित्य में लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, लोकनृत्य इत्यादि शामिल होते हैं.
लोकगीत जन-सामान्य के गीत होते हैं. इनका कोई आधिकारिक रचनाकार मुश्किल से होता है. ये किसी लय-ताल-छंद में बंधे तो नहीं होते, पर इनमें भी एक विशेष राग होता है. लोकगीत देशज भाषा से निर्मित होते हैं. लोकगीत मानव-मन की सहज और सरल अभिव्यक्ति होते हैं. इनमें सुख-दुख, हास्य-करुणा, हर्ष-उल्लास जैसे भाव आसानी से देखने को मिलते हैं. लोकगीतों के सौन्दर्यमयी चित्रण में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है. नारी चित्रण को इस कारण से भी लोकगीतों में स्थान दिया गया है.
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भारतीय समाज में लेखन परंपरा से अधिक शक्तिशाली विधा वाचन की रही है.लोककथाएं उन्हीं वाचन परंपराओं का एक हिस्सा है. भारतीय समाज एक किस्सागो समाज रहा है जहां सदियों से कथाएं कही जा रही हैं और सुनी जा रही हैं. इनका कोई लिखित साहित्य नहीं रहा है. जनसामान्य उसे सत्य मानकर सुनता भी रहा है. भूत-प्रेत, अन्धविश्वास आदि की धारणा इन लोककथाओं को मनोहारी बना देती है.
मनोरंजन के लिए लोकजीवन अपनी ही कृतियों पर निर्भर रहता है. लोक नृत्य मनोरंजन का एक अनिवार्य साधन है. यह एक ऐसा मंच होता है, जहां पर जन-सामान्य हंसी-हंसी में अपनी गम्भीर बात भी कह देता है. ये लोक नृत्य देश के अंचल के आधार पर विभक्त होते हैं. कुछ नृत्य पूरे प्रदेश या प्रांत में मिलते हैं तो कुछ लोकनृत्यों का आधार पूर्णतः आंचलिक होता है.
लोकजीवन में लोकपर्वों का भी महत्व धार्मिक व राष्ट्रीय पर्वों जैसा ही होता है. लोकपर्व को मनाने का आधार सामाजिक दंत कथाएं हो सकती हैं या प्रकृति से संबंधित कोई घटना हो सकती है. लोकजीवन की प्रकृति से अधिक निकटता होने के कारण, इनमें आंचलिक पुटता भी विद्यमान होती है. लोकपर्व भी आंचलिक ही होते हैं. भारतीय समाज इसी लोक-जीवन पर टिका हुआ है. भारत स्वभाव से एक अध्यात्मिक देश है. भारतीय जीवन-पद्धति धर्म से प्रभावित है. वर्ण व्यवस्था, वर्णाश्रम, सोलह संस्कार सभी धर्म की उपासना से प्रभावित हैं.
लेकिन इसी लोकजीवन को जब विघटनकारी शक्तियां प्रभावित करने लगती है, तो इसका ताना-बाना आसानी से नष्ट भी हो जाता है. युद्व का मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़़ता है, इसका व्यापक अध्ययन हुआ है. इस प्रभाव के मूल्यांकन का आधार वहां के मनुष्यों और भौतिक तत्वों की क्षति से मापा जाता है. अधिकतर अध्ययन इसी बात पर हुआ है कि अमुक युद्व में कितने व्यक्तियों को मृत्यु प्राप्त हुई और कितनी वस्तुएं क्षतिग्रस्त हुईं. यही बात जम्मू-और कश्मीर पर भी लागू होती है.
यह सर्व-विदित है कि जम्मू-कश्मीर पिछले तेईस वर्षों से आंतकवाद का वीभत्स रूप देख रहा है. इस आंतकवाद ने जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक-आर्थिक संरचना को तहस-नहस कर दिया है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में राजनीतिक कारणों से इतने बड़े पैमाने पर कभी व्यक्तियों का पलायन नहीं हुआ है. देश के विभाजन के समय यह त्रासदी भारत देख चुका था.
इस लम्बे आंतकवाद के प्रभाव में केवल जन-धन की ही हानि नहीं होती. नष्ट होने के लिए किसी समाज के पास केवल संपत्ति ही नहीं होती है, एक पूरी की पूरी सभ्यता होती है, उसका सांस्कृतिक जीवन होता है, लोक जीवन होता है. जब बात जम्मू-कश्मीर की हो, तो और भी विशेष हो जाती है क्योंकि मानव ज्ञान के अनंत बीज जम्मू-कश्मीर के भूगर्भ से निकले हैं. देश के सभी भागों से आकर लोगों ने यहां ज्ञान प्राप्त किया. यहां सभी अवस्थाओं में हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और आधुनिक समाज में सहिष्णुता रही है.
जम्मू-कश्मीर प्रान्त एक संस्कृति संपन्न समाज रहा है. यह ज्ञान का मुख्य केन्द्र था. इसके लोक जीवन में विविधता है. मुख्यतः हिन्दू, बौद्ध व मुस्लिम धर्मों के मिश्रण से उत्पन्न यह संस्कृति समावेशी रही है. इनमें डोगरी, कश्मीरी, लद्दाखी, पहाड़ी व पंजाबी भाषाएं शामिल हैं जो भाषायी विविधता का निर्माण करती हैं. विविध भाषाएं विभिन्न संस्कारों का निर्माण करती हैं. इनके लोकगीतों में संस्कार, ऋतु व धर्म व लोक विषय पर केन्द्रित गीत मिलते हैं. कृषि आधारित समाज होने के कारण फसल आधारित गीत भी हैं. इस लोक संस्कृति के निर्माण में कश्मीरी पंडितों की अग्रसर भूमिका रही है.
आतंकवाद ने जम्मू-कश्मीर के लोक जीवन को संपूर्णता में प्रभावित किया है. लेकिन इसका सबसे अधिक प्रभाव कश्मीरी पंडितों पर पड़ा. आतंकवाद के सबसे पहले लक्ष्य कश्मीरी पंडित ही थे. उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा. वे कश्मीर से निष्कासित हो गये. इस निष्कासन ने उन्हें अपने लोक जीवन से उजाड़ दिया. वे देश के विभिन्न भागों में जाकर बस गये. हम सभी अपना स्थानीय परिवेश छोडकर देश-विदेश जाते हैं, लेकिन पुनः वापस आ जाते हैं. कश्मीरी पंडितों के संदर्भ में यह बात विशेष हो जाती है, क्योंकि उन्हें अपने घर वापस जाने की संभावना क्षीण ही दिखाई देती है.
यह वह समाज है जो अपने लोक जीवन से उजड़ चुका है जिसमें इसके गीत, पर्व, कथा, संस्कृति सभी निढाल होकर पड़े हुए हैं. खीर भवानी के गीत व पर्व से ये बहुत दूर हो चुके हैं. जो पीढ़ियां बचपन में कश्मीर छोड़कर आईं है, वे बड़ी होकर कश्मीरी भाषा को छोड़कर, कोई अन्य भाषा बोलने में सहज हो गई हैं. भाषा के साथ लिपियां भी नष्ट होंगी. इनके घरों में भैरव स्तोत्र का नियमित पाठ होता था. आज ये अभिनव गुप्त को भी नहीं जानते हैं.
साहित्यकर्मी, साहित्यप्रेमी, व जन सामान्य का कर्तव्य है कि इस निष्कासित कश्मीरी समाज के लोक जीवन को बचाया जाय. इस पर सामूहिक एवं गंभीर प्रयास की आवश्यकता है.
सम्पर्कः आर जेड 74 बी 271, हंस पार्क,
पश्चिमी सागरपुर, नई दिल्ली 110046
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