रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : मिशेल फूको की दूच्च त्रोम्बादोरी से एक लंबी बातचीत

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मिशेल फूको बातचीत मिशेल फूको की दूच्च त्रोम्बादोरी से एक लंबी बातचीत (अनुवाद - पुनर्वसु जोशी) प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है कि, जिस तरह आप...

मिशेल फूको

बातचीत

मिशेल फूको की दूच्च त्रोम्बादोरी से

एक लंबी बातचीत

(अनुवाद - पुनर्वसु जोशी)

प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है कि, जिस तरह आपके काम पर एकाग्र किया गया है, विशेषकर पिछले कुछ वर्षों में, उसकी कुछ इस तरह से व्याख्या दी जा सकती है : किसी भी भाषा या वैचारिक दृष्टिकोण को रखने वाले, किसी भी भाषा में और किसी भी विचारधारा में, ऐसे चिंतनशील बहुतेरे लोग नहीं हैं, जो कि समकालीन विश्व में शब्दों और वस्तुओं के बीच होने वाले प्रगतिशील और एक स्पष्टतः क्षुब्ध कर देने वाले पार्थक्य को स्वीकार नहीं करें। आपके द्वारा विकसित किए गए पथ को जिसका आपने अपने चिंतन और अनुसन्धानों में अनुसरण किया है, आपके विश्लेषण में अन्तरण हुए विषय परिवर्तनों को, नए सद्धान्तिक आधारों की प्राप्ति को, बेहतर समझने को लक्ष्य करते हुए, यह हमारे आज के विमर्श की एक दिशा निर्धारित करता है। मेडनेस एण्ड सिविलाईजेशन में अनुभव के मूलभूत रूपों की छान-बीन से लेकर द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुआलिटी के प्रथम खंड में प्रस्तुत अभी हाल ही के तर्कों तक, ऐसा लगता है कि आप अनुसन्धान के एक स्तर से दूसरे स्तर पर स्थानान्तरित होते हुए कई फलांर्गों में आगे बढ़े हैं। अगर मैं आपके विचार की निरंतरता के बिन्दुओं और मूलभूत तत्वों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करना चाहूँ तो, मैं संभवतः यह पूछते हुए प्रारम्भ करना चाहूँगा कि आपके सत्ता और ‘जानने की इच्छा’ पर किए गए तात्कालिक अध्ययन के प्रकाश में ऐसा क्या है जिसने आपके अपने पिछले लिखे हुए का स्थान लिया है?

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उत्तर : निश्चित रूप से कई ‘वस्तुओं’ ने मेरे अब तक के पिछले लेखन का स्थान लिया है। मैं, उन ‘वस्तुओं’ में-जिनमें मैं रुचि रखता हूँ और उन ‘वस्तुओं’ में, जिनके बारे में मैंने सोचा है- दोनों के बारे में सतत गतिमान रहने के संबंध में, मैं पूरी तरह से सजग हूँ। जो मैं सोचता हूँ वह हमेशा एक समान नहीं होता, क्योंकि मेरी पुस्तकें मेरे लिए, एक अर्थ में, एक ‘अनुभव’ हैं, जो मैं जितना संभव हो सके उतना चाहूँगा कि पूर्ण हो। ‘अनुभव’, कहीं ऐसा कुछ है जिससे व्यक्ति ‘रूपान्तरित’ हो कर बाहर आता है। जो मैं लेखन के पूर्व, चिंतन कर रहा हूँ, अगर उसे संप्रेषित करने के लिए मुझे पुस्तक लिखनी पड़े, तो संभवतः मेरे पास शुरू करने का साहस ही नहीं होगा। मैं, किताब सिर्फ इसलिए लिखता हूँ क्योंकि यह ‘विषयवस्तु’ जिसके बारे में मैं बहुत कुछ सोचना चाहता हूँ, मुझे अभी भी ठीक तरह से नहीं मालूम है कि इसके बारे में मुझे क्या सोचना चाहिए, ताकि किताब मुझे रूपान्तरित कर सके और मैं क्या सोच रहा हूँ उसे भी रूपान्तरित कर सके। हर अगली किताब, अपनी पिछली किताब को समाप्त करते हुए जो मैं सोच रहा था उसको रूपान्तरित करती है। मैं प्रयोगवादी हूँ, सिद्धान्तकार नहीं। मैं उसे सिद्धान्तकार कहता हूँ जो कि या तो निगमनात्मक या विश्लेषणात्मक साधारण तंत्र को खड़ा करता है और उसे एक समान रूप से विभिन्न क्षेत्रों में लागू करता है। मेरे साथ ऐसा नहीं है। मैं, इस अर्थ में भी प्रयोगवादी हूँ कि, मैं स्वयं को बदलने के लिए लिखता हूँ और पहले सोची हुए विषयवस्तु पर पुनः चिंतन न करने के लिए लिखता हूँ।

प्रश्न : बहरहाल, कार्य के ‘अनुभव’ के रूप में विचार, एक किसी एक विधि-तंत्र संदर्भ बिन्दु का सुझाव देता है, और नहीं तो कम से कम आपके द्वारा शोध में प्रयोग किए गए माध्यमों और आपके द्वारा उजागर किए गए परिणामों के अंतरसंबंध के बारे में कुछ विचारों की संभावना प्रस्तुत करे।

उत्तर : जब मैं कोई पुस्तक लिखना शुरू करता हूँ, तब मुझे यह ज्ञात नहीं होता है कि अंत में, मैं क्या सोचूंगा और ना ही मुझे यह ज्ञात होता है कि, मैं किस विधि को प्रयोग में लाऊँगा। मेरी प्रत्येक पुस्तक, किसी वस्तु को तराशने का तरीका है, और साथ ही साथ विश्लेषण के तरीके को गढ़ने का प्रयास भी है। एक बार जब मेरा काम समाप्त हो जाता है, तब, उस ‘अनुभव’ से जिससे मैं गुजरा हूँ, उस पर एक प्रकार के सिंहावलोकन से, पुस्तक में जिस तरह की विधि का अनुसरण किया जाना चाहिए था, उसका बहिर्वेशन करता हूँ। तो, इस प्रकार से, मैं वैसी किताबें लिखता हूँ जिन्हें, कुछ रद्दोबदल के साथ अन्वेषणात्मक पुस्तकें और विधियों की पुस्तकें कहा जा सकता है। जैसे, मेडनेस एण्ड सिविलाईजेशन, द बर्थ ऑफ़ क्लीनिक, और आदि आदि अन्वेषणात्मक पुस्तकें हैं, और उसके बाद लिखी हुई किताबें, जैसे, डिसिप्लिन एण्ड पनिश, और हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुआलिटी की भूमिका विधियों की पुस्तकें हैं।

अपनी किताबों के अलावा मैं अपने लेखों और साक्षात्कारों में भी विधियों पर कुछ विचार रखता हूँ। यह अक्सर, मेरी किसी लिखी हुई पुस्तक पर होता है, जो मुझे कोई और संभावित परियोजना को निर्धारित करने में मदद करता है। ये एक प्रकार से, उस संरचना की तरह काम करता है, जो कि, मेरे समापन के निकट पहुँचने वाले रचना कर्म को, एक नए प्रारम्भ होने वाले रचना कर्म के मध्य की कड़ी के रूप में, काम करता है। पर यह एक सार्वकालिक विधि नहीं है जो कि, निश्चित रूप से दूसरों के लिए, या स्वयं मेरे लिए वैध हो। जो मैंने लिखा है, वह न तो मेरे लिए और न ही दूसरों के लिए, आदेशात्मक है। अधिक-से-अधिक, यह सहायक और अन्तरिम हो सकती है।

प्रश्न : आप जो कह रहे हैं, वह आपके दृष्टिकोण के मनमौजी पहलू की पुष्टि करता है, और कुछ अर्थों में, यह आपके काम को व्यवस्थित करने के प्रयासों में, या उसे समकालीन दार्शनिक विचारों में एक सटीक स्थिति देने के प्रयासों में आने वाली उन कठिनाइयों को वर्णन करता है जिनका कि आलोचकों, टिप्पणीकारों, और भाष्यकारों ने सामना किया है।

 

उत्तर : मैं अपने आप को दार्शनिक नहीं मानता। मैं जो करता हूँ, न तो वह दर्शनाभ्यास है और न ही वह दूसरों को दर्शन का अभ्यास करने से हतोत्साहित करने का प्रयास है। वे महत्त्वपूर्ण लेखक जिन्होंने (मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मेरे सोच को आकार दिया है), बल्कि, यह कहूँगा कि जिन्होंने मुझे अपनी विश्वविद्यालयीन शिक्षा से विलग होने में सक्षम बनाया है, वे हैं-जार्ज बटैय, फेडरिक नीत्शे, मौरीस ब्लौंशो, और पियरे क्लौसौवस्की, जो कि, शब्द के संस्थागत अर्थ में दार्शनिक नहीं थे। निस्संदेह, कुछेक व्यक्तिगत अनुभवों का भी इस में हाथ था। इन लेखकों के बारे में जिस बात ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, और जिस बात ने मुझे अभिभूत भी किया, और जिस बात ने मेरे लिए उनका प्रमुख महत्त्व दिया, वह यह था कि, वे एक ‘तंत्र की निर्मिति’ की समस्या से नहीं जूझ रहे थे, बल्कि, उनकी समस्या, एक ‘अनुभव की निर्मिति’ की थी। इसके विपरीत, विश्वविद्यालय में, मुझे हेगेलवाद, घटना-क्रिया-विज्ञान (फिनोमेनोलॉजी), आदि दर्शन के तन्त्रों की दक्षता के लिए, शिक्षित, दीक्षित और प्रेरित किया गया था।

प्रश्न : आप फिनोमेनोलॉजी की बात उठाते हैं, परंतु, सारा फिनोमेनोलॉजी विचार, ‘अनुभव’ के प्रश्न पर केन्द्रित है, और, अपने सैद्धान्तिक क्षितिज को सीमांकित करने के लिए, उस पर आश्रित है। तब, आपके सोच को उससे कौन सा तत्व भिन्न करता है?

उत्तर : फिनोमेनोलॉजी का अनुभव मूलतः एक प्रकार से ‘जीये गए अनुभव’ की किसी विषयवस्तु पर एक मननशील दृष्टि डालना है। प्रतिदिन के अस्थायी रूप पर, ताकि हम उसके अर्थ को पकड़ सकें। वहीं, दूसरी ओर, नीत्शे, बटैय, ब्लौंशो, के लिए ‘अनुभव’, जीवन के किसी उस एक बिन्दु पर पहुँचने का प्रयास है, जो कि जितना हो सके उतना, ‘जीने के लिए अनुपयुक्त’ यानि वह जिसे ‘जिया न जा सके’, के निकटस्थ हो। तब इसके लिए जो आवश्यक है, वह है, तीव्रता का आधिक्य और साथ ही साथ असंभाव्य का आधिक्य। इसके उलट,फिनोमेनोलॉजी के काम में, दैनंदिन के ‘अनुभव’ से संबन्धित संभावनाओं के क्षेत्र का खुलना निहित है।

इसके साथ ही साथ, फिनोमेनोलॉजी दैनंदिन के ‘अनुभव’ के अर्थ को ग्रहण करने का प्रयास करता है, ताकि, वह उस अभिप्राय का पुनरान्वेषण कर सके जिसमें कर्ता यानि ‘मैं’ निश्चित रूप से उस ‘अनुभव’ को और उसके अर्थों के लिए, उसके ‘अनुभवातीत’ प्रकार्यों में, उत्तरदायी हो। वहीं दूसरी ओर, नीत्शे, बटैय, और ब्लौंशो, के लिए, ‘अनुभव’ का ‘कार्य’ कर्ता को स्वयं से छीनना है, और यह सुनिश्चित करना है कि, कर्ता, स्वयं कर्ता न रह सके या वह स्वयं को विनष्ट कर सके, या स्वयं को विघटित कर सके। यह एक डीसब्जेक्टिवेशन की परियोजना है। मेरे, नीत्शे, बटैय, और ब्लौंशो, के पठन में, स्वयं मेरे लिए, एक ‘सीमित-अनुभव’ का विचार, जो कि, कर्ता को स्वयं कर्ता से छीनता है, महत्त्वपूर्ण था, और जो इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि, मेरी पुस्तकें, जितनी भी उधार ली हुई लगें, जितनी भी पाण्डित्यपूर्ण लगें, मैंने, उनकी कल्पना हमेशा, स्वयं को स्वयं से मुक्त करने के ‘प्रत्यक्ष अनुभव’ के रूप में, जो कि मुझे एक जैसा रहने से बचा सके, की है।

प्रश्न : आप जो कह रहे हैं, उसे मैं अगर ठीक से समझ रहा हूँ तो, आपकी बौद्धिक मनोवृत्ति के तीन मूलभूत आयाम हैं : लेखन, जो कि एक निरंतर विकसित होता हुआ ‘अनुभव’ है, विधियों की एक अत्यधिक सापेक्षता, और सब्जेक्टिवेशन के संदर्भ में एक तनाव। इन घटकों को मद्देनजर रखते हुए, प्रश्न यह उठता है कि, क्या यह किसी अन्वेषण के परिणामों को यथेष्ट विश्वसनीयता प्रदान करेगा और आपके सोच के आयामों के साथ, सत्य के कौन से मापदण्ड एकमत होंगे?

उत्तर : मैं जो कहता हूँ उसकी सत्यता का प्रश्न अत्यंत कठिन है, दरअस्ल, वही मूल प्रश्न भी है। और इस प्रश्न का कोई उत्तर मैंने अभी तक नहीं दिया है। और फिर भी मैं, सबसे परम्परागत विधियों का प्रयोग करता हूँ जैसे कि, निरूपण, ऐतिहासिक मुद्दों में प्रमाण, पाठीय संदर्भ, विषयविदों के उद्धरण, पाठों और तथ्यों के बीच संबंध स्थापित करना, बोधगम्यता की योजनाएँ प्रस्तावित करना, और विभिन्न प्रकार के स्पष्टीकरण देना। जो भी कुछ मैं करता हूँ, उसमें कुछ भी नया नहीं है। इस दृष्टिकोण से, मैं जो भी कुछ अपनी पुस्तकों में कहता हूँ, उसे इतिहास की किसी भी अन्य पुस्तक की तरह सत्यापित या अमान्य किया जा सकता है।

इसके बावजूद, जो मुझे पढ़ते हैं- विशेष तौर पर वे जो मेरे किए गये काम को अहमियत देते हैं-अक्सर हँसते हुए कहते हैं, ‘तुम यह बखूबी जानते हो कि, जो भी कुछ तुम कहते हो, वह एक गल्प है।‘ और मैं हमेशा प्रत्युत्तर में कहता हूँ, ‘निस्संदेह, मेरे कहे हुए का गल्प होने के अलावा और कुछ होने का प्रश्न ही नहीं उठता।‘

अगर मैं, उदाहरण के लिए, सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के बीच के, मनश्चिकित्सकीय संस्थानों के इतिहास के बारे में एक अध्ययन करना चाहता, तो निश्चित रूप से मैं, मेडनेस एण्ड सिविलाईजेशन जैसी पुस्तक नहीं लिख पाता। परंतु, मेरी समस्या पेशेवर इतिहासविदों को संतुष्ट करने की नहीं है, मेरी समस्या, मेरा स्वयं का पुनर्गठन है, और दूसरों को, हमारे ‘होने के अनुभव’ को, न केवल हमारे इतिहास, बल्कि, हमारे वर्तमान, और हमारी आधुनिकता के ‘अनुभव’ को इस प्रकार साझा करने के लिए आमंत्रित करना है, ताकि,’हम उससे रूपांतरित हो कर बाहर निकलें। इसका अर्थ यह कि, हम किसी पुस्तक की समाप्ति पर, हमारे सामने प्रस्तुत विषय से एक नया संबंध स्थापित कर सकें। ‘मैं’ जिसने वह किताब लिखी है, और ‘पाठक’ जिन्होंने वह किताब पढ़ी है, उनका पागलपन, उसकी समकालीन प्रतिष्ठा, और उसके आधुनिक जगत में इतिहास से एक अलग संबंध स्थापित होगा।

प्रश्न : आपके आख्यान की प्रभावोत्पादकता, प्रमाण के बल और उस ‘अनुभव’ से जोड़ने की क्षमता के संतुलन पर आश्रित है, जो ‘अनुभव’, हमारे सांस्कृतिक क्षितिजों-जिनके बरअक्स हम अपना वर्तमान जीते हैं और उसका आंकलन करते है- में परिवर्तन की तरफ ले जाए। मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि, आप की दृष्टि में, इस प्रक्रिया का ‘सत्य के मापदण्डों’, जैसा कि हमने पहले कहा, से क्या लेना-देना है? यानि कि, सत्य से संबन्धित जिन रूपांतरणों की बात आपने की, ऐसा कैसे है कि वे ‘सत्य के प्रभावों’ की उत्पत्ति करते हैं?

उत्तर : मैंने जिन विषय-वस्तुओं के बारे में लिखा है और उस लिखे हुए के प्रभावों के बीच एक विशेष संबंध है। जैसे, देखिये मेडनेस एण्ड सिविलाईजेशन के साथ क्या हुआ : वह मौरीस ब्लैंशो, रोलाँ बार्थ जैसे लोगों द्वारा स्वीकृत हुई। और प्रथम चरण में, वह मनश्चिकित्सकों द्वारा ‘कुछ विस्मय’ और ‘कुछ सहानुभूति’ के साथ स्वीकारी गई, और इतिहासविदों के द्वारा, जिनकी आदतन ऐसे विषय में कोई रुचि नहीं होती है, वह पूरी तरह नजरअंदाज की गई। बाद इसके, अत्यधिक तीव्रता से, उस पुस्तक के प्रति मनश्चिकित्सकों का विद्वेष उस सीमा तक बढ़ गया कि, वह पुस्तक वर्तमान मनश्चिकित्सा पर एक आक्रमण और प्रति-मनश्चिकित्सा के घोषणा-पत्र की तरह देखी जाने लगी। परंतु, मेरा मन्तव्य, ऐसा दो कारणों से, बिलकुल नहीं था। जब, 1958 में, पोलैंड में, मैंने वह किताब लिखी तब यूरोप में प्रति-मनश्चिकित्सा अस्तित्व में ही नहीं थी, और, वह पुस्तक मनश्चिकित्सा पर आक्रमण इसलिए भी नहीं थी क्योंकि, वह किताब, उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ पर आकर रुक जाती है। बावजूद इसके, जन मानस में उस पुस्तक की छवि समकालीन मनश्चिकित्सा पर एक आक्रमण के रूप में प्रचलित है। क्यों? क्योंकि, मेरे लिए, और जिन लोगों ने उसे पढ़ा और उसका प्रयोग किया- उन लोगों के लिए, उस पुस्तक ने एक प्रकार से, पागलपन, मानसिक रूप से विक्षिप्त, मनश्चिकित्सा संस्थान, और यहाँ तक कि, मनश्चिकित्सकीय आख्यान के सत्य से भी उनके ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक, और नैतिक या नीति-शास्त्रीय संबंध को रूपांतरित कर दिया है। अतः यह एक ऐसी किताब है जो कि, उसके लेखक और उसके पाठकों, दोनों के लिए एक समान रूप से, किसी स्थापित ऐतिहासिक सत्य से कहीं अधिक रूप से, एक ‘अनुभव’ की तरह कार्य करती है। किसी व्यक्ति के लिए, किसी पुस्तक के द्वारा ऐसा ‘अनुभव’ होना, तभी हो सकता है, जब, जो बात वह पुस्तक कहती है, वह अकादमिक और ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित सत्य हो। वह एक उपन्यास नहीं हो सकती। परंतु, फिर भी, उस पुस्तक की मूलभूत ‘विषयवस्तु’, उन सच्ची या ऐतिहासिक रूप से प्रामाणित खोजों की शृंखला में नहीं है, बल्कि,उस ‘अनुभव में है, जो वह पुस्तक संभव बनाती है। अब, तथ्य यह है कि,वह अनुभव न तो सत्य है और न ही निरा मिथ्या। एक अनुभव हमेशा कल्पित होता है वह ऐसा कुछ है जिसकी निर्मिति हम स्वयं करते हैं, और न जो पहले अस्तित्व में होता है और न ही जो बाद में अस्तित्व में रहेगा। यही तो सत्य के साथ का दुरूह संबंध है, उस प्रकार से, जिसमें वह अनुभव से घिरा हुआ है, परंतु उससे बंधा हुआ नहीं है, और कुछ हद तक उसे नष्ट भी करता है।

प्रश्न : सत्य के साथ का यह दुरूह सम्बन्ध क्या आपके शोध के साथ निरंतर चलता है, और क्या इसे मेडनेस एण्ड सिविलाईजेशन के अलावा और भी रचनाओं में पहचाना जा सकता है?

उत्तर : यही बात, डिसिप्लिन एण्ड पनिश के लिए भी कही जा सकती है। मेरा अनुसंधान 1830 के दशक पार आकर रुक जाता है। इस प्रसंग में भी, पाठकों ने, आलोचनात्मक या नहीं, उस पुस्तक को, उस समकालीन समाज के वर्णन को, एक कारागार के समाज के रूप में समझा। मैंने ऐसा कभी नहीं लिखा, हालाँकि, यह सच है कि, उस पुस्तक का लेखन, हमारी आधुनिकता के एक विशेष अनुभव से जुड़ा हुआ था। वह पुस्तक सच्चे और प्रामाणिक दस्तावेजों का इस्तेमाल करती है, परंतु, इस प्रकार से कि, उनके द्वारा न केवल सत्य तक पहुंचा जा सकता है, बल्कि, ऐसा कुछ भी ‘अनुभव किया जा सकता है, जो कि, जरूरी परिवर्तन की अनुमति देता है, उस ‘सम्बन्ध’ के रूपान्तरण की, जो हमारे और उस जगत के मध्य है, जहाँ, अभी तक, हम स्वयं को समस्या-विहीन प्राणियों की तरह देखते थे। संक्षेप में कहें तो- हमारा, हमारे ज्ञान के साथ के सम्बन्ध का रूपान्तरण।

तो, ‘सत्य’ और ‘कल्पित’ का यह खेल- या अगर आप चाहें तो, ‘सत्यापन’ और ‘गढ़ंत’ का यह खेल, ऐसे कुछ को प्रकाश में लाता है, जो कि हमें, कई बार पूर्णरूपेण अनभिज्ञता में, हमारी आधुनिकता से जोड़ता है, और इसके साथ ही साथ, उसे बदलता हुआ भी दिखाता है। वे अनुभव, जिनके द्वारा हम, कुछ रचनातंत्रों (उदाहरण के लिए, कारावास, दण्ड, आदि, आदि) की बोधगम्यता को पकड़ते हैं, और, जिस प्रकार से, उन रचनातंत्रों को दूसरे रूप में समझ कर हम स्वयं को उनसे विलग कर लेते हैं, वह एक ही है। यही मेरे कार्य के मर्म में निहित है। यह विचारणीय है कि इसके क्या परिणाम या अभिप्राय हो सकते हैं? पहला यह कि, मैं आंकड़ों की एक अनवरत और सुव्यवस्थित पृष्ठभूमि पर आश्रित नहीं रहता हूँ। दूसरा यह कि, मैंने अभी तक ऐसी कोई भी पुस्तक नहीं लिखी है, जो कि, कम से कम आंशिक रूप से, सीधे मेरे व्यक्तिगत अनुभवों से प्रेरित न हो। मेरा, पागलपन और मनश्चिकित्सक संस्थानों से एक जटिल, व्यक्तिगत सम्बन्ध रहा है। और मेरा, मृत्यु और बीमारी से भी एक विशेष सम्बन्ध रहा है। मैंने, अस्पतालों के जन्म और चिकित्सा विज्ञान में मृत्यु के बारे में उस समय लिखा, जब उनका मेरे स्वयं के जीवन में कुछ महत्त्व था। यही, कुछ दूसरे कारणों से कारावास और यौनिकता के सम्बन्ध में भी है।

एक तीसरा अभिप्राय यह है कि, यह सारा व्यक्तिगत अनुभवों के ज्ञान में परिवर्तन का ही प्रसंग नहीं है। पुस्तक में, ‘अनुभव’ के साथ सम्बन्ध, रूपान्तरण को, एक कायान्तरण को सम्भव बनाना चाहिए, और सिर्फ मेरा ही नहीं, बल्कि, दूसरों के लिए भी जिसका कुछ मूल्य हो, जो दूसरों के लिए भी सुगम हो, ताकि, वह अनुभव दूसरों के लिए भी सुलभ हो।

चौथा और अंतिम बिन्दु, यह अनुभव, कुछ मात्रा में, एक किस्म के सोचने के तरीके से, एक सामूहिक अभ्यास से यथोचित जुड़ने में सक्षम हो सके।

और, उदाहरण के लिए, प्रति-मनश्चिकित्सा के आंदोलन या फ्रांस में कैदियों के आंदोलन के साथ यही हुआ।

प्रश्न : जब आप, जैसा कि आप कहते हैं, एक ‘सामूहिक अभ्यास’ से जुड़ने में सक्षम किसी ‘रूपान्तरण’ को दर्शाते हैं, तब मैं किसी एक विधि-तंत्र या एक विशेष प्रकार की शिक्षा की रूपरेखा देखता हूँ। क्या आपके विचार में ऐसा नहीं है? और अगर यदि है, तो क्या आप को ऐसा प्रतीत नहीं होता कि, आपकी दूसरी आवश्यकता, जिसे आपने पहले कहा, यानि कि, आदेशात्मक आख्यान, के साथ विरोधाभास में आते हैं?

उत्तर : मैं ‘शिक्षा’ शब्द को अस्वीकार करता हूँ। एक व्यवस्थित पुस्तक, जो कि अनुभव या ज्ञान के सामान्यीकरण की जा सकने वाली विधियों को प्रयोग में लाती हो या जो कि, किसी सिद्धान्त का निरूपण करती हो, वह पुस्तक सबक सिखा सकती है। मेरी पुस्तकों का वैसा मूल्य नहीं है। वे, आमंत्रण या सार्वजनिक संकेतों की तरह हैं।

प्रश्न : परंतु, क्या ‘सामूहिक अभ्यास’ उन मूल्यों, उन मानदंडों, और उन व्यवहारों से नहीं जुड़े होने चाहिए, जो कि, व्यक्तिगत अनुभवों से परे जाते हों?

उत्तर : ‘अनुभव’ ऐसा कुछ है जिससे कि, हम पूरी तरह अकेले गुजरते हैं, परंतु, सिर्फ उसी सीमा तक कि वह विशुद्ध आत्मपरकता से बच कर निकल जाए, और दूसरे लोग भी- मैं यह नहीं कहूँगा कि वे उसे दुहराएंगे, परंतु, कम से कम, उसका सामना तो कर ही सकते हैं- और स्वयम उस ‘अनुभव’ से गुजर सकते हैं। चलिये, एक क्षण पीछे लौटते हैं और कारागृहों पर लिखी हुई पुस्तक पर बात करते हैं। किसी अभिप्राय में, वह विशुद्ध रूप से इतिहास की किताब है। परंतु, जिन लोगों ने उसे पसंद किया या उससे घृणा की, उन्हें ऐसा इसलिए महसूस हुआ क्योंकि उन्हें ऐसा आभास हुआ कि वह पुस्तक, उन रूपों में जो कि सर्वमान्य है, उनसे सम्बद्ध थी या विशुद्ध रूप से समकालीन जगत से सम्बद्ध थी, या समकालीन जगत से उनके सम्बन्धों से सम्बद्ध थी। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वर्तमान के यथार्थ की किसी वस्तु पर प्रश्न-चिह्न लगाए जा रहे हैं। और, सच्चाई यह है कि, मैंने कई सालों तक उन कार्य-समूहों में भागीदारी के बाद, जो कि दण्ड-विषयक संस्थानों के बारे में या तो सोच रहे थे या उनसे संघर्ष कर रहे थे, उस पुस्तक पर, काम करना शुरू किया। यह एक जटिल और कठिन रचना थी जो कि कई बंदियों, उनके परिवारों, कारावास के कर्मचारियों, न्यायाधीशों और कई और व्यक्तियों की सहायता से पूर्ण हुई।

जब वह पुस्तक आई, तब अलग-अलग पाठकों ने- विशेष तौर पर कारावास के कर्मचारियों ने, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने और अन्य ऐसे लोगों ने- उस पुस्तक पर यह निर्णय दिया कि ‘यह किताब पंगु कर देने वाली है। इस में कुछ सटीक निष्कर्ष हैं, परंतु, फिर भी इसकी सीमाएं स्पष्ट हैं, क्योंकि यह पुस्तक हमें अवरुद्ध करती है। यह हमें, हमारे काम करने से रोकती है।‘ इसके बारे में, मेरा उत्तर यह है कि, इस प्रकार की प्रतिक्रिया ही इस बात का प्रमाण है कि, मेरा कार्य सफल हुआ, और उसने वही किया, जैसा मैं चाहता था। यह दर्शाता है कि लोग उस पुस्तक को, एक ऐसे ‘अनुभव’ की तरह पढ़ते हैं, जो उन्हें बदल देता है, जो उन्हें हमेशा के लिए एक जैसा रहने से रोकता है या वस्तुओं और दूसरे लोगों के साथ एक जैसे संबंध से रोकता है, जो इस पुस्तक के पढ़ने के पहले थे। यह, यह भी दर्शाता है कि, इस पुस्तक में अभिव्यक्त अनुभव, सिर्फ मेरे स्वयं के अनुभव से कहीं ज्यादा व्यापक हैं। पाठकों ने स्वयं को, एक प्रक्रिया, जो चल रही थी, उसके अंतर्गत पाया है- हम यह कह सकते हैं कि, वह प्रक्रिया थी, समकालीन मानव के स्वयं के बारे में, स्वयं के विचार के रूपान्तरण की प्रक्रिया थी। और इस पुस्तक ने उस रूपान्तरण के लिए कार्य किया। और किसी छोटे रूप में, यह पुस्तक उस रूपान्तरण का ‘कर्ता’ भी थी। और एक ‘अनुभव की पुस्तक’ से, बजाए ‘सत्य की पुस्तक’ या ‘निरूपण की पुस्तक’ से मेरा यह अभिप्राय होता है।

प्रश्न : हमारे विश्लेषण में इस समय मैं एक चीज नोट करना चाहूँगा। आप स्वयं के बारे में और विशेष कर अपने शोध के बारे में इस प्रकार बात करते हैं कि जिस ऐतिहासिक और उससे बढ़कर सांस्कृतिक संदर्भ में आपका शोध परिपक्व हुआ, आप उससे स्वतंत्र हैं। आपने नीत्शे, बटैय, और ब्लौंशो का उदाहरण दिया। आपने इन लेखकों के बारे में कैसे जाना? आपके अपने स्वयं के बौद्धिक गठन के वर्षों में, फ्रांस में बुद्धिजीवी होने का क्या अर्थ था, और उस दौरान किस प्रकार की सैद्धान्तिक बहसें हुआ करती थीं? आप उस स्तर तक कैसे पहुंचे, जहाँ पहुँच कर आप परिपक्व बौद्धिक चयन कर रहे थे और अपने विचार की अभिमुखता को स्थापित कर रहे थे?

उत्तर : नीत्शे, बटैय, और ब्लौंशो ये वे लेखक थे जिन्होंने मुझे सन पचास के दशक के पूर्वार्ध में मेरी विश्वविद्यालयीन शिक्षा के प्रबल प्रभावों-हेगेल और फिनोमेनोलॉजी से स्वतंत्र होने में मेरी सहायता की। उन दिनों दर्शन, और दरअस्ल आज भी, सिर्फ दर्शन का इतिहास पढ़ना भर था। और दर्शन का इतिहास जहाँ एक ओर, हेगेल की प्रणालियों की सैद्धांतिकी से और वहीं दूसरी ओर ‘कर्ता’ के दर्शन से, जो कि फिनोमेनोलॉजी और अस्तित्ववाद के रूप में था, से परिसीमित था। मूलतः, वह हेगेल थे जिनका प्रभाव वर्चस्वी था। फ्रांस के लिए, यह ज्यां व्हाल के काम के बाद और ज्यां ईपोलित की शिक्षाओं के बाद यह एक प्रकार से नई खोज थी। अनुपयुक्त चेतना के मुद्दों पर केन्द्रित, और अस्तित्ववाद और फिनोमेनोलॉजी से व्याप्त, यह एक तरह का हेगेलवाद ही था। और एक प्रकार से, समकालीन जगत को, जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदी और उसके पूर्व की बड़ी-बड़ी उथल-पुथल, जैसे कि रूसी क्रान्ति, फासीवाद आदि, से अभी ही बाहर आया था, उसे समझने के लिए सर्वोत्तम प्रणाली थी जो कि फ्रेंच विश्वविद्यालय हमें दे सकता था। जबकि, हेगेलवाद को, एक प्रकार से उस त्रासदी की तार्किक समझ प्राप्त करने के तरीके के रूप में प्रस्तुत किया गया था, जैसी कि हमसे ठीक पहले की पीढ़ी ने भोगी थी, परंतु, वे सार्त्र थे जो अपने ‘कर्ता के दर्शन’ के साथ, विश्वविद्यालय के प्रचलन में थे। फिनोमेनोलॉजी और अकादमिक दर्शन की परंपरा के बीच एक मिलन बिन्दु स्थापित करते हुए, मौरिस मर्लो-पौन्टी ने अस्तित्ववादी आख्यान का विशिष्ट ज्ञान क्षेत्रों में विस्तार किया, जैसे उदाहरण के लिए, जगत की बोधगम्यता के प्रश्न को आविष्कृत करते हुए, यथार्थ की बोधगम्यता का अन्वेषण। मेरे अपने चयन उन उस बौद्धिक परिदृश्य के बीच परिपक्व हुए। वहीं दूसरी ओर, मैंने तय किया कि मैं अपने अध्यापकों की तरह दर्शन के इतिहास का इतिहासज्ञ नहीं बनूँगा, और मैंने अस्तित्ववाद से कुछ अलग ढूँढने का निर्णय लिया। वह मुझे, ब्लैंशो और बटैय को पढ़ने में, और उनके माध्यम से नीत्शे को पढ़ने में मिला। मेरे लिए वे किसका प्रतिनिधित्व करते थे? पहला तो मेरे लिए वह, कर्ता की श्रेणी, उसकी प्रधानता, और उसके बुनियादी कार्य पर प्रश्न उठाने का आमंत्रण था। दूसरा, यह धारणा कि यह प्रबंध अगर महज परिकल्पना भर रही तो वह अर्थहीन होगा। कर्ता पर प्रश्न चिह्न लगाने का अर्थ उस अनुभव से गुजरना होगा जो कि उसके वास्तविक ध्वंस, उसके विघटन, उसके विस्फोटन, और उसके किसी और रूप में रूपान्तरण की तरफ ले जाएगा।

प्रश्न : तो उस प्रकार का अभिमुख होना सिर्फ दर्शन के प्रभावी वातावरण के प्रति किसी आलोचनात्मक अभिवृत्ति के कारण अवस्थित हुआ, या यह उस फ्रेंच यथार्थ के द्वितीय विश्व युद्ध के अन्तकाल के आयामों पर चिंतन से उत्पन्न हुआ? मैं राजनीति और संस्कृति के सम्बन्धों के बारे में सोच रहा हूँ और उन प्रकारों के बारे में भी जिनसे नई बौद्धिक पीढ़ियों ने राजनीति का अनुभव किया और उसकी व्याख्या की।

उत्तर : मेरे लिए, राजनीति, नीत्शे या बटैय की शैली में एक अनुभव लेने का मौका था। किसी के लिए, जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय बीस वर्ष की आयु का हो, और जो कि उस युद्ध की नैतिकता के प्रश्न में शामिल न हो, उसके लिए राजनीति क्या हो सकती है, जब वह ट्रूमन के अमेरिका और स्टालिन के सोवियत संघ के बीच चुनाव का मुद्दा हो? पुराने एस.एफ.आई.ओ. (साठ के दशक की फ्रांसीसी समाजवादी पार्टी-अनु) या ईसाई लोकतंत्र के बीच? एक बुर्जुवा बौद्धिक, या अध्यापक, या पत्रकार, या लेखक बनना या इस प्रकार का ऐसा कुछ और बनना मेरे लिए पर्याप्त घृणास्पद था। युद्ध के अनुभव ने हमें, जिस समाज में हम रह रहे हैं वही है, यह समाज, जिसने फासीवाद की अनुमति दी, और जो उसके सामने झुक गया, यह समाज जो सामूहिक रूप से चार्ल्स द गाल के साथ चल पड़ा, उस समाज, से मौलिक रूप से भिन्न समाज की अत्यावश्यक जरूरत को हमें दिखा दिया था। फ्रेंच युवा के एक बड़े समुदाय की, उस सब के प्रति तीव्र घृणात्मक प्रतिक्रिया थी। हम एक ऐसा समाज और ऐसी प्रजा चाहते थे जो कि, न केवल भिन्न हो बल्कि, वह हमारा एक वैकल्पिक रूपान्तरण हो। हम एक अलग ही विश्व में बिलकुल अलग होना चाहते थे। इसके अलावा जो हेगेलवाद और उनके इतिहास की अखंड बोधगम्यता का प्रारूप हमें विश्वविद्यालय में पढ़ाया गया था, वह हमें संतुष्ट करने के लिए कतई पर्याप्त नहीं था। और यही फिनोमेनोलॉजी और अस्तित्ववाद के लिए भी था, जो कि कर्ता और उसकी प्रधानता को बरकरार रखते थे। वहीं दूसरी ओर नीत्शे की विच्छिन्नता की विषयवस्तु, एक अति-मानव की विषयवस्तु, जो कि सामान्य मानव से बिलकुल भिन्न होगा, ऐसे अति-मानव की विषयवस्तु और इसके साथ ही साथ बटैय के सीमित-अनुभवों की विषयवस्तु, जिससे विषय स्वयं से पलायन करता है, का हमारे लिए बहुत मूल्य था। जहां तक मेरा प्रश्न है, ये विषयवस्तुएँ मेरे लिए हेगेलवाद और विषय की दार्शनिक पहचान के बीच का रास्ता था।

प्रश्न : आपने द्वितीय विश्व युद्ध के ‘दारुण अनुभवों’ की बात की और उनके दर्शन की परंपरा की परिकल्पित योजनाओं के द्वारा लेखे-जोखे की दुष्करता की भी बात की। फिर भी आप ज्यां पॉल सार्त्र की मीमांसा को उस अक्षमता की सीमाओं में क्यों रखना चाहते हैं? क्या उन्होंने अस्तित्ववाद का प्रतिनिधित्व नहीं किया था और क्या उन्होंने, विशेष तौर पर फ्रांस में, सैद्धांतिक परंपरा के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया को समाविष्ट नहीं किया था, एक प्रकार से अपने समय के संदर्भ में बुद्धिजीवी की प्रतिष्ठा का पुनर्मूल्यांकन?

उत्तर : सार्त्र के दर्शन जैसे दर्शन में, कर्ता ही जगत को अर्थ देती है। इस बिन्दु को कभी पुनर्प्रश्नांकित नहीं किया गया था। कर्ता ही मुक्त करती है। प्रश्न यह था क्या यह कहा जा सकता है कि केवल कर्ता ही अस्तित्व का एक संभावित रूप है? क्या ऐसे ‘अनुभव’ नहीं हो सकते, जिनकी कालावधि में कर्ता, अपने संगठनात्मक सम्बन्धों में, कभी स्वीकारी ही ना जाये, यानि ऐसा क्या है जो कि उसे स्वयं से अभिन्न बनाता है? क्या ऐसे अनुभव नहीं हो सकते जिनमें कर्ता, स्वयं से पृथक हो सकें, स्वयं के स्वयं से सम्बन्ध तो विच्छिन्न कर सकें, स्वयं की पहचान खो सकें? क्या, नीत्शे के ‘नित्य पुनरावृत्ति’ के अनुभव का सार यही नहीं है?

प्रश्न : आपने जिन लेखकों का जिक्र किया उनके अलावा उस काल खंड में और कौन कौन नीत्शे के चिंतन के बारे में लिख या सोच रहे थे?

उत्तर : दरअस्ल, नीत्शे की खोज विश्वविद्यालय के बाहर हुई। क्योंकि जिस तरीके से नीत्शे का नाजियों ने इस्तेमाल किया था, नीत्शे अकादमिक पाठय्क्रम में पूरी तरह वर्जित थे। वहीं दूसरी ओर, दर्शन के विचार का एक अनवरत पाठ प्रचलन में था, इतिहास के दर्शन के प्रति एक रवैया, जो कि एक प्रकार से हेगेलवाद और अस्तित्ववाद का मिश्रण था। और, सही कहूँ तो, इतिहास के उस दर्शन को मार्क्सवादी संस्कृति भी साझा करती है।

प्रश्न : अब जाकर आप मार्क्सवाद और मार्क्सवादी संस्कृति की ओर इंगित करते हैं, जैसे कि यह अब तक का सबसे बड़ा ‘छूटा हुआ तत्व’ था। पर मैं नहीं समझता कि ऐसा कहा जा सकता है।

उत्तर : मैं मार्क्सवादी संस्कृति के बारे में बाद में बात करना चाहूँगा। अभी के लिए मैं सिर्फ एक रोचक तथ्य बताता हूँ। मेरी नीत्शे और बटैय में रुचि, मार्क्सवाद या साम्यवाद से दूरी बनाने के लिए नहीं थी- यह, जिसकी हम साम्यवाद से अपेक्षा रखते थे, यह उसी की ओर बढ़ने का एकमात्र मार्ग था। हमारा, जिस विश्व में हम जीते हैं उस विश्व की अस्वीकृति करना, निश्चित रूप से हम हेगेल के दर्शन से संतुष्ट नहीं थे। और उस सर्वथा भिन्न यथार्थ के लिए, जो हमें लगता था कि साम्यवाद में सन्निहित है, उसे पाने के लिए हम दूसरे तरीकों की खोज में थे। इसीलिए 1950 में, बिना मार्क्स को ज्यादा जाने, हेगेलवाद को रद्द करते हुए और अस्तित्ववाद से असुविधाजनक महसूस करते हुए, मैं फ्रेंच साम्यवादी पार्टी से जुड़ पाया। ‘नीत्शेअन साम्यवादी’ होना अस्थिर था, बल्कि कहूँ कि असंगत था। यह बात मैं अच्छी तरह से जानता था।

प्रश्न : आप पी.सी.एफ. (फ्रांसीसी साम्यवादी पार्टी-अनु.) में भर्ती हुए। आप साम्यवादी पार्टी में एक असामान्य बौद्धिक भटकाव के बाद आए। उस अनुभव ने आप पर और आपके सैद्धान्तिक शोध की प्रगति पर क्या प्रभाव डाला? एक ‘साम्यवादी अतिवादी’ की तरह आपका अनुभव कैसा रहा? और अंत में आप पार्टी छोड़ने के निर्णय पर कैसे पहुंचे?

उत्तर : फ्रांस में, साम्यवादी पार्टी में आकर उसे छोड़ जाने वाले युवाओं का आना-जाना अत्यंत शीघ्र था। कई लोग तो पार्टी के अंतिम टूट-फूट के उन क्षणों को अनुभव किए बिना आए और चले गये। मैंने, सन 1952 की शीत में स्टालिन के खिलाफ हुए कुख्यात डॉक्टर्स प्लॉट के बाद पार्टी छोड़ी। और मेरा पार्टी छोड़ने का निर्णय व्याकुलता के एक दृढ़ प्रभाव के कारण था। स्टालिन की मृत्यु के ठीक थोड़ा पहले, यह खबर फैल गई थी कि यहूदी डॉक्टरों के एक समूह ने स्टालिन की जान लेने की कोशिश की थी। आन्द्रे वर्म्जर ने हमारे छात्र प्रकोष्ठ में एक बैठक रखी, यह बताने के लिए कि किस तरह उस प्लॉट को अंजाम दिया गया। हालाँकि, हमें भरोसा नहीं हुआ था, परंतु फिर भी हमने उस कहानी पर विश्वास करने की काफी कोशिश की।

और एक तरह से इस प्रकरण ने पार्टी के उस ‘महाविपदा’ की या कहें की पार्टी में ‘होने के तरीके’ को भी थोड़ा बहुत बनाया : यह तथ्य कि हम उस ‘बात’ को बनाए रखने के लिए बाध्य थे, जो विश्वसनीय होने के सर्वथा विपरीत थी, और साथ ही साथ या ‘स्वयं’ के विलयन और किसी दूसरे ‘कुछ’ की खोज के उस कवायद का हिस्सा भी थी, जिसका मैंने पहले जिक्र किया है। स्टालिन की मृत्यु हो गई। तीन महीने बाद हमें पता चला कि डॉक्टर्स प्लॉट जैसा कुछ था ही नहीं। हमने, यह जानने के लिए कि यह सब क्या था, वर्म्जर को लिखा भी कि वे आएँ और हमें इसे तरीके से स्पष्ट करें। परंतु हमें कोई उत्तर नहीं मिला। अब आप कहेंगे कि यह तो एक सामान्य प्रथा थी, रोजमर्रा में होने वाली एक छोटी सी घटना... परंतु तथ्य यह है कि उस घटना के बाद ही मैंने पार्टी छोड़ी।

प्रश्न : जैसा मुझे दिखता है, जो कहानी आप बताते हैं वह मूलतः अतीत के एक परिदृश्य की पुनरावृत्ति है, एक त्रासद वृत्तांत जिसका संदर्भ था शीत युद्ध, स्टालिनवाद की अति, पार्टी और उसके अतिवादियों के बीच, राजनीति और विचारधारा के बीच एक विशेष संबंध। लगभग ऐसी ही या इससे बदतर परिस्थितियों में भी दूसरे लोगों ने पार्टी से नाता तोड़ने का निर्णय नहीं लिया, बल्कि उन्होंने संघर्ष और आलोचना को चुना। मुझे नहीं लगता कि आपका समाधान सबसे उपयुक्त था।

 

उत्तर : मैं यह जान रहा हूँ कि मैं सारे साम्यवादियों को मुझे धिक्कारने के लिए तर्क दे रहा हूँ कि मैं बहुत ही गलत कारणों से और सबसे घटिया- किसी गंदे पेटी बुर्जुवाजी तुल्य- साम्यवादी हूँ। परंतु मैं यह सब बातें कहता हूँ क्योंकि यह सब सत्य है और क्योंकि निश्चित रूप से उस परिस्थिति में होने वाला मैं अकेला नहीं था, अनुपयुक्त कारणों से जुड़ने के कारण, और रूपान्तरण के थोड़े बहुत हास्यास्पद तत्व जैसे कि ‘वैराग्य’, आत्मपीड़न, जो कि उस तरीके का बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहलू है जिस प्रकार से कई छात्र- आज भी फ्रांस में-साम्यवादी पार्टी की गतिविधियों में भागीदारी करते हैं। मैंने बुद्धिजीवियों को टीटो-मसले के समय पार्टी छोड़ते देखा है। परंतु वहीं दूसरे ओर, मैं कुछेक दूसरे लोगों को जानता हूँ जिन्होंने ठीक उसी समय और उन्हीं मुद्दों के कारण और जो कुछ उस समय घट रहा, उसके कारण पार्टी से जुड़ गये। और, इसके आगे, एक प्रकार से उन लोगों को उत्तर देने के लिए भी, जिनका पार्टी से मोह-भंग हो गया था और जिन्होंने अपनी सदस्यता के कार्ड जमा करवा दिये थे।

प्रश्न : एक बार जब साम्यवादी पार्टी का यह संक्षिप्त अनुभव पूरा हो गया, क्या आपने अन्य राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी की?

उत्तर : नहीं, उसके बाद मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की। उस कालावधि में मैंने लुई अल्थुसर के साथ, जो कि पी.सी.एफ में उस समय काफी सक्रिय थे, के साथ बहुत समय बिताया। वास्तव में, उनके प्रभाव के कारण ही मैं पार्टी से जुड़ा था। और जब मैंने पार्टी छोड़ी तब उनकी तरफ से कोई दर्रेच्छा जैसे मेरे लिए नहीं थी। वे उस कारण से मुझसे से संबंध विच्छेद नहीं करना चाहते थे।

प्रश्न : आपका अल्थुसर से संबंध, या कहें कि एक प्रकार की बौद्धिक रिश्तेदारी का एक मूल अत्यंत दूरस्थ है बजाए जैसा कि आमतौर पर कहा जाता है। मैं इस पर विशेष तौर पर बात करना चाहूँगा कि आपका नाम, ‘संरचनावाद’ के साथ जुड़े विवादों में, जो कि सन साठ के दशक में, फ्रांस के बौद्धिक परिदृश्य में प्रभुत्व रखे हुए थी, अल्थुसर के साथ कई मौकों पर जोड़ा गया है। अल्थुसर मार्क्सवादी थे, और आप नहीं हैं, और ना ही, क्लॉड लीवाय-स्ट्रास और अन्य, परंतु आलोचना ने आप सब लोगों को ‘संरचनावादी’ की परिभाषा में नाथ दिया। आप उसकी व्याख्या कैसे करते हैं? और आप सब के शोध का क्या कोई समान आधार था, अगर था भी ऐसा कुछ था तो?

उत्तर : उन सभी के बीच में, जिन्हें पिछले पंद्रह वर्षों में ‘संरचनावादी’ कहा जा रहा है, परंतु जो कि वे नहीं हैं, सिर्फ क्लॉड लीवाय-स्ट्रास को छोड़ कर, एक समान बिन्दु है अल्थुसर, जॉक लकां और मैं। यथार्थ में, सम्मिलन का वह कौन सा बिन्दु था? वह था ‘कर्ता’ से प्रश्न को एक अलग तरह से उठाने की उत्कट इच्छा, और स्वयं को उस मूलभूत सिद्धान्त से मुक्त करने की, जिसे फ्रांसीसी दर्शन ने देकार्त के समय से नहीं त्यागा है, और जिसे यहाँ तक कि ‘घटना-क्रिया विज्ञान’ ने भी प्रचलित किया है। मनोविश्लेषण के परिप्रेक्ष्य से भी, लकां ने इस तथ्य को उजागर किया कि अचेतन की सैद्धांतिकी, ‘कर्ता’ (देकार्त और फिनोमेनोलॉजी, दोनों के अर्थ में) की सैद्धांतिकी से सुसंगत नहीं है। सार्त्र और जार्ज पोलित्जर ने अचेतन की सैद्धांतिकी की आलोचना करते हुए और यह निर्णय लेते हुए कि अचेतन की सैद्धांतिकी, ‘कर्ता’ की सैद्धांतिकी से सुसंगत नहीं है, उपयुक्त ढंग से मनोविश्लेषण को रद्द किया था। लकां इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘कर्ता’ के दर्शन का परित्याग करना जरूरी है और अचेतन की क्रिया-विधि के विश्लेषण से प्रारम्भ करना अत्यधिक उपयुक्त रहेगा। भाषा विज्ञान- यानि भाषा के विश्लेषण की संभावित प्रविधियाँ- और लीवाय-स्ट्रास के कार्य ने, इस शोध को एक तर्कसंगत साधन दिया, जो कि, बटैय या ब्लैंशो के किसी साहित्यिक या आध्यात्मिक ‘अनुभव’ के बजाय किसी और चीज पर आधारित था। अल्थुसर ने ‘कर्ता’ के दर्शन को चुनौती दी, क्योंकि फ्रांसीसी मार्क्सवाद के भीतर, मानवतावाद और फिनोमेनोलॉजी के तत्व मौजूद थे, और ‘अलगाव की भावना’ की सैद्धांतिकी ने मानव ‘कर्ता’ को, मार्क्स के राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषण को एक दार्शनिक ढंग से परिभाषित करने का सैद्धान्तिक उदाहरण बना दिया था। अल्थुसर के कार्य में, मार्क्स के विश्लेषण का पुनरावलोकन निहित था। यह प्रश्न उठाने में, कि क्या मार्क्स के राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषण में, मानवीय स्वभाव की धारणा, ‘कर्ता’ की धारणा, बहिष्कृत मानव की धारणा, सन्निहित थी, जिन पर, उदाहरण के लिए, कुछ मार्क्सवादी जैसे रॉजर गेरॉडे, के सैद्धान्तिक सूत्र आधारित थे। हम यह जानते हैं कि यह उत्तर पूर्णतः नकारात्मक था।

यही वह सारा सब कुछ है जिसे ‘संरचनावाद’ का नाम दिया गया है। परंतु, वास्तव में, ‘संरचनावाद’ या संरचनात्मक प्रविधियों ने, ठोस अर्थों में, अधिक से अधिक, एक अत्यधिक मौलिक ‘कुछ’- जो कि ‘सबजेक्ट’ की सैद्धांतिकी का पुनर्निरीक्षण था- के एक सहायक या एक प्रमाण के रूप में कार्य ज्यादा किया।

प्रश्न : आप ‘संरचनावाद’ की परिभाषा को एक ‘अपर्याप्त’ स्तर की तरह निरस्त करते हैं। आप, ”कर्ता के विकेन्द्रण“ के प्रतिपादन के बारे में, विशेष रूप से ‘सीमित-अनुभव’ के विचार की ओर इंगित करते हुए, एक वंशावली जो कि नीत्शे से जार्ज बटैय तक जाती है, के बारे में बोलने में अपेक्षाकृत अधिक रुचि रखते हैं। और फिर भी निर्विवाद रूप से यह तो है कि आपके चिंतन का एक बड़ा भाग और आपके सैद्धान्तिक विमर्श की परिपक्वता, ज्ञान-मीमांसा के प्रश्नों और विज्ञान के दर्शन के दुरूह मार्ग से गुजरने का परिणाम है।

उत्तर : यह सही है। विज्ञान का इतिहास, जिसके बारे में मैंने पहले सोचना शुरू किया, उसका बटैय, और नीत्शे के संदर्भ में, जो मैंने पढ़ा उससे बहुत दूर का संबंध आता है। परंतु, यथार्थ में कितना दूर का? जब मैं एक छात्र था, तब विज्ञान का इतिहास, अपने सैद्धान्तिक वाद-विवादों के साथ, एक महत्त्वपूर्ण स्थिति पर प्रभुत्व जमाये हुए था।

फिनोमेनोलॉजी के एक पूरे आयाम ने, विज्ञान के मूल के, उसकी तर्कसंगतता के, उसके इतिहास के, अन्वेषण का रूप ले लिया था। एडमंड हूसर्ल, अलेक्सान्द्र क्वाखे के वृहद पाठों ने घटना-क्रिया विज्ञान के उस आयाम की निर्मिति की। कई अर्थों में, मर्लो-पौण्टी का कार्य भी घटना-क्रिया विज्ञान के उस आयाम के पुनर्ग्रहण का एक प्रयास था।

परंतु, मार्क्सवादी खेमे में से भी एक तद्विषयक व्याख्या आ रही थी, कुछ इस हद तक कि, मार्क्सवाद ने, मुक्ति के बाद के वर्षों में, ना केवल सैद्धान्तिक विचार-क्षेत्र में, बल्कि छात्रों और बुद्धिजीवियों के दैनंदिन के जीवन में भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अर्जित की। निश्चित रूप से, मार्क्सवाद ने स्वयं को एक विज्ञान के रूप में, या कम से कम एक साधारण विज्ञान के वैज्ञानिक चरित्र का उद्घाटन करना प्रारम्भ कर दिया था, एक प्रकार से तर्क का न्यायिक रूप दिया जो किसी को यह भेद करने में मदद कर सके कि क्या विज्ञान से सम्बद्ध है और क्या विचारधारा से सम्बद्ध है। अगर संक्षेप में कहें तो, ज्ञान के किसी भी रूप के लिए तर्कसंगतता की एक सामान्य कसौटी। प्रश्नों और अन्वेषणों के इस मिश्रण ने लोगों को विज्ञान और उसके इतिहास से संबन्धित प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित किया। किस सीमा तक विज्ञान का इतिहास प्रश्नांकित किया जा सकता है या विज्ञान के इतिहास की तर्कसंगतता में पूर्ण स्थापना की पुष्टि की जा सकती है। दरअस्ल, यह वह प्रश्न था जो विज्ञान के इतिहास ने, फिनोमेनोलॉजी के समक्ष रखा था। और मार्क्सवाद ने स्वयं से यह प्रश्न पूछा कि मार्क्सवाद किस सीमा तक, ‘समाज के इतिहास’ के लिए एक नए ढांचे का गठन करके, ‘विज्ञान के इतिहास’ का, गणित की उत्पत्ति और विकास का, सैद्धान्तिक भौतिकी की उत्पत्ति और विकास आदि आदि का लेखा-जोखा दे सकता है? प्रश्नों के इस घटाटोप में जिसका अभी मैंने संक्षेप में वर्णन किया- जिसने कि विज्ञान के इतिहास, मार्क्सवाद और फिनोमेनोलॉजी के मिलने के आधार का गठन किया- वह उस समय पूर्ण केंद्र में था। वह एक तरह का छोटा सा लेंस था, जिससे कालावधि के विभिन्न प्रश्न अपवर्तित होते थे। और यही वह जगह थी जहाँ लुई अल्थुसर जैसे लोग, जो कि मुझसे उम्र में थोड़े बड़े थे, और जो मेरे प्रोफेसर थे, मेरे लिए महत्त्वपूर्ण थे।

प्रश्न : आपके विकास में विज्ञान के इतिहास के इर्दगिर्द की समस्यामूलकता ने क्या भूमिका अदा की?

उत्तर : विडम्बना यह है कि, लगभग उतनी ही जितनी कि नीत्शे, ब्लैंशो और बटैय के कारण हुई। एक भाग यह प्रश्न उठा रहा था कि विज्ञान का इतिहास किस हद तक अपनी तर्कसंगतता को चुनौती दे सकता है, अपनी सीमाओं को प्रकट कर सकता है या बाह्य कारकों से सम्बन्ध को रेखांकित कर सकता है। ऐसे कौन से आकस्मिक प्रभाव हैं जो कि विज्ञान में दर्ज होते हैं, यह जानते हुए कि विज्ञान का एक इतिहास है और वह एक ‘इतिहास-नियत’ समाज में विकसित होता है? और दूसरे प्रश्न भी उठते हैं। क्या विज्ञान का एक तर्कसंगत इतिहास हो सकता है? क्या बोधगम्यता के एक सिद्धान्त को पाया जा सकता है जो विभिन्न चिंतन प्रक्रिया में उतार-चढ़ावों की व्याख्या कर सके और इसके अलावा, कुछ मसलों में, उन तर्कहीन तत्वों की भी व्याख्या कर सके जो कि विज्ञान के इतिहास में कहीं न कहीं से रेंग आते हैं?

अगर बड़े पैमाने पर कहा जाये तो, ये वे प्रश्न थे जो कि मार्क्सवाद और घटना-क्रिया-विज्ञान दोनों में उठाए गए थे। मेरे लिए, हालाँकि, प्रश्न थोड़ी सी अलग भंगिमा में उठाए गए थे। मैं मानता हूँ कि तर्कसंगतता के इतिहास के बारे में सोचना भर ही काफी नहीं है, बल्कि हमें स्वयं ‘सत्य’ के इतिहास के बारे में सोचना होगा। यानि कि, बजाय विज्ञान से यह पूछने के कि किस सीमा तक विज्ञान के स्वयं के इतिहास ने उसे ‘सत्य’ के निकट पहुंचाया है (या सत्य तक पहुँचने से रोका है), क्या यह आवश्यक नहीं है कि, स्वयं को यह बताया जाए कि सत्य आख्यान के उस कतिपय संबंध में निहित है जो आख्यान, ज्ञान स्वयं के साथ बनाए रखता है, और सत्य से यह भी पूछा जाए कि क्या वह संबंध ही अपने आप में एक इतिहास नहीं है, या उस संबंध का कोई इतिहास है?

जो मुझे अद्भुत लगा, वह यह कि नीत्शे के लिए तर्क संगतता- फिर भले ही वह विज्ञान की हो, व्यवहार की हो, या फिर किसी आख्यान की हो- को उस ‘सत्य’ से कतई नहीं मापा जा सकता जो कि विज्ञान, आख्यान या वह अभ्यास उत्पन्न करता है। ‘सत्य’ स्वयं ही आख्यान के इतिहास का अंग बन जाता है और किसी भी अभ्यास या आख्यान का भीतरी प्रभाव बन जाता है।

प्रश्न : नीत्शे के, ‘सत्य के इतिहास’ और ‘मानवीय सिद्धान्त की सीमाओं’ पर आख्यान, निश्चित रूप से पारंपरिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण की तुलना और परिप्रेक्ष्य के परिवर्तन और दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं और इस तथ्य को देखते हुए कि वे पारंपरिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण के आधारों पर, ‘ज्ञान के असत्य’ की घोषणा करते हुए नकारते हैं। परंतु मैं चाहूँगा कि आप यह बताएं कि आप किस तरह विज्ञान की उत्पत्ति के विश्लेषण को ‘सीमित-अनुभव’ या ‘अनुभव’ को रूपान्तरण के रूप में सम्बद्ध करने लगे?

उत्तर : क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विज्ञान भी मूल रूप से एक ‘अनुभव’ की तरह विश्लेषित हो, यानि कि एक ऐसा संबंध जिसमें ‘कर्ता’ उस अनुभव के द्वारा रूपांतरित हो जाता है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो वैज्ञानिक अभ्यास, विज्ञान के आदर्श विषय के रूप में साथ ही ज्ञान के प्रयोजन के रूप में भी कार्य करे। और क्या ऐसा संभव नहीं कि विज्ञान का ऐतिहासिक मूल उस पारस्परिक, कर्ता की उत्पत्ति और ज्ञान के प्रयोजन में निहित हो। इस तरीके से सत्य का कौन सा प्रभाव उत्पन्न होगा? इसका अभिप्राय यह होगा कि सिर्फ ‘एक’ सत्य ही नहीं है- इसका यहाँ यह अभिप्राय नहीं है कि यह इतिहास ‘अतार्किक’ है या विज्ञान ‘भ्रामक’ है। बल्कि, इस के ठीक विपरीत, यह एक समष्टिगत तार्किक अनुभवों की एक शृंखला जो कि उपयुक्त ढंग से, चिह्नित किए जा सकने वाले नियमों के समूह के अनुरूप है, और उनके वास्तविक और विचारणीय इतिहास की उपस्थिति की पुष्टि करता है और परिणामतः ज्ञात कर्ता और ज्ञातव्य कर्ता का गठन करता है।

मुझे लगा कि इस प्रक्रिया को समझने के लिए, सर्वोत्तम यह होगा कि मैं उन नवीनतम, अनौपचारिक विज्ञानों का अध्ययन करूँ जो कि अभी ही स्थापित हुए हैं और जो कि इस सद्य स्थापना के कारण अपने उत्स और उसकी तात्कालिक आग्रहों के निकट हैं- एक तरह से उस प्रकार का विज्ञान जिसका वैज्ञानिक चरित्र अत्यधिक अनिश्चितता के साथ प्रकट होता है और जो ‘वह’ समझने का प्रयास करता है जो कि तर्कसंगतता के क्षेत्र में प्रविष्टि पाने के लिए अपने न्यूनतम रूप से अनुकूल है। ‘पागलपन’ विषय के साथ यही बात थी। यह समझने का मुद्दा था कि किस तरह पश्चिम जगत में, सिर्फ अठारहवीं शताब्दी से, पागलपन एक वैज्ञानिक अनुसंधान और विश्लेषण की एक ठोस वस्तु बनने में सफल हो गया, जबकि हमारे पास इस समय के पूर्व के चिकित्सकीय आलेख उपलब्ध हैं जो कि कुछ संक्षिप्त अध्यायों में, मनोरोगों की बात करते हैं। यहाँ पर हम यह प्रदर्शित कर सकते हैं कि जिस तरह यह ‘वस्तु’, पागलपन, रूप ले रही थी, ठीक उसी समय पागलपन को समझने की ‘विषयवस्तु’ की रूपरेखा भर बन रही थी। पागलपन के एक अध्ययन वस्तु के रूप में गठन के साथ ही साथ एक ‘तर्कसंगत’ विषयवस्तु का भी गठन हो रहा था जो कि पागलपन के बारे में जानकार थी और उसे समझती थी। ‘मैडनेस एंड सिविलाइजेशन’ में मैंने इसी प्रकार के समष्टिगत, संख्या बहुल अनुभवों को जिन्होंने सोलहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के बीच आकार लिया, को समझने की चेष्टा की है और प्रकारांतर से यह उस पारस्परिक क्रिया को समझने की चेष्टा भी की है जो कि एक तार्किक मानव, जो कि पागलपन को पहचान सकता है और उसे समझ सकता है, के अस्तित्व में आने और एक रूप में पागलपन स्वयं को एक समझ सकने जाने वाले और निश्चित वस्तु के मध्य होती है।

प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है कि ‘तर्क’ और ‘अतर्क’ के मध्य, विभाजन और विरोध को चिह्नित करने वाला संस्थापक कृत्य, जिसके कि पाश्चात्य संस्कृति की नियति के लिए परिणाम हुए हैं, जिनका की आपने स्वयं विश्लेषण किया है, वह, ऐतिहासिक विकास के लिए, या आधुनिक ‘तर्क’ के इतिहास के विकास के लिए, एक प्रकार के आवश्यक प्रारम्भिक अवस्था के रूप में दिखता है। क्या यह ‘सीमित-अनुभव’, जो कि इतिहास की संभावना प्रकट करता है, स्वयं में ही, इतिहास से बाह्य एक ‘अकालिक आयाम’ की निर्मिति नहीं करता है?

उत्तर : यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मेरे रचना-कर्म ने, ‘पागलपन’ की एक प्रकार के ‘अनुष्ठान’ के रूप में निर्मिति नहीं की। और ना ही वह किसी प्रकार का ‘तर्क-हीन इतिहास’ था। बल्कि, इसके विपरीत, मैं यह दर्शाना चाहता था कि किस तरह यह अनुभव जो कि ‘पागलपन’ का विषय जो कि स्वयं को जानता है के साथ मिलकर, एक ऐसी ‘वस्तु’ के रूप में गठन करता है- जिसे पूरी तरह से तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तक कि वह कुछ सर्वज्ञात ऐतिहासिक प्रक्रियाओं, जैसे कि एक प्रकार के, नागरीकरण के कालखंड के तदनुरूप, एक विशिष्ट आर्थिक और सामाजिक संदर्भ में, कारावास की प्रथाओं से जुड़े हुए, एक सामान्यीकरण करने वाले समाज का जन्म, या जैसे, एक गतिमान और विस्तृत आबादी, जिन्हें कि अर्थव्यवस्था और राज्य की नई आवश्यकताएँ, सहन करने में असमर्थ थीं, के अस्तित्व में आने के साथ, पूंजीवाद का जन्म, जैसी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से सम्बद्ध तो नहीं है।

अतः मैंने इतिहास लिखने का प्रयास किया, कदाचित, ज्ञान के गठन का, वस्तुनिष्ठता के नवीन संबंध का, या कहें तो ऐसे ‘कुछ’ का जिसे ‘पागलपन का सत्य’ कहा जा सके, के एक अत्यंत तर्क-संगत इतिहास को लिखने का प्रयास किया।

निश्चित रूप से, इसका यह अर्थ नहीं कि, इस नवीन प्रकार के ज्ञान का प्रयोग करके, लोग वास्तव में, उन मानदंडों को सिद्ध कर सकते थे जो कि ‘पागलपन’ को अपनी ‘सत्यता’ में प्रकट कर सके। बल्कि, इसके उलट, उन्होंने ‘पागलपन’ के ‘सत्य’ के अनुभव को संगठित किया, जो कि एक प्रभावपूर्ण ज्ञान की संभावना से जुड़ा हुआ था। और उस विषय-वस्तु को आकार दिया जिससे ज्ञान को पहचाना जा सकता है और जाना जाता है।

प्रश्न : क्या आप फ्रांस से बाहर अधिक रहे?

उत्तर : हाँ, कई वर्षों तक। मैंने, विदेश में, वारसा, हैम्बर्ग, और उप्सला के विश्वविद्यालयों में, एक सहायक के रूप में, और एक व्याख्याता के रूप में, काम किया। यह अल्जीरिया के युद्ध के दौरान हुआ, जिसे मैंने, कुछ हद तक एक प्रवासी की तरह अनुभव किया। और चूँकि मैंने, उन घटनाओं को एक प्रवासी की तरह देखा, अतः मेरे लिए उन घटनाओं के अनौचित्य को पकड़ना, और साथ ही साथ, उस युद्ध के असंभावी परिणाम को स्पष्टतः देखना, अत्यंत सरल था। स्पष्टतः, मैं उस युद्ध के विरोध में था। परंतु, बाहर होने से और, मेरे देश में, जो भी कुछ घट रहा था, उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं करने से- हालाँकि, एक खास तरह की स्पष्टता तो सरलता से आ गई- मुझे विरोध के लिए, अत्यधिक साहस नहीं दर्शाना पड़ा। मैंने आधुनिक फ्रांस के एक महत्त्वपूर्ण अनुभव में व्यक्तिगत रूप से भागीदारी नहीं की।

 

जब मैं वापस लौटा, तब मैंने ‘मैडनेस एंड सिविलाईजेशन’ पुस्तक जो कि एक प्रकार से मेरे उन वर्षों के प्रत्यक्ष अनुभवों को प्रतिध्वनित करती है, का लेखन समाप्त ही किया था। जैसे, मैं स्वीडन के समाज के बारे में कह सकता हूँ कि वह एक अति-संरक्षित, अति चिकित्सा-प्रधान, समाज है जिसकी कि सारी सामाजिक विपदाओं को, सूक्ष्म और चतुर तंत्रों के द्वारा, एक अर्थ में, न्यून कर दिया गया है, या हम देखें कि पोलिश समाज के बारे में यह कहा जा सकता है कि, उस समाज की कारावास की तंत्र प्रणाली एक दूसरी ही किस्म की है। बाद के वर्षों में, पाश्चात्य समाज के लिए, समाज के वे दो प्रकार, एक तरह की मनोग्रन्थि बन गए। परंतु, ऐसी चिंताएँ, युद्ध की व्यस्तताओं और उपनिवेशवाद के युग के अंत से उत्पन्न हुईं समस्याओं में डूबे हुए फ्रांस के लिए, फिर भी अमूर्त थी। फ्रांस की वास्तविकता से इस विलक्षण अनासक्ति से उपजने के कारण, ‘मैडनेस एंड सिविलाईजेशन’ तुरंत ही, बार्थ, ब्लैंशो और क्लौसोवस्की के द्वारा, अनुकूल रूप से स्वीकृत की गई। जबकि चिकित्सकों और मनश्चिकित्सकों के मध्य, प्रतिक्रियाएँ भिन्न थीं। कुछेक ने, जो मार्क्सवादी या उदारवादी विचारधारा की ओर उन्मुख थे, जैसे, लूसियों बोनाफी ने, थोड़ी बहुत रुचि दिखाई, परंतु, बाकियों ने, जो कि अत्यधिक रूढ़िवादी थे, उसे अस्वीकार कर दिया। परंतु, जैसा कि मैंने कहा, कुल मिलाकर, मेरे काम की अनदेखी ही की गई, बुद्धिजीवियों की ओर से एक चुप्पी और उदासीनता ही थी।

प्रश्न : उस रवैये के प्रति, आपकी क्या प्रतिक्रिया थी? एक अल्प समय के पश्चात, ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ को, जो कि उसके तर्कों से सहमत नहीं थे, उन लोगों के द्वारा भी, एक प्रथम श्रेणी की रचना के रूप में स्वीकार किया गया था। आप प्रारम्भ की उस उदासीनता की व्याख्या कैसे करते हैं?

उत्तर : मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं थोड़ा अचंभित था, परंतु मैं अनुचित था। क्योंकि, फ्रांस का बौद्धिक परिवेश, अभी-अभी ही कुछ भिन्न प्रकार के अनुभवों से गुजरा था। वहाँ मार्क्सवाद, विज्ञान, और विचारधाराओं की बहसों का बोलबाला था। मेरा मानना है कि ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ के प्रति ग्रहनशीलता की न्यूनता की कुछ इस प्रकार व्याख्या की जा सकती है। सर्वप्रथम, ऐसे समय में जब अधिकांश लोगों का ध्यान सैद्धांतिकी या सैद्धान्तिक बहसों पर केन्द्रित था, यह एक ऐतिहासिक अनुसंधान की कृति थी। दूसरे, मानसिक रोगों की चिकित्सा, मनोचिकित्सा जैसे क्षेत्र, उस समय चलने वाली बहसों की तुलना में ‘सीमांत’ समझे जाते थे, और फिर, अंततः, क्या ‘पागल’ और ‘पागलपन’, किसी ऐसे कुछ का प्रतिनिधित्व नहीं करता जो कि समाज के सीमाओं पर स्थित है, एक प्रकार की बाह्य सीमा? मेरे विचार में, उन लोगों की, जिनकी अति-विकसित राजनीतिक चिंताएँ थीं, और कहना न होगा कि उनकी उदासीनता के लगभग ये ही कुछ कारण थे। मैं आश्चर्यचकित था, मुझे लगा कि उस पुस्तक में लोगों की रुचि की चीजें होंगी, क्योंकि मैंने उस पुस्तक में यह देखने का प्रयास किया कि, किस तरह एक विमर्श, (यानि मनश्चिकित्सा), जो कि स्वयं के ‘वैज्ञानिक’ होने का दावा करता है, मूलतः ऐतिहासिक परिस्थितियों के द्वारा निर्मित है। मैंने, उत्पादन की प्रणालियों के उन रूपांतरणों से, जिन्होंने, जनसामान्य को इस तरह प्रभावित किया कि, जिससे न केवल विपन्न होने की समस्याएँ, बल्कि, दरिद्र, रुग्ण और पागल होने की विभिन्न श्रेणियों के अंतरभेद भी उभर कर आ गए, और उसी के आधार पर, मनश्चिकित्सा के इतिहास को लिखने का प्रयास किया। मैं आश्वस्त था, कि यह सब मार्क्सवादियों के लिए निश्चित रूप से आकर्षक होगा।

 

और जबकि वहाँ पर पूर्ण चुप्पी थी।

प्रश्न : आपके विचार में, बाद में, आपकी पुस्तक में लोगों की बढ़ती हुई रुचि और उसके साथ के तीव्र वाद-विवाद का क्या कारण था?

उत्तर : अब जाकर मैं, संभवतः, ऐसा कैसे हुआ इस तथ्य को सूत्रबद्ध कर सकता हूँ। जब सन 1968 की घटनाएँ आकार लेने लगीं और अंत में विस्फोटक हो गईं, तब लोगों की प्रतिक्रियाओं और रवैयों में बदलाव और कट्टरता आने लगी। और तब ‘पागलपन’ की, कारावास की, और समाज के प्रसामान्यीकरण की समस्याएँ, लोगों की, विशेष कर चरम वामपंथी दायरों का, एक तरह से कहें कि, ‘स्नेहभाजन’ बनने लगीं। जो लोग, जो कुछ भी उस समय ‘पक’ रहा था, से दूरी बनाना चाहते थे, उन्होंने अपना लक्ष्य मेरी पुस्तक को बनाया, यह दर्शाते हुए कि उसका विश्लेषण कितना आदर्शवादी है, और किस तरह वह समस्याओं के मूल में जाने में असमर्थ रही है, और इस तरह, उस पुस्तक के प्रकाशन के आठ वर्ष के पश्चात, ईवोल्यूशन साईकियाट्रिक जो कि फ्रांस के मनश्चिकित्सकों का एक महत्त्वपूर्ण समूह है, ने तुलूज (फ्रांस का एक शहर-अनु.) में, अपना एक पूरा सम्मेलन, ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ को बहिष्कृत करने के उद्यम में, समर्पित करने का निर्णय लिया। यहाँ तक कि लूसियों, बोनाफी ने भी, जो कि मार्क्सवादी मनश्चिकित्सक थे, और जिन्होंने मेरी पुस्तक में, जब वह प्रकाशित हुई थी, रुचि दिखाई थी- सन 1968 में, उसे एक ‘आदर्शवादी पुस्तक’ घोषित करते हुए, उसकी निंदा की थी। वाद-विवादों के इस सम्मिलन से, और लोगों की कुछ विषयों में रुचि के पुनर्जागरण से, ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ ने एक प्रकार के समकाल की प्रतिष्ठा अर्जित की।

प्रश्न : आपके कार्य में लोगों की रुचि के पुनर्जागृत होने से, मनश्चिकित्सकीय दायरों में इसका क्या प्रभाव पड़ा? जहाँ तक मुझे याद आता है, उन वर्षों में, एक आंदोलन का विस्तार हो रहा था जो कि, व्यापक रूप से समकालीन सांस्कृतिक व्यवस्था के साथ-साथ परंपरागत मनश्चिकित्सा को भी चुनौती दे रहा था।

उत्तर : कुछ हद तक द्वितीय विश्व युद्ध के पहले और विशेष तौर पर युद्ध के बाद, मनश्चिकित्सकीय अध्ययनों के पुनर्मूल्यांकन का एक आंदोलन, जिसका प्रारम्भ स्वयं मनश्चिकित्सकों के मध्य हुआ था, प्रारम्भ हुआ था। सन 1945, के पश्चात, उन युवा मनश्चिकित्सकों ने अपने विश्लेषणों में, अपने चिंतनों में, और अपनी परियोजनाओं में, जिस ‘कुछ’ का सूत्रपात किया था, वह जिसे कि ‘प्रति-मनश्चिकित्सा’ कहा जाता है, वैसे ‘कुछ’ का, 1950 के दशक के पूर्वार्ध में फ्रांस में आविर्भाव हो सकता था। चूँकि, ऐसा कुछ नहीं हो पाया, तो मेरे विचार से उसके कारण कुछ इस प्रकार से हैं। प्रथम तो, वे सारे मनश्चिकित्सक जिनकी कि मैंने अभी चर्चा की, वे, अगर पूर्णरूपेण मार्क्सवादी नहीं थे तो, कम से कम मार्क्सवाद के अत्यंत निकट तो थे ही, और इसलिए उनका ध्यानाकर्षण, सोवियत संघ में जो कुछ हो रहा था, उसकी ओर हो रहा था और फिर वहाँ से उनका ध्यान पावलोव की ओर, और ‘संवेदनशीलता’ की ओर, और ‘भौतिकवादी मनश्चिकित्सा’ की ओर, तथा सैद्धान्तिक और वैज्ञानिक समस्याओं के एक पूरे समूह की ओर, जो कि उन्हें कहीं नहीं ले जाता, की ओर भी आकर्षित हो रहा था। उनमें से एक तो, सन 1954-55 में, सोवियत संघ में, अध्ययन के लिए गया भी, परंतु, उसने वहाँ से लौटने के बाद, अपने वहाँ के अनुभवों के बारे में कुछ लिखा या बोला हो, यह मुझे ज्ञात नहीं है। इसलिए मेरे विचार में- और इसे मैं बिना किसी आक्रामक आशय के कह रहा हूँ- मार्क्सवादी परिवेश, शनैः-शनैः उन्हें एक विकट स्थिति की ओर ले गया। दूसरा, मेरा यह मानना भी है कि, अन्य कई मनश्चिकित्सकों को- चूँकि उनमें से अधिकतर राज्य के कर्मचारी थे, उनकी स्थिति के कारण -उन्हें मनश्चिकित्सा पर, एक बचाव के श्रम-संगठनों के कोण से, प्रश्न उठाने के लिए लाया गया। अतः, जो व्यक्ति, अपनी रुचियों, अपनी क्षमताओं, और कई विषयों के प्रति अपने खुलेपन के आधार पर, मनश्चिकित्सा की समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते थे, उन्हें अंततः गतिरोधों में धकेल दिया गया। सन साठ के दशक में, ‘प्रति-मनश्चिकित्सा’ के विस्फोट के सामने, उनका रवैया रद्द करने का था, जो कि उत्तरोत्तर सुस्पष्ट होता गया और जिसने बाद में एक आक्रामक मोड़ भी ले लिया। और तब ऐसे में मेरी पुस्तक की निंदा ऐसे की गई, जैसे कि वह शैतान के प्रवचन हों। मैं जानता हूँ कि आज भी कुछ ‘परिवेशों’ में,‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ की चर्चा एक तरह की असामान्य घृणा के साथ की जाती है।

प्रश्न : आपके लेखन द्वारा उकसाये हुए, वाद-विवादों के बारे में सोचते हुए, मैं उन कुछ लोगों को, जो कि सन साठ में संरचनावाद को लेकर चली उत्तेजक बहसों के बाद आए, को याद करना चाहूँगा। उस कालखंड में, एक तनावपूर्ण बहस चली थी, जिसमें कि आप पर केन्द्रित कुछ कटु टिप्पणियाँ भी थीं, उदाहरण के लिए, सार्त्र की ओर से। परंतु, पहले मैं आपके विचार के विषय में किए गए कुछ अन्य मूल्यांकनों की याद दिलाना चाहूँगा। रॉजर गैराडे ने ‘अमूर्त संरचनावाद’ की बात की, ज्याँ पियाजे ने ‘संरचना विहीन संरचनावाद’ की, मिकेल द्युफ्रेन ने ‘नव प्रत्यक्षवाद’ की, सिल्वी ली बों ने ‘निराशाजनक प्रत्यक्षवाद’, मिशेल अमियों ने ‘सांस्कृतिक सापेक्षतावाद’ की बात की, और इसी तरह और भी कई बातें हुईं। ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ के प्रकाशन के पश्चात के कालखंड में, अवलोकनात्मक टिप्पणियों का एक समूह और उसके साथ ही साथ, आपके तर्कों की आलोचना, विभिन्न, यहाँ तक कि विपरीत शब्दावलियों के मिलन बिन्दु के रूप में, सामने आई। परंतु, फ्रांस की संस्कृति का यह अति-उत्तेजित वातावरण, संभवतः, ‘संरचनावाद’ को लेकर चलने वाले एक विस्तृत वाद-विवाद पर आधारित था। आप, आज उन टिप्पणियों को किस रूप में देखते हैं, और थोड़े व्यापक रूप में, वह वाद-विवाद, किस बारे में था?

उत्तर : इस ‘संरचनावाद’ के मसले को सुलझाना अत्यधिक कठिन है, परंतु, फिर भी हमारे लिए एक प्रयास करना रोचक होगा। चलिये, हम वाद-विवादों के उस नाटकीय और यदा-कदा विकृत विस्फोट को, थोड़ी देर के लिए, अलग रख देते हैं। मैं, ‘विकृत’ की श्रेणी में, सबसे ऊपर सार्त्र के उस जग-प्रसिद्ध कथन को रखना चाहूँगा, जिसमें उन्होंने मुझे ‘बुर्जुआजी की अंतिम आदर्शवादी प्राचीर’ कहा था। मैं कहना चाहूँगा कि निश्चित रूप से वह एक दुर्भाग्यशाली बुर्जुआ रही होगी। क्योंकि अगर उसके पास मेरे जैसी कोई ‘प्राचीर’ होती, तो वह निश्चित रूप से सत्ता पर से अपनी पकड़ बहुत पहले ही खो चुकी होती!

बहरहाल, हमें यह प्रश्न पूछने की आवश्यकता है, कि ‘संरचनावाद’ में ऐसा क्या था, जो कि इतना कष्टप्रद था। मेरे विचार से, लोग यथोचित रूप में तार्किक ही होते हैं, अतः जब वे इस बात पर नियंत्रण खो देते हैं कि, वे क्या कह रहे हैं, तब निश्चित रूप से कोई न कोई गंभीर मुद्दा होना चाहिए। मेरे पास कुछ परिकल्पनाएँ हैं। चलिये, सर्वप्रथम, एक उक्ति से प्रारम्भ करें।

 

साठ के दशक के मध्य में, ‘संरचनावादी’ शब्द, उन व्यक्तियों के संदर्भ में प्रयोग में लाया गया था, जिन्होंने, विभिन्न ऐसे अध्ययन किए थे - जो कि अपने आप में तो एक दूसरे से अत्यंत भिन्न थे, परंतु वे एक समन्वित तत्व प्रस्तुत करते थे : उन्होंने, दर्शन के उस एक प्रकार का, चिंतन और विश्लेषण के उस एक प्रकार का, अंत करने का प्रयास किया, या कम से कम उसे दरकिनार करने का प्रयास किया, जो कि मूलतः ‘कर्ता’ के प्राधान्य के अभिकथन पर केन्द्रित था। मार्क्सवाद, जो कि, उस समय अलगाव की भावना की अवधारणा के जिये गए अनुभव पर केन्द्रित, घटना-क्रिया-विज्ञानीय अस्तित्ववाद से, वशीभूत था, और मनोविज्ञान के उन सूत्रों से भी, जो कि प्रामाणिक मानवीय अनुभव रहे थे- जैसे कि, उदाहरण के लिए कहें कि, ‘स्वत्व का अनुभव’, के पक्ष में, अचेतन की अवधारणा को रद्द करते थे।

परंतु, मैं सोचता हूँ कि, इस खींचतान के पीछे, फिर भी एक गहरा जैसा ‘कुछ’ था, एक ऐसा इतिहास, जिस पर, उस समय, कभी अत्यधिक चिंतन नहीं किया गया। देखिये, दरअस्ल, ‘संरचनावाद’ की खोज, निश्चित रूप से, साठ के दशक के संरचनावादियों के द्वारा नहीं हुई थी, और इससे महत्वपूर्ण बिन्दु यह कि, यह एक फ्रांसीसी आविष्कार कतई नहीं था। इसका वास्तविक उत्स, दरअस्ल सन 1920 के दशक में, सोवियत संघ और मध्य योरप में हुए अध्ययनों की एक शृंखला में था। भाषा-विज्ञान, पुरा-कथाओं, और लोक-साहित्य आदि-आदि के क्षेत्रों में हुआ, वह वृहद सांस्कृतिक विस्तार, जो कि सन 1917 की रूसी क्रान्ति के पूर्व हुआ था, और जो कि एक प्रकार से उससे काफी हद तक मेल भी खाता था, वह, स्टालिनवादी ‘स्टीम रोलर’ द्वारा, एक दूसरी ओर, धकिया दिया गया था, यहाँ तक कि कुचल भी दिया गया था। इसके पश्चात, संरचनावादी संस्कृति, फ्रांस में, उन तंत्र जालों के द्वारा प्रचलन में आई, जो कि कमोबेश गुप्त थे, या कम-ज-कम अल्पज्ञात थे, उदाहरण के लिए, एवगेनी त्रुबेत्सकोय का स्वर-विज्ञान, क्लॉड-लीवाय स्ट्रास और ज्योर्जेस डय्ूमेजिल पर व्लादिमीर प्रोप्प का प्रभाव, और आदि-आदि। तो, मुझे ऐसा लगता है कि, ऐतिहासिक ज्ञान जैसा कुछ, जिससे कि हम अनभिज्ञ थे, उन कुछ फ्रांसीसी मार्क्सवादियों की उस उग्रता में उपस्थित था, जिससे उन्होंने साठ के दशक के संरचनावादियों का विरोध किया। वह ‘ज्ञान’ यह था कि ‘संरचनावाद’, ‘स्टालिनवाद’ का बड़ा सांस्कृतिक शिकार या पीड़ित रहा है, एक ऐसी संभावना जिसका कि मार्क्सवाद ने सामना नहीं किया।

प्रश्न : मैं यह कहूँगा कि, आप एक सांस्कृतिक प्रवाह को, ‘पीड़ित या शिकार’ बता कर, उसे विशेषाधिकार प्रदान कर रहे हैं। ‘स्टालिनी स्टीम रोलर’ ने, जैसा कि आप कहते हैं, ‘संरचनावाद’ को हाशिये पर नहीं धकियाया, बल्कि, उसने, सांस्कृतिक और विचारधारात्मक अभिव्यक्तियों और प्रवृत्तियों की एक पूरी शृंखला, जिन्हें कि अक्टोबर क्रान्ति ने प्रोत्साहन दिया था, के साथ भी ऐसा ही किया था। मैं नहीं सोचता कि हम इस स्तर पर काफी स्पष्ट भेद स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यहाँ तक कि मार्क्सवाद भी, उसके लचीलेपन और उसके खुलेपन को क्षति पहुंचाते हुए, एक सिद्धांतवादी कोष में बदल दिया गया था...

उत्तर : परंतु, इस रोचक तथ्य का, जो मैं आगे कहने जा रहा हूँ, का स्पष्टीकरण देना फिर भी आवश्यक है, वह तथ्य यह है कि सन साठ के दशक में, ‘संरचनावाद’ जैसी एक मूलतः विशेष घटना, कैसे इतने आवेशों को उकसा सकी? और क्यों लोग, बुद्धिजीवियों के एक दल को, जो कि ‘संरचनावादी’ नहीं थे, या उन पर वह नाम चस्पां कर दिये जाने को रद्द करते थे, उन्हें ‘संरचनावादियों’ के रूप में परिभाषित कर दिये जाने पर जोर देते हैं? मेरा मानना यह है कि हम जब तक अपने विश्लेषण के गुरुत्वाकर्षण केंद्र की जगह नहीं बदलेंगे, तब तक हमें एक संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सकेगा। अगर, हम मसले की तह में जाएँ तो, पश्चिम योरप में ‘संरचनावाद’ की समस्या, दरअस्ल, और कुछ नहीं बल्कि, पूर्वी योरप के, देशों के समक्ष आई अत्यंत तत्ववादी समस्याओं का परिणाम है। इन सबसे सर्वोपरि, हमें, स्टालिनीकरण के विस्थापन के दौरान कई बुद्दिजीवियों, जैसे सोवियत, चेक, और आदि-आदि के द्वारा, कुछ सीमा तक राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त करने के और इसके साथ ही साथ स्वयं को आधिकारिक विचारधाराओं से मुक्त होने के प्रयासों को भी ध्यान में रखना होगा। इस विषय में, वे, निश्चित रूप से, सन 1920 के दशक की, उस ‘गुप्त परंपरा’ की ओर आकर्षित हो सकते हैं जिसके बारे में मैंने पहले चर्चा की और जिसकी दुगुनी महत्ता थी। पहला, यह नवाचार का एक बड़ा प्रकार था (रूपवाद, संरचनावाद और आदि-आदि), जो पूर्वी योरप के देश, पश्चिम की संस्कृति को प्रस्तुत कर सकता था दूसरा कि, यह संस्कृति, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अक्टोबर क्रान्ति से सम्बद्ध थी, और साथ ही साथ, इसके मुख्य प्रतिपादक उससे जुड़े हुए थे। तो, इस तरह से, यह स्वरूप उभरने लगता है, कि जब स्टालिनीकरण का विस्थापन प्रारम्भ हुआ, तब इन बुद्धिजीवियों ने, सांस्कृतिक रूप से प्रतिष्ठित उस परंपरा से, जिसे कि एक राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रतिक्रियावादी और पाश्चात्य होने का दोष नहीं दिया जा सकता था, से जुड़ कर, अपनी स्वायत्तता को पुनः पाने का प्रयास किया। यह क्रांतिकारी और पूर्वी था। अतः, इसलिए उन प्रवृत्तियों को पुनरुज्जीवित करने और उन्हें बौद्धिक और कलागत प्रचलन में लाने की मंशा हुई। मेरे विचार से, सोवियत सत्ताधारी, इस जोखिम से भली-भांति परिचित थे, और एक सीधी मुठभेड़ नहीं चाहते थे, वहीं दूसरी ओर, कई बौद्धिक शक्तियाँ, ऐसी ही मुठभेड़ होने का अनुमान लगा रही थीं।

मुझे ऐसा लगता है कि फ्रांस में जो कुछ घटा, वह कुछ हद तक, उसी सब का एक लापरवाह, अविचारित परिणाम था। उन घटकों को, जो लगभग मार्क्सवादी थे- फिर भले ही वे साम्यवादी हों या मार्क्सवाद से प्रभावित हों- यह अनुमान निश्चित तौर पर था कि, ‘संरचनावाद’ में, जिस तरह से उसको फ्रांस में अपनाया जाता था, उसमें ऐसा कुछ था, जो कि परंपरागत मार्क्सवादी संस्कृति के अवसान का आभास देता था। वाम के एक ‘मार्क्सवाद विहीन’ आयाम का जन्म होने को था। यही उन प्रतिक्रियाओं के लिए भी जिम्मेदार था, जिन्होंने, तुरंत ही, अनुसंधान के इन प्रकारों पर आदर्शवादी और तकनीकोन्मुखी होने का दोषारोपण कर दिया था। ‘ल तों मएदर्न’ (ज्याँ पॉल सार्त्र की पत्रिका-अनु.) का ‘रूपवाद’ और ‘संरचनावाद’ के बारे में निर्णय, कट्टर स्टालिनवादियों या उन निर्णयों के समरूप था, जो कि ख्रुश्चेव के कालखंड में दिये जाते थे।

प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है कि आप पुनः विषय से थोड़ा आगे जा रहे हैं, क्योंकि निर्णयों का साम्य, अपने आप में फिर भी, राजनीतिक तो छोड़िए, सांस्कृतिक स्थितियों का सम्मिलन ही नहीं कहा जा सकता...

उत्तर : मैं आपको दो किस्से सुनाना चाहूँगा। हालाँकि, मैं पहले किस्से, जिसे कि मुझे सन 1974 या 1975 में एक चेक निर्वासित ने सुनाया था, की प्रामाणिकता के बारे में उतना आश्वस्त नहीं हूँ। सन 1966 के अंत में, या सन 1967 के प्रारम्भ में, एक महान पाश्चात्य दार्शनिक को, प्राग में, एक व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। चेक लोगों ने बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतीक्षा की। यह प्राग वसंत (प्राग वसंत, भूतपूर्व चेकोस्लोवाकिया के इतिहास में, द्वीतीय विश्व युद्ध के बाद के, राजनीतिक उदारीकरण के उस कालखंड को दिया गया नाम है, जब चेकोस्लोवा किया भूतपूर्व सोवियत संघ के प्रभुत्व में था-अनु.) के फलने-फूलने के ठीक पहले के सांस्कृतिक और सामाजिक उत्साह का समय था, और वे उस कालखंड में आमंत्रित किए जाने वाले पहले महान गैर-साम्यवादी बुद्धिजीवी थे। लोगों की, उनसे यह अपेक्षा थी कि वे उन तरीकों पर चर्चा करेंगे, जिनसे पाश्चात्य योरप में प्रगतिशील विचार और परंपरागत मार्क्सवादी संस्कृति की भिन्नता का पता चलता था। परंतु, अपने व्याख्यान के प्रारम्भ से ही, इन दार्शनिक महोदय ने, बुद्धिजीवियों के उस समूह, ‘संरचनावादियों’, पर धावा बोल दिया, जो कि निस्संदेह ‘पूँजी’ की सेवा में थे और जिन्होंने महान मार्क्सवादी विचारधारात्मक परंपरा के विरुद्ध जाने का प्रयास किया था। वे कदाचित, यह आशा कर रहे थे कि इस प्रकार की- यानि व्यावहारिक मार्क्सवाद की- चर्चा से, वे चेक लोगों को संतुष्ट कर रहे हैं, परंतु, यथार्थ में वे, उस देश के बुद्धिजीवियों के द्वारा किए गए कार्य को दुर्बल कर रहे थे। और साथ ही साथ, वे चेक सत्ताधारियों को, ‘संरचनावाद’ पर, जिसे कि एक ऐसा दार्शनिक जो कि स्वयं साम्यवादी भी नहीं है, वह ही इसे एक प्रतिक्रियावादी और बूर्जूआजी विचारधारा मान रहा है, पर आक्रमण करने के लिए, एक असाधारण हथियार मुहैया करा रहे थे। यह सब घोर निराशाजनक था, जैसा कि आप समझ सकते हैं।

प्रकारान्तर से अब दूसरे किस्से के बारे में बात करें- जो कि स्वयं मुझसे सम्बद्ध है। यह सन 1967 की बात है, जब मुझे हंगरी में एक व्याख्यान-माला देने के लिए कहा गया था। मैंने, ‘संरचनावाद’ के बारे में, पश्चिम में उस समय हो रही बहसों की विषय-वस्तु का सुझाव दिया। जिन-जिन विषयों का मैंने प्रस्ताव रखा, वे सभी स्वीकार कर लिए गए। व्याख्यान-माला के सारे व्याख्यान विश्वविद्यालय के सभागृह में होने थे। परंतु, जब ‘संरचनावाद’ के बारे में मेरे व्याख्यान का समय आया, तब उस अवसर पर मुझे सूचित किया गया कि, व्याख्यान, रेक्टर के कार्यालय में होगा। मुझसे कहा गया कि चूँकि, यह बहुत महीन विषय है, अतः यह लोगों में उत्सुकता नहीं जगा पाएगा। मैं जानता था कि यह सरासर झूठ है। मैंने अपने युवा दुभाषिए से इसके बारे में पूछा, तो उसने उत्तर दिया : ”दरअस्ल, तीन विषय हैं, जिनके बारे में आप विश्वविद्यालय में चर्चा नहीं कर सकते हैं, वे हैं नाजीवाद, मिकलोसहोर्ती का शासन, और संरचनावाद“। मैं यह सुन कर स्तब्ध रह गया। इस घटना से मुझे यह समझ में आया कि ‘संरचनवाद’ की समस्या, दरअस्ल, पूर्व की समस्या है और फ्रांस में इस विषय पर जो व्याकुल और गर्मागर्म बहसें हो रही थीं, वे मूलतः पूर्व योरप के देशों में संचालित हो रहे एक अत्यंत गंभीर, कड़े, और बहुतों के द्वारा ठीक से न समझे गए संघर्ष का प्रतिघात था।

प्रश्न : आप प्रतिघात की बात क्यों करते हैं? क्या फ्रांस में हुई सैद्धान्तिक बहसों की अपनी स्वयं की मौलिकता नहीं थी, जो कि ‘संरचनावाद’ के प्रश्न से कहीं आगे थी?

उत्तर : जिनका अभी मैंने जिक्र किया वह सब हमें, पश्चिम में ‘संरचनावाद’ के इर्द-गिर्द होने वाली बहसों की प्रकृति और तीव्रता को बेहतर समझने में मदद करता है। कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे संबोधित किए गए थे : सैद्धान्तिक प्रश्नों को रखने का एक तरीका, जो कि विषय-केन्द्रित नहीं था, और विश्लेषण जो कि, मार्क्सवादी हुए बिना भी पूर्ण रूपेण तर्कसंगत था। यह एक प्रकार के सैद्धान्तिक चिंतन का जन्म था, जो कि महान मार्क्सवादी आज्ञापालन से विलग था। जो मूल्य और संघर्ष पूर्व योरप, में प्रवृत्त थे, वे पश्चिम में जो हो रहा था, उस पर स्थानांतरित कर दिये गए थे।

प्रश्न : मैं इस ‘स्थानांतरण’ का अर्थ नहीं समझ पाया। ‘संरचनात्मक प्रविधि’ के बारे में जिज्ञासा का पुनर्नवीनीकरण, और पूर्वी योरपीय देशों में उसकी परंपरा का, फ्रांस के संरचनावादियों के द्वारा अभिव्यक्त, प्रति-मानववादी सैद्धान्तिक दिशा से कोई लेना-देना नहीं था...

उत्तर : जो पूर्व में हुआ और जो पश्चिम में हुआ, वह एक ही प्रकार की घटना थी। उसमें यह दाँव पर लगा हुआ था। चिंतन और विश्लेषण के रूप, कितनी दूर जाकर गठित किए जा सकते हैं, जो कि ना तो अतार्किक हों, और ना ही दक्षिण पंथी, परंतु फिर भी मार्क्सवादी मत से बंधे हुए ना हों। यही वह समस्यात्मक प्रश्न था, जिसे वे, जो इससे भयाक्रान्त थे, सर्व-ग्रासी, भ्रामक शब्द ‘संरचनावाद’ कह कर निंदा करते थे। और वह शब्द क्यों परिदृश्य में आया? क्योंकि, ‘संरचनावाद’ पर बहस, सोवियत संघ और पूर्वी योरपीय देशों में केंद्र में थी। वहाँ पर भी, प्रश्न, यह निर्धारित करने का था कि, एक तार्किक, वैज्ञानिक, और सैद्धान्तिक शोध का गठन किस सीमा तक किया जा सकता है, जो कि, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियमों और स्वमताभिमान से बाहर हो।

यह पूर्व और पश्चिम में एक जैसा घटा, परंतु, एक भेद के साथ, वह यह कि पश्चिम में यह कड़े अर्थों में, ‘संरचनावाद’ का मुद्दा नहीं था, जबकि पूर्वी देशों में, यह सिर्फ ‘संरचनावाद’ ही था, जो छुपा हुआ था, और अभी भी छुपाया जाता रहा है। यह हमें उन कुछ भावनाओं को समझने में सहायक होता है...

प्रश्न : परंतु, उत्सुकतावश, लुई अल्थुसर भी उन शापों के लक्ष्य रहे हैं, हालाँकि, उनका शोध तो पूर्णरूपेण मार्क्सवाद के साथ पहचाना जाता था, और यहाँ तक कि उसके सबसे विश्वसनीय भाष्य होने का दावा किया जाता था। तो, आप इस बात की, किस तरह व्याख्या करेंगे कि एक ओर तो मार्क्सवादी कृति जैसे ‘रीडिंग कैपिटल’ और दूसरी ओर आपकी पुस्तक ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’, जो कि दोनों साठ के दशक के मध्य में प्रकाशित हुईं, और जिनका बिलकुल ही भिन्न अभिविन्यास है, एक ही ‘प्रति-संरचनावादी’ वाद-विवाद के लक्ष्य कैसे बन गए?

उत्तर : मैं, अल्थुसर की ओर से तो आपको ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे सकता। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, वे, मेरी दूसरी पुस्तक ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ पर आक्रमण करके मुझसे ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ की क्षतिपूर्ति करवाना चाहते थे। ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ ने एक व्याकुलता प्रस्तावित की थी : उस पुस्तक ने, ध्यान, महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों से हटाकर, गौण विषयों पर केन्द्रित कर दिया था। बजाय, मार्क्स के बारे में बात करने के, उस पुस्तक ने छोटे-छोटे मुद्दों जैसे कि, पागलखाने के कार्य का विश्लेषण किया। वह ‘कांड’ जो कि पहले घटना चाहिए था, वह तब घटा, जब 1966 में ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ प्रकाशित हुईं, और उसके बारे में कहा गया कि वह विशुद्ध, रूपात्मक और अमूर्त पाठ है, ये वे बातें हैं जो लोग, पागलपन से संबन्धित, मेरी पहली पुस्तक के बारे में नहीं कह पाये। अगर उन्होंने, सचमुच में ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ और इसके बाद आने वाली पुस्तक ‘द बर्थ ऑफ़ अ क्लीनिक’ पर ध्यान दिया होता, तो उन्होंने पाया होता कि ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ मेरे लिए सब कुछ एकत्रित करने वाली पुस्तक का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। वह पुस्तक, कुछ प्रश्नों के उत्तर देने के किसी एक आयाम को अधिकृत करती है। मैंने अपनी सारी पद्धतियाँ और चिंताएँ सिर्फ उसमें ही नहीं डाली हैं। इसके अलावा, उस पुस्तक के अंत, मैं पुनः-पुनः- इस बात की पुष्टि करता हूँ कि, यह विश्लेषण, ‘ज्ञान’ और ‘ज्ञात’ के रूपान्तरण के स्तर पर किया गया है, और यह भी कि, ‘कारणत्व’ का एक सम्पूर्ण अध्ययन और एक गहन स्पष्टीकरण अभी बाकी है। अगर मेरे आलोचकों ने, मेरी पिछली कृतियाँ पढ़ी होतीं, और उन्होंने उन पिछली कृतियों को भूलने पर जोर नहीं दिया होता तो, वे यह पहचान पाते कि, उन पुस्तकों में, मैं पहले ही कुछ स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर चुका हूँ। यह एक पुरातन प्रथा है, कम से कम फ्रांस में तो कि, लोग किसी पुस्तक को ऐसे पढ़ते हैं कि, जैसे वह अपने आप में पूर्ण हो, अपने आप में एकल इकाई हो। जबकि, मैं अपनी पुस्तकें एक शृंखला की तरह लिखता हूँ पहली पुस्तक कुछ प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देती है, जिन पर दूसरी पुस्तक आधारित होती है और तीसरी की दरकार करती है, और इन सबके बीच में कोई सीधी निरंतरता नहीं होती है। वे पुस्तकें, एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था और परस्पर-व्यापक होती हैं।

प्रश्न : तो आप पद्धतियों की एक पुस्तक, जैसे कि ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ को पागलपन और ‘नैदानिक चिकित्सा’ की पुस्तकों, जो कि अन्वेषण की पुस्तकें हैं, से जोड़ते हैं। एक व्यवस्थित प्रकार के सर्वेक्षण के लिए आपको किसने प्रेरित किया और ‘ज्ञान’, यानि कि नियमों के सूत्र-समूह, जो किसी सांस्कृतिक या ऐतिहासिक कालखंड में, विवाद पैदा करने वाली कवायद का नियमन करते हैं, का उद्धरण कैसे किया?

उत्तर : ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ में मैंने, अनुभवजन्य ज्ञान की व्यवस्था में, प्रक्रियाओं का, वर्गीकरण का, सारणीयन का, और समन्वय का, एक विश्लेषण विकसित किया। यह एक ऐसा प्रश्न था, जिसे मैंने पहले ही, जब यह मेरे सामने उठा था, चिह्नित कर लिया था, जब मैं, ‘बर्थ ऑफ़ अ क्लीनिक’, जो कि जीव-विज्ञान, चिकित्सा और प्राकृतिक-विज्ञान के प्रश्नों से सरोकार रखती है, पर काम कर रहा था। परंतु, जब मैं ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ पर काम कर रहा था, मैं चिकित्सकीय वर्गीकरण के प्रश्नों का सामना पहले ही कर चुका था, यह देखते हुए कि एक समरूप कार्यप्रणाली का, मानसिक रोगों के क्षेत्र में पहले से ही प्रयोग प्रारम्भ हो चुका है। प्रश्न, शतरंज के मोहरों की तरह विस्थापित होते रहे, एक चौखाने से दूसरे चौखाने पर धकियाए गए, कभी आड़े-तिरछे, तो कभी छलांग लगा कर, परंतु हमेशा उसी बिसात पर। इसीलिए मैंने, उन जटिल प्रतिमानों को, जो कि मुझे मेरे शोध में प्रत्यक्ष दिख रहे थे, उन्हें एक पाठ में सुव्यवस्थित करने का, निर्णय लिया। इसने ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ को जन्म दिया, एक प्राविधिक पुस्तक जो कि, मूलतः विज्ञान के इतिहास के कारीगरों को संबोधित करके लिखी गई थी। मैंने उसे ज्योर्जेस कोंगिल्हेम से चर्चा के बाद, मूलतः शोधार्थियों के लिए लिखा था। परंतु, सच बात तो यह है कि, ये वे प्रश्न नहीं थे जिनमें कि मेरी रुचि थी। मैं, ‘सीमित-अनुभवों’ के बारे में पहले ही चर्चा कर चुका हूँ, और यह वह विषय है जो मुझे वास्तव में आकर्षित करता है, मेरे लिए, पागलपन, यौनिकता, और अपराध अधिक गहन विषय हैं। वहीं इसके विपरीत, ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ मेरे लिए एक प्रकार से एक औपचारिक अभ्यास भर था।

 

प्रश्न : निश्चित रूप से, आप मुझसे यह उम्मीद तो नहीं करते हैं कि, मैं यह मान लूँ कि ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ का आपके लिए कोई महत्त्व नहीं था। उस कृति में आपने, अपनी वैचारिकी में, एक महत्त्वपूर्ण कदम आगे उठाया। वह यह कि अन्वेषण का क्षेत्र, सिर्फ वह अनुभव ही नहीं था जिसने कि पागलपन को स्थापित किया, बल्कि, संस्कृति और इतिहास के संयोजन का मापदण्ड था।

उत्तर : उस कृति में प्रस्तुत परिणामों से स्वयं को विलग करने के लिए मैं ऐसा नहीं कहता, परंतु, ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ वह पुस्तक नहीं है जो कि पूरी तरह मेरी है। यह उस अर्थ में एक सीमांत पुस्तक है, जो कि दूसरों में उत्साह उत्पन्न कर दे। परंतु, फिर भी विचित्र रूप से, द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ ही वह पुस्तक है, जिसने जन-साधारण के मध्य सबसे बड़ी सफलता अर्जित की। आलोचना, कुछ अपवाद छोड़ कर, अविश्वसनीय रूप से प्रचंड थी, और लोगों ने, यद्यपि, यह अत्यंत कठिन पुस्तक थी, मेरी दूसरी पुस्तकों से कहीं अधिक इस पुस्तक को खरीदा। मैं यह, एक सैद्धान्तिक पुस्तक के उपभोग, और फ्रांसीसी बौद्धिक पत्रिकाओं में ऐसी पुस्तकों की आलोचना- जो कि सन साठ के दशक का एक विशिष्ट लक्षण था- के मध्य के रुग्ण संबंध की ओर इंगित करने के लिए कहता हूँ।

उस पुस्तक में मैंने, तीन ‘वैज्ञानिक अभ्यासों’ की तुलना का प्रयास किया। ‘वैज्ञानिक अभ्यास’ से मेरा अर्थ है, आख्यानों के विनियमन और उनकी रचना का एक तरीका, जो कि वस्तुओं के एक विशिष्ट क्षेत्र को परिभाषित करता है, और साथ ही साथ, उस आदर्श विषय का स्थान निर्धारित करते हैं, जो कि उन वस्तुओं को, जान सके और अवश्य जाने। मुझे यह विचित्र लगा कि तीन पृथक क्षेत्र, जिनका परस्पर कोई व्यावहारिक संबंध नहीं है- प्राकृतिक इतिहास, व्याकरण, और राजनीतिक अर्थव्यवस्था- जहाँ तक उनके नियमों का प्रश्न है, लगभग एक ही कालावधि में, सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में, गठित किए गए थे, और वे, अठारहवीं शताब्दी के अंत में, एक समान रूपान्तरणों से गुजरे। वह उन विषम जातीय अभ्यासों का विशुद्ध तुलनात्मक कर्म था, अतः, उन लक्षणों को बताने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जैसे, उदाहरण के लिए, संपत्ति के विश्लेषण के उद्गम और पूंजीवाद के विकास के मध्य एक संभावित संबंध के अस्तित्व का। प्रश्न, यह सुनिश्चित करना नहीं था कि, किस तरह राजनीतिक अर्थव्यवस्था का जन्म हुआ, बल्कि, प्रश्न, विभिन्न असम्बद्ध अभ्यासों के उन बिन्दुओं को ढूंढना था, जो कि समान थे, एक तरह से, वैज्ञानिक आख्यान की आंतरिक प्रक्रियाओं का तुलनात्मक अध्ययन। यह एक ऐसा प्रश्न था, जिस में उस समय, विज्ञान के कुछ इतिहासज्ञों को छोड़ कर, बहुत सारे लोग रुचि नहीं दिखा रहे थे। जो प्रश्न, उस समय प्रमुख था और अब भी है, वह मोटे तौर पर यह है कि, किस तरह वास्तविक अभ्यासों से, वैज्ञानिक प्रकार के ‘ज्ञान’ का उदय होता है? यह अभी भी एक सामयिक प्रश्न है, बाकी दूसरे प्रश्न गौण हैं।

प्रश्न : इसके बावजूद, सामाजिक अभ्यासों से ‘ज्ञान’ के गठन के प्रमुख प्रश्न को, ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ में निर्वासित कर दिया गया था। मुझे ऐसा लगता है कि, उस पुस्तक पर किए गए अत्यधिक तीखे कटाक्षों में, सबसे तीखा था, ‘संरचनात्मक रूपवाद’ का आरोप, या इतिहास और समाज के प्रश्नों का, अनिरंतरता और संबंध विच्छेदों की एक शृंखला, जो कि ज्ञानार्जन की संरचना में अंतर्निहित हैं, में विघटन।

 

उत्तर : जो लोग मुझे इस बात का उलाहना देते हैं कि, मैंने इन प्रश्नों का सामना नहीं किया, या उन्हें संबोधित नहीं किया, उनके लिए मेरा उत्तर यही है कि, मैंने, ‘मैडनेस एण्ड सिविलाईजेशन’ लोगों को यह दर्शाने के लिए लिखी कि, मैं उन प्रश्नों के प्रति अंधा नहीं हूँ। अगर मैंने उनके बारे में, ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ में चर्चा नहीं की तो, वह इसलिए क्योंकि, मैंने किसी और विषय को संबोधित करने का निर्णय लिया। कोई चाहे तो वह मेरे द्वारा की गई विभिन्न असम्बद्ध अभ्यासों के मध्य की तुलनाओं की वैधता पर बहस कर सकता है, परंतु, उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि, मैंने जो किया, वह कुछ प्रश्नों को उजागर करने के उद्देश्य से किया।

प्रश्न : ‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ में आपने मार्क्सवाद को, अंततोगत्वा, उन्नीसवीं शताब्दी के ‘ज्ञान’ के एक आंतरिक प्रकरण में बदल दिया। मार्क्सवाद में, ऐसा आभास मिलता है कि, सम्पूर्ण सांस्कृतिक क्षितिज से, कोई ज्ञान-मीमांसात्मक विराम नहीं मिलता है। मार्क्स के विचार और उसके क्रांतिकारी महत्त्व के निम्न मूल्यांकन ने कई विषैली, आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया।

उत्तर : हाँ, उस मुद्दे पर एक हिंस्र विवाद हुआ था, वह एक घाव जैसा था। ऐसे समय में जब, मार्क्स को, उन लोगों में सम्मिलित कर लेना, जो कि ‘गुलाग’ के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी हैं, प्रचलन में आ गया है, मैं, यह सबसे पहले कहने वालों में होने के श्रेय को लेने का दावा कर सकता हूँ। परंतु, वह सत्य नहीं होगा : मैंने अपना विश्लेषण सिर्फ मार्क्स के अर्थशास्त्र तक सीमित रखा। मैंने कभी, मार्क्सवाद के बारे में बात नहीं की, और कभी अगर मैंने इस शब्द का प्रयोग किया भी, तो वह अर्थशास्त्र की सैद्धांतिकी के संदर्भ में ही किया। वास्तव में, मुझे नहीं लगता कि, मैंने ऐसा मूर्खतापूर्ण कुछ कहा होगा, यह प्रस्तावित करने में कि मार्क्सवादी अर्थशास्त्र-अपनी मूलभूत अवधारणाओं के साथ और अपने आख्यानों के व्यापक नियमों के साथ- एक ऐसे असम्बद्ध गठन के अंतर्गत आता है, जो कि डी. रिकार्डो के समय परिभाषित किया गया था। बहरहाल, मार्क्स ने स्वयं, यह कहा था, कि उनका राजनीतिक अर्थशास्त्र अपने मूलभूत सिद्धांत में, डी. रिकार्डो के कारण है।

प्रश्न : मार्क्सवाद के उस संदर्भ का, भले ही वह कितना भी हाशिये पर क्यों ना रहा हो, क्या औचित्य था? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह आपका एक तरह का, उस आख्यान में जो कि बमुश्किल दर्जन भर पन्नों का होगा में, मार्क्सवाद के मूल्यांकन का एक ‘त्वरित’ प्रयास है?

उत्तर : मैं, मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र, जिसका की मार्क्सवाद का एक राजनीतिक विचारधारा, जिसका कि उन्नीसवीं शताब्दी में जन्म हुआ और जिसके प्रभाव बीसवीं शताब्दी में सामने आए, होने के ऐतिहासिक सौभाग्य के चलते लिखे गए, एक ‘सन्त चरित-लेखकीय शैली के महिमा मंडन’ के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया देना चाहता था। परंतु, मार्क्सवाद का अर्थशास्त्रीय आख्यान, उन वैज्ञानिक आख्यानों के गठन के नियमों के अंतर्गत आता है, जो उन्नीसवीं शताब्दी में विशिष्ट रूप से पाये जाते थे। ऐसा कहना भद्दा नहीं है। यह विचित्र है कि लोगों को यह सुनना असहनीय लगा। वहाँ, परंपरागत मार्क्सवादियों की ओर से यह स्वीकारने में, एक पूर्ण अस्वीकृति थी कि, कोई ऐसा कुछ भी कह सकता है, जो कि मार्क्स को पूर्व प्रतिष्ठित स्थान ना दे। परंतु, उस समय वे सबसे उग्र नहीं थे। मेरा तो यह भी मानना है कि, जो मार्क्सवादी अर्थशास्त्रीय सैद्धांतिकी के प्रश्नों में रुचि रखते थे, वे मेरे इस बात पर जोर देने से अत्यधिक क्रोधित नहीं हुए थे। जो वास्तव में, कुपित हुए थे, वे थे, नव-मार्क्सवादी, जो कि अपना दृष्टिकोण विकसित कर रहे थे, और जो फ्रांसीसी साम्यवादी पार्टी के पारंपरिक बुद्धिजीवियों के विरोध में ऐसा करते थे। अर्थात, वे लोग जो कि आगे चल कर, मार्क्सवादी-लेनिनवादी बने, या सन ’68 के बाद के वर्षों के माओवादी। उनके लिए निश्चित रूप से, मार्क्स, पूँजीपति विचारधारा के विरुद्ध संचालित एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक युद्ध की वस्तु तो थे ही, परंतु, साम्यवादी पार्टी के विरुद्ध भी, जिसे वे उसके सैद्धान्तिक जड़त्व, और ‘सिद्धान्त’ के अलावा और कुछ भी ना संप्रेषित कर पाने, के कारण धिक्कारते थे।

जो लोग मुझे क्षमा नहीं कर पाये और जिन्होंने मुझे अपमानजनक पत्र भेजे, वे पी.सी.एफ. विरोधी मार्क्सवादियों की उस एक पीढ़ी से थे, जो कि मार्क्स का, वैज्ञानिक ज्ञान की पूर्ण सीमा के रूप में, जिसके आधार पर विश्व का इतिहास बदल गया है, महिमा-मंडन और मूल्यांकन को प्रचलित करती है।

प्रश्न : जब आप मार्क्सवादी-लेनिनवादियों या माओवादियों की बात करते हैं, तब आप विशेष रूप से किन के बारे में सोच रहे होते हैं?

उत्तर : वे, जिन्होंने सन ’68 में, मई में, ‘अति-मार्क्सवादी’ भाषण दिये, और जो कि मई के आंदोलन में, मार्क्स से उधार ली गई उस शब्दावली के प्रसार के लिए जिम्मेदार थे, जैसी कि फ्रांस में पहले कभी सुनी नहीं गई, और जो कि कुछ वर्षों बाद इस सब को त्याग देंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो, मई सन ’68 की घटनाओं के पहले, मार्क्स का असाधारण रूप से महिमा-मंडन हुआ-एक प्रकार का सामान्यीकृत मार्क्सवादीकरण, जिसके लिए, जो कुछ मैंने लिखा था- हालाँकि, जो कि एक मामूली टिप्पणी थी, वह यह कि मार्क्स की कृति डी. रिकार्डो के प्रकार की अर्थशास्त्रीय सैद्धांतिकी है, तक ही सीमित था, यह टिप्पणी उनके लिए असहनीय थी।

प्रश्न : बहरहाल, यह अस्वीकृति, उन अस्वीकृतियों में जिनको कि हम अभी तक सूचीबद्ध करते आ रहे हैं, जैसे संरचनावाद की विषय-वस्तु, कतिपय मार्क्सवादी परम्पराओं का प्रतिरोध, प्रजा के दर्शन के संबंध में एक विकेन्द्रीकरण, आदि-आदि, में अंतिम थी जिसने कि अपना प्रभाव छोड़ा।

उत्तर : और, यह तथ्य भी, अगर आप जोड़ना चाहें तो, कि मूलतः लोग, उस व्यक्ति को गंभीरता से नहीं ले पाये, जो कि एक ओर तो ‘पागलपन’ के बारे में चिंतनशील है, और वहीं दूसरी ओर, उसने, उन समस्याओं, जिन्हें कि वैध और महत्त्वपूर्ण के रूप में मान्यता दी गई थी, के बरअक्स विज्ञानों के इतिहास का पुनर्गठन एक विचित्र और अपरिचित प्रकार से किया। इन कारणों के समूहों के सम्मिलन के चलते, चतुर्दिक‘द ऑर्डर ऑफ़ थिंग्स’ को बहिष्कृत और अभिशापित किया गया। जिस पुस्तक की दो सौ से अधिक प्रतियाँ नहीं बिकनी चाहिए थी, उसकी कई हजार प्रतियाँ बिकीं।

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : मिशेल फूको की दूच्च त्रोम्बादोरी से एक लंबी बातचीत
रचना समय - अगस्त-सितंबर 2016 - मिशेल फूको विशेषांक : मिशेल फूको की दूच्च त्रोम्बादोरी से एक लंबी बातचीत
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