आपने कहा है कहानियां मार्मिक हैं माह अक्टूबर की प्राची में सम्पादकीय में ‘चोरी और सीनाजोरी’ में साहित्यिक चोरी के जो तथ्य प्रस्तुत किए ग...
आपने कहा है
कहानियां मार्मिक हैं
माह अक्टूबर की प्राची में सम्पादकीय में ‘चोरी और सीनाजोरी’ में साहित्यिक चोरी के जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं, वे उन साहित्यिक चोरों के गालों पर करारा तमाचा है जो साहित्यिक चोरी करके अपने नाम को प्रसिद्ध करना चाहते हैं. प्राचीन साहित्यकारों ने भी साहित्यिक चोरी की है परंतु उनकी कृतियों में शैली, अभिव्यक्ति और शब्द संयोजन की मौलिकता है. होना यह चाहिए कि रचना मौलिक हो भले ही प्रस्तुति उतनी प्रभावशाली न हो.
इस अंक में नागार्जुन जी के सम्बंध में जो लेख प्रकाशित किए गए हैं, वे नागार्जुन जी की जीवनी, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अच्छा प्रकाश डालते हैं. जो लोग नागार्जुन जी से अवगत नहीं थे, उन्हें इन लेखों से पर्याप्त जानकारी मिलती है. नागार्जुन जी ने गरीबों की व्यथा कथा तथा सामंतवादियों के अत्याचारों का जीवंत चित्रण किया है. नागार्जुन जी द्वारा रचित कविता ‘चंदना’ बहुत ही मार्मिक और करुणा से ओतप्रोत है. चंदना धन का त्याग कर विराग का मार्ग अपनाते हुए महामुनि का अनुसरण करती है. सच में चंदना वंदनीय है.
इस पत्रिका में जो कहानियां प्रकाशित हुई हैं, वे भी बहुत ही मार्मिक हैं. राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिंद’ द्वारा लिखित ‘राजा भोज का सपना’ इस संसार के यथार्थ को प्रस्तुत करता है. लोग दिखावे के लिए दान पुण्य और तीर्थ करते हैं. ऐसा ही राजा भोज करते हैं. सत्य उनके द्वारा किए गए धार्मिक कार्यों को पुण्य नहीं मानता. उसे पाखंड मानता है. कहानी का उद्देश्य है अहंकार का त्याग. हमें अपने दान पुण्य और परमार्थ के लिए किए गए कार्यों के लिए अहंकार नहीं होना चाहिए.
‘हरी मक्खी’ कहानी में जॉन अपना अंग भंग नहीं कराना चाहता है परंतु जब उसे डॉक्टर द्वारा विदित होता है कि उसकी पत्नी क्रस्का उसके मजदूर पाल से प्रेम करती है, इसलिए वह चाहती है कि जॉन ऑपरेशन न कराए और मृत्यु के गाल में समा जाए और वह प्रसन्नतापूर्वक पाल से शादी कर ले, तो जॉन अपना इरादा बदल देता है और वह डॉक्टर से आग्रह करता है कि वह उसका ऑप्रेशन कर दे.
‘भिखारी की शवयात्रा’ कहानी भी बहुत ही हृदयस्पर्शी है. गोबरधन बाबा और उसकी पत्नी पार्वती उस भिखारी पर दया दिखाते हैं और उसके खाने-पीने, रहने और वस्त्रों का प्रबंध कर देते हैं तथा मृत्यु होने पर उसके अंतिम संस्कार को अच्छी तरह सम्पन्न करते हैं. यदि सभी मनुष्य एक भिखारी की इस प्रकार मदद कर दें तो भिखारियों का जीवन भी संवर जाए.
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कृश्न चंदर द्वारा लिखित उपन्यास ‘एक गधे की वापसी’ की सभी सात किश्तों को मैंने पढ़ा तथा उन्हें पढ़ने में जो आनंद आया, वह वर्णनातीत है. कथावस्तु इतनी रोचक है कि पाठक बिल्कुल भी नीरसता का अनुभव नहीं करता. वह रोचकता की लहरों में उतराता आनंदित होता चलता है. कृश्न चंदर की कल्पनाशक्ति बेमिसाल है.
नरेन्द्र पुण्डरीक की सभी कविताएं बहुत ही अच्छी हैं. उनकी कविता ‘दुनिया से अपना हिस्सा’ में कुछ नास्तिकता के के भाव दिखे. यह विवाद हजारों वर्षों से चला आ रहा है कि ईश्वर है या नहीं. यह अभी तक सिद्ध नहीं हो सका कि सत्य क्या है.
राजपाल सिंह गुलिया के दोहे बहुत ही शिक्षाप्रद और व्यंग्यात्मक हैं. प्राची के अन्य सभी लेख भी प्रभावशाली और ज्ञानवर्धक हैं. मैं प्राची की उत्तरोत्तर प्रगति की शुभकामना करता हूं.
डॉ. शरद चंद्र राय श्रीवास्तव, जबलपुर
लेखक जड़ों से कट गए हैं
विगत कुछ वर्षों से साहित्यिक पत्रिका ‘‘प्राची’’ का नियमित पाठक हूं. किसी परिचित साहित्यिक मित्र के हाथों पहली बार मिली प्राची ने पहली ही नजर में अपनी जो छाप छोड़ी थी उसपर वह आज भी कायम है. आदरणीय श्री भ्रमर जी बतौर संपादक अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी करते आ रहे हैं. एक वरिष्ठ पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी होने के बावजूद उनकी संपादकीय दृष्टि बेबाक और निर्भीक होती है. सामयिक घटनाक्रम और सामाजिक मूल्यों के छीजन के प्रति उनकी चिंता प्रायः हर अंक में उजागर होती है. कहानियों के चयन का स्तरीय एवं विस्तृत फलक प्राची की विशिष्टता है. अनूदित कहानियों के जरिये हम हिन्दीयेत्तर राष्ट्रीय कथा सरिता ही नहीं बल्कि विश्व प्रसिद्ध रचनाकारों की कृतियों का रसपान करते रहे हैं. प्राची की कई कहानियों का निचोड़ मन मानस में इस कदर छप सा गया है कि उनका उल्लेख आम बोलचाल और मुबाहिसे में भी करता हूं. जैसे एक कहानी पढ़ी थी जिसमें सब्जी में भूल से एक सांप पक जाता है और खाने वाले एक पुरोहित की मृत्यु हो जाती है फिर पूरी उम्र किस कदर जमेजबान अपराधबोध से ग्रस्त रहता है. इसका उस कहानी में बहुत ही गहन व प्रभावी विवरण था. एक और कहानी में मकान मालिक से भूलवश एक भिखारी की मृत्यु हो जाती है फिर उसकी छाया उसके परिवार पर किस प्रकार पड़ती है उसका अदभुत वर्णन था.. ऐसी कहानियों में आपकी सोच बदल देने की ताकत होती है. यह सब यहां इस लिए लिख रहा हूं कि बिना चर्चा और ग्लैमर के भी ‘‘प्राची’’ अपने पाठक परिवार की स्टार रही है. खुद मैंने भी इसके कई एक पाठक बनाये हैं.
आज ‘‘हंस’’ सरीखी पत्रिकाएं ब्रांडिंग हो जाने के बाद एक दायरे में सिमट के रह गयी हैं. अगर आप किसी मठ और गढ़ में नहीं, किसी बड़े घराने और पद से जुड़े नहीं, सुदर्शना नहीं और आपकी प्रवृत्ति चरणस्पर्शी नहीं तो आपका कहीं प्रकाशित हो पाना बहुत मुश्किल है. गुणवत्ता अस्वीकृति का बहाना होती है. हंस में हाल के कुछ अंकों की कहानियों को देखें. कहानी के किस निकष पर खरी हैं. संजय सहाय जी जानें. अभी अक्टूबर अंक में अलका अनुपम की गजल है जिसमें काफिये ही नहीं हैं. दुःखद है.
आदरणीय श्री भारत यायावर जी का प्रधान संपादक के रूप में प्राची परिवार में साभिनन्दन हार्दिक स्वागत. आपको वषरें से पढ़ता आया हूं. विशेषकर समकालीन साहित्य पर आपकी विहंगम दृष्टि के सभी मुरीद हैं. आपके अनुभव और संपर्क का हमें लाभ मिलेगा. पत्रिका प्रगति और लोकप्रियता के नए शिखर पर होगी, इसका यकीन है. यकीन यह भी कि पत्रिका में साहित्य के नव-अभ्यासियों के लिए पूर्ववत गुंजाइश बनी रहेगी. जब हम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हो जाते हैं तो ऐसे खतरे की आशंका रहती है.
अक्टूबर 2016 अंक की संपादकीय और उसके पूर्व ‘आपने कहा है’ में कृष्ण कुमार यादव के पत्र ने साहित्य दर्पण का एक कुरूप चेहरा दिखाया है. किस प्रकार चोरी पर सीनाजोरी की प्रवृत्ति बढ़ रही है. फेसबुक पर अनेक रचनाकार ऐसे पोस्ट डालते रहते हैं जिनमें उनकी कविताओं की पंक्ति चुरा लिए जाने का उल्लेख रहता है पर ‘‘प्राची’’ जैसी पत्रिका में भी कोई चोरी की रचना भेजने का साहस कैसे कर सकता है? डॉ. प्रभु चौधरी का दुःसाहस निंदनीय है. उन्हें कम से कम डॉक्टर होने की लाज रखनी थी. तनवीर जी की गजलगोई और उनका दावा दोनों हास्यास्पद हैं. तरुण कुमार तनवीर जी की पंक्तियां गजलियत के पैमाने पर कहीं नहीं टिकती. वहीं अनवर महमूद खालिद साहब की गजल अपने आप में मुकम्मल है. नागार्जुन हिंदी साहित्य आकाश के ऐसे कालजयी-दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिन पर विशेषांक पत्रिका को गौरवान्वित करता है. बहुत कुछ पढ़ने लिखने और सान्निध्य के बावजूद अभी नागार्जुन की मुकम्मल पहचान होनी शेष है. भारत यायावर, अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर सिंह एवं नामवर जी के आलेख सटीक और सारगर्भित विवेचना करते हैं. नागार्जुन की पद्यकथा ‘चंदना’ अद्भुत है. हिंदी को खड़ी करने में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द का योगदान अतुलनीय है. ‘राजा भोज का सपना’ में हिंदी के आरंभिक बकइयां चलते रूप के दर्शन होते हैं. ऐसी ही प्रस्तुतियों के लिए ‘‘प्राची’’ पहचानी जाती रही है. नरेन्द्र पुण्डरीक की कवितायें सचमुच विशिष्ट हैं. अविनाश ब्यौहार की क्षणिकाएं और यूसुफ साहिल की गजलें भी पसंद आयीं. पत्र का समापन प्राची के आवरण पर बाबा नागार्जुन के चित्र पर संक्षिप्त चर्चा से. बनारसी गमछा, खुले बटन का अस्त व्यस्त कुर्ता, गंवई लुक सबकुछ कितना सादा है, सच्चा है. आज साहित्य के क्षेत्र में ऐसी सादगी कहां रह गयी है. लेखक जड़ों से कट गए हैं इसलिए उनका लिखा भी जन के बीच जम नहीं रहा. दिलों तक नहीं पहुंच रहा. बुर्जुआ लेखन और जीवनशैली सुंदर हो सकती है क्रान्तिकारी नहीं.
अभिनव अरुण, वाराणसी
नागार्जुन विचारधारा विशेष के कवि
‘प्राची’ का अक्टूबर अंक समय से प्राप्त हो गया. सितंबर अंक डाक-विभाग की भेंट चढ़ गया. पत्रों से सितंबर अंक की खूबियों की जानकारी हुई. नागार्जुन की रचनाशीलता को केंद्र में रखकर प्रकाशित यह अंक विशेष महत्वपूर्ण है. आलेखों से भी और अपनी व्यावहारिक जिंदगी में नागार्जुन काफी अभावग्रस्त रहे. उनका पारिवारिक जीवन भी दुश्वारियों से भरपूर रहा है और इन दिक्कतों के सर्वाधिक जिम्मेदार नागार्जुन खुद रहे हैं. किसी पत्रिका में उनकी पुत्र-वधू का साक्षात्कार पढ़ा था जिसमें उन्होंने उनकी पारिवारिक गैर जिम्मेदारी का जिक्र किया था. पारिवारिक मर्यादा का उन्होंने कभी ख़्याल नहीं किया. नागार्जुन ‘श्रेष्ठ’ उपन्यासकार हैं ‘कवि’ भी बड़े हैं. यह सवाल कविता के पारखियों के करीब एक संजीदा सवाल है. उनकी अधिसंख्य कविताएं सपाट-बयानी भर हैं, कविता की तात्तिवकता का उनकी अधिसंख्य कविता में अकाल है. ‘नागार्जुन रचनावली’ को पढ़कर यह बात अदब से कहने-लिखने का साहस कर रहा हूं. नागार्जुन विचारधारा विशेष के ‘कवि’ रहे हैं. इस विचारधारा के लोग अपने शिविर के रचनाकारों को कंधों पर उठाकर चलते हैं. इसी अंदाज के चलते नागार्जुन को महाकवि, ‘जनकवि’ आदि संबोधन दे दिये गये. नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल की त्रयी प्रगतिशील और जनवादी विचारधारा के लोगों की मानसिक उपज है. इन तीनों में सबसे प्राणवान, जीवंत कवि केदारनाथ अग्रवाल रहे हैं. कविता चाहे छान्दसिक रही हो या छंदमुक्त, हर कहीं वो सबसे अलग नजर आते हैं. केदारनाथ अग्रवाल के साथ साहित्यिक स्तर पर हमारे प्रगतिशील समीक्षक भरपूर न्याय नहीं कर सके हैं. वह दर्द बराबर सालता है. त्रिलोचन अपेक्षाकृत गनीमत हैं. ‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है’ नागार्जुन के नाम से चर्चित कविता कहते हैं कि यह अंबेडकर नगर के वरिष्ठ कवि स्व. सत्यनारायण द्विवेदी ‘श्रीश’ की है. नागार्जुन और श्रीश जी सहपाठी थे और एक ही कमरे में साथ-साथ रहते थे. यह राज की बात उन्हीं के काल-खण्ड के कवि शतानंद ने इस पंक्तिकार को बताई है. श्रीश जी के साथ काव्य पाठ करने का अवसर इस पंक्तिकार को भी नसीब हुआ है. शतानंद वरिष्ठ कवि और साधक चिंतक हैं जो जनपद मऊ में रहते हैं. शतानंद, नागार्जुन और यह पंक्तिकार एक आयोजन में साथ-साथ रहे. नागार्जुन को संस्कृत साहित्य की किसी किताब की खोज थी जिसे वाराणसी की गोदौलिया से लगायत नीची बाग तक खोजते रहे. इस हकीकत/बे-हकीकत का पता नागार्जुन के समीक्षकों और शोधार्थियों को करना चाहिए. इस संदर्भ में स्वर्गीय डॉ. मधुरिमा सिंह के शब्दों में सिर्फ इतना ही कह सकता हूं ‘‘करनी थी कई बातें लेकिन अभी जाने दे/हम तेरी खामोशी की आवाज से डरते हैं.’’ इस बार की संपादकीय ‘चोरी और सीनाजोरी’ आकर्षण का केंद्र है. अनवर महमूद खालिद की गजल कथ्य-शिल्प दोनों ही नजरिया से पोख्ता गजल है. तरुण कुमार तन्वीर का तर्क तथ्यहीन है. तरुण कुमार तन्वीर ने अदबी गुस्ताखी की है. ऐसी चोरियां आये दिन हो रही हैं, यदि पाश्चराइज्ड तरीके से इसे अदब से कहना हो तो मैं कहूंगा मां भारती भी जब मूड में आती है तो एक ही रचना दो-दो लोगों से लिखवा देती है. किसी मुशायरे में फिराक गोरखपुरी की उपस्थिति में, उन्हीं की रचना एक युवा शायर पढ़ गया. फिराक साहब खामोश थे. जब उनकी बारी आयी तो उन्होंने उस युवा की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘‘बेटा! साइकिल अगर ट्रेन से टकरा जाये तो यह संभावना बनती है. साइकिल अगर हवाई हजाज से टकराये तो सोचो क्या होगा?’’ तरुण कुमार तन्वीर को इससे सबक लेना चाहिए और अपनी ‘करतूत’ पर क्षमा मांगनी चाहिए. क्षमा तो डॉ. प्रभु चौधरी को मांगनी चाहिए जिन्होंने कृष्ण कुमार यादव के आलेख को अपने नाम से छपवा लिया है. श्री अंशलाल पन्द्रे के निधन की सूचना से आहत हूं. पिछले ही महीने उनकी काव्य-कृति ‘सबरंग-हरसंग’ मुझे ‘प्राची’ में प्रकाशित एक पत्र के आधार पर पुरस्कार रूप में प्राप्त हुई थी. यूसुफ खान साहिल की गजल में सिर्फ (मुखड़ा) ही सही है. बाकी शेष गजल के व्याकरण में नहीं हैं. ऐसे उनकी दूसरी गजल में ‘उदास’ ‘पास’ के साथ ‘खास’ का काफिया ही गलत है. देवी चरण कश्यप की गजल में ‘होकर के’ का प्रयोग गलत है. उसे ‘होके’ या ‘होकर’ होना चाहिए. डॉ. नामवर सिंह जी का आलेख (आलोचना) नागार्जुन की रचनाशीलता पर दमदार है. नामवर जी की हुनरवरी आलोचना में, अपनी विचारधारा के कवि को महानतम बना देती है. ऐसा कई नये और पुराने रचनाकारों पर डॉ. नामवर सिंह की समीक्षा को पढ़कर महसूस किया जा सकता है. नामवर जी एक अच्छे मंच कवि भी रहे हैं. कविता की ‘तात्तिवकता’ को बखूबी समझते हैं. कविता पर कुछ कहने-लिखने का उनका ‘मुख्तलिफ अंदाज’ है जो साहित्य में स्वागतेय भी है. उनकी (नामवर सिंह) की कथन-भंगिमा पर अपना यह मतला संभवतः गैर मुनासिब नहीं होगा, ‘‘कह भी देगा और रखेगा भरम भी राज का/लहजा इक शाइर का होगा मुख्तलिफ अंदाज का’. भारत यायावर ‘प्राची’ से जुड़ रहे हैं, यह सुखद समाचार हैं. संपादक के विवेक को बधाई.
डॉ. मधुर नज्मी, मऊ
भिखारी की शवयात्रा ने झकझोरा
प्राची पत्रिका मिली. सभी रचनाएं बहुत अच्छी हैं परंतु ‘भिखारी की शवयात्रा’ ने मुझे हिलाकर रख दिया। यह घटना जिनके सामने घटित हुई होगी, वे तो भूल गए होंगे, लेकिन विजय केसरी ने इस घटना को इतने जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है कि पढ़ते हुए मुझे लग रहा था कि मेरे सामने सब कुछ घटित हो रहा है। इतने जीवंत और भावपूर्ण कहानी के प्रकाशन के लिए आपको बधाई।
सुमेर सेठी, हजारीबाग
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