अनूप शुक्ल 20 जनवरी को 11:45 पूर्वाह्न बजे · व्यंग्य की जुगलबंदी- 17 --------------------------- व्यंग्य की जुगलबंदी- 17 का विषय रखा ग...
20 जनवरी को 11:45 पूर्वाह्न बजे ·
व्यंग्य की जुगलबंदी- 17
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व्यंग्य की जुगलबंदी- 17 का विषय रखा गया था - “पुस्तकें और मेले”। निर्मल गुप्त और डॉ अतुल चतुर्वेदी ने सुझाव दिया कि विषय एकवचन में रखा जाये मतलब ’पुस्तक और मेला’। मान लिया भई ! दोनों की किताबों का संयुक्त विमोचन हुआ दिल्ली के पुस्तक मेले में। संग में प्रेम जन्मेजय जी भी थे अपने वृहद व्यंग्य संकलन के साथ। आलोक पुराणिक के शब्दों में सामूहिक विवाह ! लेकिन विमोचन होते ही भाई लोग एकवचन होने का आग्रह करने लगे।
बहरहाल, सबसे पहले लिखकर राजा बेटा की तरह कॉपी जमा की
Udan Tashtari
उर्फ़ समीर लाल ने। शीर्षक पर ही सवाल उठा दिया- किताब का मेला या मेले की किताब। मौका ताड़कर बचपन की गलियों में गुम हो गये। समीर बाबू का बस चले तो पुस्तक मेले में लेखकों का प्रवेश बन्द करा दें। देखिये क्या लिखते हैं:
1. बढ़ती उम्र के साथ बाल गिरने, दाँत गिरने आदि के साथ एक और घटना अनजाने में घटित होती है कि न जाने कितनी ही महत्वपूर्ण चीजों का इतिहास हमसे छोटा हो जाता है और हम बैठे डंडा पीटते रहते हैं कि यह भी कोई बात हुई, हमारे जमाने में ऐसा होता था.
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2. एक लेखक दस स्टालों में घूम घूम कर पुस्तकें खरीद रहा है, जिसकी पुस्तक खरीद रहा है, वो भी वहीं स्टाल के आसपास कलम थामे हस्ताक्षर करने को बेताब घूम रहा है और उससे अधिक बेताबी हस्ताक्षर करते हुए खरीददार लेखक के साथ सेल्फी खिंचवाने की है. खरीददार भी किताब खरीदते, फोटो खिंचवाते बार बार लेखक को अपने उस स्टाल पर आने का निमंत्रण दे रहा है, जहाँ उसकी पुस्तक है.
3. मेले में सब कुछ तो है बस पूरी भीड़ में से जो गायब है वो है विशुद्ध पाठक. मन करता है कि एक पुस्तक मेला ऐसा लगे जिसमें सिर्फ विशुद्ध पाठक आयें और लेखकों के आने पर पूर्ण पाबंदी हो.. पाबंदी जैसा बड़ा कदम..बड़ा है तो क्या हुआ, उठाया तो जा ही सकता है. भले ही सफल न हो तो न हो..देख ही रहें हैं आजक्ल बड़े बड़े पाबंदी वाले कदमों के अंजाम.
पूरी पोस्ट बांचने के लिये इधर क्लिकियाइये https://www.facebook.com/udantashtari/posts/10154663790796928
लेख सुबह-सबेरे में भेज दिये तो अखबार वाले ने जुगलबंदी की प्रविष्टि है तो बढिया ही होगी यह सोचकर छाप भी दिया। सबसे पहले लिखने का इनाम मिला भाई ! लिंक देख लीजिये आप भी। https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10154671708116928&set=a.102659341927.119779.528846927&type=3&theater
यहां की फ़ोटो उसी लेख की है !
Nirmal Gupta
इस बार मेले में अपने व्यंग्य संग्रह ,हैंगर पर टंगा एंगर’, के विमोचन के लिये दिल्ली पुस्तक मेले में पहुंचे थे। ताजा अनुभव रहे उनके। उनको समेटकर उन्होंने बेहतरीन लेख लिखा -पुस्तक मेला,किताब और लूडो। पूरे लेख का आनंद उठाने के लिये आपको इस जगह पहुंचना होगा- https://www.facebook.com/gupt.nirmal/posts/10210979392216414 हम तो आपको इस लेख के कुछ अंश पढा देते हैं:
1. मेले में नया से नया परिधान पहना कर लायी गयी किताबें और लेखक इत्मिनान से इतराते रहे।किताबों को विमोचन या लोकार्पण के लिए रंगीन पन्नियों में सलीके से लपेट कर सजे धजे मंच पर ले जाया गया ।वहां बकायदा मुहँ दिखाई की रस्म हुई ।वक्ता दर वक्ता उनकी शान में कसीदे काढे गए।लेखक धन्य हुए ।आलोचकों के झोलों में मिली किताब अवस्थित हुई।खेल खत्म हुआ ।
2. विश्व पुस्तक मेले में किताबें कम बिकीं क्योंकि वह महंगी थीं।प्रदर्शनी स्थल से कुछेक मीटर की दूरी पर बने फ़ूड प्लाज़ा में फास्टफूड बाजार भाव से दुगने दाम पर होने के बावजूद खूब बिके।किताबों का महंगा होना लोगों को अखरा तो उन्होंने चटखारे लेते हुए उसकी भरपाई फास्टफूड को उदरस्थ करके की । किताबों के बिना जिंदगी चल सकती है लेकिन स्वाद के साथ कोई कॉम्प्रोमाइज नहीं किया जा सकता ।
3. किताबें पाठकों के लिए नहीं सरकारी खरीद और अन्तोगत्वा दीमकों के लिए छपती हैं ।वह पाठकों के हाथों के मुकाबले गोदामों में अधिक फबती हैं ।
निर्मल गुप्त के किताबों और फ़ास्ट फ़ूड की तुलना वाला पैराग्राफ़ खूब पसंद किया गया।
Yamini Chaturvedi
भी मेले नहीं गयीं लेकिन किताबों से जुड़े अपने अनुभव को साझा करते हुये लिखा- जिन्हें किसी जमाने में किताबें पढ़े बिना नींद नहीं आती थी वे अब किताबे देखते ही सो जाते है। भारत को मेला प्रधान बताते हुये लिखे उनके लेख के कुछ अंश:
1. अब भारत ज्ञान का भण्डार भी है | आप हैरान न होइए कि अभी मेलाप्रधान बताया और अभी ज्ञान का भण्डार | जैसे लॉजिक में “जहाँ धुंआ, वहां आग” वाला उदाहरण कंठस्थ कर हमने इसे पेपर के हर प्रश्न में चिपका दिया था वैसे हम यहाँ भी भारत को जो मन चाहे सिद्ध कर सकते हैं | आपको नहीं पसंद तो अपने हिस्से के भारत को जो चाहे सिद्ध कीजिये |
2. अब बुक फेयर में जाने वाले सभी लोग पुस्तक-प्रेमी हों ये कतई आवश्यक नहीं | आप किताब नहीं खरीदना चाहते तो भी बुक फेयर में आपके लिए बहुत कुछ मिलेगा, बस नजर दौडाने की देर हैं | किस पब्लिकेशन के स्टाल के पास वाले स्टाल में क्या चीज अच्छी और सस्ती मिलेगी, आप इस पर बाकायदा रिसर्च पेपर लिख सकते हैं | स्टाल्स के रिव्यु लिखना भी निकट भविष्य में एक बेहतरीन कैरियर आप्शन बनने वाला है |
3. किताबें भी खरीदी जातीं हैं | बहुत बड़ी मात्रा में लेकिन किसी भी प्रकाशक से पूछिए तो वो पाठकों की घटती संख्या का हवाला देते हुए यह कह देता है की जिन्हें किसी जमाने में किताबें पढ़े बिना नींद नहीं आती थी वे अब किताबे देखते ही सो जाते हैं |
यामिनी का पूरा लेख बांचने के लिये आप इधर पहुंचिये- https://www.facebook.com/yamini.chaturve…/…/1339799626041550
Anshu Mali Rastogi
ने विषय को हॉट बताते हुये मस्त व्यंग्य खींचने की बात कही थी। अपना लेख लिखकर बात पूरी भी की। यह भी कह मारा - “अगर आपके माल में दम है तो पाठक न केवल हंसकर बल्कि उल्टे पांव चलकर आपकी किताब खरीदने बुक-स्टॉल पर आएगा।” उनका लेख बांचने के लिये इधर पहुंचिये|https://www.facebook.com/anshurstg/posts/178026579344371 जब तक आप पहुंचे तब तक हम जरा झलक दिखा देते हैं उनके लेख की:
1. पुस्तक मेला का मुख्य उद्देश्य किताबों की सेल और मार्केटिंग से ही जुड़ा होता है। इत्ते बड़े मैदान में, इत्ते लेखक-प्रकाशक, इत्ती किताबों के साथ कोई पानी-पूरी खाने या कोल-ड्रिंक पीने नहीं आते, उनका ऐम किताबों की मार्केटिंग और सेल से ही जुड़ा होता है।
2. लेखक को अगर समाज और पाठक के मध्य टिके रहना है तो उसे मार्केट के अनुरूप अपने लेखन ढालना ही होगा। वक्त की डिमांड यही है।
3. किताबों का मेला यों ही चलता रहेगा। लेखकगण आपस में मिलते-जुलते रहेंगे। वाद-संवाद होते रहेंगे। किताबें बेची-खरीदी जाती रहेंगी। लेखक इस दुनिया को अपनी निगाह से देख यों ही लिखता रहेगा। मार्केट में धूम मचाए रहेगा।
Vivek Ranjan Shrivastava
जी जबलपुर में मप्र बिजली विभाग में उच्च अधिकारी हैं। नियमित लेखक हैं। तीन व्यंग्य संग्रह भी आ चुके हैं। पिछले साल मप्र सरकार से मिले 50 हजार रुपये की मिठाई अभी तक उधार है। उन्होंने पिछली जुगलबंदी में भी लिखा था जिसको समेटना अभी बाकी है मुझे। इस बार पुस्तक मेले पर लिखते हुये उन्होंने किताबों की स्थिति पर लिखा। उनका कहना है कि आज लेखक तो बहुत हैं लेकिन पाठक नदारद हैं। पूरा लेख इधर बांचिये https://www.facebook.com/vivek1959/posts/10208608944516184 हम आपको उनके लेख के कुछ अंश पढवाते हैं:
1. (पहले) जब कोई खूब छप चुकता था , तब उसकी किताब छपने की बारी आती थी . रायल्टी के एग्रीमेंट के साथ प्रकाशक के आग्रह पर किताबें छपती थीं .
2. दुनियां में यदि कोई वस्तु ऐसी है जिसके मूल्य निर्धारण में बाजार का जोर नही है तो वह किताब ही है . क्योकि किताब में इंटेलेक्चुएल प्रापर्टी संग्रहित होती है जो अनमोल होती है. यदि लेखक कोई बड़ा नाम वाला आदमी हो या किताब में कोई विवादास्पद विषय हो तो किताब का मूल्य लागत से कतई मेल नही खाता . या फिर यदि लेखक अपने दम पर किताबो की सरकारी खरीद करवाने में सक्षम हो तो भी किताब का मूल्य कंटेंट या किताब के गेटअप की परवाह किये बिना कुछ भी रखा जा सकता है .
3. आज साहित्य जगत के पास लेखक हैं , किताबें हैं , प्रकाशक हैं चाहिये कुछ तो बस पाठक ।
Kamlesh Pandey
ने अपने व्यंग्य संग्रह ’आत्मालाप’ में किताबों की बतकही की बड़ी यथार्थ और मार्मिक चर्चा की है। किताबों की नियति है रद्दी के भाव बिक जाना या दीमकों का भोजन बन जाना। आलसी लेखक हैं कमलेश भाई। तकादा करके लिखवाया गया लेख उनसे जिसका शीर्षक रखा उन्होंने - मेला में सईयाँ भुलाईल हमार। मतलब भी बताया - "मेला में सईयाँ भुलाईल हमार...अब का करीं .."- इस मार्मिक लोकगीत का भावार्थ ये है कि नायिका के सैयां जो हिन्दी के लेखक हैं, दिल्ली के पुस्तक मेले में नौ दिन तक खोये रहे और अब बरामद हो जाने के बाद भी खोये खोये ही रहते हैं .
कमलेश जी के लेख के कुछ अंश आपको दिखाते हैं। उनका पूरा लेख बांचने के लिये इधर आना होगा https://www.facebook.com/kamleshpande/posts/10208561566576615
पूरा लेख बांचना आपके हित में रहेगा। आपको मेले से किताबें मुफ़्त में हासिल करने का तरीका पता चल जायेगा।
1. कुछ तम्बुओं में शब्दों के जादूगरों के शो तो कहों सरेआम मजमाँ लगा कर बहस-विमर्श के करतब करते सुधीजन. बीचों-बीच लेखक मंच नामक दो बड़े बड़े झूले जिसपर झूलने को बेताब नवोदित, जम रहे, जम चुके, वरिष्ठ और मार्गदर्शक किस्म के लेखक-कवियों की भीड़. लेखिकाओं और प्रशंसिकाओं से भरी इस रोमांचक भीड़ में सैयां सम्मोहित-से घुसे और खो गए.
2. सैयां नायिका के अलावा किताबों के भी आशिक हैं. पर फिफ्टी परसेंट डिस्काउंट भी उन्हें कभी खरीदने को नहीं उकसा पाया. सो मेला ही है जहां वे किताबों को छू कर, सहला कर, अनावृत कर उनके साथ अपनी सेल्फी भी ले सकते हैं. थोड़ी मेहनत और चतुराई से और इनके बिना भी शाम ढले तक उनकी झोली इस मेले में विमोचित हुई, मांगी, लपकी या थमाई हुई पत्र-पत्रिकाओं-किताबों से भर गई.
3. अपना लेखक सैयां भी क्या करे? बौद्धिक खुजली खुजाते-खुजाते जख्म की शक्ल अख्तियार कर चुकी है. मेले में थोड़ा मरहम मिल जाता है. उसकी फितरत ही लिखना और लिखने के बाद प्रकाशन के बीहड़ में भटकता है. वहां से किसी तरह बच निकले तो मठों, गुटों, सम्मान-पुरस्कारों, आलोचना-समीक्षा-मूल्यांकन वगैरह के जंगल में अंततः खो ही जाना है.
रविरतलामी
जी को पहले तो विषय ही नहीं समझ में आया। जब आया तो ऐसा समझ में आया कि पूरा लेख ही लिख मारे। उनके मारक व्यंग्य को बांचने के लिये आप इधर पहुंचिये
http://raviratlami.blogspot.in/2017/01/blog-post_15.html इसके मुख्य अंश हम आपको पढवाते हैं:
1. बुक एंड बुकफ़ेयर में जो ग्लैमर है, जो एक्सेप्टेबिलिटी है, जो दम है, जो मास अपील है, वो किताब और मेला में नहीं है. मेला से यूं लगता है जैसे कि किसी गांव देहात के मेले में जा रहे हों और पांच रुपए की चकरघिन्नी में एक चक्कर लगा कर और दो रुपए का बरफ गोला खाकर चले आ रहे हों. मेला से न स्टेटस उठता है और न ही स्टेटमेंट. सॉलिड स्टेटमेंट सहित सॉलिड स्टेटस के लिए बुकफ़ेयर ही ठीक है. मेला यहाँ ऑडमैनआउट है. और, बुकफ़ेयर भी वर्ल्ड किस्म का हो, राजधानी का हो, लोकल न ही हो तो क्या बात है.
2. लोग लोकल पुस्तक-मेले में जाते हैं तो यह ध्यान रखते हैं कि कहीं कोई देख न ले, और गलती से भी उनकी सेल्फी या फोटो सोशल मीडिया में अपलोड न होने पाए. आखिर, इज्जत का सवाल जो होता है. कोई क्या कहेगा! इस लेखक का स्तर इस बात से जाना जा सकता है कि यह लोकल पुस्तक मेले में पाया जाता है! इसके उलट यदि लोग गलती से भी वर्ल्ड बुकफ़ेयर में पहुंच जाते हैं तो यह सुनिश्चित करते हैं कि खोज-बीन कर, आविष्कार कर, उद्घोषणाएँ-घोषणाएं कर लोगों से मिला-जुला जाए, सबको देखा-दिखाया जाए, बहु-कोणों, बहु-स्टालों, बहु-लेखकों, बहु-प्रकाशकों के साथ उनकी सेल्फियाँ, ग्रुप-फ़ोटोज़ बहु-सोशल-मीडिया में बहु-बहु-बार आए.
3. पुस्तक या किताब तो बेचारा सादगी से किसी अल्पज्ञात समारोह में या किसी स्थानीय मेले में विमोचित-लोकार्पित हो लेता है, मगर ‘बुक’ वर्ल्ड बुकफ़ेयर में ही विमोचित-लोकार्पित होता है और ऐसे चर्चित होता है.
Devendra Kumar Pandey
इतवार के दिन तो व्यस्त रहे खिचड़ी के मेले में, पतंग उडाने में और दीगर बातों में। तकादा किया तो ’लोहे के घर’ में बैठकर मेले का किस्सा लिख मारा। लिख मारा की जगह ज्यादा सही होना लिखना -लिख के मारा। लिखा भी तब जब मिर्जा पूछे उनसे - “ क्या पाण्डे जी! विश्व पुस्तक मेला लगा था दिल्ली में, गये नहीं? “ पाण्डे जी आजकल ’लोहे के घर’ में इतना घूमते हैं कि हर आता-जाता आदमी उनको या तो रेलयात्री लगता है या फ़िर टीटी। देखिये बतकही देवेन्द्र बाबू की इस लिंक पर पहुंचकर https://www.facebook.com/devendra.pandey.188/posts/1168415206620398
“जिस बच्चे की उमर गुब्बारा फुलाने की होती है, वही गुब्बारा बेच रहा होता है!” लिखकर पाण्डे जी ने तो जुगलबंदी लूट टाइप ली।
हम आपको ललचाने के लिये उनकी बतकही की कुछ बातें साझा करते हैं देखिये :
1. जिस बच्चे की उमर गुब्बारा फुलाने की होती है, वही गुब्बारा बेच रहा होता है! कितनी सूनी रहती हैं हरी चूड़ी बेचने वाली गुलाबो की आँखें! यही हाल विद्वत समाज का है। जिसके पास पैसा है वह हर साल पुस्तक छपवा सकता है।
2. प्रकाशक किसी गरीब की पुस्तक नहीं छापता। बड़े-बड़े लेखकों की तमाम उम्र फकीरी में कट गई। जब स्वर्गवासी हुए, लोगों ने तारीफ करी तभी प्रकाशक उनके घर गया। बुद्धिजीवियों की दुनियाँ और जालिम है मिर्जा, कत्ल करते हैं और खून का एक धब्बा नहीं दिखता।
3. मेला तो मेला है, मजा ही मजा है। जइसे गरीब को मेले से ही रोटी मिलती है वइसे बुद्धिजीवी को मेले से ही खुराक मिलती है। जेब में पैसा हो, फालतू समय हो और लिखने-पढ़ने का शौक हो तो मेले से बढ़कर और दूसरी अच्छी जगह कौन है साहित्य के मनोरोगियों के लिये! सोने में सुहागा-अपनी तरह दूसरे और रोगी भी मिल जाते हैं ओने-कोने, शब्दों के चाट-पकौड़े चखते हुए! कवि को कवयित्री मिल जाती हैं, कवयित्री को कवि मिल जाते हैं। आलोचकों को कवि-कवयित्री के रूप में जुगाली करने के लिए आलू-चना दोनों मिल जाते हैं। प्रकाशकों के पुराने अंडे बिक जाते हैं, नये मुर्गे मिल जाते हैं। इससे अच्छा और क्या हो सकता है भला!
Sanjay Jha Mastan
ने देर से लिखा लेकिन खूब लिखा। किताबों से ऐसे मिले जैसे पक्की सहेलियां बिछुड़ने के बाद मिलती होंगी। उनका पूरा लेख उनकी भावुक मन:स्थिति का आईना है। इसका नमूना उनकी शुरुआत से ही मिलजाता है जब वे लिखते हैं :
“ अखबार में पुस्तक मेला का समाचार देख कर अपने सपने को सच पाता हूँ ! मेला शब्द सुनते ही मेरी इन्द्रियों के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं, मेरे मुंह में पानी आने लगता है ! मैं किताब के पन्नों पर प्रिंट की रोशनाई की ताज़ी गंध सूँघने के लिए बैचैन हो जाता हूँ ! मैं एक किताबी कीड़ा हूँ, मेरी रीढ़ की हड्डी किताब चाटे बगैर सीधी नहीं होती ! “
मेले में किताबों में संजय को शंकुन्तला मिली। दुष्यन्त दर्शन हुये। उन्मुक्त किताबें मिलीं। और भी न जाने क्या।
संजय झा मस्तान का लेख बांचने के लिये इधर आइये https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=10154955490962658&id=640082657 उनके लेख से अंश छांटने मुश्किल इसलिये हैं क्योंकि लेख से अंश काटना मुश्किल है। फ़िर भी देखिये कुछ अंश:
1. नौजवान किताबें बूढी किताबों को ध्यान से सुन रही थी और चुप थीं ! नयी मोटी किताब भी पुराने पतली किताब को सुन रही थी ! बुज़ुर्ग की इज़्ज़त किताबों की दुनिया में ज्यादा थी !
2. किताबों के लिए पुस्तक मेले का सेल्फी पॉइंट एक भूतहा जगह बन जाती हैं जहाँ कोई भी किताब जाने से डरती हैं ! चुटकुले की किताब क्रिकेट खिलाडियों से किसी बात पर रूठी हुई थीं और बात बात पर हंसने की जगह रो रही थी ! अपने डिजिटल और प्रिंट में होने को लेकर चल रहे गंभीर बहस में हास्य किताबें मौन थीं ! एक शेर के दिल पर लिखी किताब का पेम्पलेट दहाड़ने की कोशिश कर रहा था ! जेएनयू घटना, दिल्ली में वाहन प्रदूषण, वर्तमान सरकार, भारतीय मीडिया, समलैंगिक अधिकारों की किताबों की तस्वीरें लापता हुए लोगों की तरह मेले में चिपकी हुई थीं !
3. किताबों में प्रतियोगिता नहीं होती प्रतियोगिता उसे पढ़ने वालों में होती है ! किताबों की आँख नहीं होती वो सबको एक दृष्टि से देखती हैं ! किताबें भोली होती हैं ! पढ़ने वाला अपनी लगाता है वर्ना किताब के पास तर्क शक्ति नहीं होती ! किताबे पढ़ना लिखना नहीं जानती उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है ! अपने अमेज़न और फ्लिपकार्ट के सपनों के साथ किताबें अब पूरे विश्व में मिलती हैं ! 'हर किताब, अब विश्वविख्यात' ये किताबों के लिए नया नारा है !
विनय कुमार तिवारी
ने अपने पुस्तक मेले में घूमने के सौभाग्य का बयान करते हुये ईश्वर से दुआ मांगी -"हे भगवान, मुझे पाठक होने की हैसियत दो दो।"
इस दुआ के पीछे का कारण भी बताया उन्होंने - “उस मेले में किताबों की भीड़ में मैं क्या पढूँ और क्या न पढूँ को लेकर थोड़ा कनफूजिया भी गया था। बल्कि किताबों के इस मेले में एक दुकानदार द्वारा घर के लिए शुभ कहते हुए शीशे के जार वाला एक सजावटी बम्बू-ट्री ही मुझे बेंच दिया था।”
विनय कुमार का लेख पढ़ने के लिये इधर पहुंचिये https://www.facebook.com/vinaykumartiwari31/posts/1166309150153709 तब तक हम आपको कुछ अंश पढ़वाये देते हैं आप भी क्या याद करेंगे:
1. मेले में लुभने और लुभाने का खेल चलता रहता है। हाँ, जमाने में भी अब उलट-पुलट हो चुका है, मेले अब मेलजोल के नहीं, दुकानबाजी और तफरीबाजी के अड्डे बन चुके हैं।
2. (विमोचन)मंच पर लेखकों, भूमिकाकारों, समीक्षकों, प्रकाशकों के मध्य गजब की जुगलबंदी होती है। मुझे लगता है, इस जुगलबंदी के पीछे दुकानदारी की भूमिका होती है।
3. मेला जुगलबंदी का ही खेल होता है, इस जुगलबंदी में उत्पाद वाली कम्पनियाँ, मेला आयोजकों और दुकानदारों से टाईअप कर मेले की सफलता के लिए चकरघिन्नी की तरह नाचती और नचाती हैं। अपन जैसे लोग अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार मेले में योगदान देते हुए यहाँ चक्कर काटते हैं या तफरीबाजी करके वापस चले आते हैं।
ALok Khare
ने अपनी बात दो पैराग्राफ़ में समेटते हुये पूरा मेला घुमा दिया। लगता है उनको व्यंग्य में संक्षेप में उंची बात कहने का दबाब तगड़ा रहा। देखिये उनकी पूरी पोस्ट इधर https://www.facebook.com/alok.khare3/posts/10209571403296883
लेख के अंश देखिये:
1. किताबें तो बिकती ही हैं और उससे ज्यादा बातें भी बिकती हैं! दूसरे परिपेक्ष में कह सकते हैं की बातें ही ज्यादा बिकती हैं इन्फैक्ट किताबें तो इक बहाना होता है जो ज्यादातर बातों का आदान -प्रदान ही होता है!
2. किताबो/बातों और लातों के सरोकारों से उतपन्न जिज्ञासा किताबो के इस अद्भुत समागम में चौतरफा चाँद लगा देती है! तो इस तरह के मेले में उत्पन्न विचारों के मैले ही इस तरह के किताबो के मेलो की उपलब्धि होते हैं!
3. मेले में किताबो की बरसात हो रही है चुनांचे लेखकों का इस इस मौसम में टर्र टर्र करना स्वाभाविक ही है, जिस तरह बरसात के मौसम में मेंढ़क टर्र टर्र कर अपने होने का सबूत देता है और कौन कितना ताकतबर है वो उसकी टर्राहट से व्यक्त होता है, मेंढकी भी उसी मेंढ़क की और आकर्षित होती है जो पुरज़ोर टरटराहट करता है!
Arvind Tiwari
जी को कई किताबें छपाने का अनुभव है। भले ही उनको पैसे न देने पडे हों अपनी किताबें छपाने के लिये लेकिन इस छपन-छपाई के इस खेल से भली-भांति परिचित हैं। अपने लेख में इसी प्रवृति को तसल्ली से और मारक अंदाज में बयान किया है अरविन्द जी ने। उनका लेख इधर बांचिये आकर https://www.facebook.com/permalink.php…लेख के अंश देखिये:
1. नया लेखक दूर से ही उजबक टाइप का लगता है।इसका अर्थ यह नहीं है कि पुराना लेखक उजबक नहीं होता।नया लेखक मेले में प्रकाशक के आने का बेसब्री से इंतज़ार करता है।बार बार उसके प्रकाशन वाले स्टाल का चक्कर लगता है। जैसे ही प्रकाशक नमूदार होता है नया लेखक उससे चस्पा हो जाता है।
2. प्रकाशक गणना करने लगता है जैसे वह खगोल शास्त्री हो।लेखक कौतूहल से देखता है।लेखक दो ठो चाय ले आता है जिसे पीने से प्रकाशक इनकार कर देता है।प्रकाशक बताता है ताकि सनद रहे,वह सिर्फ कॉफी पीता है।लेखक चाय वापिस करने जाता है जो होती नहीं।चाय फैंक कर वह कॉफी ख़रीद लाता है।
3. (सम्पादन) व्यंग्यकार से करवाना भी मत।वह अपने लिखे के आलावा किसी व्यंग्य को व्यंग्य नहीं मानता।वह आपकी हर रचना को रिजेक्ट कर सकता है।किसी ऐसे नए व्यंग्य समीक्षक को पकड़ो जिसे व्यंग्य की एबीसीडी भी न आती हो।
लेख में प्रकाशक और लेखक का वार्तालाप बहुत रोचक है। बार- बार पढने लायक।
अरविन्द जी ने जब लिखा - “लेखक अपना झोला लेकर ऐसे समीक्षक की तलाश में है जो उसकी किताब का सम्पादन बीही कर दे और दस हज़ार रुपये भी दे दे। “
तो संतोष त्रिवेदी ने अपने भाव बताते हुये कहा - “हम तो पाँच में ही तैयार हैं।”
आप कितने में करने को तैयार हैं?
बताने से रह जाये इसके पहले बता दें कि व्यंग्य के पहलवान आलोक पुराणिक ने पुस्तक मेला घूमा। चार किताबें विमोचित हुई उनकी। कारपोरेट पंचतंत्र, पंच-प्रपंच, आलोक पुराणिक के चुनिंदा व्यंग्य और एक और एक और। बड़े लेखकों की तर्ज पर अब Alok Puranik अपने लेख दूसरे लोगों से लिखवाने लगे हैं। यह लेख भी उन्होंने एक स्कूली छात्र से निबंध लिखने के बहाने लिखवाया और अपने नाम से छपवा लिया। लेख इधर बांचिये -https://www.facebook.com/puranika/posts/10154366571458667
आलोक पुराणिक
पुस्तक मेले से सबक तक ग्रहण करने से बाज आते हैं और कहते हैं:
“एक सबक जो हमें किताबें देती हैं। वो सबक ये है कि किताबें किस तरह से मिल-जुलकर शांति से रहती हैं। लेखक ए की किताब लेखक बी की किताब के साथ बहुत आराम से, शांति से, एक साथ रह सकती है, बहुत करीब रहकर भी। पर ऐसी बात हम कई बार लेखक ए और लेखक बी के बारे में नहीं कह सकते है, जो परस्पर महानता से जुड़े मानवाधिकारों को लेकर भिड़े दिखायी पड़ सकते हैं। “
लेख के कुछ अंश:
1. पुस्तक हम पढ़ते अकेले हैं पर वो बेची-खरीदी जा सकें, इसके लिए मेले लगाये जाते हैं। पुस्तकें आसानी से खरीदी-बेची नहीं जाती हैं, मेले लगाने पड़ते है। शराब के बारे में ऐसी बात नहीं है। वो बगैर मेले के भी बिक जाती है और धुआंधार बिकती है, शहर के कोने में भी दुकान हो शराब की, तो वह चल जाती है। पर किताबों को बेचने के लिए शहर के बीचों-बीच मेला लगाना पड़ता है। शराब खुद ब खुद बिक रही है, किताबों को बेचने में आफत है, फिर भी विद्वान कहते हैं कि पब्लिक बहुत समझदार है।
2. तब पाठक है कहां। वह पुस्तक मेले में छोले-भटूरे खा रहा होता है, किताब में उसकी दिलचस्पी का इसका इससे पता चलता है कि पुस्तक मेले में समोसों, छोले-भटूरों के स्टाल में -आइटम खत्म की घोषणा कुछेक घंटे में हो जाती है। पर ऐसी घोषणा किताबों के संदर्भ में होनें में घंटों क्या, दिन क्या, महीने क्या सालों भी लग जाते हैं।
3. हर पुस्तक मेले में कई महान बनते हैं। इनकी महानता कई बार समोसे जैसी होती है, अगले ही दिन बदबू आने लगती है। ऐसी समोसात्मक महानता से बचना जरुरी है, पुस्तक मेले में ऐसी महानता की थोक सप्लाई होती है। महान बनने से कोई किसी को रोक नहीं सकता। महान बनने में आत्मनिर्भरता ही सर्वश्रेष्ठ रणनीति है, ऐसा हर पुस्तक मेले में देखने में आता है।
अब अंत में खाकसार यानि
अनूप शुक्ल
का किस्सा बांच लिया जाये इधर पहुंचकर https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts
/10210279296872291 लेख कैसा है इसका अंदाज आपको Aradhana Mukti की इस टिप्पणी से लग सकता है:
“आप भी न ? सुधरेंगे नहीं! वैसे व्यंग्य पढ़ने वाली जनता की जानकारी के लिए बता दें की फोटो में मौजूद सभी लोगों ने बाकायदा लेखक के आटोग्राफ के साथ पुस्तक खरीदी है और पढ़ने की शुरुआत भी कर दी है”
आराधना की इस बात की पुष्टि हमारे भाई Priyankar Paliwal ने भी कर दी यह कहते हुये :
“बहुतै निगेटिव पै जमेटिव पोस्ट ! “
अब आप पहुंचिये लेख पर लेकिन लेख के कुछ अंश देखिये यहीं पर:
1. मेले, मॉल्स के पूर्वज हैं। संयुक्त परिवार टूटने के बाद एकल परिवार की तर्ज पर मेलों की जगह अब मॉल्स ने ले ली है। मॉल्स की चहारदीवारी और मोबाइल के बढ़ते चलन के चलते मॉल्स में जुड़वां भाइयों का बिछुड़ना बन्द सा हो गया है।
2. मेले में किताबों के लोकार्पण की धूम मची रहती है। पहले दिन से बिकने लगी किताबों का लोकार्पण मेले के पांचवे दिन होता है। यह कुछ ऐसे ही है जैसे ससुराल में तीन महीने रह चुकी किसी कन्या के फ़ेरे मंडप(लेखक मंच), दूल्हा (लेखक) और पंडित (विमोचनकर्ता) उपलब्ध होते ही करा दिये जायें।
3. पुराने जमाने में राजा लोग कहीं भी दौरे पर जाते थे तो वहां से निशानी के तौर पर एक नई रानी उठा लाते थे। लाकर अपने रनिवास में डाल देते थे। किताबों से प्रेम करने वाले पाठक पुस्तक मेला से किताबों खरीदकर लाते रहते हैं। अपनी आलमारियां भरते रहते हैं। किताबें भी अपने पढे जाने के इन्तजार का इन्तजार करती रहती हैं जैसे पुराने जमाने में रनिवासों में राजकाज में डूबे राजा के रनिवास में पधारने के इन्तजार में अपने बाल सफ़ेद करती रहती थीं।
व्यंग्य की इस वाली जुगलबंदी में बस इतना ही। जिन साथियों के लेख छूट गये हैं पता लगते ही उनके लेख इसमें शामिल किये जायेंगे वैसे जितने साथियों ने मुझे टैग किया है उनके लेख शामिल कर लिये हैं मैंने। फ़िर भी “भूल-चूक लेनी देनी “ का हिसाब तो चलता ही रहता है न !
जिन साथियों के लेख अभी तक नहीं आये उनसे गुजारिश है कि वे अब भी लिख सकें तो अच्छा रहेगा। Alankar Rastogi को फ़िलहाल व्यस्त हो गये। लगता है कोई काम नहीं बचा उनके पास व्यस्त होने के अलावा । लेकिन उनको ’पुस्तक और मेला’ पर लेख लिखना है क्योंकि पुस्तके मेले का नमक खाकर आये हैं। वे आज लिखेंगे तब उनका लेख यहां अपडेट कर दिया जायेगा। यही बात Indrajeet Kaur और अन्य साथियों के बारे में लागू है।
अपडेट:
Alankar Rastogi
भी गये थे पुस्तल मेले। उन्होंने ’अपने पुस्तक मेले के झमेले’ आखिर लिख ही मारे।
अलंकार ने अपने लेख में नवोदित और जमे हुये मतलब लौंडे टाइप लेखकों और सिद्ध लेखकों की मिलन कथा बताते हुये रोचक लेख लिखा। देखिये इस लिंक पर पहुंचकरhttps://www.facebook.com/rastogi.ala…/posts/1236066196482064
लेख के कुछ अंश देखिये आप भी:
1. पुस्तक मेले का आना किसी भी लेखक के लिए किसी सहालग से कम नहीं होता है . साल भर की जितनी भी कमर और कलम तोड़ मेहनत होती है उसे वह विमोचन रुपी झंडुबाम से बराबर कर लेता है .
2. नया लेखक पुराने लेखक से मिलने के लिए साल भर चक्कर लगता है तो वही पुराना लेखक पुस्तक मेले में ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में मंच पर सज कर परपंच करता मिल जाता है . नए लेखक के सशक्त कार्यक्रम पर भी बुजुर्ग साहित्यकार समयाभाव के कारण समय से पहले कल्टी मार लेते हैं . वहीँ नयी लेखिका के लेखन के ‘क्रियाकरम’ करने पर भी स्त्री सशक्तिकरण के परिचायक के रूप में जनाब अपने बाकी के कार्यक्रम स्थगित करते हुए अंत तक जमे हुए पाए जाते हैं.
3. पुस्तक मेले में आने वाले लोग भी कभी –कभी दोनों विकल्पों में से एक को चुनते हैं . अगर खुदा न खाश्ता छोला- भठूरा किसी परिवार को अच्छा लग जाता है तो न जाने कितने प्रेमचन्द और शिवानी बेचारे अगले पुस्तक मेले तक के लिए रुसवा हो जाते हैं. विडम्बना तो यह होती है कि किताबों के स्टाल पर बम्पर डिस्काउंट के बैनर लगे होते हैं और खाने –पीने वाली दुकानों पर डेढ़ सौ रुपये में बिकने वाला बर्गर भी आउट ऑफ़ स्टॉक हो जाता है
फ़िलहाल इतना ही। शेष अगली जुगलबंदी में।
#व्यंग्यकीजुगलबंदी, #व्यंग्य, #vyangy
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Udan Tashtari :) जल्दी लिखने के फायदे.,..वैसे भेजा नहीं था..उनने खुद छापा :)
अनूप शुक्ल होता है। सेलिब्रिटी लेखकों के साथ ऐसा ही होता है। :)
Alankar Rastogi इसको अड्डेबाजी में प्रकाशित करवा रहा हूँ।
अनूप शुक्ल वाह, बढिया है !
DrAtul Chaturvedi जल्दी लिखूंगा
अनूप शुक्ल इंतजार रहेगा। लिखते ही इसमें शामिल करेंगे। :)
Alankar Rastogi गज़ब और सटीक विश्लेषण करते है वाह सर।
Indrajeet Kaur आप तो पूरी किताब छपवा कर ही दम लेंगें।
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