बंगाल के इतिहास में 19वीं शताब्दी का युग जीवन-जागृति का युग था। इस शताब्दी में बंग प्रदेश में एक से बढ़कर एक महान् व्यक्तित्व अवतरि...
बंगाल के इतिहास में 19वीं शताब्दी का युग जीवन-जागृति का युग था। इस शताब्दी में बंग प्रदेश में एक से बढ़कर एक महान् व्यक्तित्व अवतरित हुये, उनमें से एक थे राष्ट्रगान के रचनाकार, कवि, लेखक, चित्रकार एवं संगीतज्ञ रवीन्द्रनाथ ठाकुर। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 में हुआ था। रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर संगीत कलाकार नहीं थे लेकिन शुद्ध शास्त्रीय संगीत के परम भक्त थे। उनके परिवार में ही संगीत विद्वान श्री सौरीन्द्रमोहन ठाकुर हुये जिन्होंने भारतीय संगीत के कई ग्रन्थों की रचना की।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्राचीन काल के साहित्य, संगीत और अध्यात्म से प्रभावित थे तथा अपनी व्यक्तिगत कलात्मक क्षमता से उन्होंने अपने संगीत को एक नवीन रूप, रस और भाव से समृद्ध किया। रवीन्द्र-संगीत का मूल तत्व है - शब्द और सुर का अर्द्धनारीश्वर रूप। रवीन्द्रनाथ को संगीत सुनने का अवसर अपने घर जोड़ासांको-ठाकुरबाड़ी (कोलकाता) में ही मिला, जहाँ अक्सर देश के प्रतिष्ठित हिन्दू-मुस्लिम कलाकारों के शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम हुआ करते थे। शास्त्रीय संगीत के परिवेश में ही वे बड़े हुये और मूर्धन्य कलावंतों व उस्तादों का गायन सुन-सुनकर अभ्यास किया करते थे। वहीं से उनको अपनी संगीत-रचना एवं अपने गानों की रचना का परिवेश मिला। बचपन में उनको श्री विष्णु चक्रवर्ती और श्री श्रीकण्ठ सिंह से संगीत की प्रेरणा मिली। श्री विष्णु चक्रवर्ती ध्रुवपद के अच्छे गायक थे तथा रवीन्द्रनाथ के प्रथम संगीत-गुरू भी थे। ‘जीवनस्मृति’ में रवीन्द्रनाथ ने लिखा है कि ‘‘मैं श्रीकण्ठ बाबू का प्रिय शिष्य था।’’ विख्यात गायक श्री यदु भट्ट से भी उन्होंने ध्रुवपद की शिक्षा प्राप्त की थी। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उस समय के प्रसिद्ध गायक श्री विष्णु चक्रवर्ती तथा श्री यदु भट्ट को अपने परिवार में संगीत शिक्षक के रूप में नियुक्त किया था। अपने बड़े भाई तथा संगीत-सेवी श्री ज्योतिरिन्द्रनाथ ठाकुर से भी उन्होंने गीत तथा सुर रचना की शिक्षा एवं पे्ररणा पाई थी। इसके अलावा उनके अन्य भाई द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्रनाथ, हेमेन्द्रनाथ एवं सोमेन्द्रनाथ भी शास्त्रीय संगीत के अच्छे ज्ञाता थे।
उनके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगाल के रायपुर रियासत से सन् 1863 में बीस बीघा जमीन खरीदी। एक विश्राम-घर बनाकर उन्होंने उसे नाम दिया ‘शान्तिनिकेतन’। सन् 1901 में रवीन्द्रनाथ ने पिता से अनुमति लेकर पाँच छात्रों और पाँच शिक्षकों के साथ एक आदर्श विद्यालय का श्रीगणेश किया, और उसे नाम दिया ‘ब्रह्मचर्य-आश्रम’। शनैः-शनैः ‘ब्रह्मचर्य-आश्रम’ शान्तिनिकेतन में परिवर्तित हुआ और फिर यह ‘विश्वभारती’ बना। विश्वभारती को भारत का ‘विश्राम-गृह’ भी कहा जाता है। दिसम्बर सन् 1921 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने औपचारिक रूप से विश्वभारती (विश्वभारती विश्वविद्यालय, जिला-बीरभूम, पश्चिम बंगाल) का शुभारम्भ किया।
स्वामी प्रज्ञानानन्द ने कहा है कि ‘‘रवीन्द्रनाथ के गान जीवन-साधना के गान हैं एवं रवीन्द्रनाथ का ‘सुर’ जीवन-जागरण का सुर। ‘शब्द’ और ‘सुर’ के वेणी बन्धन से उन्होंने अपने जीवनादर्श का ही अनुसरण कर गानों की रचना की है।’’ रवीन्द्र-संगीत के अपने नियम अवश्य हैं परन्तु उनमें रहते हुये भी भरपूर स्वतंत्रता है। रवीन्द्र-संगीत में एक समन्वय है- शब्द-योजना, लय-सर्जन एवं भाव-अभिव्यंजना, जो इस शैली को पूर्णतः नवीनता एवं भिन्नता प्रदान करती है। इस शैली का तत्वतः सम्बन्ध भावनाओं से है, शास्त्रीय नियमों से नहीं, अर्थात् हृदय से है, मस्तिष्क से नहीं। रवीन्द्रनाथ ने स्वयं भी कहा है, ‘‘संगीत स्त्रोते कूल नाहि पाई, कोथाय भेसे जाई दूरे। अर्थात् संगीत के अनंत बहाव में हम दूर से दूर चले जा रहे हैं जहाँ किनारे यानि अंत का अहसास ही नहीं हो रहा है।’’
रवीन्द्र-संगीत की रचना का उद्देश्य ही भाव प्रकाशन है, न कि पान्डित्य या स्वकौशल प्रकाशन। वे कहते थे कि ‘‘हमारे देश में संगीत इतना शास्त्रगत, व्याकरणगत, अनुष्ठानगत हो गया है कि वह स्वाभाविकता से बहुत दूर चला गया है।’’ उनके गीतों में शास्त्रीय व उपशास्त्रीय विधाओं जैसे ख्याल, ठुमरी, टप्पा, दादरा इत्यादि से प्रेरित कई रचनायें हैं जिन्हें ‘भांगा गान’ के नाम से जाना जाता है। उनके धुनों से अनेक फिल्म संगीतकार भी प्रेरणा लेते रहे हैं, उनमें एस. डी. बर्मन, सलिल चौधरी और आर. डी. बर्मन के नाम उल्लेखनीय हैं। विश्वविख्यात सितार वादक भारतरत्न पं. रविशंकर भी बाबा अलाउद्दीन खाँ, आफ़ताबे-मौसीकी उस्ताद फैय्याज खाँ, बड़े भ्राता उदयशंकर के साथ ही गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को अपना चौथा गुरू मानते हैं।
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रवीन्द्र-संगीत के गीत कुछ विशेष विषयों (जीमउमे, पर्याय) पर ही केन्द्रित होते हैं। वे विषय (पर्याय) हैं - पूजा, प्रेम, प्रकृति, स्वदेश, विचित्र एवं अनुष्ठानिक। रवीन्द्र-संगीत में तीन धाराओं का भी मिश्रण परिलक्षित होता है -
1. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की धारा - इस धारा की रचनाओं में ध्रुवपद गायकी एवं ख्याल गायकी का दर्शन होता है। इसमें शास्त्रीय संगीत के रागों एवं तालों के आधार पर रचनाओं का निर्माण किया गया है।
2. बंगाल के लोक संगीत की धारा - लोक संगीत अर्थात् लोक से उत्पन्न, पोषित एवं संरक्षित संगीत। जन-जीवन की हर छोटी से छोटी बात, लोक संगीत का विषय, साहित्य होती है। रवीन्द्र-संगीत के गीतों का तीन-चौथाई भाग मुख्यतः लोक-जीवन से प्रेरित था। उनकी रचनाओं में बंगाल के साहित्य, संस्कृति, लोककला व लोक संगीत के स्पष्ट दर्शन होते हैं। रवीन्द्र-संगीत पर बंगला-लोक गीत, कीर्तन, भटियाल, जात्रा और बाउल-संगीत का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है।
3. पाश्चात्य संगीत से प्रभावित धारा - उनके परिवार में अंग्रेजी गानों तथा वाद्यों की काफी धूम रहती थी। परिवार मेें पियानो बजाने का काफी चलन था तथा स्टाफ नोटेशन की भी अच्छी जानकारी थी। गुरूदेव के कई गीतों को स्टाफ नोटेशन में लिखकर सुरक्षित रखा गया है। रवीन्द्रनाथ ने पाश्चात्य संगीत का गहरा अध्ययन भी किया था। रवीन्द्र-नृत्यनाटिकाओं जैसे वाल्मिकि-प्रतिभा, काल मृगया तथा मायार खेला में अंग्रेजी गीतों के प्रभाव से नाटकों का आकर्षण और बढ़ जाता है।
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रवीन्द्र-संगीत का ताल पक्ष -
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के परिवार में होने वाले संगीत समारोहों में दूसरे गीतों की अपेक्षा ध्रुवपद अधिक गाये जाते थे। उनको जिन हिन्दी ध्रुवपदों की शिक्षा मिली उन्हीं स्वर एवं ताल के आधार पर उन्होंने अनेक बंगाल ध्रुवपदों की रचना की। उनकी गीत शैली पर ध्रुवपद गायकी का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा था, जिससे उन्होंने रवीन्द्र-संगीत की अधिकांश रचनाओं में ध्रुवपदों के समान चार पदों की स्थायी, अंतरा, संचारी एवं आभोग की रचना की। जिन नूतन छंदों का उन्होंने निर्माण किया वे भी ध्रुवपदांग तालों से प्रभावित हुये। रवीन्द्रनाथ ने अपने गीतों की रचना भारतीय तालों के आधार पर की। उनकी रचनाओं से यह प्रत्यक्ष होता है कि बाल्यावस्था में रचनाओं में विलम्बित लय के तालों का प्रयोग उन्हें प्रिय था। जीवन के मध्यकाल में वे छन्द प्रधान तालों के प्रति आकृष्ट हुये। परन्तु अधिकांशतः उन्होंने काव्य छन्द की पद्धति का अनुसरण किया था। उन्होंने ‘संगीत की मुक्ति’ नामक निबन्ध में कहा है, ‘‘कविता में जो छन्द है संगीत में वही ताल है और दोनों में लय अर्थात् गति साम्य की रक्षा आवश्यक है। अतएव काव्य, संगीत दोनों में लय को यदि हम मानकर चलें तो ताल सम्बन्धी विवाद का कोई कारण नहीं रह जाता।’’
साधारणतया संगीत को स्वरप्रधान, छन्दप्रधान एवं भाषाप्रधान वर्गों में विभाजित किया जाता है। स्वर-प्रधान वह संगीत है जिसमें स्वर विन्यास की प्रधानता हो। छन्द-प्रधान वह संगीत है जिसमें पखावज, तबला, खोल आदि लय वाद्यों का वादन प्रमुख हो। भाषा-प्रधान संगीत में स्वर एवं छन्दों का स्थान गौण होता है एवं उनका प्रयोग केवल भाषा के स्वाभाविक उच्चारण एवं अर्थ के लिये होता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत भाषा-प्रधान हैं। वे गीतों की रचना निश्चित स्वरों या तालों का आधार लेकर नहीं करते थे, बल्कि स्वरों एवं तालों का प्रयोग इसलिये करते थे ताकि गीतों के भाव विशेष रूप से स्पष्ट हो सकें। और इसके लिये परम्परागत तालों एवं मात्राओं में परिवर्तन करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। उदाहरणार्थ उनके प्रसिद्ध गीत ‘आमारे जोदि जागाले आजि’ में उन्होंने स्वरचित ताल झम्पक (3/2) का प्रयोग झपताल (2/3) के जगह किया है। क्योंकि ‘आमारे’ तीन मात्राओं का और ‘जोदि’ दो मात्राओं का शब्द है। झपताल में ‘आमा/रे जो/दि’ में शब्द बिखर रहे हैं और झम्पक ताल में ‘आमारे/जोदि’ में शब्द खण्डित नहीं होते हैं। इसी प्रकार उन्होंने स्वरचित नवताल में 3/2/2/2 मात्रा खण्डों के ताल का प्रयोग आवश्यकतानुसार 3/6, 6/3, 5/4, 4/5 और पूर्ण 9 मात्राओं के लिये भी किया है। यह स्पष्ट उदाहरण है रवीन्द्र-संगीत के भाषा-प्रधान गीत-रचना का।
रवीन्द्रनाथ का मानना था कि भावनाओं के प्रेषण में ताल की भी विशेष भूमिका होती है। स्वरों के साथ-साथ ताल को भी द्रुत या विलम्बित करना आवश्यक होता है तभी भावनाओं का सही प्रदर्शन सम्भव हो पाता है। रवीन्द्र-संगीत में भावों के अनुसार गीत द्रुत, मध्य और विलम्बित लय में गाने का चलन है। द्रुत तालों को तबले पर और विलम्बित व मध्य लय को पखावज पर बजाने की परम्परा है। जो गीत बाउल अंग या कीर्तन अंग के होते हैं, उनमें खोल बजाया जाता है। इससे गीत में निखार आ जाता है। रवीन्द्र-संगीत की तालों में खाली नहीं होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने गीतों के लिये मुख्य रूप से नवपंच ताल, नवताल, रूपकड़ा, एकादशी, षष्ठीताल, अर्द्ध-झपताल, झम्पक ताल आदि तालों की रचना की, जिन्हें गीत-भाव के आधार पर तबला, पखावज या खोल पर बजाया जाता है। कुछ गीत 5/5 मात्रा खण्ड के भी मिलते हैं, जिसके लिये तालोल्लेख नहीं है। रवीन्द्रनाथ द्वारा रचित कुछ ताल प्राचीन तालों से मिलते-जुलते हैं, तो कुछ कर्नाटकी संगीत के तालों से। रवीन्द्रनाथ द्वारा रचित मुख्य ताल निम्न हैं -
1. झम्पक ताल ः झम्पक ताल का प्रयोग मध्य और द्रुत लय के गीतों के साथ होता है। यह 5 मात्राओं की ताल है। इसमें 3-2 मात्राओं के 2 विभाग हैं तथा 2 ताली है। यह सुगम अंग का ताल है। इसके बोल हैं -
धी धी ना । धी ना ।
़ 2
2. अर्द्ध झपताल ः यह 5 मात्राओं की ताल है। यह झम्पक ताल का उल्टा है। इसमें 2-3 मात्राओं के 2 विभाग हैं तथा 2 ताली है। यह सुगम अंग का ताल है। इसके बोल हैं -
धी ना । धी धी ना ।
़ 2
3. षष्ठी ताल ः षष्ठी ताल में 6 मात्राएं हैं। इसमें 2-4 मात्राओं के 2 विभाग हैं तथा 2 ताली है। इस ताल का दूसरा प्रकार, उल्टी षष्ठी ताल कहलाती है। जिसमें मात्राओं को 4-2 के क्रम से उलटकर बजाया जाता है। यह सुगम अंग का ताल है। इसके बोल हैं -
धी ना । धी धी नागे तेटे ।
़ 2
4. रूपकड़ा ताल ः रूपकड़ा ताल 8 मात्रा की ताल है। इसमें 3-2-3 मात्राओं के 3 विभाग हैं तथा 3 ताली है। यह ताल कर्नाटकी तिर् जाति के मठ ताल से मिलता है। गीत के अनुसार यह ताल तबले, खोल या पखावज पर बजाया जाता है। यह ध्रुवपद अंग का ताल है। इसके बोल हैं -
तबले पर ः
(अ) धिं धिं ना । धिं ना । धिं धिं नाना । या
़ 2 3
(ब) धिं धिं ना । धिं ना । धिं धागे तेटे ।
़ 2 3
पखावज पर ः
(अ) धागे तेटे तेटे । धागे तेटे । किट तागे तेटे । या
़ 2 3
(ब) धा दें ता । तिट कत । गदि गिन नग ।
़ 2 3
5. नव ताल ः यह 9 मात्रा की ताल है। इसमें 3-2-2-2 मात्राओं के 4 विभाग हैं तथा 4 ताली है। यह प्राचीन गारूगी ताल 2-2-2-3 से मिलता है। यह अधिकाशतः मध्य और द्रुत लय में बजाई जाती है। इस ताल के अनेकों मतान्तर रवीन्द्र संगीतविदों में मिलते हैं। इसको कोई 6-3 का, कोई 3-6 का, कोई 5-4 का, कोई 4-5 का (प्राचीन हंसताल सदृश), तो कोई पूरे 9 मात्राओं का एक विभाग (संकीर्ण जाति के कर्नाटकी एकताल सदृश) मानने के पक्ष में है। ध्रुवपद अंग के गीतों में इस ताल का प्रयोग अधिक होता है। इसके बोल हैं -
तबले पर ः
धी धी ना । धी ना । धी धी । नागे तेटे ।
़ 2 3 4
पखावज पर ः
(अ) धा दें ता । तेटे कत । गदि घन । धागे तेटे ।
़ 2 3 4
(ब) धा दें ता । कत् ता । तेटे कत । गदि घन ।
़ 2 3 4
6. एकादशी तालः यह 11 मात्रा की ताल है। इसमें 3-2-2-4 मात्राओं के 4 विभाग हैं तथा 4 ताली है। ध्रुवपद अंग के गीतों में इस ताल का प्रयोग होता है। इस ताल में कम ही गीत मिलते हैं। इसके बोल हैं -
तबले पर ः
धी धी ना । धी ना । धी ना । धी धी नागे तेटे ।
़ 2 3 4
पखावज पर ः
(अ) धा दें ता । तेटे कत । गदि घन । धागे तेटे तागे तेटे ।
़ 2 3 4
(ब) धा दें ता । कत् तागे । धिन ता । तेटे कत गदि गन ।
़ 2 3 4
7. नवपंच तालः यह 18 मात्रा की ताल है। इसमें 2-4-4-4-4 मात्राओं के 5 विभाग हैं तथा 5 ताली है। इस ताल का प्रयोग मध्य तथा विलम्बित लय के गीतों में होता है। ध्रुवपद अंग के गीतों में इस ताल का प्रयोग होता है। इस ताल में कम ही गीत मिलते हैं। इसके बोल हैं -
पखावज पर ः
धा गे । धा गे दें ता । कत् तागे दें ता ।
़ 2 3
तेटे धा दें ता । तेटे कत गदि घन ।
4 5
7 अगस्त 1941 को इस अद्भुत व्यक्तित्व का स्वर्गवास हो गया। यह विडम्बना ही है कि बंगाल प्रान्त को छोड़कर रवीन्द्र-संगीत की साधारण जानकारी भी दूसरे प्रान्तों में बहुत ही कम है। रवीन्द्र-संगीत को बंगाल प्रान्त के निकालकर पूरे राष्ट्र में प्रचारित-प्रसारित किये जाने की आवश्यकता है। जिससे पूरा देश रवीन्द्र-संगीत का रसानन्द ले सके।
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डॉ. शिवेन्द्र प्रताप त्रिपाठी
असिस्टेंट प्रोफेसर, संगीत विभाग,
दयालबाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट
(डीम्ड विष्वविद्यालय),
दयालबाग, आगरा-282005
ई-मेलः Dr. Shivendra Pratap Tripathi <shivendra.tripathi@hotmail.com>
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