स्मरण डा. रवीन्द्र सहाय वर्मा की कविताएँ (प्रस्तुति – डा. सुरेन्द्र वर्मा ) [ डॉ. रवीन्द्र सहाय वर्मा (१९२६ -१९७०) मेरे बड़े भाई, अंगरेज...
स्मरण
डा. रवीन्द्र सहाय वर्मा की कविताएँ
(प्रस्तुति – डा. सुरेन्द्र वर्मा )
[ डॉ. रवीन्द्र सहाय वर्मा (१९२६ -१९७०) मेरे बड़े भाई, अंगरेजी के प्रोफेसर थे, वे काठमांडू, नेपाल, में कोलम्बो प्लान के अंतरगत त्रिभुवन विश्यविद्यालय में अंगरेजी साहित्य और भाषा के प्राध्यापक रहे और उसके बाद उन्होंने मुजफ्फरपुर, बिहार विश्वविद्यालय में भी इसी पद पर कार्य किया. अंगरेजी के प्रोफ़ेसर होने के बावजूद भी उनकी अभिरुचि हिन्दी साहित्य में भी बराबर बनी रही. उन्होंने १९५३ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डॉक्टर आव फिलासफी की और बाद में इसी वि. वि.[i]से ‘मैटाफिसिकल पोइट्स’ पर डी. लिट, की उपाधि अर्जित की. उनके डी. फिल. के शोध का (अंगरेजी में) विषय था, हिन्दी कविता और आलोचना पर अंगरेजी का प्रभाव. इसी शोध कार्य को आधार बनाकर उनकी दो पुस्तकें हिन्दी में प्रकाशित हुईं – “हिन्दी कविता पर आंग्ल प्रभाव” तथा “पाश्चात्य साहित्यालोचन और हिन्दी पर उसका प्रभाव”. १९६०-६१ में शेक्सपियर इंस्टीटयूट (बर्मिंघम यूनिवर्सिटी), स्ट्रेटफर्ड –आन –एवन में उन्होंने एलिजाबेथ-कालीन नाटक, विशेषकर, शेक्सपियर, पर कार्य किया |
डॉ. रवीन्द्र सहाय वर्मा इंटर तक विज्ञान के विद्यार्थी थे. किन्तु १९४४-४५ में जब वे या तो इंटर में पढ़ रहे थे या इंटर किया ही था उन्हें इलाहाबाद में संभवत: महादेवी वर्मा की कवितायेँ पढ़ने को मिलीं. छायावाद उन दिनों हिन्दी काव्य पर छाया हुआ था. डॉ. रवीन्द्र सहाय वर्मा भी उससे, ऐसा प्रतीत होता है, अत्यधिक प्रभावित हो गए थे. इन्हीं दिनों उन्होंने कुछ कवितायेँ लिखीं जो मुझे हाल ही में प्राप्त हो सकी हैं. ये अभी तक अप्रकाशित रह गईं. अत: इन्हें अब इनकी रचना के लगभग ७० वर्ष बाद सहृदय पाठकों को परोस रहा हूँ. मेरे भाईसाहब का दुर्भाग्य से युवावस्था में ही ( वे तब ४८ वर्ष के भी नहीं थे ) देहांत हो गया था. इन कविताओं के प्रकाशन के माध्यम से मैं उन्हें अपनी भावपूर्ण श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूँ | ]
१
जो पहुँचा देते कूल पार
मोती के गूँथ गूँथ गजरे, देती हो हर्षित अश्रुधार
थक जाते दृग पथ देख देख
मुँद जाती जब पलकें म्लान
स्वप्नों में फिर संकेत भेज
नीरव सो जाते विधुर प्राण
पहुँचा देते संदेश श्वास, परियों के बनकर नव कुमार
निःस्वन तुम्हारी पगध्वनि सुन
बज उठते उर के मूक तार
फिर सजल उनींदी खुल आंखें
देती तुम पर सर्वस्व वार
युग-युग तक करुणा अश्रु भरे रह जाते तुमको दृग निहार
जो पहुँचा देते कूल द्वार
2
कोई पार क्षितिज के गाता
मौन निशा के तन्द्रिल तम में
अनगिनत जला दीप से उडगन
झंकृत पत्रों की वीणा ले
कर अपनी उंगली से कम्पन
कोई अपने मधुर स्वरों से जग को नव संगीत सुनाता
तोड़ अरे प्राचीर नीड़ का
उड़ा एक पक्षी हो शंकित
पा अज्ञात किसी की थपकी
हुआ स्वप्न-मय फिर वह कम्पित
गा गा अपनी लोरी मधुमय जग को कोई आज सुलाता
कोई पार क्षितिज के गाता
३
महात्मा बुद्ध के प्रति
ढूँढ़ता नि:स्वन निशा में पथिक तू किसको अकेला
स्वप्न में है विश्व अलसित
तिमिरमय हैं सब दिशाएं
पथ अपरिचित, थक चले पग
कंप रहीं सारी दिशाएं
झर पड़े अब स्वेद के कण भाल से बनकर शिखा में
कष्टमय सूनी डगर पर कंटकों का अरे मेला
किस विभा से आज ज्योतित
हो रहे ये नेत्र प्रतिक्षण
यामिनी के मौन तम में
पा रहे किसका निमंत्रण
ढूँढ़ने निर्वाण का पथ तोड़ डाला विश्व बंधन
छोड़ कर साम्राज्य का सुख अग्नि-कण के साथ खेला
४
शून्य नभ में दीप माला
आज वह क्षण क्षण सजाती
क्षितिज के उस पार जाकर
उड़ गई संध्या सुनहली
आ गई फिर मुस्कराती
सुधाकर की रश्मि पहली
ओस कण से भरे आँचल यामिनी मोती लुटाती
डाल अपनी शुभग पलकें
सो गया सब विश्व अलसित
जग गए नक्षत्र नभ में
हो गयी अब भू प्रकाशित
यामिनी आ व्यथित मन को, नवल स्वप्नों से बसाती
दे मृदुल थपकी सुलाती
शून्य नभ में दीपमाला आज वह क्षण क्षण सजाती
५
दीप मेरे बुझ न जाना
मैं करुण जब गीत गाऊँ
चिर विरह से दृग सजल यह अश्रुमाला से सजाऊँ
आँसुओं के जल कणों से
हो चला है रिक्त अंचल
वेदना से हो प्रकम्पित
आज घुल तू दीप प्रतिपल
करुण वीणा के स्वरों की रागनी फिर से जगाऊँ
उँगलियों के कम्पनों से
तार वीणा के स्पंदित
स्वर प्रलसित गा रही मैं
दीप कर प्रिय डगर ज्योतित
सो गए यदि प्रिय कहीं हो स्वप्न बन डर के समाऊँ
दीप मेरे बुझ न जाना मैं करुण जब गीत गाऊँ
६
क्या तुम्हें संदेश भेजूँ
छिप गया अब मिलन का घन
उड़ गया लघु एक तृण बन
स्वप्न से अनजान प्रियतम
दे गया आ मधुर चुम्बन
ख़ास के इस दूत को मैं, कौन से अलि देश भेजूँ
अश्रु से सित हुआ अंचल
घुल गया, हो चला उज्ज्वल
विरह के निःसीम युग में
गल रहा तन आज कोमल
चुक गई स्नेह घड़ियाँ, क्या कथा मैं शेष भेजूँ
क्या तुम्हें सन्देश भेजूँ
७
शून्य नभ में नक्षत्र खिले
गगन से उतरे हो चुपचाप
सुमन से परियों के नव बाल
मुदित हो संध्या ने अज्ञात
बिखेरे रेशम से निज बाल
मौन हो पग ध्वनि कर निःस्वन, शून्य नभ में नक्षत्र खिले
लिए उडुगन का क्षीण प्रकाश
तिमिरमय रजनी में अज्ञात
खोल अपना शशि मुख प्रदीप्त
किलक कर जब हँसती थी रात
क्षितिज पर, पर तेरे अज्ञात मुझे धूमिल पदचिह्न मिले
शून्य नभ में नक्षत्र खिले
८
क्यों आज नयन में भरे नीर
नयनों से पल पल फूट फूट
झरते आँसू के बिंदु सघन
आशा का ले संदेश मौन
जा दूर क्षितिज में छिपा मिलन
चुभ गए व्यथा का लिए भार आकुल उर में यह विरह तीर
आँसू से गूँथ सजल गजरे
पहनाते उर को विकल प्राण
हृदतंत्री से उमड़े अबोध
ये आज व्यथा के करुण गान
कितनी करुणा के ले संदेश बह चले अश्रु हो जब अधीर
क्यों आज नयन में भरे नीर
९
आ गई बरसात
कँपा कर विद्युत शिखाएँ, आ गई बरसात
हो चला धुँधला अरे नभ
बादलों ने क्षितिज घेरा
विहंगम ले पंख गीले
टूटता अपना बसेरा
तिमिर से अब नभ घिरा रे शिथिल पड़ता श्वास तेरा
उतर नभ से अप्सरा सी आ रही है रात
बादलों के देश में जा
ढूँढता क्या आज तारे
तिमिर आँचल ओट में ले
छिप गए नक्षत्र सारे
उड़ गई घन दामिनी अब क्षणिक पथ तुझको दिखा
प्रलय का संदेश लेकर बह रहा है वात
बादलों के गर्जनों से
हैं प्रकम्पित सब दिशाएँ
तड़ित की भीषण ध्वनि से
कँप रही भू की शिराएँ
सजल सी वे बूंद जल की, झर रहीं बन कर शिखाएँ
मुँद गए सरि में अचानक दुःखित है जल जात
कंपा कर विद्युत् शिखाएं आ गई बरसात
१०
संध्या का रवि दीप शिखा से नीरव नभ में
देख रहे किसको अनजान
खेल सीप मानों मुँह खोले
पड़ी हुई जल तट पर म्लान्
निष्कम्प शिखा से दिव्य बने
तुम शुभ्र रजत के हो समान
मानों युवती नीरव वन में
करती प्रेमी का मधुर ध्यान
पश्चिम नभ में तुम स्वर्ण विहग
रे विहगी कवि की एक तान
गा रहे दिव्य बैठे नभ पर
क्या सांध्य समय का विरह गान !
सागर की सिकना के पट पर
हो सीपी के मोती समान
जगती पर बिछा किरण जाल
दे रहे मधुर अमृत्व दान !
१०
मरुस्थल में पेड़ की छाया
कौन तुम इस पादप के पास
बैठकर पत्रों पर सायास
खींच फिर लम्बी ठंडी श्वास
देखती तुम किसकी हो राह
सजल कर नेत्र प्रिये अनजान
विजन पथ पर भोली नादान !
अरी तुम दीप शिखा सी क्षीण
मलिन सी देह करुणमय दीन
बता दो किन भावों में लीन
तप्त सिकता के तट पर हाय
पड़ी कोमल मछली सी म्लान
विजन पथ पर भोली नादान !
लिए उर में पीड़ा का भार
श्याम आँचल तुम आज पसार
माँगती क्या भिक्षा सुकुमार
छोड़ती क्यों शत शत उच्छ्वास
बिखेरे निज कुंतल अनजान
विजन पथ पर भोली नादान
१२
शून्य दिश में स्मृति तुम कौन
शून्य दिश में स्मृति तुम कौन
अरी अबोध बाले अनजान
नवल गाती कल कल स्वर में
मधुर अविरल कैसा तुम गान !
सुनहरी आशाओं का पाश
बिछा कर करती हो परिहास
बिखेरे फेनिल सा मधु हास
हँसाती हो क्षण भर अनजान !
अरुण सेंदुर से भरकर बाल
बिछा कोमलता का मृदु जाल
कपोलों पर अलकों का पाल
अरी आती रंगणि रुचिमान !
मधुरिमा की किरणों में बोर
अरी जीवन की स्वर्ण विभोर
अरुण अधरों में भरकर भोर
खिलाती कमल उरों को प्राण
१३
आज दीपावलि मना लूँ
बादलों के गर्जनों से
हैं प्रकम्पित सब दिशाएँ
कर रहीं फिर प्रलय ध्वनि से
आज सब भू की शिरायेँ
मधुर दीपक राग गाकर, आज मैं दीपक जला लूँ
आज वासुकि के फणों से
प्रलय का फूत्कार होता
घन दिखा विद्युत शिखाएँ
नाश का संदेश लाता
आज उल्कापात ही में सजनि मंगल गीत गा लूँ
आज फेनिल सिंधु में फिर
प्रलय आकर हरहराता
गरज कर उन्मत्त झंझा
तिमिर में हा ! पथ न पाता
उँगलियों की ओट लेकर मैं जगे दीपक बचा लूँ
१४
ओ नाविक नौका किस ओर
क्षितिज से दूर पथ अज्ञात
क्षीण तारे औ” निष्प्रभ रात
गरजता सिंधु उत्ताल हिलोर
तीव्र बहता रे झंझावात
जिए जाते अबोध अनजान
ओ नाविक नौका किस ओर !
जर्जर तरणी विमुख मँझदार
फेनुच्छसिक्त यह सिंधु अपार
तिमिर छाया कितना घनघोर
मचा सागर में हाहाकार
लिए जाते भोले नादान
ओ नाविक नौका किस ओर !
थकित है अंग शिथिल है श्वास
छोड़ते क्यों शत शत उच्छ्वास
दिखाई पड़ता है उस पार
क्षीण सा कुछ स्वर्गीय प्रकाश
चली जाती तरुणी चुपचाप
अरे नाविक नौका किस ओर !
१५
यह प्रवासी
यह प्रवासी आज नभ में
दीप खोकर के भटकता
तिमिरमय निशीथ में वह
जला दीपक मधु अचंचल
निःस्वन निशि में अकेला
बढ रहा जो आश सम्बल
दीप लौ फिर जल अकंपित
कर रही थी डगर ज्योतित
शूलमय इस पथ अगम पर
जा रहा था पग प्रकम्पित
शुष्क सुमनों से सजा उर
हो अरे क्यों आज उन्मन
छलक कर सजला दृगों से
लुढ़कते ये अश्रु के कण
करुणमय इस पथिक का उर
विरह अग्नि से धधकता
बुझ गया रे मधुर दीपक
अब पथिक केवल सिसकता
यह प्रवासी आज तम में
दीप खोकर के भटकता .
१६
बीतती रे सांध्य वेला
मिट गई छाया रंगीली, हो चला है अब अंधेरा
क्षितिज के उस पार पंथी, टूटता अपना बसेरा
घुल गए औ’ मिट चले है,
ज्योत्सना में वे सुखद क्षण
तू हो रहा क्यों आज उन्मन
कष्टमय इस पथ अगम पर कंटकों को अरे झेला !
बीतती रे सांध्य वेला !
दीख पड़ते हैं क्षितिज पर,
धूम्रकण हो आज श्यामल
हो रहा है अश्रुजल से,
अरे तेरा गात शीतल
अगम पथ आगे पड़ा है
हो रहे हैं पग प्रकम्पित
तिमिर नभ का पर अकम्पित !
ढूँढता निःस्वन निशि में पथिक तू किसको अकेला ! बीतती रे सांध्य वेला !
१६
शूलों से भरी लता पर
शूलों से भरी लता पर
हँस रही कली क्यों बोलो
रे कब से झूम रही तू
अपना अवगुंठन खोलो
इस स्वर्ण भूमि पर कैसी
यह सुंदर कोमल बाला
मन चाहे इसे पहनाऊँ
मोती की नीरव माला
मेरे कोमल आँखों की
तू बन ले पुतली कोमल
देखूँ जिससे जग सारा
चिर नूतन अकलुष उज्जवल
रे कली सिखाने आई
यह दो दिन का जगजीवन
क्षण भ्रर में मिट जाएगा
यह रूप रंग औ’ यौवन
शूलों से भरी लता पर
हँस रही कली क्यों बोलो
१८
किसी का अभिशाप हूँ मैं
किसी का अभिशाप हूँ मैं, जग मुझे पहचान पाता
हृदय में ले अग्नि के कण
उर पहन अंगार माला
विष भरा मैं चल रहा हूँ
विरह का है पंथ काला
क्षितिज के उस शून्य में जा,
दुःख की प्रतिमा बनाता
किसी का अभिशाप हूँ मैं !
रंग गई उर के पटल को
नियति आ दुःख के रंगों से
बढ रहा हूँ विरह पथ पर
आज मैं लम्बे पगों से
मैं विरह मग का प्रवासी,
जग मिलन के गीत गाता
किसी का अभिशाप हूँ मैं !
नींद में था कौन आया
स्वप्न बन मुझको हँसाने
विरह ही में हैं मुझे तो
युग युगों से दिन बिताने
देख जग मम पलक गीले क्यों अरे उँगली उठाता
किसी का अभिशाप हूँ मैं !
१९
नींद में चुपचाप मुझको
नींद में चुपचाप मुझको
प्रिय जगाने कौन आया?
स्वप्न बन नवहास आया !
तैरता रवि नील जल में
बुद्बुदों से सिंधु फेनिल
हो गए दिव के रुदन से
रंग नभ के अरे धूमिल
देखती पथ युग युगों से
मुद गईं आंखें उनींदी
स्वप्न में दे मधुर चुम्बन
अलस प्रियतम पास आया
स्वप्न बन नवहास आया
२०
प्रिय मेरे उर में भरी पीर
यह विरह पंथ कितना अपार
चल रहा करुण ले व्यथा भार
क्षीण तारक पथ से अनजान
रे छलक पड़ा अब नयन नीर
अब झरता सुमनों से पराग
जग मधुर मधुर मैं करुण राग
हृदतंत्री से उमड़ी अबोध
अब करुण रागिनी हो अधीर
छा रहा व्यथा का तिमिर सघन
है दूर क्षितिज में छिपा मिलन
हो चली अरे अब श्वास शिथिल
चुभ गए हृदय में विरह तीर !
प्रिय मेरे उर में भरी पीर !
२१
विधवा
आज बैठकर तपस्विनी सी
श्वेत शशि की किरण जल में
कहो कौन सी राह देखती
शून्य गगन के अंतःस्थल में
सूने से निर्मम पथ पर हा
किसे ताकती हो सुकुमार
मांग रही भिक्षा हो किससे
अपना आँचल आज पसार
अरी तुम्हारे मुख पर कैसी
लिखी हुई हैं गाथाएँ
कुटिल जगत क्या पढ सकता है
आज तुम्हारी व्याथाएँ
मौन तुम्हारी इन पलकों में
लिखा हुआ करुणामय गान
चिल्ला चिल्ला कातर स्वर से
करता है जग को आह्वान
कष्टों को सहकर के तुम तो
हो इतनी उज्ज्वल कीर्तिमान
शूलों मे पली हुई कलिका
कितनी अकुलश कितनी महान !
२२
सखि ! घिर आए नीर भरे घन
इस निशीथ के तंद्रिल तम में
अगणित जला दीप से उडुगन
ढूँढ रहे हैं सूने नभ में
सजन दृगों में भर आंसू कण
चिर वियोग से उमड़ पड़े यह -
गला मोम सा कोमल नर तन
सखि ! घिर आए नीर भरे घन !
यह तो अपना नीर बहा कर
लय होते पा प्रिय आलिंगन
मैं पर ढूँढ न प्रिय को पाती
बहा नयन से आँसू निश दिन
इस वियोग के विषम पंथ पर -
बन जाता युग एक एक क्षण
सखि ! घिर आए नीर भरे घन
२३
तू बरस मत आज बादल
अश्रु जल से सिक्त है भू
तू न उसको गला बादल
विरह के कारुणिक रुदन से
हैं प्रकम्पित सब दिशाएँ
कँप रही सुन चीत्कारेँ
देख यह भू की शिराएँ
फिर न तू भीषण तडित से
मेघनी को कँपा बादल
तू बरस मत आज बादल !
देख पथ अब झर चले हैं
आँसुओं से नेत्र प्रतिक्षण
निशा के तंद्रिल तिमिर में
दे रहे प्रिय को निमंत्रण
फिर दिखा विद्युत् शिखाएँ
तू न उनको डरा बादल
तू बरस मत आज बादल !
२४
आ गया मधुमास सजनी
सुनहरे से पल्लवों पर -
गा रही कोकिल लजीली
कुमुदनी की ओस कण से
पत्तियाँ हैं देख गीली
लीप पथ शशि की किरण से, आ गई निःस्वप्न रजनी
आ गया मधुमास सजनी !
सजल आँचल में बिखेरे
यामिनी आ अरुण रोली,
मचलती है देख उस पर
शशि किरण फिर नाच भोली
मद भरे शृंगार करके, नववधू है बनी अवनी
आ गया मधुमास सजनी !
रुपहले मधु आम्र बौरों –
से भरी है नवल डाली
लताएँ तरु से चिपट कर
बुन रही हैं रजत जाली
हँस रही वसुधा सुहागिन, माँग सेंदुर भरे अपनी
आ गया मधुमास सजनी !
२५
स्वर्ण प्रात सी
मृग नयनी तुम स्वर्ण प्रात सी
आई हो कैसी सुकुमार –
अधरों पर प्रिय अधर लगाकर
आज करें क्या स्वर्ण विहार
चारु चित्र सी अंकित हो प्रिय
मेरे पट पर आज नवीन
नेत्र हमारे प्रेयसि मिलकर
बन जाएंगे जल में मीन
कर देती हो हँसमुख आकर
मेरे जीवन का तुम भोर
चित्र खींचकर छिप जाती हो
सुषमा की किरणों में बोर
तुम्हारी ही प्रेम छबि में
आज हुआ लय मैं द्युतिमान्
संध्या की धूमिल में विद्युत
सी मुझको तुम हो अभिराम
यौवन मेरा चित्र लिखा सा
देख रहा बनकर मधुमास
हँसता हूँ मैं जान प्रिये पर
जीवन दो दिन स्वप्न विलास
२६
चित्र यह तेरे रंगीले
मिटा दे, हो चले धूमिल चित्र यह तेरे रंगीले !
भावमय नव तूलिका ले
चित्र तू नित नए रचता
प्रात में ले अरुण सेंदुर
उषा की तू मांग भरता
यामिनी ने अश्रु से धो कर दिए नक्षत्र गीले
क्षितिज के उन मृदु कपोलों
से तिमिर की श्याम अलकें
हट गईं नव प्रभा आते
अलस बेसुध खुली पलकें
रात के यह आभरण भी पड़ चले अब देख ढीले !
गगन के तारक मिटे
छूकर उषा की प्रभा लहरी
पड़ चला पीला शशि अब
ले अरे निःश्वास गहरी
कुसुम आँचल में भरे वह आँसुओं से कर सजीले
विहंस कर फिर भोर कहती, देव तुम कितने हटीले!
मिटा दे, हो चले धूमिल चित्र यह तेरे रंगीले
२७
प्राण मेरे जल अलक्षित घुल निरंतर
रुधिर से पथ लीप डर का
नियति ने मुझको सजाया
चितानल से छू अचानक
फिर मुझे आकर जलाया
फिर हंसाना चाहता क्यों, यह नियति मुझको भयंकर !
स्वप्न में चुपचाप आया
कौन वह मुझको हंसाने
चितानल ही में मुझे तो
है अरे जल युग बिताने
देख जग फिर मुझे रोते, उपहास करता क्यों निरंतर
अस्थि की नव तूलिका ले
रुधिर से फिर प्यालियाँ भर
नियति ने किस चाह से मम
रंग दिया था यह अरे उर
फिर ह्रदय तू पिघल प्रतिक्षण नयन से क्यों है रहा झर
प्राण मेरे जल अलक्षित, घुल निरंतर !
२८
आ रही रजनी अंधेरी
आ रही रजनी अंधेरी सजनि दीपक बार ले
आँखें उनीदी, अधर भीगे
झिलमिलाती मधुर अलकें
शूलमय पथ पर बिछा तू
प्रिय अरे सुकुमार पलकें
हर्ष से आंसू उमड़ते, ले गूँथ उनका हार री
आ रही रजनी अंधेरी
अश्रुकण हंस रहे स्मित
ढुलक कर सजला अधर पर
एक टक निष्कंप चितवन
देखती प्रिय की डगर पर
देख सुन आ रही पग-ध्वनि, गा सजनि मल्हार री !
आ रही रजनी अंधेरी
प्राण आकुल को मिली है
एक सुख की मधुर सिहरन
मिलन बेला आ रही अब
हर्ष से पुलकित हुआ मन
आ गया अब अलस प्रियतम, ले प्रणाम उपहार री !
आ रही रजनी अंधेरी सजनि दीपक बार री !
२९
प्रिय मिलन की रात बीती
प्रिय मिलन की रात बीती
विरह घन में दामिनी सी
सांझ के अंतिम प्रहार में फैलती जब मेघमाला
सुलगती उस पार मेरी विरह की निस्सीम ज्वाला
चल रही हूँ मैं विपथगा
प्रेम पथ अनुगामिनी सी
कंटकों से भरे पथ पर ढूँढ़ती मैं राह अकेली
बन गया निस्सीम जीवन, हाय रे दुर्लभ पहेली
ढूँढ़ती मैं मिलन मंदिर
एक निराश पुजारिनी सी
चुक गया स्नेह सारा, मंद है अब दीप बाती
पग अकम्पित चल रही मैं विरह के मधु गीत गाती
प्रिय मिलन की रात बीती विरह घन में यामिनी सी
३०
नभ के अपलक तारों को
नभ के अपलक तारों को
हमने रोते ही देखा
हा ! दृष्टि न आती इनमें
रे स्वर्ण हास्य की रेखा !
इनके जीवन में कैसे
छाया दु:ख प्रतिपल प्रतिपल
क्यों विरहाग्नि से पीड़ित
यह सारा है नभमंडल !
यह झिलमिल झिलमिल तारे
क्यों तड़प तड़प कर रोते
नित अश्रु ओस-कणों से
सारी भू को हैं धोते !
मेरे सुख में रे देखो
सारा जग है उत्पीडित
रो रो प्रकृति रह जाती
दु:ख से हूँ मैं परिपूरित
यह जीवन है क्षणभंगुर
दो दिन का रे जगबंधन
जग आतप से जर्जर उर
साँसों में अटका जीवन !
३१
देख पथ यह रैन बीती
देख पथ यह रैन बीती
पर न प्रियतम आज आए
रात के ये याम सारे
गिन मैंने तारक बिताए
फिर सजल इन आंसुओं
से पाँवडे पथ पर बिछाए
स्वप्न के किस देश में जा मम अलक्षित प्रिय समाए
पर न प्रियतम आज आए !
पथ अपरिचित मै चली फिर
बांध उर मे आश संबल
गगन की नव दीप माला
जल रही थी पर अचंचल
क्षितिज पर, पर फिर अचानक चिह्न पद के दृष्टि आए
पर न प्रियतम आज आए
देख पथ यह रैन बीती पर न प्रियतम आज आए !
३२
तक्षशिला की दीवारों पर
तक्षशिला की दीवारों पर चलो चढ़ाए कुछ उपहार
निकल रहे जिनके कण कण से करुणामय कैसे उद्गार
विद्यालय के खँडहर में है लिखा हुआ कितना इतिहास
मानव जग क्या पा सकता है उस दिन का गौरव आभास
अमर ज्ञान का पक्षी सुन्दर, तोड़ गया पिजरे का द्वार
दूर देश को भाग गया वह करने को स्वच्छंद विहार
अरुण उषा के आते ही रवि, फैला देता अपना जाल
संध्या आते ही रख जाता खँडहर पर मोती का थाल
भेजा करता रवि फिर अपनी सुन्दर किरणें वसुधा पर
गूँथ गूँथ मोती रख जाती भग्न ह्रदय के मस्तक पर
तक्षशिला की दीवारों पर चलो चढाएं कुछ उपहार
निकल रहे जिनके कण-कण से करुणामय कैसे उद्गार
३३
आज प्रिय की रूपरेखा
आज प्रिय की रूपरेखा, पत्र पर जो खीच पाती !
विस्मृति का क्षीर सागर
हो उठा है आज फेनिल
समय लहरों से निरंतर
पड़ चले संस्मरण धूमिल
देश प्रिय के हेतु जाने पंथ जो पहचान पाती !
दीप सी चिर विरह में घुल
कल्प यह मैंने बिताए
कर रही कब से प्रतीक्षा
पर न प्रियतम अभी आए
ढूँढ़ने प्रिय को चली मैं जला उर की दीप बाती !
चित्र प्रिय का यह अचानक
क्षितिज में किसने बनाया
बादलों के देश में क्या
मम अलस प्रियतम समाया
पंथ मैं अनंत का ले चल पडी मधु गीत गाती !
आज प्रिय की रूपरेखा पत्र पर जो खींच पाती !
34
महात्मा बुद्ध के प्रति
दिखाया तुमने पथ निर्वाण
छोडकर राजभवन के द्वार
दूर जग से तिमिर के पार
भिक्षु का धारण कर के भेष
युगल कन्धों पर बिखरा के
छोडकर राजतिलक का मोह भवन से दूर, तुम्हें अनजान
मिला अनंत पथ का निर्वाण
तुम्ही ने जग को दी थी सीख
सत्य अहिंसा की दी सीख
एक स्वर से हो पुलकित काय
विश्व ने कहा “नमो बुद्धाय”
मृत्यु यातनाओं से दे मुक्ति दिखाया तुमने पथ निर्वाण
३५
स्वप्न में अनजान ही ढल
स्वप्न में अनजान ही ढल क्षण मिलन के आज बीते
विरह से विलगित विधुर मन
देखते पथ नेत्र प्रतिक्षण
दृगों से झर अलस तुमको
दे रहे आंसू निमन्त्रण
अगम से हां आ गए अब, विरह के यह कल्प रीते !
पाय अंतिम मिलन दिन का
निमिष सा अब ढल चुका है
विरह के फिर श्याम घन से
शशि मिलन का छिप चुका है
भर लिए कुछ अश्रुकण से घट विरह के अरे रीते !
शून्यता की मदिर बाती
ले विरह के दीप बाले
घुल रही उर की शिखाएं
बना प्रतिक्षण चिह्न काले
सुखद से वे मिलन के क्षण, सुमन से जहर अरे बीते !
स्वप्न से अनजान ही ढल क्षण मिलन के आज रीते !
३६
बिखर गए इसके मोती सखी
बिखर गए इसके मोती सखी टूट गया नीलम का हार
अब कैसे प्रियतम को दूंगी चिर संचित अपना उपहार
युग युग से हैं बीत गए
जब से था उनको कारावास
जाती थी अवगानी करने
मृदु अधरों में भर नवहास
पहन पगों में जाती थी मैं
नूपुर को करने झंकार
आज बना था मुझको सारा
सोने का उज्जवल संसार
बिखर गए इसके मोती सब टूट गया नीलम का हार
सोने सी अपनी कुटिया में
पहिना कलियों का मैं हार
भर दूंगी आंसू के कण से
मोती का इक पारावार
सिहर सिहर कर पुलिकित मन हो स्वागत कर उनका छबिमान
अपनी ही वाणी से मैं तो गाऊँगी चिर मंगल गान
37
करुणमय चिर रागिनी मै
अश्रु का स्नेह लेकर
दीप यह मैंने जलाए
धूप लेकर के ह्रदय की
आरती के गीत गाए
इस अधूरे प्रेम मंदिर की सरल पुजारिनी मैं
चिर उनींदे नयन लेकर
याम यह निश के बिताए
नीरसित पलकें लिटाकर
पांवड़े पथ पर बिछाए
खो तुम्हारा स्नेह निर्मम बन गई हतभागिनी मैं
स्वप्न के उस देश में तुम
क्यों अरे आए हंसाने
विरह की सूनी डगर पर
चल मुझे ये युग बिताने
चिर करुणमय पंथ की हूँ बन गई अनुगामिनी मैं
चिर करुणमय रागिनी मैं
३८
मेरे भारत
टूटी वीणा के करुण गान
प्राची नभ के स्वर्णिम विहान
चुभ जाने दो बस एक बार
अपनी आहों का विकल बान
अपने इस भीगे आँचल से मुझको रोने दो विकल प्राण
मेरे भारत तुम चिर महान
उजड़ा उपवन रीती बहार
जीवन में कितना अरे सार
अपनी इस तपती छाती में
चिपटा तुम कर लो मुझे प्यार
मेरे विचार के यह आंसू बह जाने दो ओ विकल प्राण
मेरे भारत तुम चिर महान
तुम हो विषाद के अश्रु नीर
मैं बेसुध तेरी करुण पीर
बर्बरता की उन चोटों से
जर्जर हो उठाता है शरीर
अपने इन तपते चिह्नों से चिपटा लो मुझको विकल प्राण
मेरे भारत तुम चिर महान
माता के शव से चिपट चिपट
कितने शिशु करते रक्त पान
कितनी अबलाएं वस्त्रहीन
हैं लुटा रहीं निज आज मान
ओ देव बने क्यों आज मौन देकर जग को सर्वस्व दान
मेरे भारत तुम चिर महान
३९
क्या तुम्हें भेजूँ निशानी
निमिष सा यह मिलन का रवि
क्षितिज में जा छिप चुका है
विरह के फिर श्याम घन में
शशि मिलन का छिप चुका है
बह चला स्नेह उर का नयन से बन क्षीर पानी
क्षीण हैं तारक गगन के
शून्य हैं ये सब दिशाएं
हो चली है चिर विरह से
शिथिल अब मेरी शिराएं
ज्योत्सनामय मिलन की निश बन गई केवल कहानी
चिर विरह के इन युगों से
हो चला विलगित विधुर मन
दे रहे आंसू दृगों के
आज झर तुझको निमंत्रण
आंसुओं के गूँथ गजरे दे रहा तुमको निशानी
क्या तुम्हें भेजूँ निशानी !!
४०
चल सजनि दीपक जगा लें
निमिष सा दिन ढल चुका है
रंग नभ का धुल चुका है
सुलझ दिन के कुन्तलों से,
शशि निकल कर आ चुका है
स्वप्न में प्रिय के कपोलों से अधर भीगे लगा ले
चल सजनि दीपक जला ले
आंसुओं का लिए संबल
विरह पथ पर तू चली चल
शूलमय पथ पर बिछा तू,
अश्रुकण से मेरा अंचल
सुप्त वीना के स्वरों के साथ दीपक राग गा ले
चल सजनि दीपक जला ले
सुमन से वे दिन गए झर
वेदना में बिखर सुन्दर
स्वप्न में अनजान प्रियतम
कर गया स्नेह को थिर
भेज निज निःश्वास गीले मिलन की वेला मंगा ले !
चल सजनि दीपक जला ले
४१
विस्मृति के धूल कणों में
विस्मृति के धूलि कण में खो गए संस्मरण प्रिय के
निमिष से थे मिलन के कण
पर विरह के कल्प यह चिर
मोम सा फिर विरह में घुल
झर रहा है नयन से उर
क्षितिज के उस शून्य में जा, दीखते पदचिह्न प्रिय के
चित्र प्रिय का वह बनाने
कौन आई थी चितेरी
उर पटल पर तो अमिट है
चिर विरह की रात मेरी
स्वप्न के उस देश में जा, मुस्कराते अधर प्रिय के
विरह के उन बादलों में -
जा किया अवसान मेरा
अगम सी इस विरह निशि में
एक साथी --वह अन्धेरा
दे मृदुल सिहरन सुला फिर, खो गए संस्मरण प्रिय के
विस्मृति के धूल कण में खो गए संस्मरण प्रिय के
४२
चल कर सजनि श्रृंगार कर ले !
लोचन उनींदे मूक चितवन
उभरते उच्छ्वास उर से
देखती निर्मम डगर पर
तू अलस सुकुमार कब से
आरहे मधु नींद का, प्रियतम तेरे उपहार ले
चल सजनि श्रृंगार कर ले
हंस रहे स्मित अधर पर
अश्रु कण हो आज अविकल
अरे सुन पगचाप प्रिय की
मुस्कराते अधर प्रतिपल
मधुर सुमनों से सजा उर मिलन का उपहार ले !
चल कर सजनि श्रृंगार कर ले
४३
नभ के अंत:स्थल से
नभ के अंता:स्थल से उमड़ उमड़ आते घन
काले श्यामल बादल को घेरे मोती से जल कण
मानव को यह सिखलाते, तेरा जीवन श्यामल घन
पर उसको नित हैं घेरे छोटे छोटे से सुख कण
गंभीर सिन्धु के उर में हैं स्वर्ण पात सी लहरें
मानव सागर के जल में उठती आशाएं हिलोरें
बुलबुले सिन्धु से कहते उठ लो जितना उठ पाओ
रे गौरव के पथ पर चलकर नित आगे बढ़ते जाओ
नभ के झिलमिल तारा गण हंस हंस कर यह हैं कहते
अपनी कीर्ति किरनों से क्या मानव जग भर पाते
प्रसून विहंस कर कहते रे जितना चाहे हंस ले
दो दिन के अन्दर ही तू जग यश सौरभ से भर ले
लहरें विशाल कंप कंप कर हैं पाती नहीं किनारा
दो दिन का रे, जग बन्धन औ’ मिथ्या है जग सारा
४४
तू खिला सुमन सा आया
थे नीर भरे वे सजल नयन
घुंघुराले बिखरे नवल केश
नव अधरों में मुस्कान भरे
हंसता था दिखला मधुर भेष
था नन्हा सा सबको भाया, तू खिला सुमन सा ही आया !
हो गया पूर्ण विकसित प्रसून
भर अंकों में सुरभित पराग
गाते थे आंधी और प्रलय
सब तुझको ही मधुमय विहाग
था तूने जग मधुमय पाया, तू खिला सुमन सा ही आया !
चिंता के शूलों से दबकर
हो मूक दु:ख से बना क्षीण
जर्जर काया औ’ शिथिल श्वास
हो गया आज तू अरे दीन
झर पड़ा सुमन हा मुरझाया, तू खिला सुमन सा ही आया !
४५
दूर तुझको पांथ जाना
है तुझे अंगार पथ पर मोम सी काया गलाना !
गगन से चाहे बरस ले
अग्नि की जलती शिखाएं
प्रलय ध्वनि से आज चाहे
कंप उठें भू की शिराएं
उँगलियों की काट बत्ती, है तुझे दीपक जलाना !
निकल वासुकि के फनों से
प्रलय के फूत्कार हो लें
गरज फेनिल सिन्धु में फिर
प्रलय का तूफ़ान डोले
पर तुझे निष्कंप होकर कूल पर वरणी लगाना
दूर तुझको पांथ जाना !
४६
आज मंदिर में पुजारी
आज मंदिर में पुजारी कौन तुमने दीप बाले
क्षितिज के उस शून्य में
जा सो गयी संध्या सुनहरी
नव हास सी राकेश की
फिर आ गई नव रश्मि पहली
धूप थाली में सजाकर कुसुम अर्चन को संभाले !
स्वप्नमय हो देख नीरव
सो गया है विश्व अलसित
आरती की दीप माला
जल रही है पर अकम्पित
रजत शंख घड़ियाल लेकर आरती के गीत गाले !
आज मंदिर में पुजारी कौन तुमने दीप बाले !
४७
आई हो हंसमुख आशा तुम
आई हो हंसमुख आशा तुम
जीवन के इस सूने पल में
एक गीत गा जाती हो तुम
धीमें धीमें अस्फुट स्वर में
अरुण उषा सी आकर के तुम
बिखरा के कुछ सोने के कण
छिप जाती गोधूलि में सखि
देकर तुम मधुरिम चुम्बन
अर्द्ध निशा के घोर तिमिर में
आ जाती हो तुम दीपक सी
छिप जाती पर क्षणिक देर में
सागर की तुम एक लहर सी
नवल स्वप्न सी, स्वर्ण प्रात सी
बस जाती तुम कभी ह्रदय में
किन्तु तुरंत ही भाग दूर हो
छिप जाती तुम शून्य गगन में
दोनों हाथ उठाकर शिशु सा
तुम्हें बुलाता कातर स्वर में
४८
निशा के घोर तिमिर में आज
निशा के घोर तिमिर में आज, अरे! आमंत्रण देती कौन !
सुप्त मानव के भीगे होंठ
हंसा करते जब हैं अनजान
उसे फिर सपनों का संसार
भरा करता प्राणों में प्राण
कपोलों पर उसको चुपचाप, अरे! चुम्बन दे जाती कौन !
थकित मानव इस जगपथ पर
बैठकर आशाओं की छांह
लिया करता कातर स्वर में
अरे क्यों लम्बी ठंडी आह
उसे स्मृति की कोई बात हंसा जाती फिर क्षण भर मौन !
निशा के घोर तिमिर में आज अरे आमंत्रण देती कौन !
४९
भारत माता
भारत माता के हा उर में
दबे पड़े हैं कितने घाव
देख रही कब से वीरों की
दृष्टि लगाए है वह राह
सिसक रहा है भीगा आँचल
आंसू से करती क्रंदन
सरिता औ’ निर्झर से हैं यह
माँ के ठण्डे आंसू कण
भारत करुणा की सरिता में
धीमा धीमा है जलवाह
स्वतंत्रता की तरुणी उसमें
केवल खेले यह है चाह !
५०
बिखरा रेशम से स्वर्ण बाल
जा रही क्षितिज को सांध्य रश्मि बिखरा रेशम से स्वर्ण बाल !
रोमिल से अपने पर पसार
उड गई सांझ रे क्षितिज पार
तन्द्रिल निद्रा से पलक खोल
कर रहा शशि जीवन असार
हो गई लीन नभ की हिलोर कूलों पर बिखरा नव प्रवाल !
नभ में तारों का रे विकास
अब धीमा सा शशि का प्रकाश
हंस रही निशा सुख से विभोर
अंगों में भरकर नवल हास
अलसाई सी हो चपल सृष्टि सो गई सुहाग निज पलक डाल !
५१
बिंधा ह्रदय में व्यथा बाण
नयन ने छिपे अश्रु की भाँति रुदन करते ये आकुल प्राण
न बीती अबतक अगम अथाह
दु:ख की एक विरह की रात
लिए आशा का मौन सन्देश
क्षितिज में सोता मिलन प्रभात
ह्रदय तंत्री से अब हो अधीर, प्रिय निकल पड़े ये करुण गान
पल पल नयनों से फूट फूट
झरता निर्झर सा अश्रु नीर
फेनोच्छेदित सागर अथाह
है दूर यहाँ से मिलन तीर
सजला आंसू के सुमनों का, ले गूँथ हार ओ विकल प्राण
प्रिय बिंधा ह्रदय में विकल बाण
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