मकर संक्रान्ति- दान-पुण्य एवं सांस्कृतिक महत्व का पर्व श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता (एम.ए. संस्कृत विशारद) जनवरी (पौष माह) में ...
मकर संक्रान्ति- दान-पुण्य एवं सांस्कृतिक महत्व का पर्व
श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता
(एम.ए. संस्कृत विशारद)
जनवरी (पौष माह) में जब सूर्य का प्रवेश मकर राशि में होता है और सूर्य की गति दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर होती है तब यह पर्व मनाया जाता है। यह हिन्दू संस्कृति का प्रमुख त्यौहार है। जनवरी माह के 13 या 14 दिनांक को यह पर्व मनाया जाता है। विद्वानों का मत है कि कभी-कभी यह 12 या 15 जनवरी के दिन भी मनाई जाती है।
राजा भगीरथ ने अपने पूर्वज राजा सगर के सौ पुत्रों के लिये इसी दिन तर्पण किया था। तर्पण के पश्चात् पतित पावनी भगीरथी (गंगा) कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए समुद्र में जा मिली थी। संक्रान्ति के दिन गंगा सागर में मेला लगता है। लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष यहाँ स्नान दान के लिये आते हैं। इसका बड़ा महत्व है।
भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने जाते हैं। शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं। अतः यह दिन मकर संक्रान्ति के नाम से प्रसिद्ध है। इसी दिन भगवान विष्णु ने देवासुर संग्राम के अन्त में युद्ध की समाप्ति पर असुरों के सिरों को मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया था। इसलिये यह पर्व बुराइयों तथा नकारात्मकता को समाप्त करने के लिये मनाया जाता है। भीष्मपितामह ने भी सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने के बाद ही अपनी देह का त्याग किया था।
भारतीय पंचाग में चन्द्रमा की गति से तिथि निर्धारण होता है किन्तु मकर संक्रान्ति का पर्व सूर्य की गति को आधार मान कर मनाया जाता है। यह आद्य शक्ति और सूर्य की आराधना का पर्व है। इस दिन पवित्र नदियों में संगम स्नान का विशेष महत्व है। संक्रान्ति के दिन भारत की पवित्र नदियों तथा संगम स्थानों पर लाखों लोग स्नान करते हैं और तिल, खिचड़ी व दक्षिणा-दान देकर पुण्यार्जन करते हैं। तुलसीकृत महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ में महाकवि लिखते हैं-
माघ मकर गत रवि होई, तीरथ पति आव सब कोई।
देव दनुज किंनर नर श्रेणी, सादर मज्जहि सकल त्रिवेणी॥ (बालकाण्ड)
इस दिन तिल के तेल से मालिश किया जाता है। तिल को महीन पीस कर पानी में डालकर स्नान किया जाता है। तिल के उबटन का भी विशेष महत्व है। स्नान के पश्चात् चावल, मूँग की दाल की कच्ची खिचड़ी में तिल का लड्डू रख कर भगवान को चढ़ाया जाता है। दक्षिणा भी रखी जाती है। गरीबों को भी इसका दान देने का महत्व है।
राजस्थान, मालवा नेमाड़ आदि क्षेत्रों में सुहागिन महिलाएँ अपने घर की वृद्ध सुहागिन महिलाओं को वायना देती है, जिसमें सुहाग-सामग्री रखी जाती है। विभिन्न धातुओं से बनी चौदह वस्तुओं का पूजन कर संकल्प किया जाता है। उनमें तिल-गुड़ के लड्डू तथा दक्षिणा रखी जाती है। ये वस्तुएँ सुहागिन महिलाओं को सादर कंकू-अक्षत-हल्दी लगाकर दी जाती है। इस दिन जोड़े को भोजन कराने का भी महत्व है। सर्व प्रथम घर की बहिन-बेटियों को ही निमंत्रित किया जाता है।
विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग नामों से यह त्योहार मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल, कर्नाटक, केरल तथा आन्ध्र में संक्रान्ति, हरियाणा, पंजाब में लोहड़ी। लोहड़ी पर्व में नववधू और नवजात शिशु का विशेष महत्व होता है। रात्रि के समय अग्निदेव का पूजन कर तिल, गुड़, धानी, चांवल, मक्का आदि की आहूति दी जाती है। बिहार में इसे ‘खिचड़ी’ त्योहार कहा जाता है। यहाँ भी स्नान दान का महत्व है। महाराष्ट्र में भी स्नान, दान का महत्व है। तिल गुड़ का दान दिया जाता है। तिल गुड़ देते समय कहा जाता है-‘तिळ गुड़ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला’ अर्थात् तिलगुड़ लो और मीठे-मीठे बोलो। तिल का विशेष कांटेदार हलवा, तिल, लौंग, इलायची आदि से बनाया जाता है। बंगाल में भी इस दिन दान देने की परम्परा है। नेपाल भी एक हिन्दू राष्ट्र है, यहाँ भी स्नान दान की परम्परा है। इस पर्व को उत्तरायणी भी कहा जाता है।
आधुनिक समाज में समयाभाव तथा घरों की दूरियों से इसमें परिवर्तन आ गया है। फिर भी कई घरों में इस दिन हरे चने, मटर, गाजर, आलू, तिल आदि डालकर खिचड़ी बनाई जाती है, जो पुलाव के रूप में बच्चे और बड़े चाव से खाते हैं। कहीं-कहीं चीले बनाने की भी परम्परा है। गाय तथा अन्य पशुओं को घास तथा हरे चने (छोड़) खिलाने का भी महत्व है।
धार्मिक महत्व के साथ ही यहाँ पर्व मनोरंजन के लिये भी प्रसिद्ध है। बाल, वृद्ध पुरुष तथा महिलायें पतंगबाजी का आनन्द लेते हैं। भारत के कई प्रान्तों में तो पतंग उत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। गुजरात की पतंगबाजी प्रसिद्ध है। गिल्ली डंडा भी इस दिन खेला जाता है। आज यह खेल विलुप्तप्रायः है।
सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश एक भौगोलिक आधार भी है। इस दिन से रात छोटी व दिन बड़े होने लगते हैं। ऋतु परिवर्तन भी इसी के साथ होता है। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि सेनापति कहते हैं-
शिशिर में शशि को स्वरूप पावे सविताउ (सूर्य)
धामहि में चांदनी की द्युति दमकति है।
यह पर्व हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी है। इसे हमें अनवरत बनाए रखना है। हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम इस सांस्कृतिक परम्परा को बनाये रखें और अपने सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार इसका पालन करते हुए नई पीढ़ी को भी इसके महत्व को समझाकर उनमें अपनी भारतीय परम्परा के प्रति श्रद्धा भाव जागृत करें। मैं समझती हूँ कि हमारे समाज की महिलाएँ इस परम्परा के निर्वहन में पीछे नहीं है और वे नई पीढ़ी के लिये भी प्रेरणा स्रोत बनती रहेंगी, इसी आशा के साथ मैं अपने इस लेख को विराम देती हूँ।
श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता
(एम.ए. संस्कृत विशारद)
Sr. MIG-103, व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार
उज्जैन (म.प्र.)
Email:drnarendrakmehta@gmail.com
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