सुशील शर्मा *हे शारदे माँ* हे शारदे माँ जब भी आँख बंद कर तुझे याद करता हूँ। मेरे आँखों में झूलते हैं बेबस लोकतंत्र की बोटियां नोचते ठ...
सुशील शर्मा
*हे शारदे माँ*
हे शारदे माँ
जब भी आँख बंद कर
तुझे याद करता हूँ।
मेरे आँखों में झूलते हैं
बेबस लोकतंत्र की बोटियां
नोचते ठहाके लगाते गिद्ध
कुछ पक्ष और कुछ विपक्ष में
एक दूसरे पर भौंकती आवाजें।
लेकिन अपने स्वार्थों के लिए
निरीह जनों के अधिकार हड़पते
घिनौने सफेदपोश चेहरे।
हे शारदे माँ
जब भी तेरी तस्वीर के आगे
हाथ जोड़ कर खड़ा होता हूँ
मेरे सामने संसद में हुल्लड़ करते
खिलंदड़ चेहरे घूम जाते है।
जो देश की जनता का खरा पैसा
उड़ा रहे है अपने स्वार्थों पर।
मुझे याद आते हैं दो हज़ार के लिए
लाइन में लगे गरीब बूढ़े आम लोग
साथ ही दिखते हैं गुलाबी नोटों की
गड्डियां उछालते सुनहरे चेहरे।
हे शारदे माँ
जब भी तेरी वंदना की
कोशिश करता हूँ
टीवी पर चीखता हुआ एंकर
बड़े जोरों से घोषणा करता है
कि वही सच का पक्षधर है।
कोने में खड़ा सकते में सिसकता
आम आदमी देखता है किस तरह
अपने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाता
बाज़ारू मीडिया आम सरोकारों से
दूर पूंजीपतियों की आवाज़ बना है।
हे शारदे माँ
तेरी प्रार्थना के लिए जब भी
मेरी वाणी उत्साहित होती है
मेरे आजू बाजू अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के नाम पर
भारत एवं भारतीयता को
ललकारती गालियों का स्वर
किसी संस्थान की नींवों से आता है
संविधान की सौगंध को तोड़ती
जहरीली आवाजें फ़िज़ा में गूंजती है
हे शारदे माँ
जब भी विद्यालय में
तेरी प्रार्थना करता हूँ
शिक्षा की दो धाराएं
आँखों में झलकती हैं
सरकारी फटी चिथी व्यवस्था
के बीच खड़ा मजदूर का बेटा
लकदक कान्वेंट की पोशाक में
फर्राटेदार कार से उतरते अमीर बच्चे।
हे शारदे माँ
जब भी तुझे अपने अंदर
प्रतिस्थापित करने की कोशिश की
पाया गहन अँधेरा टूटा हुआ मन
अंदर बहुत जाले है भय अहंकार के
माया मोह बंधनों की धूल से अटा
ये अंतर्मन बहुत व्यथित है।
हे शारदे माँ
करो मुक्त मेरा अंतर्मन
करो चित्त मेरा निर्मल
दूर करो सारे अवगुण
करो प्रफुल्लित मेरा मन
साहित्य सुधा का दीप जला
करो उजास भरा जीवन।
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डॉ मधु त्रिवेदी
लीक से हट कर
@@@@@@
कुछ अलग लिखा जाये
लीक से हट कुछ किया जाये
विषमता में समानता लाकर
हर व्यक्ति को खुशहाल किया जाये
कर रहे है जो देश को खोखला
उनका काम तमाम किया जायें
भारत में ही रहते है
यहीं फलते फूलते
असहिष्णुता जैसे बयान देते है
उनको देश से बाहर किया जाये
ऊपर से नीचे तक जो गन्दगी
उसको साफ किया जायें
सत्ताधारियों के बीच साक्षरता
स्तर को बढ़ाया जायें
सी एम जैसे पदों को
पढे लिखों से
गौरवान्वित किया जाये
सब लोगों को मिलें नौकरी
ऐसा कुछ किया जायें
बड़े बूढ़े हो समृद्ध
मिलें बच्चों की छत्र छाया
ऐसे संस्कार दिये जायें
रहे न कोई भूखा नंगा
दो वक्त की रोटी मिले सबको
ऐसा इन्तजाम किया जाये
चाँद तारों से करें बातें
ऐसा काम किया जायें
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सुशील यादव
खिले-खिले फूल .....
नींद में कोई चल के देखे
काले नोट बदल के देखे
एक नटनी रस्सी पे चलती
यूँ भी कोई सम्हल के देखे
कोई सूरत नजर न आती
छुपे चेहरे असल के देखे
जुम्मन मियां की बोलती बंद
अलगु खौफ़ अजल के देखे
हर आहट जो नोट छुपाते
गायब नखरे अकल के देखे
इच्छाओं को मारने निकले
खून-खराबे मक़तल के देखे
एक गरीब की आस था पैसा
अमीर फंसे दलदल के देखे
जाने क्या कल अंजाम हो साथी
खिले-खिले फूल कमल के देखे
२४.११.१६
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डॉ0सुरंगमा यादव
ग़ज़ल - मैं बेवफ़ा हूं
अजब चीज उल्फ़त बनायी गयी है।
क्यूँ दिल की भी कीमत लगायी गयी है।
कसम मैं तो कोई भी खाता नहीं हूं ,
क्यूं मुझको कसम ये खिलायी गयी है ।
वफ़ा मैं किसी से कर न सकूंगा,
क्यूं मुझसे ये आशा लगायी गयी है ।
मैं दिल तक किसी के पहुँच न सकूँगा,
क्यूँ दिल चीज मुझको दिखायी गयी है।
नहीं प्यार करने का मुझको सलीका,
क्यूँ मुझपे ये दौलत लुटायी गयी है।
किसी की मुहब्बत में बँध न सकूँगा,
क्यूँ मुझ पर ये बेड़ी लगायी गयी है।
तेरे आसुँओं से नहीं फ़र्क मुझको,
क्यूँ गंगा औ जमुना बहायी गयी है।
किसी की तड़प न मुझको लुभाये,
क्यूँ राहों में पलकें बिछायी गयी है।
मैं वादे पे तेरे आ न सकूँगा,
क्यूँ झूठी दिलासा दिलायी गयी है॥
तेरे ख़्वाब पूरे न मैं कर सकूँगा,
क्यूँ सपनों की महफ़िल सजायी गयी है।
ये शादी का जोड़ा न मैं ला सकूँगा,
क्यूँ हाथों में मेंहदी रचायी गयी
2
गज़ल- औरत
कभी खोला कभी बंद किया उसको किताबों की तरह
ये तो औरत भी बदलते हैं बयानों की तरह ।
लूट के आबरू सच की तरह लड़की का गला घोंट दिया।
पहन के बैठ गये इज़्ज़त को लिबासों की तरह ।
ये मुहब्बत है जुनूं है या कुछ और ही है
करके टुकड़े उसे फेंका है कवाड़ों की तरह ।
कितने दुर्योधन यहाँ घूम रहे हैं जाने ।
चीर हरते हैं घुमाते हैं तमाशों की तरह ।
ग़ुनाह करके भी ग़ुनहगार साबित न हुए
फ़ाइलें जल गयीं जंगल के दरख्तों की तरह ।
हर गुनहगार सज़ा पाये ऐसा कहाँ होता है
इंसाफ़ चुप है अंधे बहरों की तरह ।
डॉ0सुरंगमा यादव
असि0 प्रो0 हिंदी
जानकीपुरम विस्तार, निकट मुलायम तिराहा
लखनऊ 226031
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कैलाश मंडलोंई
(1)
अनुभव...
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प्यास मेरी
पथ मेरा, आशा मेरी
तृप्ति में हूँ तृप्त।
प्रीत खोजी, पीर लाया
जीतकर तुमसे
तुम्हीं को हार आया।
कल्पना दौड़ी, शब्द उलझे
भाव जन्में, अर्थ सुलझे
शायद, अनुभव के रास्ते
मन का अंधियारा खोजेंगे।
(2)
आत्म मंथन कर ले प्राणी...
---------------
सुगंध से सुरभित चमन है
फूल क्या यह जानता हैं?
दर्द होता है चुभन से
शूल क्या पहचानता हैं?
सत्य को पहचान प्रणी
आत्म मंथन कर ले
आत्म श्वास भर ले।
भोर, धूप, सांझ, रात
शिखर, नदी, वृक्ष पात
करते है मौन बात
बात ध्यान धर ले
सत्य को पहचान प्रणी
आत्म मंथन कर ले
आत्म श्वास भर ले।
जड़-वैभव सत्य ज्ञान
चेतन को असत्य मान
जीवन सरि का जल
बहा दिया हर पल
किस हेतु
जगत में आया
क्यों मिला
जीवन तुझको
इस ज्ञान को
भुला दिया।
लो, पत्ती
पेड़ से गिरी
मृत्यु है सत्य
आत्म स्वर गुंजा।
जीवन सशंकित
कि न जाने
किस क्षण सपना बीते।
आशा जीवन है
निर्भीक मृत्यु के
तांडव नृत्य में
अभय हो लो
आत्म स्वर,
आत्म श्वास भर ले।
सत्य को पहचान प्रणी
आत्म मंथन कर ले।
न किया
कभी आत्म मंथन
व्यर्थ ही जिया
पुत्र, पत्नी, पिता, मात,
स्नेहीजन, सखा, भ्राता
संग जिया
क्या अपना
क्या पराया
ये जग तो
लगता सपना
सब लुट गया
उम्र के चढ़ाव पर
समझ नहीं पाया मन
क्या है फलसफा जीवन का?
यह बताओ
कौन कितना जान पाया?
जानता वह व्यक्त कर पाता नहीं
और जो अव्यक्त को
अभिव्यक्त करता
वह समझ से दूर है ज्ञाता नहीं
सत्य को पहचान प्राणी
आत्म मंथन कर ले
आत्म श्वास भर ले।
(3)
खामोशियाँ थी उसके पास...
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रचा करती थी वह
हर पल हर क्षण
कुछ सवाल
किसी को
पाने की चाह में।
भटकना चाहता हूँ
उम्र भर
खुद के भीतर
तलाश में उसकी।
जवाब थे उसके पास
सवाल कुछ भी नहीं
उसकी खामोशियाँ
ही सारे सवाल थे।
कुछ चीजें होती है
महसूस करने की
बताने या
जताने की नहीं।
(4)
एक दाँव और सही...
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गैरों की नहीं
अपनों की बात करते है
युगों-युगों से ठगों के बीच
ठगाता आया
कोई पत्नी से ठगा गया
कोई पति से ठगा गया
कोई बहू से ठगा गया
कोई बेटे से ठगा गया
आखिर में तो सब
मौत से ठगें ही
जाने वाले है
मौत ठग ले, उसके पहले तू
इंसानियत से ठगा जा
किसी भूखे की, भूख मिटाते ठगा जा
किसी बेसहारा का, सहारा बन ठगा जा
तो घाटा भी क्या पड़ेगा?
अब ठगवाने को तुम्हारे पास
बचा भी क्या है?
युगों से तुम, ठगाते आये हो,
हारते आये हो।
एक बार और हार सही।
एक बार और दाँव सही।
------
-- कैलाश मंडलोंई
सहायक शिक्षक
पदस्थ संस्था का नाम : कन्या. मा. वि. रायबिड़पुरा
विकास खण्ड जिला खरगोन (मध्यप्रदेश)
स्थाई पता : मु. पो.-रायबिड़पुरा तहसील व जिला- खरगोन (म.प्र.)
पिनकोड न.451439
मोबाईल नम्बर-9575419049
ईमेल ID-kelashmandloi@gmail.com
0000000000000000000000000000000
जयप्रकाश श्रीवास्तव
मैं लिखता हूं
----०---
मैं लिखता हूं
नहीं लिखूं तो
अपनी नज़रों में गिरता हूं।
मेरी क़लम
लिखा करती है
सूखी रोटी गीले सपने
मजबूरी के
फटे दुशाले
दर्द और पीड़ा के गहने
दिन भर ओढ़े
अँधियारे को
सूरज काँधे रख चलता हूँ।
मुस्काता है
जब जब मेरे
घर का टूटा सा छप्पर
वर्षा धूप
ठिठुरता आँगन
मुँह चिढ़ाता है अक्सर
देख देखकर
तस्वीरों को
हुए हादसों में मरता हूँ।
बुद्ध नहीं मैं
खोज सकूँ जो
लोगों के दुःख का कारण
जीकर ज़रा
अभावों को
महसूस सकूँ पीड़ा के क्षण
इसीलिए तो
अक्षर अक्षर
शब्द साध कविता गढ़ता हूँ।
.......
जयप्रकाश श्रीवास्तव आई.सी.5
सैनिक सोसायटी शक्तिनगर जबलपुर(म.प्र.)
482001मोबा.7869193927
0000000000000000000000
रुचि प जैन
अकेला
पर्वत भी खड़ा अकेला,
तू क्यों रोता है।
यही है जीवन का मेला,
ऐसा दुनिया का कहना है।
निर्भय हो कर बहती नदियाँ कल कल,
समृद्ध हो पथ यही उनका कहना है।
माहावीर, बुद्ध भी निकले अकेले,
सत्य का ज्ञान उनसे ही मिला है।
तू अपने मन को सम्भाल,
ठान कुछ ऐसा करना है।
दुनिया में है दल दल ,
पर तुम्हें कमल की तरह खिलना है।
देता जा सबको ख़ुशियों के पल,
यही ईश्वर का कहना है।
ये है जीवन का रेला,
तुझे ही अपना साथी बनना है।
समय की घारा पर चल अविरल ,
तुझे ही सुंदर आशियाना बनाना है।
रुचि प जैन
0000000000000000000000000
विनोद कुमार दवे
• कुछ प्रश्न शहंशाहों से
तुमने जाने कितनी लाशों पर कुर्सी पाई होगी,
क्या किसी ने उसूलों खातिर सत्ता ठुकराई होगी।
सदियों से जो लुटा पिटा है,आज उसी हालत में क्यों है,
सिंहासन पर जो भी बैठा किसी को दया न आई होगी।
आंदोलन की अग्नि से गरीबी का असुर क्यों न भस्म हुआ,
भूखे पेट का दर्द क्या जानो, क्या तुमको भूख सताई होगी।
तानाशाह के खिलाफ हुई हर आवाज, कैसे कब खामोश हुई,
खबर पहले राजा को हुई, जब जनता ने ली अंगड़ाई होगी।
जिनको तुमने तलवारों बंदूकों के दम खामोश किया,
क्या उनकी याद आई जब अपनों की चिता जलाई होगी।
क्या किसी की बद्दुआ से तुम्हारा कभी अहित हुआ,
सौगंध का क्यों विश्वास करें, झूठी कसमें तुमने खाई होगी।
सुना था हर शख्स के अंदर इक ख़ुदा का घर होता है,
खुद ख़ुदा भी हैरान हुआ क्या, जब बिकी तेरी ख़ुदाई होगी।
• तेरी मुझसे कोई तो रंजिश है
ये जो मेरे खिलाफ तेरी साजिश है,
तेरी मुझसे कोई तो रंजिश है।
कौन सी खलिश दिल में लिए बैठे हो,
बता तो सही तेरी क्या ख्वाहिश है।
मैं तो बारिश में खेलते छोटे बच्चे सा हूँ,
मेरी जो एक प्रेयसी है वो ये बारिश है।
मेरी रजाओ का गला घोंट कर कर,
पूछते हो बता तेरी क्या फ़रमाइश है।
खिंचा चला आता हूँ ठुकराने के बावजूद,
न जाने तुझमें कौन सी कशिश है।
दिखाना पड़ता है ज़ोर इश्क़ में भी,
ये प्यार है या कोई नुमाइश है।
• डूबता हुआ छोड़ जाता है
हमसफ़र मुझे लुटता हुआ छोड़ जाता है,
सफ़ीना मेरा डूबता हुआ छोड़ जाता है।
जो गुलाब सा ज़िन्दगी में आता है,
काँटा कोई चुभता हुआ छोड़ जाता है।
रात के पाँव घर की दहलीज जब छूते है,
आफ़ताब भी बुझता हुआ छोड़ जाता है।
हवा का झोंका कोई ताजगी नहीं लाता,
दम मेरा घुटता हुआ छोड़ जाता है।
दर्द के क़दमों की आहटें आ रही है बाहर,
दरवाजा कोई खुलता हुआ छोड़ जाता है।
मदद के लिए बुलाकर मददगार को,
तूफानों से जूझता हुआ छोड़ जाता है।
गीत
• मुझको तुमसे प्यार नहीं
कैद में रहना उन यादों के अब मुझको स्वीकार नहीं
जा अब मैं भी कहता हूँ, मुझको तुमसे प्यार नहीं।
इतनी यादों के सायों में कितना वक़्त गुजारा है
उन यादों से बंध के रहना मुझको नहीं गवारा है
मैं तो खूब तैर चुका हूँ ये दरिया होता पार नहीं
जा अब मैं भी कहता हूँ, मुझको तुमसे प्यार नहीं।
कब तक उन यादों की गठरी अपने सीने ढोऊंगा
कब तक उन पलो के बूते खुशियों के पौधे बोऊंगा
मेरे लिए तो प्रेम ही जीवन, ये कोई व्यापार नहीं
जा अब मैं भी कहता हूँ, मुझको तुमसे प्यार नहीं।
तनहाई के उस गुलशन की अश्कों से प्यास बुझाता था
सावन का हर बादल मुझसे रूठ-रूठ के जाता था
सहरा की धरती सा जीवन, कहीं कोई गुलज़ार नहीं
जा अब मैं भी कहता हूँ, मुझको तुमसे प्यार नहीं।
हर आता जाता शख़्स मुझे तेरे चेहरे सा लगता था
तेरी नजरों का तीर कहीं दिल में गहरे सा लगता था
तू नजरें मुझसे फेर चुका, इस उपवन कोई बहार नहीं
जा अब मैं भी कहता हूँ, मुझको तुमसे प्यार नहीं।
• दोहे
जमीन हड़पने की खातिर, लील गए नदी तालाब
बारिश का पानी भी सोचे,किस और जाऊँ जनाब
कई पेड़ों का कोयला कर दिया, वृक्ष लगा न एक
नंगे पर्वत चीख रहे, भाई देख तमाशा देख
सब्जियां भी फीकी लगती, फलों में मिठास नहीं रही
सब केमिकल लोचा है, अब शुद्धता की आस नहीं रही
ईश्वर ने जब इस धरती को,अपने हाथों से बाँधा होगा
सोचा होगा मानव है, बाल न इसका बांका होगा
हुआ सरकारी पौधा रोपण ,पौधे लगे हजार
आधों को बकरी चाट गई, आधे गए स्वर्ग सिधार
जन्म से लेकर चिता जलाने तक, लकड़ी ने साथ दिया
हमने एक बीज न बोया, बस पेड़ों को काट दिया
कविता
• राखी
रक्षा का ही सूत्र नहीं ये प्यार की साखी है
लाज बहन की रख लेना ये मेरी पावन राखी है।
मैं बहना हूँ तेरी तू भइया सब का हो जा
मेरे नयनों के काजल से गंदी नजरें धो जा
मेरी सखियों की इज्जत भी मेरी इज्जत ही है
उस इज्जत को रख लेना ये धागे की साखी है
लाज बहन की रख लेना ये मेरी पावन राखी है।
हर बहना को हर भइया से रक्षा का वरदान मिले
जिस गली में कदम रखें वहां रक्षक इंसान मिले
उन बाजारों में न जाना जहां इज्जतें बिकती है
जाओ तो सोच के जाना ये राखी भी गिरती है
हर नुक्कड़ पर हर कोने में ऐसी लड़की रोती है
हर रोने वाली लड़की भी किसी की बहना होती है
उसकी आँखों में मेरे अश्कों की लड़ियाँ भी बाकी है
लाज बहन की रख लेना, ये मेरी पावन राखी है।
परिचय = साहित्य जगत में नव प्रवेश। पत्र पत्रिकाओं यथा, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, अहा! जिंदगी, कादम्बिनी , बाल भास्कर आदि में कुछ रचनाएं प्रकाशित। अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत।
विनोद कुमार दवे
206
बड़ी ब्रह्मपुरी
मुकाम पोस्ट=भाटून्द
तहसील =बाली
जिला= पाली
राजस्थान
306707
मोबाइल=9166280718
ईमेल = davevinod14@gmail.com
0000000000000000000000
अनिल कुमार सोनी
"स्वच्छ भारत"
वे आये
शासन किया
चले गये
और भी आये
लुट ले गये
शासन किया
गुलाम बने
चले गये
आजाद हुए
पर निकले
मुद्रा परिवर्तन किया
कालाधन नष्ट किया
स्वच्छ भारत
बना
भीड़ भी कम हो गई
बैंक कतारों
कारण
शीत लहर ठंडी का
अब उड़ने लगे
आसमां में
मानो राष्ट्र अपने पैरों पर खडे़ हो गये ।
अनिल कुमार सोनी
000000000000000000
निसर्ग भट्ट
“अंतरमन का अवलोकन"
उन खोखले वादों की कटारों से,
हम हर रोज़ कटते रहते हैं,
उन भयंकर भ्रमजालों से,
बहार निकल नहीं पाते हैं ।
उस अदृश्य आशा की तलाश में,
हर रोज़ भटकते रहते हैं,
हर शाम खुद से ही हार कर,
फिर मायूस हो जाते हैं ।
उन अविरत आडंबरों से,
हम इतने कायर बन चुके हैं,
अपनी ही सच्चाई के सुरों को,
हम सुन नहीं पाते हैं ।
अपने ही झूठ के जंगलों में,
अक्सर हम खो जाते हैं,
अपमानों के आँसुओं को,
घूँट घूँट कर पी जाते हैं ।
कभी दोस्ती के दलदल में,
तो कभी प्रेम की मृगजाल में,
हर बार हम फंस जाते हैं,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उस दर्द ए दरिया में,
हर बार हम डूब जाते हैं ।
आकर्षणों की आँधी में,
हर बार हम बह जाते हैं,
औकात से आगे सोचने की गलती,
अक्सर हम कर जाते है ।
घनघोर निराशा की नाव में,
हम अक्सर हिचकोले खाते हैं,
उन अनगिनत ठोकरों के बाद,
अब दर्द को भी महसूस नहीं कर पाते हैं ।
हर दिन पैसे की अंधी प्यास में,
खुद को ही बेचते रहते हैं,
अब तो खुद ही बोली लगाकर,
खुद को ही खरीदते रहते हैं।
अभ्यास - Bsc. with biochemistry
जन्मतिथि - १२-८-१९९७
E-mail - nisarg1356@gmail.com
दूरभाष - 8460284736
- निसर्ग भट्ट
0000000000000000000
कवि दीपक लखनवी
दिल का दर्द (कविता)
इक दिन मेरी साँसो ने मुझसे पूछा।
क्यूँ तुम लंबी साँसे लेते रहते हो?
मैं बोलूं इससे पहले दिल बोल पडा।
तुम मुझ पर इतना दबाव क्यूं देते हो?
दिल के बाद मेरी आंखें भी बोल उठी।
क्यूं अश्कों से मुझको रोज भिगोते हो?
तभी कंठ ने धीमे स्वर में पूंछ लिया।
क्यूं पीते हो घूंट,सिसकियां लेते हो?
रातें मुझसे कह उठी बतलाओ तो।
क्यूं रातो में नहीं कभी तुम सोते हो?
मेरी चेतना ने भी मुझसे पूंछ लिया।
किसकी यादों में तुम खोए रहते हो?
मैंने गुस्से में सबको फटकार दिया।
बोला,कौन पूछने वाले होते हो?
जाओ पहले तुम भी किसी से प्यार करो।
किसी प्रियतमा से तुम आंखें चार करो।
और प्रियतमा तुमको छोड चली जाये।
बैठ अकेले उसका इन्तजार करो।
शायद उसकी भी कोई मज़बूरी हो।
जिसके कारण शायद बीच में दूरी हो।
मेरी हालत पर अब ज़रा विचार करो।
करो हमेशा सच्चे दिल से प्यार करो।
दिल बोला मैं तेरी व्यथा समझता हूं।
चोट भावनाओं की मैं ही सहता हूं।
प्रेम कहानी की चक्की में सच मानो।
सबसे ज्यादा मैं ही पिसता रहता हूं।
--
क्यूं नाराज़ हो? (कविता)
तू मुझसे खफा।
मैं खुद से खफा।
नुकसान ही है
नहीं कोई नफा।
चल अब तो बता
तुझे क्या है हुआ।
क्यूं पलकों को
अश्कों ने छुआ।
अब खोल अधर
सब बात बता।
मंजूर मुझे
हर तेरी सजा।
पर उससे पहले
गुनाह बता।
पर उससे पहले
गुनाह बता।
कवि दीपक लखनवी
00000000000000
सुमन त्यागी “आकाँक्षी”
छोटे से गाँव में लड़कों के ग्रुप को,
गली के नुक्कड़ पर खड़े होते देखा।
देख हर आने वाली लड़की को,
बेवजह ठहाके लगाते देखा।
किसी को भाभी,तो डार्लिंग किसी को,
और किसी से जानू कहते देखा।
हर आने वाली लड़की की कीमत लगाने को,
बातों में ही करोड़पति बनते देखा।
किसी को सौ तो लाखों किसी को,
सुंदरता के पैसे देते देखा।
ऊपर से नीचे तक एक-एक अंग को,
घूर-घूर रेटिंग देते देखा।
लड़की के अंगों का शब्दों से बखान कर,
बातों से ही चीरहरण करते देखा।
ऐसे भी बेटों के माँ-बाप को,
शिकायतकर्ता से लड़ते देखा।
मेरा राजा बेटा तो ऐसे ही कहेगा,
फिर एक माँ को कहते देखा।
और पुत्र मोह में फसें पिता को,
अभयदान फिर देते देखा।
ऐसे ही माँ-बाप को सोचो तुम,
अपनी बेटी की चिंता में देखा।
“पर जो कीमत किसी और की,
क्या खुद की बेटी की लगते न देखा”।
“जो चीरहरण किसी और का,
क्या खुद की बेटी का होते न देखा”।
ऐसे ही माँ-बाप के अक्सों में,
दोगलापन समाज का देखा।
सोचा देखूं और भी कुछ,
पर माँ को कान मरोड़ते न देखा।
सोचा सुन लूं और भी कुछ,
पर बाप को ‘तू कहाँ था’ पूछते न देखा।
आखिरी उम्मीद बची समाज से,
पर वहाँ भी उनका बहिष्कार न देखा।
बेख़ौफ खड़े चौराहे पर फिर,
उनकी हिम्मत को बढ़ते देखा।
उसी गाँव के नुक्कड़ पर ये,
सामाजिक चरित्र का पतन है देखा।
नपुंसकता के दृश्य बिम्ब का,
समाज पर अवतरण है देखा।
उस दिन जाना हमने अनेक क्यों,
निर्भया कांडों को होते देखा।
सुमन त्यागी “आकाँक्षी”
मनियां,धौलपुर (राज.)
000000000000000
तिलक राज सक्सेना
बिखरती हसरतें
अपने नन्हे लाल को
सो जाने के बाद भी
कितनी हसरतें और प्यार लिए
जाने कितनी देर तक
निहारते उसको माँ बाप
बड़े मूर्ख हैं वे,
उसके रोने मचलने पर
उसकी हर जिद पूरी करने को बेताब
बेचैन हुए माँ बाप
बड़े मूर्ख हैं वे ,
उसकी छोटी सी बीमारी पर
सिरहाने उसके बैठ
बिना पलकें झपकाए
गुजारे सारी सारी रात
बड़े मूर्ख हैं वे,
मन्नतें बड़ी की जिसे पाने की
भूख प्यास की चिंता छोड़ी
वही बड़ा होकर
मारेगा एक दिन उनके लात
भूले यही यथार्थ
बड़े मूर्ख है वे,
उनकी सभी हसरतों
अरमानों की होली
जलती रही तिल तिल करके
और एक दिन
कूच गये दुनिया से वे
ऊपर जाकर भी
देते लाल को आशीर्वाद
बड़े मूर्ख हैं वे ।।
तिलक राज सक्सेना
9024081336, जयपुर ।।
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राधेश्याम कुशवाहा "विजय "
मेरी जिन्दगी नाराज सी लगने लगी है अब ।
कसक मेरे दर्द की बढने लगी है अब ।।
ढूँढा तुझे बहुत बहारों की गली में ।
पर तू है कि तनहाई में मिलने लगी है अब ।।
सोचा तुझे कुछ और खुशी के गीत सुना दूँ।
पर गम के तू गीत सुनने लगी है अब ।।
हमसफर बन कर मेरी तू ही आई ।
अब क्यों किनारा सा करने लगी है अब ।।
" श्याम "फरियाद करे किस पर दुनिया !
एक तू थी जो मेरे दामन से बचने लगी है अब ।।
---------राधेश्याम कुशवाहा " विजय "
संक्षिप्त परिचय---
कवि--राधेश्याम कुशवाहा "विजय "
जन्म---मलौथा,जि. हरदोई .उ.प्र.
निवास---दीक्षा हाउस शिवनगर फर्रूखाबाद उ.प्र.
शिक्षा---एम.ए.बी.एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)
सेवारत---प्राइवेट सेक्टर
सृजन---- कविता ,गजल ,कहानी ,उपन्यास प्रकाशन हेतु प्रयासरत ।
E.mail___vijay kushwaha 1961@gmail.com
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-आचार्य अभिजीत पाण्डेय
अब मैं घर छोड़ चला
अब मैं घर छोड़ चला ,
इन माया मोह विकारों का|
मैं चला परम निज धाम चला ,
जो सूरज चाँद सितारों का ||
मार्ग के सुंदर चितवन में ,
ज्यों देखा परियां बहारों का |
फिर भटक गया मेरा चञ्चल मन ,
किया कलोल विचारों का ||
फिर याद किया शंकर वाणी,
ये काया मांस विकारों का|
नारी का स्तन नाभि निवेश है ,
झूठा भ्रमर विहारों सा ||
मैं चला वेद के मार्ग चला ,अब
भय नहीं सिंह श्रृगालों का |
ना प्रेम है गोपी सा मन मे ,
ना उद्धव ज्ञान विचारों का ||
मैं वेद मंत्र के साथ चला,
फिर भय ना किसी किनारों का |
मैं जीत सका नहीं मन अपना ,
क्यों बात करूँ बंजारों का ||
अब मैं घर छोड़ चला ,
इन माया मोह विकारों का |
वो सुखी रहे जग जीव चराचर ,
आग्रह वेद विचारों का ||
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लक्ष्मीकांत मुकुल
अवकाश पाये शिक्षक
(कवि-शिक्षक कमल नयन दूबे के लिए)
शाम ढ़लते ही लौट आते हैं हारिक पंछी
चोंच में तिनका डाले
बधार से लौट आते हैं पखेरू
लौटते हैं लोग खेतों से काम निपटाकर
अवकाश पाये शिक्षक
लौट आते हैं अपने घरों में
गहरी उदासीनता के साथ
उनकी उदासीनता में
शामिल होती हैं विनम्रता की लहरें
विनम्रता के साथ प्रार्थनाएँ
प्रार्थनाओं के साथ उमंगती आशाएँ
जिसमें छिपी होती हैं पुरानी यादें
सहकार्मियों के साथ बीते अनगिन दिन
छात्रों को दिये स्नेहिल स्पर्श
पूरे समय का काफिला होता है उनके साथ
अवकाश पाये शिक्षक करते हैं कामनाएँ
किय विशाल पोखरे जैसे उनके विद्यालय में
उगते रहें श्वेत कमल, नीलोत्पल, नील कुसुम
जिसमें ज्ञान के भौरें करते रहें गुंजार
पूरा इलाका हो उनके सुगंधों से आच्छादित
अवकाश पाये शिक्षक
लौटना चाहते हैं अपने शुरू के दिनों में
वे खेलना चाहते हैं बचपन के खेल
वे फिर से लिखना चाहते हैं खड़िया से बारहखड़ी
वे बच्चों की तरह परखना चाहते हैं
शिक्षा की गुणवत्ता का रहस्य
अवकाश पा चुके शिक्षक
उमंगो से कबरेज होकर
करना चाहते हैं बुकानन की तरह यात्राएँ
वे जाना चाहते हैं धरकंधा
देखना चाहते हैं एक मुस्लिम दर्जी दरियादास को
कि वह एकांत में कैसे लिखता है अपनी कविताएँ
उसके आध्यात्मिक रहस्य को वे छू लेना चाहते हैं
वे कर्नल टांड जैसा घूमना चाहते हैं
‘राजपुताना’ में। जहाँ एक भक्तिमय राज कन्या मीराबाई
परमेश्वर को ही पति मानकर करती है नृत्य
उसके गीतों के दोशाले को ओढ़ना चाहते हैं वे
अवकाश पाये शिक्षक को अभी करने हैं ढेर सारे काम
उन्हें फेंकनी हैं ‘टॉर्च’ की तरह ज्ञान की रोशनी, जो चीर दे समय के अंयेरे को!
फिर लौट कर आएगा बुकानन
फिर लौट कर आएगा बुकानन
हाथी पर सवार (उन राहों से
जिस पर आये थे कभी
मेगास्थनीज, ह्वेनसांग
अलबरूनी, इब्बनबतूता, बर्नियर
अपरिचित लग रहे इस रहस्यमय इलाके को देखने)
उसके वृतांत में पुनः जीवंत हो जायेंगी
शाहाबाद के गाँवों की गलियाँ
बुकानन उत्कंठित होगा यह जानने को
कि सैकड़ो्र वर्षो से कैसे चली आ रही
संत कवि दरिया की परंपरा
इमली के पेड़, निकटवर्ती नदी की धार
व लोगों के चेहरे में खोजेगा इन रहस्य-बिन्दुओं को
जोहना चाहगा इस रास्ते को
जिस पर चलकर गंगा पर मगधर पहुँचे होंगे दरियादास
किन-किन पड़ावों पर किये होंगे वे विश्राम
कहाँ पड़े होंगे उनके दिव्य चरण
किन्हें दिये होंगे वे धार्मिक शिक्षाएँ
धुपबत्ती की तेज गंध, आरती की गूँज और ताड़ के पेडों की
खड़खड़ाहट के बिच मुग्ध धरकंधा को देखेगा बुकानन
दरिया समाधि के पास निमग्न बैठा
पढते हुए पोथियाँ। बुदबुदायेगा बुकानन
दरिया अगम गंभीर हैं लाल रतन की खानि
जो जन मीलै जौहरी, लेहि शब्द पहचानि।
पीछे से पेडों के डुलतें पत्ते थिरकेंगे उसकी आवाज में
वह गोता लगाएगा भक्ति काव्य के बहाव के साथ
पुलकित होगा यह समझते हुए कि भयानक युग में भी
जीवन को बचा लेने का किस तरह बोध देते थे ज्ञानमार्गी कवि
रास्ते में मिले करंज के लोगों वह जरूर ही पूछेगा
उन औरतों का हाल-चाल, जो मिली थीं उससे सदियों पूर्व
इस घनघोर अशिक्षित जिला में भी किताब पराचती हुईं
वह जानना चाहेगा कि स्त्री विमर्श के अत्याधुनिक युग में
जब सुनने को अक्सर मिल जाती दिल्ली रेप कांड,
ब्लेडमार व चेहरे पर तेजाब फेंकने की खबरें
तब घर से निकलकर पढ़ने का साहस कैसे कर पायेंगी उनकी बेटियाँ
अनजाने को जानने की उल्लास से भरा बुकानन
जाने को तत्पर होगा गाँव खान का सिमरी में
जहाँ शिया मुस्लिम सैयद बेलग्रामी परिवार के हाथों
दशहरे में महावीरी भंडा उठाने का सदियों से चला आ रहा है दस्तूर
जहाँ लोगों के दिलों में जुलजनाह पर सवार मैदान-ए-कर्बठा से
आते हैं इमाम हुसैन और वीर हनुमान के साथ मिल युद्रत होते हैं
समय के तमाम आतताइयों के खिलाफ
आब-ए-जमजम व दरिया-ए-गंगा के
इस संगम के ताने-बाने को बुझना चाहेगा बुकानन
देवी स्थान के पोखरे में नहाता बुकानन
देखेगा उन छठ व्रतियों को, जो सिर पर दौरा, सूप, नारियल और केले लिए
चली आतीं है घाटों पर अंधेरे में टिमटिमातें दीयों के साथ
सूर्यपुरा से इध आते हुए उसे नहीं मिलेगा आज दो मिल तक पसरा जंगल,
बड़हरी से बहुआरा के बीच अब उसे नहीं दीखेगा लम्बें घासों से ढँका मार्ग
और धम्मा चौकड़ी भरते बारहसींघों के झुंड। नावानगर के परास वन में अब
कहीं नजर नहीं आएगा गरूड़ के आकार का जिमाच पंछी, जो लडता था उडते हुए
बाजों से। कोआथ से कोचस के मार्ग में गायब मिलेगी दिनारा के समीप कल-कल
बहती धर्मवाती की तीक्ष्ण धार। एक नदी के भुगोल से लुप्त हो जाने पर खींझेगा बुकानन
देहात के रास्तों, आहरों, सार्वजनिक संपतियों का अतिक्रमण करने वाले
लोग ही अब उसे अक्सर मिल जायेंगे बिहार के गाँवों में। वह अचरज से
भर जायेगा यह पाते हुए कि अंग्रेजों से भी लूटने में कितने माहिर हैं यहाँ के
मुखिया-सरपंच-अफसर-मंत्री। आजाद भारत के
नये दस्तूर को बड़ी बारीकी से नोट करेगा बुकानने
खींझते-बड़बडाते बूढ़े। दारू भठ्ठियों से लड़खड़ाते लोटते युवक
स्कूल से दोपहर का भोजन जहर के भय से बिना खाये लौटे,
आइस-पाइस खेलते बेफिक्र बच्चे। मुँहनोचवा के डर के बावजूद भी
अर्ध्य का प्रसाद बाटतीं औरतें
खिलखिला कर हँसती, गुनगुनातीं, फिर सहम जातीं लडकियाँ
पोखरे के कमल-डंठलों को रौदंती भैसें
सबको निहारेगा अंग्रेज यात्री फ्रांसिस बुकानन हेमिल्टन
और दर्ज करेगा बहुत सावधानी से अपनी डायरी में।
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अभिषेक उपाध्याय श्रीमंत
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घर को यूँ वीरान बना के बैठे हैं
रिश्तों को बेजान बना के बैठे हैं ।
बूढ़ी माँ को भेज दिया वृद्धाश्रम् में
कोठी आलीशान बना के बैठे हैं ।
देखो तो अभिशाप कहीं ना बन जाये
हम जिसको वरदान बना के बैठे हैं ।
पैसे लेकर बेच रहे हैं वोटों को
कैसा हिन्दुस्तान बना के बैठे हैं ।
उनकी करतूतों का मचा हो-हल्ला है
हम जिनको भगवान बना के बैठे हैं ।
जब से छूकर पाँव चले हैं हम माँ के
हर मुश्किल आसान बना के बैठे हैं ।
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ऋषिकान्त भगत
ये जिन्दगी तुम से शुरू तुम पर खतम है माँ।
ये जिन्दगी तेरा दिया अनमोल रत्न है माँ।
मुझे याद है मेरे मांगने पर दुनिया की हर एक खुशी दी है तुमने माँ।
मुझे एहसास है तुमने कितनी तकलीफें झेली है मुझे आत्म निर्भर करने में माँ।
मेरे भूखे सो जाने पर तू भी भूखी ही सोई है माँ।
मैंने देखा है मेरी एक खुशी के लिए किस तरह तुमने अपनी सौ खुशियां त्यागी है माँ।
ये जिन्दगी तेरा दिया अनमोल रत्न है माँ।
ये जिन्दगी तेरे चरणों में समर्पित है माँ।
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आनंद कुमार सिंह
फिर एक ख़ामोशी है...
कभी जो बलखाती थी,
देखकर मुझे
उठती थी उस छोर से,
छूकर इस छोर पे,
गुनगुनाते हुए लौट जाती थी,
उन समंदर की लहरों में।
वो हवाओं का शोर,
अनलिखी यात्राएं
जो अधूरा रह गया,
समय की गति से बह गया,
वो अटूट बंधन वाला डोर,
आकिंचन छूट गए उन शहरो में।
फिर एक ख़ामोशी है...
ये कविता सा कुछ लिखने में,
समेटकर खुद को
किसी एक शब्द पे टिक जाने में,
छोटी सी कहानी में पूरा-पूरा लिख जाने में,
महबूब की गलियों में दुबारा दिखने में,
हर उस पल में, हर उस बूँद में।
अजीब से खालीपन में,
अधूरे-पूरे सपनों में
थोड़ा अंश, जो टंकित रह जाए,
स्याही की बूँद जिसको गाये,
जानी पहचानी डगर के ऐसे ही अनसुने एक 'छनछन' में,
हर उस खोने में, हर उस ढूँढ में।
फिर एक ख़ामोशी है...
जो बीत गए हैं,
शायद ही
उनतक फिर कभी लौटना हो,
उनमें फिर कभी झाँकना हो,
अवकाश में लिखे गए पर रीत गए हैं,
उन्हें सीने में कुछ इस तरह सहेज लेना था।
रूक जाता हूँ अब मैं,
बिदककर यूँ भी
अब कुछ रहा नहीं क्योंकि,
मैं हूँ, फिर भी नहीं क्योंकि,
बिखरकर टूटा हूँ अब मैं,
कि खुद को कदमों की गति में उकेर लेना था।
अब मैं हूँ और मेरे होने में,
फिर एक ख़ामोशी है...
फिर एक ख़ामोशी है...
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अशोक बाबू माहौर
दस हाइकु
बूँदें ओस कीं
छा रहीं घासों पर
गोल मटोल I
हवा छूकर
मदहोश हो रही
उडती फर I
खामोश डाली
ठहरी पल भर
फिर झाँकती I
हरित घास
सकुचाए मन सा
खड़ी मैदान I
कोयल काली
कूकी मधु आवाज
भा रही मन I
फूल बाग़ में
खूब खिले खिले से
ओढ़े चादर I
आज संताप
दूर भाग जा वहाँ
मैं हँसता हूँ I
सुबह धूप
करती विचरण
मेरी हथेली I
गीत गा उठा
मन मधुवन सा
ओढ़े दुशाला I
तितली वहाँ
फूलों पर बैठती
करती राज I
नाम- अशोक बाबू माहौर
जन्म -10 /01 /1985
साहित्य लेखन -हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न
प्रकाशित साहित्य-विभिन्न पत्रिकाओं जैसे -स्वर्गविभा ,अनहदकृति ,सहित्यकुंज ,हिंदीकुंज ,साहित्य शिल्पी ,पुरवाई ,रचनाकार ,पूर्वाभास,वेबदुनिया जय विजय अम्स्टेल गंगा आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित I
साहित्य सम्मान -इ पत्रिका अनहदकृति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान २०१४-१५ से अलंकृति I
अभिरुचि -साहित्य लेखन ,किताबें पढ़ना
संपर्क-ग्राम-कदमन का पुरा, तहसील-अम्बाह ,जिला-मुरैना (म.प्र.)476111
ईमेल-ashokbabu.mahour@gmail.com
9584414669 ,8802706980
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वसीम
‘प्रेम’
मैं अपने आप से दुखी हूँ
नहीं,
मुझे उसने ‘दुःख’ दिया है |
शायद, सांप डस सके मेरा यह दुःख
नहीं, ऐसा भी नहीं है|
गिद्ध नोच सकता है, मेरा दुःख
ना, ना वो भी नहीं|
पर, कविता तो उतार सकती है इस बोझ से
बिलकुल नहीं, उसके भी पास शब्द नहीं है
क्योंकि मेरे अंतर्मन से मिट गये अर्थ |
पुरुष बलवान होता है ?
बिलकुल, इतिहास गवाह है
‘झूठा’ है इतिहास
झूठी है ‘हीर-रांझा’, ‘मिर्जा-साहिबा’ की कहानियाँ
क्योंकि वर्तमान ऐसा नहीं है |
मेरा अतीत कुछ ही वर्षों का है
हो सकता है इसलिए झूठी लगती है ये कहानियाँ |
दफना दिया है अपने ‘अल्लाह’ को मैंने
क्योंकि कहानियों की तरह ये भी झूठा है|
अगर ‘गणित’ कल्पना होता
तो मान लेता ये सब सच है |
ऐसा था उसका ‘प्रेम’
जो बचा न सका ‘मुझको’ |
---वसीम
एम.ए हिंदी
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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अरबाब खान
झूठ का आफ़ताब भी है बहुत।
सच मगर लाजवाब भी है बहुत।
आ मिटा दूँ गमे रवायत सब,
मेरे दिल में शराब भी है बहुत।
आसमां छूने की तमन्ना है,
पर जमाना ख़राब भी है बहुत।
मैं न पहचान पाया की सबके,
चेहरे में नकाब भी है बहुत।
इस दफा मैं रुलाऊँगा उसको,
बाकि मेरा हिसाब भी है बहुत।
दर्द की तो कुछ अब करो बातें
इश्क़ वाले किताब भी है बहुत।
कल तुम्हें छोड़कर चले गए थे,
लोग वो कामयाब भी है बहुत।
काटों से दोस्ती शुभम् कर पर,
बाग में तो गुलाब भी है बहुत।
-शुभम् वैष्णव
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कविता 1-सपनों का सच
बादलों से ढका यह गगन
लग रहा था कितना निराला
इस सुहाने मौसम की सैर करने
निकला मैं मतवाला
ख्वाबों के पर लगे थे मेरे
उड़ रहा था परिंदो के झुरमट के संग
पतंगो की डोर से बचते-बचते
डर था कहीं कट न जाए मेरे पर
उड़ते-उड़ते जब नजर पड़ी
उन गगन छू रही इमारतों पर
और वो आसमान की छाती चीरते
इतने ऊँचे टावर
बड़ा हसीन था यह नजारा
इस दुनिया की करतूतों का
पहले इस जगह पर होते थे
खेत खलिहान और जंगल
उसी में बसता था हमारा मंगल
अब कहाँ होगा हमारा बसेरा
इस भीड़ भरे दंगल में
चलो कहीं ओर चलें
इस सुहाने मौसम की सैर करने ।।
कविता 2-.............बहुत है!
इस शहर में शोर बहुत है
पैसे वालों का जोर बहुत है
बातें तो ईमानदारी की हो रही
सेंध मारने को चोर बहुत है
ये पाउच खुली वार्निंग दे रहे
लेकिन खरीदने को नशाखोर बहुत है
अभियान तो स्वच्छता के चल रहे
फिर भी प्रदूषण चारों ओर बहुत है
सरकार ने बड़े नोटों पर बैंन लगा दी
मगर भ्रष्टाचार का दौर बहुत है
एकता बढ़ाने को काॅम्फ्रेस भी हो रही
लड़ाने को आदमखोर बहुत है
इस सिकूड़न में क्यों रह रहे हो
रहने को आगोर बहुत है
क्यों मर रहे हो इस अंधेरे में
चलो कहीं ओर चलें
जीने को भोर बहुत है
इस शहर में शोर बहुत है
पैसे वालों का जोर बहुत है।।
कविता 3-तू कभी ऐसा नहीं हो सकता
तू कभी ऐसा नहीं हो सकता
जैसा तुझे कहा जा रहा है
तू लाजवाब है
तू बेमिसाल है
अपने स्वार्थों को साधने के लिए
तुझे ऐसा बनाने की कोशिश की गई
तू कभी ऐसा नहीं हो सकता
ऐ भारत
तू दुनिया की शान है
तू मेरा अभिमान है
तूने दुनिया को सहिष्णु बनाया
तुझ में जन्म लेकर मैंने जो आदर पाया
तू कभी ऐसा नहीं हो सकता
ऐ भारत
उनको सत्ता की हबस है
या पैसे का लालच
जो तेरी परछाई बनकर भी
तुझे समझ नहीं पाये
उनकी वो भूख उन्हें समझने नहीं देगी
लेकिन
तू कभी असहिष्णु नहीं हो सकता
जैसा तुझे वो कहते हैं
ऐ भारत ।।
कविता 4-असफलता
ये असफलता कितना डराती है कितना सताती हैं
और यही सफल होने के रास्ते दिखाती है
क्या आपने देखा है कभी इसको
कितनी डरावनी सूरत है इसकी
क्या भयंकर तेवर है इसके
मरने को भी तैयार कर लेती है,
और हां
मैंने तो इसे दो लोगों के साथ गुफ्तगू करते सुना
एक को फाँसी का फंदा दिखा रही थी
दूसरे को सफलता के गुर बता रही थी
शायद यही काम है इसका
किसी को आसमान पर बिठाया
तो किसी को जमीन में दफनाया
और हां
अगर हिम्मत से काम लोगे तो तुम्हें
मंजिल का रास्ता यही बतायेगी
हिम्मत हार जाओगे तो
ये पैरों तले रौंदती रहेगी तुम्हें
जब तक तुम जिंदा रहोगे
अब अपना फैसला खुद करो।।
गजल 5- "वे"
मेहरूम हुए हम उनसे, हमारे मासूम ख्वाब दरिया में बह गये ।
उनकी जुदाई से दिले-ज्जबात खाली के खाली रह गये।।
कहां जाए हम अपना दर्दे-दिल मिटाने को।
यहाँ तो मेयखाने भी पानी में बह गये।।
यूँ हम अपने सीने में खंजर भी नहीं भोंक सकते।
क्योंकि हम फिर उनसे मिलने का वादा जो कह गये।।
जरा करीब से देखो हमारे दिले-जज्बातों को।
हमारे मन-ए-मुकद्दर के जिन्दा ख्वाब जल के रह गये।।
उनके दिले-हालात से हम वाकिफ तो नहीं मगर
हमारी आँखों से लहू के आँसू बह गये।।
नींद कहां से आएगी "अरबू" तुझे इन शबों में ।
कल रात ख्वाब भी तुझे बदकिस्मत कह गये।।
अरबाब खान
जिला - बाड़मेर , राजस्थान
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
मेरा गाँव
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मेरा गाँव है बड़ा सुहाना,
पीपल का है छांव पुराना।
जिसमें बैठे दादा काका,
ताऊ भैया और बाबा ।
तरह तरह की बातें बताते,
नया नया किस्सा सुनाते ।
कभी नहीं वे लड़ते झगड़ते,
आपस में सब मिलकर रहते ।
सुख दुख में सब देते साथ,
देते हैं हाथों में हाथ ।
चारों ओर है खुशियाँ छाई,
हिन्दू मुस्लिम भाई भाई ।
तीज त्योहार मिलकर मनाते,
आपस में हैं गले मिलाते ।
स्वच्छ सुंदर मेरा गाँव,
चारों ओर हैं पेड़ों की छांव ।
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रचना
महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम (छ ग )
पिन - 491559
मो नं -- 9993243141
Email - mahendradewanganmati@gmail.com
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ललित साहू "जख्मी" छुरा
सर्द-सर्द सा मौसम
इन बहती हवाओं में,
फिर वही खुशबू पसरी है।
लगता है आज भी हवायें,
उसे ही चूम कर गुजरी है।
इस सर्द मौसम में भी,
गर्माहट का अहसास है।
माना अब है ये दूरियाँ,
पर यादें तो मेरे पास है.!
सचमुच इतनी ही लंबी हैं?
या मेरे लिए लंबी हुई रातें।
आंखों से जुदा हुई निंदिया?
और सताती है उसकी बातें।
बिना तिनका चुभे ही,
आँखें छलक आई है।
दरो-दीवार में भी अब,
बस वही झलक पाई है।
फूलों पर शबनम की बूंदे,
मोतियों सी नजर आती है।
जब भी कोई पंखुडी हिले,
ओ अधरें याद आ जाती है।
...............................................
मांझी की वेदना पर राजनीति
आज एक मांझी क्या दिखा,
अचानक ही सब गाँधी हो गये।
बन के मांझी के शुभचिन्तक,
संवेदनाओं की आँधी हो गये।
मानवता का यह उफनता जोश,
मोबाईल तक ही थम जायेगा।
दौंड़ता रक्त,आँखों का आँखों में,
दो दिन में वापस जम जायेगा।
क्यों समझते हो मांझी एक है,
मांझियों की तो लंबी कतार है।
इंसानियत पर ऐसे किस्सों की,
अनगिनत सिसकियां उधार है।
जो बने रहे तमाशबीन परिदर्शक,
बेशक उन सबको ही धिक्कार है।
पर झुठा आँसू बहाने वाला भी,
निहायत ही दोगला है, मक्कार है।
हर रोज कोई असहाय मांझी,
अपनी संगिनी का लाश ढोता है।
बताओ सोशल मीडिया वालों,
उसके साथ खड़ा, कौन होता है?
तुम भी तो इंतजार करते रहते हो,
किसी की आबरु लूट जाने का।
अब क्यों सहानुभूति दिखाते हो,
किसी के सांसों के रुक जाने का।
बिन आक्सीजन के अस्पताल,
क्या तुम्हें कभी नजर नहीं आते?
कुछ लाशें यूं ही सड़ जाती है,
कोई उन्हें ले जाने तक नहीं आते।
महज मोबाईल की सोहबतियों से,
किसी मांझी का भला नहीं होगा।
यकीन नहीं, तो इतिहास देख लो,
बातों से ही, मुसीबत टला नहीं होगा।
.................................
काले धन का मुंह काला
देश मुश्किल दौर से गुजर रहा,
दिखते उबरने के कोई आसार नहीं।
उम्मीद की एक किरण नजर आई है,
ओ भी तुम्हें सहज स्वीकार नहीं।
यूं ही करते हैं देशहित की बातें,
एक दिन के भी त्याग को तैयार नहीं।
जो खुद हिस्सा हैं भ्रष्टाचार का,
उन्हें शोर मचाने का अधिकार नहीं।
खोखले हैं नारे, दूषित लगते इरादे,
तुम्हें राष्ट्रहीत से कोई सरोकार नहीं।
स्वार्थ सिद्धि में सारा देश बेच डाला,
तुम्हें मातृभूमि से तनिक भी प्यार नहीं।
महज काले धन पर नकेल कसी है,
बंद तो हुआ तुम्हारा कोई व्यापार नहीं?
ऐसे कदम न उठाये जाते तो कभी,
समृद्ध भारत का सपना होता साकार नहीं।
छलक रहा था सबके लालच का घड़ा,
थोडे में खुश होने को कोई तैयार नहीं।
मन भर के देख लो रुपयों का अम्बार,
फिर न कहना देश में धन का भंडार नहीं।
आते थे पाक से जाली नोटों के खेप,
कितना कब कैसा का कोई आकार नहीं।
ये बडी चोट महज है काले करतूतों पर,
भारत के प्रजातंत्र पर कोई प्रहार नहीं।
कभी नेता कभी ओट खरीदे जाते थे,
तब दिखा लोकतंत्र का प्रतिकार नहीं।
रक्तिम दौलत के हाथों सत्ता थी नाचती,
काले हाथों से फिसली कभी सरकार नहीं।
समर्थन करके तुम करोगे अपना हित,
करोगे देश पर कोई बडा उपकार नहीं।
कुछ दिन की ही सब तकलीफें सह लो,
ऐसा बदलाव होगा फिर बार बार नहीं।
...........................................................
महान राष्ट्र के महान नागरिक बनो
तुम कागजी नोटों के लिए खड़े हो,
महज आज ही इस लंबी कतार में।
उनका क्या? जो सीमा पर खड़े हैं,
अपनों से दूर,भारत माँ के प्यार में।
थियेटर,स्टेडियम,मयखाने के बाहर,
और कभी नायिका के इंतजार में।
खड़े-खड़े तब तुम्हें शर्म नहीं आती,
जब बिताते हो यूं ही वक्त बेकार में।
नकली नोटों का यह खेल पुराना,
चल रहा था कबसे इस बाजार में!
जाने-अनजाने हम भी शामिल थे,
आतंकियों के खूनी अत्याचार में।
असली बंदूकें और ये गोले बारुद,
आये हैं जाली पाँच सौ-हजार में।
और देश दबा है हमारे ही खातिर,
विदेशी बैंकों के कर्ज उधार में।
उठो खड़े हो जाओ एक साथ सभी,
जोश दिखाओ अपनी ललकार में।
बुरे वक्त में अपने ही काम आते हैं,
क्या रखा है मतलब के व्यापार में।
कब तक खिंचोगे यूं ही सबकी टांगे,
विनम्रता लाओ अपने व्यवहार में।
महान राष्ट्र के महान नागरिक बनो,
वृहदता लाओ, हृदय के आकार में।
माना की हर राजनीतिक चालों में,
हर बार कमजोर ही पीसे जाते हैं।
पर राष्ट्र परिवर्तन का ऐसा दौर भी,
सदियों में कभी-कभी ही आते हैं।
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आओ पहल करें
आओ पहल करें,
खुशहाली के दीप जलाने का।
शत्रु को गले लगाकर,
रंजिश मन से मिटाने का।
आओ पहल करें,
एक सूत्र में बंध जाने का।
दुश्मन जो आंख दिखाये,
आगे डट कर तन जाने का।
आओ पहल करें,
विदेशी त्याग स्वदेशी अपनाने का।
संस्कृति की हद में रह कर,
सौम्य सहज त्योहार मनाने का।
आओ पहल करें,
वास्तविक भारतीय कहलाने का।
मन, वचन, कर्म से,
अपना हर कर्तव्य निभाने का।
आओ पहल करें,
सुदृढ़ समाज बनाने का।
नशे जुएं जुर्म से बचकर,
'एक' समृद्ध भारत बनाने का।
आओ पहल करें,
खुशहाली के दीप जलाने का।
प्रकृति को ध्यान रख कर,
पारंपरिक दीवाली मनाने का।।
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मैं हूं भारत का सच्चा सिपाही..
जगी है उम्मीदों की नई किरण,
अब संस्कृति का जतन चाहिए।
ना हो खंडित आस्था किसी की,
और ना ही दंगों का तपन चाहिए।
मैं हूं भारत का सच्चा सिपाही,
मुझे सुरक्षित मेरा वतन चाहिए।
मतलब की सब राजनीति छोड़,
वन्दे मातरम् का रटन चाहिए।
ना हो कुंठित ये समाज हमारा,
ना ही संस्कारों का पतन चाहिए।
मैं हूं भारत का सच्चा सिपाही,
मुझे सुरक्षित मेरा वतन चाहिए।
आतंक को कर जड़ से खातमा,
शांति का खूबसूरत चमन चाहिए।
द्वेष-रंज मिटा कर दिलों से अपने,
समूचे अपराधों का दमन चाहिए।
मैं हूं भारत का सच्चा सिपाही,
मुझे सुरक्षित मेरा वतन चाहिए।
हो मार्ग प्रशस्त अब नवांकुरों का,
उनमें से ही अनोखा रतन चाहिए।
अपने-अपनों का रक्त बहुत पी चुके,
अब इस तृष्णा का शमन चाहिए।
मैं हूं भारत का सच्चा सिपाही,
मुझे सुरक्षित मेरा वतन चाहिए।।
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वृक्ष हैं तब हम हैं
मरूथल ही न हो जाये,
ये प्राण दायनी वादियाँ।
रोक कर कुल्हाड़ीयाँ,
वनों का पतन बचा लो।
जान तुम्हारी ही नहीं,
जान उसकी भी तो है.!
लगा कर कुछ पेड़ ही,
अपना ये चमन बचा लो।
धरा भी अब कह उठी,
ना करो दामन दागदार।
तोडो लालच की बेडीयाँ,
अपना ये वतन बचा लो।
बेगुनाह मुर्दों को भी अब,
लकडियां नसीब नहीं।
मक्कारी के इस दौर में,
साबूत कफन बचा लो।
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नोटबंदी में शादी की चिंता पर मेरी रचना..
चिन्ता है तुम्हें दिखावे में किये बड़े खर्च की,
अरे.! शादियाँ तो दो मालाओं से हो जाती है।
उनकी चिन्ता कौन करे? जिनकी लाज,
हैवानों के बिस्तर में कुचली जाती है।
पहले तो ऐसे शैतान हाथ ही नहीं आते हैं,
और हाथ आ भी गये तो यूं ही छूट जाते हैं।
जब कोई अबला के हक में न्याय माँगे जाते हैं,
खरीदी गवाही से हैवान,मुकदमे जीत जाते हैं।
भ्रष्ट करतूतों पर,जब मौन तुम्हारा होता है,
उनके कालेधन का मजबूत पिटारा होता है।
सोचो फिर कैसे हमारी बहन बेटियों का,
सूनी राहों पर,डर-डर के गुजारा होता है।
फीका ही सही,पर बारात तो जा सकते हो,
ऐसे हालातों में,भी धर्म निभा सकते हो।
जाली नोटों से आतंकी आँख दिखाते हैं,
टूटती हैं चूड़ियाँ, माँग सूने हो जाते हैं।
चलो सब मिल जावानो का हौसला बढाते हैं,
हर मुसीबत झेलकर भी वंदे मातरम गाते हैं।।
ललित साहू "जख्मी" छुरा
जिला - गरियाबंद (छ.ग.)
इस माह की कविताओं मे अगर हर कविता के सामने उसे रेट करने के लिए बाक्स हो तो बेहतर रहेगा . एक पेज पूरा पढ़ लेने के बाद मूल्यांकन करने पर पहली कविता क्या थी और किस की थी याद रख पाना मुश्किल होता है. मेरा सुझाव है अगर यह किया जा सकता है तो और समीक्षकों के लिए भी बेहतर होगा . सुशील शर्मा की शारदे माँ , कैलाश मंडलोई की अनुभव, विनोद कुमार दुबे की डूबता छोड़ जाता है, राधे श्याम कुशवाहा की नाराज़ सी लगाने लगी है अब और अभिषेक उपाध्याय और शुभम वैष्णव की ग़ज़ल बहुत अच्छे लगे . सभी की ढेरों बधाइयां .
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