बड़ी हवेली अचानक सिहरन महसूस होने पर मीनाक्षी आरामकुर्सी से उठती है और पास पड़े मोबाईल को ऑन कर टाइम देखती है ,अरे सात बज गए पता ही नहीं चला ...
बड़ी हवेली
अचानक सिहरन महसूस होने पर मीनाक्षी आरामकुर्सी से उठती है और पास पड़े मोबाईल को ऑन कर टाइम देखती है ,अरे सात बज गए पता ही नहीं चला मन ही मन बुदबुदाते हुए अपने खुले बालों को समेटते हुए ज्यों ही ऊपर देखती है तो खुले आसमाँ में झिलमिलाते हुए तारो को देख वापस अपनी कुर्सी पर बैठ जाती है और अपलक इस खूबसूरती को निहारते हुए सोचती है ऐसी ही एक शाम देख कर तो उसने अपनी एक छोटी सी नज़्म राजेश के लिए लिखी थी ।
सच उस वक़्त लिखने के लिए शब्द भी थे और वज़ह भी ।अब तो मुद्दतें हुई कलम को उठाए हुए हाँ पर्चियों पर दवा लिखने के लिये वैसे तो दिन में कई बार उठती है ।
ये अचानक मैंने राजेश का नाम कैसे ले लिया ,जिस शख्स को और उससे जुड़ी हर याद को बरसो पहले दफ़्न कर चुकी हूँ।
फिर यकायक ये नाम मेरे ज़हन में कैसे आ गया आज ?
हल्की ठण्ड सी महसूस होने पर अपने दुपट्टे को फैला कर ओढ़ते हुए वापस अपनी आराम कुर्सी पर पसर गई और सोचने लगी कि छत पर आयी तो ढ़लते सूरज को देख कुछ फैसला करने थी लेकिन फैसला करते करते अतीत के कितने पन्नों को पलट दिया मैंने ।
खैर जो भी हो साँवली जाना तो तय हुआ मेरा कितने दिन हो गए थे फ़ैसला नहीं कर पा रही थी कि वहां जाऊं या नहीं , ऐसा ही होता था अक्सर जब भी ज़िन्दगी में कोई परेशानी होती थी या कोई फैसला नहीं ले पाती थी तो छत पर जा ढ़लते सूरज को देखा करती थी और उस वक़्त जो भी मन कह देता था बस वही मेरा फ़ैसला हो जाया करता था ।
आप यहाँ सर्दी में क्या कर रही हो माँ कन्नू ने मेरे हाथों को पकड़ते हुए कहा ,कुछ नहीं बस अच्छा लग रहा था सो बैठ गई थी ,चलो नीचे चलते है मैंने उठते हुए कहा ।
जब हम सीढ़ियां उतरते हुए नीचे आ रहे थे तो कन्नू बोला मम्मा दो दिन बाद मेरा जन्म दिन आ रहा है और मैं अठारह साल का हो जाऊँगा और आप मुझे बाइक दिलवा रही हो इस बार याद है न आपको , तभी बीच में माँ की आवाज़ आती है अरे क्या याद दिलवा रहा है अपनी माँ को तू , आजकल तेरी माँ को न जाने क्या हो गया है उसे तो चाय पीना भी याद नहीं रहता ,देखो शाम चाय बना के दी अब तक टेबल पर ही रखी है ।ओह माँ सॉरी सच में याद ही नहीं रहा बस हस्पताल से आ चेंज कर सीधा छत पर चली गई और चाय पीना भूल गई ।पूरा दिन दौड़ भाग करती रहती हो कुछ समय खुद को भी दिया करो चलो आ जाओ खाना खा लो कहते हुए माँ डाइनिंग टेबल पर खाना लगाने लगी ।बस पाँच मिनिट में एक फोन कर के आती हूँ कहते हुए मीनाक्षी अपने कमरे में चली गई और जो लैटर साँवली से आया था से फोन नं ले तीन दिन बाद पहुंचने की सूचना दे देती है । कन्नू का जन्मदिन मना के बस निकल जाऊंगी अगले दिन । खाना खाते हुए माँ से कहती है तो माँ कुछ उदास होते हुए सिर्फ इतना ही कहती है कि,आखिर तय कर लिया तुमने तो मानोगी नहीं , वैसे भी तुम वहीँ करोगी जो तुम चाहोगी ।
एसी बात नहीं है माँ बहुत सोच के ये फ़ैसला किया है वहाँ पैसा अच्छा मिल रहा है ,फिर अब कन्नू भी बड़ा हो गया है ,वक़्त के साथ साथ खर्चे भी तो बढ़ रहे है ।फिर समय समय पर आती रहूंगी तुम लोगों के पास हमेशा के लिए थोड़े ही जा रही हूँ ।
साँवली के लिए सीधी ट्रैन नहीं थी , उसांगढ़ से बस या जीप मिलेगी जो दो घंटे में साँवली पहुँचा देगी फोन पर ये ही बताया था ।
टिकिट ले ट्रेन में बैठी तो देखा ज़्यादा भीड़ नहीं थी खिड़की की तरफ बैठ स्टेशन को गौर से देखने लगती हूँ कि पता नहीं अब वापस कब आना होगा । सही समय पर ट्रेन रवाना हो चुकी थी और जैसे जैसे ट्रेन रफ़्तार पकड़ अपने गंतव्य की और बढ़ रही थी ,मीनाक्षी उतना ही पीछे अपने अतीत में गोते लगा रही थी ।
यदि राजेश उस वक़्त अपने घर वालों से मुझे मिलवा देता ,मुझसे शादी कर लेता तो आज शायद मैं ये सफ़र नहीं कर रही होती । कितनी बातें ,कितने वादे किए थे साथ जीने मरने के , कितनी कसमें खाई थी एक दूसरे के बग़ैर न जीने की ।
और आज देखो एक दूसरे के बग़ैर ......लंबी साँस लेते हुए मन ही मन सोचती है वक़्त भी कहां से कहां ले आता है ।
काश ! उस रात मैं राजेश के यहाँ न रूकती तो अच्छा होता ,हमेशा की तरह अपने हॉस्टल से शाम उससे मिलने गई थी अचानक मौसम खराब हो गया था और बारिश थी की रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी ,हालाँकि कहा था मैंने राजेश से जाने के लिए पर अपना वास्ता दे कर ,मुझ पर विश्वास नहीं तुमको न जाने क्या क्या कह कर रोक लिया था । नियति में शायद लिखा था यही सब होना ,और जब मैंने राजेश से अपनी प्रेग्नेंसी को लेकर शादी की बात की तो वो अभी तैयार नहीं था इसके लिए उसे वक़्त चाहिए था ,वो जमींदार राईस खानदान से था और उसका कहना था कि उसके घर वाले एकदम इस शादी के लिए तैयार नहीं होंगे ,उसने अबॉर्शन के लिए दबाव डाला जबकि मैं इसके खिलाफ थी ।
यदि मैं उस वक़्त राजेश का कहा मान लेती तो मेरा प्यारा कन्नू ,उसके प्यार से मैं वंचित रह जाती ।
राजेश और उसकी दुनिया से दूर ,अपने घर वालों के खिलाफ जा कर मैंने अकेले ही कन्नू को इस दुनिया में लाने का फ़ैसला किया था ,और आज मुझे अपने उस फ़ैसले पर फक्र है ।हालाँकि कन्नू के जन्म के साथ साथ नर्सिंग की पढाई फिर नौकरी बहुत परेशानियां आयी ज़िन्दगी में लेकिन वात्सल्य प्रेम के आगे ये सब बौनी साबित होती गई ।वक़्त गुज़रता जा रहा था और इन्हीं सब के बीच पिता के चले जाने से माँ भी अकेली हो गई थी ,जो अब मेरे साथ थी ।
मैं ,कन्नू और माँ बस यही संसार था या कहूँ यही मेरी ज़िंदगी थी ।
अचानक चाय वाले की आवाज़ से चौक जाती हूँ ,हड़बड़ाती हुई चाय वाले से पूछती हूँ भइया कौन-से स्टेशन पर रुकी हुई है ये ट्रेन लेकिन वो सुन कर भी मेरे प्रश्न को अनसुना करता ,अपनी चाय बेचने में व्यस्त ,मैं उठ कर बाहर जाती हूँ और डिब्बे के गेट पर खड़े लोगों से स्टेशन के बारे में पूछती हूँ तो एक जवाब देता है कोसी आया है ।मैं अपनी सीट पर आ निश्चिंत हो बैठ जाती हूँ अभी दो और स्टेशन आएंगे उसके बाद उंसागढ़ है , साथ ही मन में अजीब सा भय भी की अँधेरा होने वाला है क्या साधन होगा कैसे जाऊंगी । अनजान जगह है ,अनजान लोग है ।क्या मेरे पास जो फोन नं है उस पर फोन करू ,इसी उहापोश में न जाने कब उंसागढ़ आ गया पता ही नहीं चला ,मैं तेजी से अपना सामान उठा ट्रेन से नीचे उतरती हूँ ।
स्टेशन छोटा होने के कारण ट्रेन बहुत कम समय के लिए रूकती थी ।अपने सामान के साथ प्लेटफार्म पर खड़ी सोच रही थी कि अब कहा कैसे जाया जाए कि , तभी पीछे से आवाज़ आती है मैडम नयी लगती है शायद पहली बार आयी है यहाँ । मैं पीछे मुड़ कर देखती हूँ शायद गार्ड होगा हाथ में हरी ,लाल झंडियां लिए खड़ा मुस्कुरा रहा था ।मैंने जब साँवली जाने का रास्ता ,साधन का पूछा तो जवाब मिला, एक बस जाती है दिनभर में जो दिन में निकल गई ,अभी लास्ट एक प्राइवेट जीप है जो सवारियों को ले के जायेगी ।स्टेशन के बाहर आकर जीप को तलाशने में जरा सी भी परेशानी नहीं हुई क्योंकि एक मात्र जीप ही खड़ी हुई थी जिसमे दो , चार सवारियां बैठी थी ।
मैंने जीप वाले को एड्र्स बता के समान रखा और अंदर जा के बैठ गई ।इसी बीच मैंने उन लोगों को भी फोन पर सूचना दे दी की कुछ ही देर में ,मैं वहाँ पहुंच रही हूँ ।कुछ देर इंतज़ार कर जीप वाले ने अपनी जीप एक टूटी फूटी सड़क पर दौड़ा दी ,कही खेतों के बीच से तो कही पगडण्डियों पर दौड़ाता हुआ अँधेरा होने से पहले उसने मुझे मेरे बताये एड्र्स पर उतार दिया ।
अपने सामान के साथ खड़ी मैं चारों और नज़र दौड़ाती हूँ तो सुकून सा महसूस हुआ , हराभरा छोटा सा गाँव , भले से दिखने वाले लोग छोटे ,छोटे से घर । तभी सामने से एक बुजुर्ग व्यक्ति धोती कुर्ता पहने ,सर पर पगड़ी बाँधे बड़े अदब से अभिवादन करते हुए पूछता है ,क्या आप सेठ अमर प्रसाद जी के यहाँ आयी है ? मैंने हाँ में अपना सर हिला दिया तो उसने मेरा सामान उठा के साथ चलने को कहा , मैं भी उनके पीछे पीछे हो ली ।आप का नाम क्या है बाबा और हमे कितनी दूर जाना होगा मेरे सवाल पर वो मुसकुरा दिए ,की मेरा नाम हँसी राम है और सड़क पार जो बड़ी हवेली दिख रही है बस यहीं तक ।
उनका जवाब सुन मैं भी हँसे बगैर नहीं रह सकी क्योंकि हम सड़क पार कर हवेली के सामने थे ।
आलीशान हवेली किसी राजा के महल की तरह, रौशनी से नहाई हुई
इसके भीतर आ कर एक पल को भी नहीं लग रहा था कि इतने छोटे गाँव में ये खूबसूरत हवेली होगी ।
आपको रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई , एक भारी आवाज़ को सुन कर चौक जाती हूँ . मैं नहीं कहते हुए खड़ी हो रही होती हूँ कि वो बैठने को बोल देते ,मैं प्रणाम कहते हुए अपने दोनों हाथों को जोड़ देती हूँ , जीती रहो के साथ बेटी शब्द सुन कर अच्छा लगा । मेरे साथ चाय पीते हुए उन्होंने अपने बेटे के बारे में सब कुछ बताया जिनकी देखभाल के लिए मैं यहाँ आयीं हूँ ।
बातों बातों में उन्होंने बताया कि पंद्रह साल पहले एक हादसे में उनका बेटा राज अपना मानसिक संतुलन खो चुका था अपाहिज़ की तरह बिस्तर पर है ।
अभी तक उसकी माँ ज़िन्दा थी तो वो उसकी देखभाल करती थी ,लेकिन दो महीने पहले वो भी इस दुनिया को छोड़ कर चली गई ।इस लिए अब उनके बेटे राज की देखभाल के लिए एक नर्स की ज़रूरत है जो दिन रात उसे संभाल सके ।
मुझे उम्मीद है बेटी तुम मेरे राज की अच्छे से देखभाल करोगी ।
मैंने भी हामी में सर हिला दिया ।
अभी तुम आराम कर लो सफर में थक गई होंगी , कल सुबह से राज तुम्हारी जिम्मेदारी होगा ।
हँसी राम बाबा ने मुझे मेरा कमरा दिखा दिया ,जो बेहद खूबसूरत था पीछे बालकनी से पूरे गाँव का व्यू दिखाई दे रहा था ।
मेरे कमरे में ही खाना , पानी रखते हुए बाबा हिदायत दे रहे थे की इसे अपना ही घर समझना और किसी भी चीज की ज़रूरत हो तो बे झिझक कह देना ।
खाना खा के कब सो गई पता ही नहीं चला ,दरवाजे खटखटाने की आवाज़ से जागते हुए दरवाज़ा खोला तो सुबह की राम राम के साथ सामने बाबा चाय लिए खड़े थे ।
आधा घंटे में ,मैं तैयार हो कमरे से बाहर आई तो सेठ अमर प्रसाद मानो मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे ,मुझे देखते हुए बोले रात नींद तो आ गई थी बेटा नयी जगह ,नए लोगों के बीच अक्सर नहीं आती ।मैंने कहा नहीं ऐसा कुछ नहीं है मुझे ऐसी कोई परेशानी नहीं हुई ।
आओ तुमको राज से मिलवाता हूँ , कह कर वो ऊपर की और सीढ़िया चढ़ने लगे और मैं भी उनके पीछे पीछे चलने लगी ।
कमरे के ताले को खोलते हुए वो कह रहे थे अब बहार से ताला लगाना पड़ता है ,पहले माँ थी इसकी तो ज़रूरत नहीं पड़ती थी ,क्योंकि वो पूरा दिन राज के ही पास रहा करती थी । अब तुम अपने हिसाब से देख लेना जैसे ठीक समझो करना .व्हील चेयर पर एक कृष काया जिसके बाल बे तरतीब से बढ़े हुए दीवारों को घूरता हुआ शांत बैठा हुआ था ।
पास जा कर उसके चेहरे पे पड़े बालों को पीछे कर जब गौर से देखती हूँ तो ......चक्कर सा आने लगा था मुझे ..... मेरे चारों ओर अँधेरा सा छाने लगा था , कुछ बोलना चाह रही थी पर शब्द नहीं निकल रहे थे मुँह से ...
लगातार आँसू निकल रहे थे जो एक ही नाम पुकार रहे थे ... राजेश ।
ये तो राजेश है ,मेरा राजेश जो अठारह साल पहले मुझे छोड़ के चला गया था ,हमेशा हमेशा के लिए ।
। मैं पलट कर सीढ़ियों की तरफ दौड़ती हूँ , अपने कमरे से सामान को समेट बाहर आ सेठ अमर प्रसाद को रुंधे गले से बस इतना ही कह पाती हूँ कि मैं आपके राज की देखभाल नहीं कर सकूंगी ....नहीं कर सकूंगी ,और हवेली के बाहर निकल पड़ती हूँ ।
सुमन गौड़
बनस्थली
COMMENTS