||श्रीराम|| श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग : द्वापर युग में श्रीकृष्ण ,हनुमान्, एवं अर्जुन का रामसेतु प्रसंग डॉ.नरेन्द्र...
||श्रीराम||
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग:
द्वापर युग में श्रीकृष्ण ,हनुमान्, एवं अर्जुन का
रामसेतु प्रसंग
डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति
हनुमान्जी त्रेतायुग से द्वापर युग में तथा आज भी श्रीराम जहाँ कहीं हो, किसी न किसी रूप में उपस्थित रहते ही हैं । श्री वाल्मीकीय रामायण में इसका वर्णन इस प्रकार है -
यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले ।
तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशयः ॥
यावत् तव कथा लोके चिररिष्यति पावनी ।
तावत् स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन् ॥
श्री.वा.रा.उत्तरकाण्ड 40-17, 108-35
हनुमान् ने श्रीरामजी से कहा - हे राम ! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहें तब तक निःसंदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहेगें । भगवान् ! संसार में जब तक आपकी पावन कथा का प्रचार रहेगा , तब तक आपके आदेश का पालन करता हुआ मैं इस पृथ्वी पर रहूँगा ।
प्रस्तुत कथा आनन्दरामायण के मनोहरकाण्ड के सर्ग -28 में हैं श्रीकृष्णजी की यह कथा द्वापर युग के अन्त की हैं । एक दिन श्रीकृष्णजी को छोडकर अकेले अर्जुन वन में शिकार खेलेने गये और धूमते-घूमते दक्षिण दिशा की ओर चले गये । उस समय सारथी के स्थान पर वे स्वयं थे और घोडों को हाँकते हुये चले जा रहे थे । इस प्रकार वन में धूम-धूम कर मध्यान्ह के समय तक उन्होंने बहुत से वन्य-प्राणियों का शिकार किया । इसके पश्चात् स्नान करने की तैयारियाँ करने लगे । स्नान करने के लिये वे सेतुबन्ध रामेश्वर के धनुषकोटितीर्थ पर गये वहाँ स्नान किया और कुछ गर्व से समुद्र के तट पर धूमने लगे । तभी उन्होने एक पर्वत के ऊपर साधारण वानर का स्वरूप धारण किये हुए हनुमान्जी को देखा उस समय हनुमान्जी राम नाम जप रहे थे ।
हनुमान् केे शरीर पर पीतवर्ण के रोमों की शोभा हो रहीं थी । तब अर्जुन ने हनुमान्जी से पूछा - हे वानर ! तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? तब हनुमान् बोले - मैं वहीं वायु का पुत्र हनुमान् हूँ जिसके प्रताप से रामचंद्रजी ने समूद्र पर सौ योजन विस्तृत सेतु बनाया था । तब हनुमान् की गर्वपूर्ण उक्ति को सुनकर अजुुर्न ने भी गर्व से हँसकर कहा कि-राम ने इतना कष्ट व्यर्थ ही क्यो उठाया था । उन्होने बाँणों का सेतु बनाकर अपना कार्य क्यों नहीं कर लिया ?
तब अर्जुुर्न की यह बात सुनकर हनुमान् ने कहा-बाणों का सेतु हम सब विशालकाय वानरों का भार वहन नहीं करता । यहीं सोच विचार कर श्रीराम ने ऐसा नहीं किया । तब अर्जुन ने कहा - हे वानर सत्तम ! यदि वानरों के बोझ से सेतु डूब जाने का भय हो तो उस धनुर्धारी की धनुर्विद्या की क्या विशेषता रहीं । अभी इसी समय मैं अपने कौशल से बाणों का सेतु बनाये देता हूँ । तुम उसके ऊपर आनन्द से नाचो कूदो। इस प्रकार मेरी धनुर्विद्या का नमूना भी देख ही लो।अर्जुन की ऐसी बात सुनकर हनुमान्जी मुस्कराते हुए कहने लगे यदि मेरे पैर के अंगूठे के बोझ से ही आपका बनाया सेतु डूब जाय तो क्या करियेगा? हनुमानजी की बात सुनकर अर्जुन ने कहा कि यदि तुम्हारे भार से सेतु डूब जायेगा तो मैं चिता जलाकर उसी आग में जल मरूँगा। अच्छा अब तुम भी कोई बाजी लगाओ। अर्जुन की बात सुनकर हनुमान्जी कहने लगे यदि मैं अपने अंगूठे के भार से तुम्हारे बनाये सेतु को न डूबा सकूँगा तो तुम्हारे रथ की ध्वजा के पास बैठकर जीवनभर तुम्हारी सहायता करूँगा।‘‘ अच्छा यही सही’’ ऐसा कहकर अर्जुन ने अपने धनुष का टंकोर किया और अपने बाणों के समूह से बहुत अल्प समय में एक सुद्ढ़ सेतु बनाकर तैयार कर दिया । उस सेतु का विस्तार सौ योजन था और वह समुद्र के ऊपर ही एक छोर से दूसरे छोर तक मिला हुआ था। उस सेतु को देखने के पश्चात् हनुमान्जी ने उसे अपने अँगूठे के भार से ही समुद्र में डूबो दिया ।
उस समय देवताओं सहित गंधर्वो ने हनुमान्जी पर पुष्प वर्षा की । फिर तो हनुमानजी के इस कर्म से दुःखी (खिन्न) अर्जुन ने समुद्र तट पर अपनी चिता तैयार की तथा हनुमान्जी के रोकने पर भी वे उसमें जलने चले
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णस्तं प्राह बटुरूपघृक् ।
ज्ञात्वाऽअर्जुनमुखात्सर्वं पूर्ववृत्तं पणादिकम् ॥
उभाभ्यां यद्यच्चरितं पूर्वं तच्च वृथा गतं ।
साक्षित्वेन बिना कर्म सत्यं मिथ्या न बुध्यते॥
श्रीआनन्दरामायण मनोहरकाण्ड सर्ग 18/26-27
इतने में एक ब्रह्मचारी का रूप धारण कर श्रीकृष्णजी वहीं आ पहुँचे और अर्जुन से पूछा-हे भाई! तुम इस चिता में क्यों कूदने जा रहे हो ? अर्जुन ने हनुमान् से पूर्व में हुई सब बातें बतला दी। तब उस ब्रम्हचारी ने कहा-तुम दोनों की बातों में कोई साक्षी(गवाह) नहीं है। इसलिये तुम्हारी इन बातों में कोई तथ्य नहीं है क्योकि बिना साक्ष्य (गवाह) के सच्चाई और झूठ का कोई अंत नही होता हैं । अब इस समय मैं ही तुम्हारे साक्ष्य के रूप मे उपस्थित हूँ । यदि तुम दोनो पूर्ववत् फिर से उसी प्रकार की बातें और कार्य करो तो मैं तुहारे कर्मो को देखकर जय-पराजय का निर्णय कर सकता हूँ । ब्रह्मचारी की बात सुनकर दोनों ने कहा ठीक हैं और अर्जुन ने पूर्ववत् सेतु की रचना की। अब की बार सेतु के नीचे भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र लगा दिया। सेतु तैयार होने पर हनुमान् जी पूर्ववत् अपने अँगूठे के भार से उसे डूबोने लगे । जब हनुमान्जी ने इस बार सेतु को मजबूत देखा तो पैरों, धुटनों तथा हाथों के बल से उसे दबाया किन्तु सेतु जौ के दाने के बराबर भी नहीं डूबा ।
शांत होकर हनुमान्जी ने विचार किया कि पहले तो मैने सेतु को अंगूठे के ही बोझ से डूबो दिया था तो फिर यह हाथ पैर आदि पूरे शरीर के बोझ से भी क्यों नही डूबता ? इसमें ये ब्रह्मचारी ही कारण है । ये ब्राह्मण नहीं वरन् साक्षात् कृष्णचंद्रजी है और मेरे गर्व का परिहार (भंग) करने के लिये ही इन्होंने ऐसा किया है । वास्तव में हैं ऐसा ही । भला इन भगवान् के सामने हम जैसे वानर का सामर्थ्य ही क्या है ? ऐसा निश्चय करके हनुमान्जी ने अर्जुन से कहा कि आपने इन ब्रह्मचारी की सहायता से मुझे पराजित कर दिया है । ये बटु नहीं साक्षात भगवान् है। इन्होने सेतु के नीचे अपना सुदर्शन चक्र लगा दिया है । हे अर्जुन ! हमें यह बात ज्ञात हो गई है कि ये आपकी सहायता के लिये हीं यहाँ आये हैं ।
स्वत्साहाय्यार्थमायातःसत्यं ज्ञातो मयाऽर्जुन ।
अनेन रामरूपेण त्रेतायां में वरोऽपितः ॥
श्री आनन्दरामायण मनोहरकाण्ड सर्ग 18-37
यही रूप धारण करके त्रेता में हमें वरदान दिया था कि द्वापर के अंत मेें तुम्हें कृष्णरूप से दर्शन दूँगा । आपके सेतु के बहाने इन्होंने अपना वरदान भी पूरा कर दिया । हनुमान्जी अर्जुन से ऐसा कह ही रहे थे कि इतने में भगवान् ने अपना बटुरूप त्यागकर कृष्ण बन गये। उस समय वे पीले वस्त्र पहने थे और नवनीरद् के समान उनका श्याम शरीर था। उन कृष्णचंद्रजी का दर्शन करते हुऐ ही हनुमान्जी के रोंगटे खड़े हो गये तथा हनुमान् जी ने श्रीकृष्णजी को साष्टांग प्रणाम किया। जब श्रीकृष्ण ने हनुमान्जी को उठाकर अपने हृदय से लगाया तब हनुमान्जी ने अपने को कृतकृत्य मान लिया। श्रीकृष्णजी की आज्ञानुसार सुदर्शन चक्र सेतु के नीचे से निकलकर अपने स्थान पर चला गया । अर्जुन द्वारा निर्मित सेतु समुद्र की तरंगों में लुप्त हो गया ।
तदाऽर्जुनो गर्वहीनों मेने कृष्णेण जीवितः।
कृष्णस्तदाऽर्जुनं प्राह त्वया रामेण स्पर्द्धितम् ॥
श्रीआनन्दरामायण मनोहरकाण्ड सर्ग 18-42
इस प्रकार अर्जुन का गर्व नष्ट हो गया और उन्होने समझ लिया कि श्रीकृष्णजी ने ही उसे जीवित रख लिया कुछ देर बाद। कुछ देर बाद श्रीकृष्णजी ने अर्जुन से कहा कि तुमने राम के साथ स्पर्धा की थी। इसलिये हनुमान्जी ने तुम्हारी धनूर्विद्या को व्यर्थ कर दिया। इसी प्रकार हे पवनसुत ! तुमने भी श्रीराम से स्पर्धा की थी । इस कारण तुम अर्जुन से परास्त हुए । तुम्हारा भी गर्व नष्ट हो गया । अब आनन्द पूर्वक मेरा भजन करो । ऐसा कह कर और हनुमान्जी से पूछकर श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ हस्तिनापुर चले गये। इसी कारण अर्जुन के ध्वज पर हनुमान् विराजमान दिखाई देते है । यह प्रतीक है हनुमान् अर्जुन की गर्वोक्ति का परिणाम है ।
गर्व विनाश का कारण बनता है । इस सृष्टि में मनुष्य को जो कुछ भी बल बुद्धि शक्ति प्राप्त है , सब प्रभु की ही कृपा हैं । श्रीराम हो या श्रीकृष्ण दोनो एक ही हैं । ईश्वर का अवतार मानव कल्याण के लिये होता है । इसीलिये गोस्वामीतुलसीदाजी ने कहा है -
राम चरित अति अमित मुनीसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड 104-2
डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
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